शुक्रवार, 29 मई 2009

युवा यदुवंशी मंत्री: अरुण यादव

15वीं लोकसभा के गठन पश्चात मंत्रिपरिषद का विस्तार हो चुका है। जैसा कि इसी ब्लाग पर पहले भी कहा जा चुका है कि इस बार यादवी राजनीति डांवाडोल रही, नवगठित मंत्रिपरिषद में भी इसे महसूस किया जा सकता है। 79 सदस्यीय मंत्रिपरिषद में मात्र एक यदुवंशी मंत्री हैं- अरूण यादव। मध्य प्रदेश के पूर्व उपमुख्यमंत्री सुभाष यादव के सुपुत्र अरूण यादव 15वीं लोकसभा में कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में खण्डवा लोकसभा से निर्वाचित हुए हैं। 15 जनवरी 1974 को जन्मे अरूण यादव मूलतः कामर्स के विद्यार्थी रहे हैं एवं वर्तमान में गरीबों एवं पिछड़े-दलितों-जनजातियों के उत्थान हेतु स्कूल एवं इंजीनियरिंग स्कूल भी एक ट्रस्ट के तत्वाधान में संचालित कर रहे हैं। क्रिकेट और बैडमिण्टन के शौकीन श्री यादव 14वीं लोकसभा में खारगौंन लोकसभा उपचुनाव में विजित होकर लोकसभा में पहुंचे थे। इस दौरान आप स्टैण्डिंग कमेटी आन कोल एण्ड स्टील तथा कमेटी आन पब्लिक एकाउण्ट्स के सदस्य रहे। एक पुत्र एवं एक पुत्री के पिता अरूण यादव की डा0 नम्रता यादव से 9 फरवरी 1999 को शादी हुई। वर्तमान मंत्रिपरिषद में उन्हें युवा एवं खेलकूद मामलों का राज्य मंत्री बनाया गया है। 35 वर्षीय अरूण यादव मंत्रिपरिषद के युवा सदस्यों में से हैं। मंत्रिपरिषद के इस एक मात्र यदुवंशी मंत्री को ‘यदुकुल‘ की ओर से बधाई।
(१४ जून, २००९ को युवा और खेल-कूद की जगह भारी उद्योग और सार्वजनिक मंत्रालय के राज्य मंत्री बनाये गए.)

गुरुवार, 28 मई 2009

जीवन और कला का सामंजस्य बिठाते डा0 लाल रत्नाकर

पेंटिंग के क्षेत्र में डा0 लाल रत्नाकर का नाम जाना-पहचाना है 12 अगस्त 1957 को जौनपुर (उ0प्र0) में जन्में डा0 रत्नाकर ने 1978 में कानपुर विश्वविद्यालय से ड्राइंग और पेण्टिंग में परास्नातक उपाधि प्राप्त की और तत्पश्चात 1985 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से ‘"पूर्वी उत्तर प्रदेश की लोक कला" विषय पर पी0एच0डी0 पूरा किया। देश के लगभग हर प्रमुख शहर में अपनी पेण्टिंग-प्रदर्शनी लगाकर शोहरत हासिल करने वाले डा0 रत्नाकर प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका 'हंस' के लिए भी रेखांकन का कार्य करते हैं। जीवन के प्रति आपका दृष्टिकोण व्यापक है। सामाजिक-साहित्यिक आयोजनों में भी आप बेहद सक्रियता के साथ भाग लेते हैं। फिलहाल आप एम0एम0एच0 (पी0जी0) कालेज, गाजियाबाद में ड्राइंग और पेण्टिंग (फाइन आर्ट) विभाग में रीडर हैं।

बचपन में कला दीर्घाओं के नाम पर पत्थर के कोल्हू की दीवारें, असवारी और मटके के चित्र, मिसिराइन के भित्ति चित्र डा0 रत्नाकर को आकर्षित ही नहीं, सृजन के लिए प्रेरित भी करते थे। गांव की लिपी-पुती दीवारों पर गेरू या कोयले के टुकड़े से कुछ आकार देकर आपको जो आनंद मिलता था, वह सुख कैनवास पर काम करने से कहीं ज्यादा था। स्कूल की पढ़ाई के साथ-साथ रेखाएं ज्यादा सकून देती रहीं और यहीं से निकली कलात्मक अनुभूति की अभिव्यक्ति, जो अक्षरों से ज्यादा सहज प्रतीत होने लगी. एक तरफ विज्ञान की विभिन्न शाखाओं की जटिलता वहीं दूसरी ओर चित्रकारी की सरलता, ऐसे में डा0 रत्नाकर द्वारा सहज था चित्रकला का वरण.

