सोमवार, 5 जनवरी 2009

राष्ट्रीय नेतृत्व का संकट

बड़े अफसोस की बात है कि राष्ट्र आज जिस संकट की घड़ी से गुजर रहा है, उसके प्रति न तो राष्ट्र का नेतृत्व, न साहित्यकार, न मीडिया और न ही बुद्धिजीवी संवेदनशील है। लगता है सभी संवेदनहीन हो चुके हैं, शून्य हो चुके हंै। देश में बड़ा से बड़ा हादसा हो जाता है, क्षण भर के लिये रेडियो व टी0 वी0 अपनी जानी-पहचानी आवाज में उसे खबरों का रूप दे देते हंै , अखबार वाले अपने पन्ने रंग देते हैं, फिर आया-गया हो जाता है।, लोगबाग भूल जाते हैं, कारण कि इस देश की जनता का भुलक्कड़पन पुराना है। यद्यपि कि इसमें जनता का दोष नहीं, बल्कि दोष तो राष्ट्रीय कर्णधारों का है, जिन्होंने समाज का माहौल और संस्कार ही ऐसा निर्मित कर दिया है कि इसके सिवा कुछ नहीं हो सकता।

दरअसल बात यह है कि राष्ट्र के शिखर नेतृत्व की नीयत साफ नहीं है या यूँ कहिये कि आज का नेतृत्व राष्ट््र के प्रति समर्पित न होकर बल्कि राष्ट्र को ही अपने प्रति समर्पित मान लेता है। यही कारण है कि नेतृत्व पर आया संकट राष्ट्र का संकट मान लिया जाता है एवं नेतृत्व का हित राष्ट्र का हित मान लिया जाता है। ऐसे में जब देश के सभी बड़े राजनैतिक दल खुद ही नेतृत्व को लेकर संकट में हैं, उनसे सक्षम नेतृत्व की आशा करना ही व्यर्थ है। देश पर सबसे लम्बे समय तक शासन करने वाली कांग्रेस पार्टी का हाल देखें तो स्वयं महात्मा गाँधी ने आजादी पश्चात कांग्रेस को भंग करने की बात कही थी क्योंकि उन्हें आजादी के बाद की भारत की तस्वीर दिखने लगी थी। यह अनायास ही नहीं है कि कांग्रेस मात्र एक परिवार विशेष के व्यक्तियों के भरोसे रह गई है और अपनी स्थाई नियति मानकर उनसे ही किसी करिश्मे की आशा करती है। कभी स्वतन्त्रता आन्दोलन का पर्याय रहे कांग्रेस की यह मनोदशा स्वयं में बहुत कुछ स्पष्ट कर देती है। उत्तर प्रदेश जैसे सशक्त राज्य में अपनी जमीन खिसकने के बाद जिस प्रकार कांग्रेस छटपटा रही है, उसे समझा जा सकता है। युवराज के रूप में प्रचारित किये जा रहे राहुल गाँधी बुन्देलखण्ड के एक दलित परिवार में रात गुजार कर इस बात की आसानी से घोषणा करते हैं कि ऊपर से चले एक रूपये में से मात्र पाँंच पैसा ही इन इलाको में पहुँचता है, पर इसके लिए जिम्मेदार कौन है बताना भूल जाते हंै। इसी प्रकार भारतीय जनता पार्टी तो सदैव मुखौटों की राजनीति से ही ग्रस्त दिखती है। कभी अयोध्या तो कभी गुजरात को हिन्दुत्व की प्रयोगशाला बनाने वाली भाजपा के कर्णधार सत्ता में आते ही गठबन्धन की आड़ में अपने मूल मुद्दों को दरकिनार कर देते हैं। ऐसे ही तमाम अन्य राजनैतिक दल क्षेत्रवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद जैसी भावनाओं के सहारे येन-केन-प्रकरेण सत्ता हासिल करते हैं और विकास की बातों को पीछे छोड़ देते हैं। निश्चिततः इसे उचित नहीं ठहराया जा सकता और इसी का नतीजा है कि आज अराजकता, आतंकवाद, अनुशासनहीनता, भ्रष्टाचार, सामाजिक असुरक्षा का दूषित महौल पूरे राष्ट्र् में व्याप्त है।