ग्रेजुएशन के लिए आपने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और गोरखपुर विश्वविद्यालय में आवेदन दिया और दोनों जगह चयन भी हो गया. अंतत: गोरखपुर विश्वविद्यालय के चित्रकला विभाग में प्रवेश लिया और यहीं मिले आपको कलागुरू श्री जितेन्द्र कुमार. कला को जानने-समझने की शुरुवात यहीं से हुई। फिर कानपुर से बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कलाकुल पद्मश्री राय कृष्ण दास का सानिध्य, श्री आनन्द कृष्ण जी के निर्देशन में पूर्वी उत्तर प्रदेश की लोक कला पर शोध, फिर देश के अलग-अलग हिस्सों में कला प्रदर्शनियों का आयोजन... कला के विद्यार्थी के रुप में आपकी यह यात्रा आज भी जारी है। बतौर डा0 रत्नाकर-‘‘कला के विविध अछूते विषयों को जानने और उन पर काम करने की जो उर्जा मेरे अंदर बनी और बची हुई है, उनमें वह सब शामिल है, जिन्हें अपने बचपन में देखते हुए मैं इस संसार में दाखिल हुआ.''

डा0 रत्नाकर स्त्री सशक्तीकरण के बहुत बड़े हिमायती हैं। यही कारण है कि आपने स्त्रियों पर काफी काम किया है। आपकी पूरी एक श्रृंखला आधी दुनिया स्त्रियों पर केंद्रित है, पर ये स्त्रियां भद्र लो की नहीं हैं, बल्कि खेतों खलिहानों में अपने पुरूषों के साथ काम करने वाली स्त्रियां हैं. ऐसा डा0 रत्नाकर की ग्रामीण पृष्ठभूमि के कारण है पर इसका मतलब यह नहीं है कि वे किसी दूसरे विषय का वरण अपनी सृजन प्रक्रिया के लिये नहीं कर सकते थे, पर उनके ग्रामीण परिवेश ने उन्हें पकड़े रखा. समकालीन दुनिया में हो रहे बदलावों के प्रति भी डा0 रत्नाकर की तूलिका संजीदा है। उनका मानना है कि- "समकालीन दुनिया के बदलते परिवेश के चलते आज बाजार वह सामग्री परोस रहा है, जो उस क्षेत्र तो क्या उस पूरे परिवेश तक की वस्तु नही है. इसका मतलब यह नही हुआ कि मैं विकास का विरोधी हूं लेकिन जिन प्रतीकों से मेरा रचना संसार समृध्द होता है, उसमें यह बाज़ार आमूल चूल परिवर्तन करके एक अलग दुनिया रचेगा जिसमें उस परिवेश विशेष की निजता के लोप होने का खतरा नजर आता है."

जीवन का अनुभव संसार डा0 रत्नाकर के लिए, कला के अनुभव संसार का उत्स है. उनकी मानें तो-"अंतत: हरेक रचना के मूल में जीवन संसार ही तो है. जीवन के जिस पहलू को मैं अपनी कला में पिरोने का प्रयास करता हूँ, दरअसल वही संसार मेरी कला में उपस्थित रहता है. कला की रचना प्रक्रिया की अपनी सुविधाएं और असुविधाएं हैं, जिससे जीवन और कला का सामंजस्य बैठाने के प्रयास में गतिरोध आवश्यक हिस्सा बनता रहता है. यदि यह कहें कि लोक और उन्नत समाज में कला दृष्टि की भिन्न धारा है तो मुझे लगता है, मेरी कला उनके मध्य सेतु का काम कर सकती है."
( डा0 लाल रत्नाकर के बारे में विस्तृत जानकारी हेतु उनकी वेबसाइट पर जायें- http://www.ratnakarsart.com/)