इस बिगड़े माहौल के लिये राजनैतिक नेतृत्व के साथ-साथ पूँजीपति वर्ग, धर्माचार्य व मीडिया भी अपनी जिम्मेदारी से आँख नहीं चुरा सकते। ये आये दिन देश की जनता को राष्ट्रीयता, ईमानदारी, मितव्ययिता, अनुशासन व कर्मठता का पाठ पढ़ाते हंै पर कभी अपने गिरेबान में झांँकने की कोशिश नहीं करते। लोकतंत्र का चतुर्थ स्तम्भ कहा जाने वाला मीडिया इन कथित कर्णधारों द्वारा कही गई एक-एक बात को ब्रेकिंग न्यूज बनाकर देश की जनता को उबाता रहता है। जनता की आवाज उठाने की बजाय मीडिया की प्राथमिकता सरकारी विभागों और कारपोरेट जगत से प्राप्त विज्ञापन हैं, जिन पर उनकी रोजी-रोटी टिकी हुई है। रोज प्रवचन देने वाले धर्माचार्य जनता को धर्म की चाशनी खिला रहे हैं और कर्मवाद की बजाय लोगों को कर्मकाण्ड की तरफ प्रेरित करके अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि या तो यह वर्ग यह समझकर प्रवचन झाड़ता है कि इस देश की जनता अनपढ़ और नासमझ है अथवा वे इस सूत्र पर काम कर रहे हैं कि किसी भी झूठ को बार-बार दोहराने से सच मान लिया जाएगा। वस्तुतः राजनैतिक दल, पूँजीपति या धर्माचार्य इन सबका निहित स्वार्थ एक है और दुनिया की सारी सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण इस वर्ग के पास अभाव नामक चीज फटक भी नहीं सकती। यही कारण है कि यह वर्ग यथास्थितिवाद का पुरजोर पक्षधर है। इन्हें किसी भी प्रकार का परिवर्तन पसन्द नहीं - भले ही आम जनता अकाल, भुखमरी, महामारी से त्रस्त हो, देश का शिक्षित युवा वर्ग रोजी-रोटी की तलाश में बुढ़ापे को पहुँच जाये, देश की आधी से अधिक जनता गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करती रहे, भोला-भाला देहाती नौकरशाही के जाल में पिसता रहे, किन्तु इस देश के नेताओं, पूँजीपतियों व धर्माचार्यों पर इसका कोई असर नहीं पड़ता। इनका सब कुछ तो ‘सिंहासन’, ’गद्दी’ व ‘आसन’ तक सीमित है। यही उनका राष्ट्र है, यही उनकी देशभक्ति है, बाकी चीजों के प्रति यह वर्ग अपनी संवेदनशीलता खो बैठा है।

आये दिन बड़े से बडे हादसे हो रहे हैं किन्तु यह कत्तई नहीं लगता कि शिखर नेतृत्व इन हादसों के प्रति गम्भीर व जागरूक है। कभी भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं0 जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि उनका वश चले तो जमाखोरों और कालाबाजारी करने वालों को बिजली के खम्भों से लटका दें। पर भ्रष्टाचार का दौर नेहरू के समय में ही आरम्भ हो गया। इन्दिरा गाँधी ने भ्रष्टाचार को ‘विश्वव्यापी समस्या‘ बताकर इसकी स्वीकार्यता स्थापित कर दी तो राजीव गाँधी यह जानकर भी 100 में से मात्र 15 पैसा अन्तिम व्यक्ति तक पहुँचता है, राजनैतिक इच्छाशक्ति के अभाव में इस रोग का उपचार नहीं बता सके। महात्मा गाँधी का नाम लेकर राजनीति करने वाले उनकी इच्छानुसार समाज के अन्तिम व्यक्ति के आँसू नहीं पोछ सके और अन्ततः सारी चोट अन्तिम व्यक्ति के ही हिस्से में आयी। लुभावने नारों के साथ अन्य राजनैतिक दल जब सत्ता में आये तो भी स्थिति जस की तस रही। गरीब तबकों हेतु रोज नई योजनाएं लागू की जाती हैं, पर उनमें से अधिकतर कागजों में ही अपना लक्ष्य पूरा करती हैं। यही कारण है कि भ्रष्टाचार को ‘शिष्टाचार‘ बनने में देरी नहीं लगी। आँकड़े गवाह हैं कि देश के 62 प्रतिशत लोगों को रिश्वत देकर काम करवाने का प्रत्यक्ष अनुभव है और आम नागरिक प्रतिवर्ष करीब 21,068 करोड़ रूपये रिश्वत देता है। वस्तुतः भ्रष्टाचार व्यक्तिगत आचरण से अब संस्थागत रूप ले चुका है। यह आम जनता का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि जब ऐसे मसलों पर बहुत शोर-शराबा होता है तो मामले को आयोग की चहरदीवारी या न्यायिक जाँच प्रक्रिया की जंजीर से बाँध दिया जाता है और फिर तो भूलना ही भूलना है, कारण कि मामला अदालती जाँँच प्रक्रिया से गुजर रहा है अतएव इस पर किसी प्रकार की टीका-टिप्पणी करना न्यायालय की अवमानना परिधि के अन्तर्गत आता है। इसी प्रकार बाढ,़ सूखा, अकाल या अन्य आपदाओं के समय मंत्रीगण व अधिकारी विमान, हेलीकाॅप्टर और कारों के काफिले का प्रयोग करते हैं, नतीजन जितनी राहत पीड़ित-जनों को नहीं मिल पाती है उससे कहीं ज्यादा मंत्री व अधिकारियों पर खर्च पड़ जाता है। वस्तुतः भ्रष्टाचार के खिलाफ कदम उठाने की जिम्मेदारी जिन लोगों और संस्थाओं पर है, खुद वे भ्रष्टाचार में बुरी तरह उलझे हुए हैं। पहले के राजनेता भ्रष्टाचार में अपना नाम आने पर शरमाते थे, आज वे पूरी ताकत से अपने भ्रष्ट आचरण का बचाव करते हैं। हाल ही में चारा घोटाले मामले की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय को भी टिप्पणी करनी पड़ी कि भ्रष्टाचारियों को लैम्पपोस्ट से लटकाकर फँासी दे देनी चाहिए, तो उसकी वेदना और आक्रोश को समझाा जा सकता है।