मंगलवार, 26 मई 2009

"यादव" से "यादव-ज्योति" तक का सफर

‘‘यादव ज्योति‘‘ पत्रिका यादव समाज की सबसे पुरानी पत्रिकाओं में से है। पिछले 32 वर्षों से सफलता पूर्वक निकल रही इस पत्रिका के संस्थापक संपादक स्व0 धर्मपाल सिंह रहे हैं और वर्तमान में उनकी धर्म पत्नी श्रीमती लालसा देवी इसका संपादन कर रही हैं। धर्मपाल सिंह जी का 13 जुलाई 2008 को अचानक हुए हृदयाघात से देहान्त हो गया था। धर्मपाल सिंह शास्त्री यादव समाज के आजन्म सेवक, ‘यादव‘ मासिक पत्रिका के सम्पादक तथा ‘यादव गांधी‘ के नाम से प्रसिद्ध राजित सिंह के सुपुत्र थे। ‘‘यादव‘‘ अखिल भारतीय यादव महासभा की वैधानिक पत्रिका थी। परन्तु राजित सिंह जी के स्वर्गवास के बाद यादव महासभा की अरूचि एवं उपेक्षापूर्ण रवैये से विक्षुब्ध धर्मपाल शास्त्री जी ने राजित सिंह जी की स्मृति में इसे ‘यादव-ज्योति‘ के नाम से अपने दम पर प्रकाशित करते रहने का संकल्प लिया। शास्त्री जी का अपना प्रिंटिंग प्रेस था। उन्होंने ‘यादव ज्योति‘ को निरंतर उच्चकोटि की पत्रिका बनाने के लिए अपने पूर्ण प्रयास किये। किन्तु कुछ विपरीत परिस्थितियों के कारण प्रेस की व्यवस्था लड़खड़ाने लगी और इसमें काफी हानि हुई। लेकिन शास्त्री जी न टूटे, न झुके। उन्होंने न किसी के आगे हाथ फैलाया, न किसी के आगे सहायता के लिए गिड़गिड़ाये। यहाँ तक कि यथेष्ठ सरकारी अनुदान के लिए भी प्रयास नहीं किये। यह सब उनके आत्मसम्मान की भावना और शुभ पारिवारिक संस्कारों के कारण ही था। व्यवसायिकता से दूर रहते हुए और पूर्ण रूप से सामाजिक सरोकारों से जुड़े रह कर समाज सेवा की भावना से ही वे इस कार्य में लगे रहे। ‘‘यादव-ज्योति‘‘ पत्रिका में यदुवंश से जुड़े सारगर्भित आलेखों के साथ-साथ सामाजिक-राजनैतिक विषयों पर भी रचनाएं समाहित हैं। यादव समाज की विभूतियों से जुड़ी खबरों के अलावा विभिन्न संस्थाओं द्वारा आयोजित कार्यक्रमों की विस्तृत रिपोर्ट है। वैवाहिक समाचार, शोकांजलि एवं अधिकारियों के प्रोन्नति-स्थानान्तरण संबंधी छोटी-छोटी खबरें पत्रिका को हर किसी तक पहुंचाने के दायित्वबोध का ही अंग दिखती हैं। राजदेव यादव द्वारा किश्तवार प्रस्तुत धारावाहिक ‘वीर लोरिक देव‘ अर्द्धशतक पूरा कर चुका है। भगवान कृष्ण के चित्र से सुसज्जित इस 32 पृष्ठ की पत्रिका में बहुत कुछ है पर इन्हें एक नजर में प्रदर्शित करने वाली विषय-सूची का अभाव खलता है। यदि सम्पादिका ‘पाठकों के पत्र‘ भी प्रकाशित करें तो संवाद की बेहतर गुंजाइश रहेगी और पत्रिका व्यापक आयामों के साथ देखी जा सकेगी।
संपर्क- श्रीमती लालसा देवी, ‘यादव-ज्योति‘ कार्यालय, के0 54/157-ए, दारानगर, वाराणसी-221001

शुक्रवार, 22 मई 2009

1857 की क्रान्ति के यदुवंशी नायक : राव तुलाराम

1857 की क्रान्ति भारतीय इतिहास ही नहीं वरन् जनमानस के संदर्भ में भी एक मील का पत्थर मानी जाती है। पराधीन भारत से लेकर स्वाधीन भारत के बीच 1857 वह महत्वपूर्ण रेखा है, जिसके दोनों ओर सौ-सौ वर्ष के घटनाक्रमों की लम्बी श्रृंखला जुड़ी हुई हैं, जो 1857 की प्रथम स्वाधीनता क्रान्ति को ठीक 90साल बाद 1947 के शिखर तक ले जाने वाली कड़ियाँ बनीं। इस क्रान्ति का देश के विभिन्न हिस्सों में भिन्न-भिन्न लोगों ने नेतृत्व किया। नेतृत्व कर्ताओं ने हर जाति-धर्म के लोग शामिल थे। इनमें से एक थे रेवाड़ी के शासक- राव तुलाराम, जिन्होंने इस क्रान्ति का हरियाणा में नेतृत्व किया। यदुवंशी राव तुलाराम की वीरता के किस्से आज भी मशहूर हैं। हरियाणा प्रान्त स्थित रेवाड़ी एक प्रसिद्व ऐतिहासक नगर रहा है। महाभारत काल में भी यह नगर अवस्थित था। भगवान श्रीकृष्ण के ज्येष्ठ भ्राता बलराम जी की पत्नी रेवती के पिता राजा रेवत ने अपनी पुत्री रेवती को दहेज में वह स्थान दिया था। उसी स्थान पर बलरामजी ने एक नगर बसाया जिसका नाम रखा गया रेवत वाड़ी। वही रेवत वाड़ी कालान्तर में अपभ्रंश होकर रेवाड़ी कहलाया।