भारतीय संविधान भारत को एक लोकतांत्रिक राष्ट्र घोषित करता है पर सत्ता शीर्ष पर बैठे निर्वाचित जन प्रतिनिधियों का चरित्र देखें तो अच्छे-अच्छे राजा-महराजा भी शरमा जायें। संसद व विधान सभाओं में आरोप-प्रत्यारोप की भाषा ही नहीं बल्कि मारपीट व गाली गलौज भी आम चीज बन गई है। घरों में टी0वी0 पर बैठकर जनप्रतिनिधियों का यह तमाशा देखने वाले बच्चे और युवा पीढ़ी इन घटनाओं से क्या सीख लेंगे, सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। हमारे अधिकतर जनप्रतिनिधि अपनी आपराधिक पृष्ठभूमि के चलते वैसे भी सदैव चर्चा का विषय बने रहते हैं। अपराधियों का राजनीतिकरण हो रहा है या राजनीति का अपराधीकरण हो रहा है, कुछ भी कहना बड़ा कठिन है। अभिनेता-अभिनेत्रियों के मन्दिर और उनकी पूजा अब पुरानी बात हो गई है, भारतीय राजनीति में भी इसके उदाहरण खुलकर सामने आने लगे हैं। यहाँ ‘व्यक्ति पूजा‘ मुहावरा नहीं बल्कि यथार्थ बन गया है। धर्मनिरपेक्षता को संविधान का मूलभूत तत्व माना गया है पर तमाम राजनेता धर्म एवं देवी-देवताओं की शरण लेते रहते हैं। इसे उनका व्यक्तिगत आग्रह समझकर दरकिनार भी कर दिया जाय तो यहाँ देवी-देवताओं व पौराणिक चरित्रों से तुलना ही नहीं बल्कि जनप्रतिनिधियों को स्वयं देवी-देवता बना दिया गया। कभी धर्म के नाम पर वोट माँगना, कभी चाटुकारिता की हद तक जाकर एक ही व्यक्ति का नाम जपना, तो कभी नेताओं को ईश्वर बना देना- इससे बड़ा मजाक लोकतन्त्र में और नहीं हो सकता। आपातकाल के दौर में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकान्त बरूआ ने कहा था- ‘‘इन्दिरा इज इंडिया एण्ड इंडिया इज इन्दिरा।‘‘ मानो यहाँ लोकतन्त्र नहीं सामन्तवाद या राजतन्त्र का साया हो। तमिलनाडु में एम0जी0रामचन्द्रन की मृत्यु पश्चात चेन्नई में उनका मन्दिर बनवाया गया, जिसमें उन्हें देवता के रूप में दिखाया गया। जयललिता को पोस्टरों में ‘काली माँ‘ के रूप में दिखाया गया तो मायावती ने कहा कि मै ही माया (लक्ष्मी) हूँ। राजस्थान में वसुन्धरा सरकार के तीन साल पूरे होने के उपलक्ष्य में जारी कैलेण्डर में उन्हें अन्नपूर्णा देवी एवं भाजपा के शीर्ष नेताओं अटल बिहारी वाजपेई, लालकृष्ण आडवाणी व राजनाथ सिंह को क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु व महेश के रूप में दर्शाया गया। मुरादाबाद में सोनिया गाँधी को दुर्गा माँ की वेशभूषा में भ्रष्टाचार और आतंकवाद का संहार करते हुए दिखाया गया तो जबलपुर में एक पूर्व विधायक ने सोनिया गाँधी को रानी लक्ष्मीबाई के रूप में पोस्टर में दिखाया। महाराष्ट्र में विलासराव देशमुख को गोवर्धन उठाते श्रीकृष्ण के रूप में दिखाया गया। ऐसे न जाने कितने उदाहरण है जो राजतन्त्र व सामंती समाज की याद दिलाते हैं। जनता के बीच जाकर उनके दुख-दर्द को सुनने और उनका उपचार करने की बजाय राजनैतिक दलों के शीर्ष नेताओं की वन्दना, राजनीति में पर्दापण करने व कुर्सी पाने का शार्टकट तरीका बन गया है। ‘‘चालीसा‘‘ राजनीति इसी की देन है।

अब जरा संवेदनशील होकर इन संदर्भों के परिप्रेक्ष्य में देश के कर्णधारों की कारगुजारियों पर गौर करें कि आये दिन अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं, टी0वी0 और मंचों पर देश का युवावर्ग, किसान, मजदूर, कारीगर इन बातों को सुनकर या पढ़कर गुनेगा तो उसके मानस-पटल पर क्या प्रभाव अंकित होगा? अपने इन राष्ट्रीय कर्णधारों की कारगुजारियों व फिर लम्बे-लम्बे प्रवचनों से उसकी क्या धारणा बनेगी? जब देश का उच्चपदस्थ वर्ग ही भ्रष्टाचार के आरोपों के संशय में कैद हो, उसका आचरण लोगों की निगाह में साफ-सुथरा न हो तो फिर उस देश का भविष्य क्या होगा? इसी कारण डाॅ0 राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि यदि भ्रष्टाचार को खत्म करना है तो इसकी शुरूआत उच्चपदस्थ लोगों से होनी चाहिये। पर दुर्भाग्यवश आज इस देश का नेतृत्ववर्ग अपने स्वार्थ में अंधा हो अपने पद का सारा फायदा अपनों के लिये बटोर रहा है। वह चाहे जाति के रूप में हो, भाई-भतीजावाद के रूप में हो, क्षेत्रवाद के संदर्भ में हो- किन्तु दायरा संकीर्णता व स्वार्थ का है। आज चूँकि सारे लोग इसी संकीर्णतावादी नजरिये में कैद हैं सो ‘हमाम में सब नंगे हैं‘ की तर्ज पर एक दूसरे की कमजोरियों और बुराईयों को अनदेखा कर रहे हैंै। निश्चिततः आज स्वस्थ एवं समग्र नेतृत्व का संकट देश पर मंडरा रहा है और जब तक स्वस्थ नेतृत्व नहीं पैदा होगा, भारत की धरती पर से जातिवाद, सम्प्रदायवाद, क्षेत्रवाद, भ्रष्टाचार, अराजकता, आतंकवाद का खात्मा नामुमकिन है। यह मंथन का विषय है कि हमारे साथ ही आजादी पाये तमाम राष्ट्र विकास के कई पायदान चढ़ गये, पर भारत में अपेक्षित प्रगति नहीं हुई। वर्तमान के तथाकथित कर्णधारों की आवाज में दम नहीं है क्योंकि आवाज में दम, संस्कार, विचार और चरित्र से आता है पर ये कर्णधार अन्दर से खोखले हैं। इसे राष्ट्र की बदकिस्मती ही कहा जायेगा कि इन नेताओं की कोई नीति नहीं है, नैतिकता नहीं है, चरित्र की पवित्रता नहीं है, समग्रता नहीं है, समदर्शिता नहीं है। ये राजनीति को सिद्धांत के तहत नहीं, बल्कि कूटिल नीति के तहत चला रहे हंै, क्यांेकि ये अवसरवादी हैं। हर नेतृत्व अपने सिंहासन को बचाये रखने के लिये राष्ट्रीयता, अखंडता, एकता, धर्मनिरपेक्षता, बंधुत्व, समता का नारा लगाता है किन्तु सबकी मानसिकता एक जैसी है। आज सभी राजनैतिक दलों एवं नेताओं का एकमात्र लक्ष्य सत्ता है और सत्ता की इस कुर्सी तक पहुँचने के लिये कभी ये राष्ट्रीयता, अखंडता, एकता, धर्मनिरपेक्षता, बंधुत्व, समता व समाजवाद की सीढ़ी लगा लेते हैं तो कुछ को रामनाम की सीढ़ी लगाने में भी परहेज नहीं।

आज स्पष्ट रूप से दो वर्ग आमने-सामने हैं-एक, संतुष्ट वर्ग एवं दूसरा, असंतुष्ट वर्ग। संतुष्ट वर्ग चूँकि राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, प्रशासनिक, सांस्कृतिक और धार्मिक हर क्षेत्र में अपना वर्चस्व बना चुका है अतः वह यथास्थितिवाद को बनाये रखने के लिये कटिबद्ध है, चाहे इसके लिये कितने भी झूठ का सहारा लेना पड़े। राष्ट्रहित में जरूरी है कि यह वर्ग लोगों को उपदेश देने की बजाय अपनी कथनी-करनी का अंतर स्वयं मिटाकर ईमानदारी, चरित्र, कर्मठता, अनुशासन को अपने आचरण में उतारे। जिस दिन यह सुविधाभोगी वर्ग संकल्पबद्ध होकर त्याग का आदर्श उपस्थित कर देगा, देश-समाज की दशा सुधरने में वक्त नहीं लगेगा। दूसरी तरफ असंतुष्ट वर्ग का नेतृत्व सत्ता की कुर्सी के लिये लोगों की भावनाओं का शोषण व दोहन कर रहा है। अभी तक वह समाज को नवीन विचार नहीं दे पाया और जब तक विचार नहीं पैदा होंगे, तब तक समाज में न तो बदलाव आयेगा और न ही क्रांति।
राम शिव मूर्ति यादव

18 टिप्‍पणियां:

Bhanwar Singh ने कहा…

संतुष्ट वर्ग चूँकि राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, प्रशासनिक, सांस्कृतिक और धार्मिक हर क्षेत्र में अपना वर्चस्व बना चुका है अतः वह यथास्थितिवाद को बनाये रखने के लिये कटिबद्ध है, चाहे इसके लिये कितने भी झूठ का सहारा लेना पड़े...Bahut sahi likha hai apne.

Unknown ने कहा…

बेहद प्रासंगिक और स्तरीय आलेख.

Amit Kumar Yadav ने कहा…

अभिभूत हूँ इस लेख को पढ़कर. इजाजत हो तो इसे 'युवा; ब्लॉग पर देना चाहूँगा.

www.dakbabu.blogspot.com ने कहा…

...जब तक विचार नहीं पैदा होंगे, तब तक समाज में न तो बदलाव आयेगा और न ही क्रांति।
Lajvab bat kahi hai.

हिंदी साहित्य संसार : Hindi Literature World ने कहा…

इस लेख के बहाने आपने कई जरुरी सवाल उठाये हैं. इन पर गौर करने की जरुरत है.

Akanksha Yadav ने कहा…

आज सभी राजनैतिक दलों एवं नेताओं का एकमात्र लक्ष्य सत्ता है और सत्ता की इस कुर्सी तक पहुँचने के लिये कभी ये राष्ट्रीयता, अखंडता, एकता, धर्मनिरपेक्षता, बंधुत्व, समता व समाजवाद की सीढ़ी लगा लेते हैं तो कुछ को रामनाम की सीढ़ी लगाने में भी परहेज नहीं....सही नब्ज़ पकड़ी आपने.

KK Yadav ने कहा…

नेतृत्व को उसका असली चेहरा दिखता सारगर्भित लेख.

Dr. Brajesh Swaroop ने कहा…

डा0 राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि यदि भ्रष्टाचार को खत्म करना है तो इसकी शुरूआत उच्चपदस्थ लोगों से होनी चाहिये। पर दुर्भाग्यवश आज इस देश का नेतृत्ववर्ग अपने स्वार्थ में अंधा हो अपने पद का सारा फायदा अपनों के लिये बटोर रहा है...Badi marmik bat hai.har koi apni tijori bharne men vyast hai.

बेनामी ने कहा…

Padhkar dil bag-bag ho gaya. behad satik vishleshan kiya apne.

Udan Tashtari ने कहा…

आलेख पढ़्कर अच्छा लगा. बेहद सारगर्भित एवं अनेकों विचारों को जन्म देता. आभार.

रश्मि प्रभा... ने कहा…

is kadwe sach ko samajhna hai desh ke jagruk naagrikon ko,badhiyaa....

Amit Kumar Yadav ने कहा…

''स्वामी विवेकानंद जयंती'' और ''युवा दिवस'' पर ''युवा'' की तरफ से आप सभी शुभचिंतकों को बधाई. बस यूँ ही लेखनी को धार देकर अपनी रचनाशीलता में अभिवृद्धि करते रहें.

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

एक गम्‍भीर एवं विचारपूर्ण आलेख, बधाई।

मनोज अबोध ने कहा…

aaj ke mahol mai aise vicharottejak aalekh shayad kuchh raah dikha saken.... sadhuvaad !!!

Amit Kumar Yadav ने कहा…

आपकी रचनाधर्मिता का कायल हूँ. कभी हमारे सामूहिक प्रयास 'युवा' को भी देखें और अपनी प्रतिक्रिया देकर हमें प्रोत्साहित करें !!

Dev ने कहा…

आपको लोहडी और मकर संक्रान्ति की शुभकामनाएँ....

vijay yadav ने कहा…

आप के सुंदर वा सृजन लेख के लिए ढेर सारी बधाई .

योगेन्द्र मौदगिल ने कहा…

सामयिक चिंतन के लिये साधुवाद स्वीकारें...