राजा राव तुलाराम के एक दूर के भाई राव कृष्ण गोपाल अंग्रेजों की सेवा में थे और 1857 में वे मेरठ में एक पुलिस अफसर थे। मेरठ में जब अंग्रजी फौज में अंग्रेज शासकांे के प्रति विद्रोह की आग सुलगने लगी तो सैनिकों ने वहां के अन्य सरकारी अफसरों को भी विश्वास में लेने की कोशिश की। उन अफसरों ने उन्हें सहानुभूति ही नहीं दी बल्कि हर तरह की सहायता का भी आश्वासन दिया। किसी तरह यह बात अंग्रेज अफसरों को मालूम हो गई उन्होंने शक के आधार पर उन लोगो में से अधिकांश को कैद कर लिया और जेल में बंद कर दिया। जब यह तथ्य राव कृष्ण गोपाल को मालूम हुआ तो उन्होने अंगे्रजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया। उनके नेतृत्व में सेना व अन्य गैर सैनिक अफसरों एवं विद्रोहियों ने क्रांति का बिगुल फूंक दिया। मेरठ की जेल पर आक्रमण कर उन लोगों ने बंद क्रांतिकारियों को मुक्त कर दिया। क्रांतिकारियों की यह टुकडी दिल्ली पहंुची, जहां दिल्ली के बादशाह बहादुर शाह जफर से सम्पर्क किया। उनका आशीर्वाद और सहायता का आश्वासन पाकर वह टुकड़ी रेवाड़ी की ओर बढी। तवाडू के पास अग्रेजो की एक सैनिक टुकड़ी से उनका युद्व हुआ जिसमें राव तुलाराम भी उन लोगों से मिल गये। अंग्रेजी सेना हार कर भाग गई। राव तुलाराम को समय मिल गया और उन्हांेने अपनी सेना को फिर से संगठित कर अग्रंेजांे के खिलाफ युद्व की घोषणा कर दी।

राव तुलाराम की सेना अंग्रेजों से युद्व के लिए तैयार थी। अंग्रेजी सेना भी दिल्ली की ओर से बढ़ी आ रही थी। नारनौल के पास नसीबपुर के मैदान में दोनांे संेंनाओं का आमना-सामना हो गया। युद्व शुरू हुआ और रेवाड़ी की आम जनता ने राव तुलाराम की सेना की हर तरह से मदद की। उनकी सेना में अहीर,जाट,गूजर,राजपूत आदि सभी थे। यह युद्व एक सप्ताह तक चलता रहा। उधर अंग्रेजो को राव तुलाराम के विद्रोही हो जाने की खबर मिल चुकी थी। वे लोग एक बडी सेना का संगठन करने में लग गये। जनरल कार्टलैंड के सेनापतित्व में अंग्रेजो़ं की सेना ने पीछे से ही राव तुलाराम की सेना पर वार किया। अंग्रेजों की सेना में पटियाला, नाभा जिंद, अलवर आदि जगहों के सैनिक भी थे। दोनों सेनाओं के बीच में पडकर राव तुलाराम की सेना को काफी हानि उठानी पडी। अंग्रेजों की इस विशाल सेना के साथ राव तुलाराम की सेना बहादुरी से लडी, लेकिन अंततः जीत अंग्रेजों की ही हुई।

राव तुलाराम नसीवपुर के युद्व में पराजित जरूर हुए पर उनकी हिम्मत ने हार नहीं मानी। वे वहीं से राजस्थान की ओर निकल गये और बीकानेर, जोधपुर और कोटा, बूंदी होते हुए अपने कुछ विश्वस्त साथियों के साथ कालपी पहंुचे। कालपी में नाना साहब, तात्या टोपे और रानी लक्ष्मीबाई पहले ही से आ गये थे। उन लोगों ने राव साहब का स्वागत किया। वहीं मंत्रणा हुई कि अंग्रेजों को पराजित करने के लिए विदेशों से भी मदद ली जाये। एतदर्थ सबकी राय हुई कि राव तुलाराम विदेशी सहायता प्रबंध करने ईरान जायंे। राव साहब अपने मित्रों नजात अली, रामसुख, तारा सिंह और हर सहाय के साथ अहमदाबाद होते हुए बम्बई चले गये। वहां से वे लोग छिपकर ईरान पहुंचे। वहां के शाह ने उनका खुले दिल से स्वागत किया। वहां राव तुलाराम ने रूस के राजदूत से बातचीत की । वे काबुल के शाह से मिलना चाहते थे। एतदर्थ वे ईरान से काबुल गये जहां उनका शानदार स्वागत किया गया। काबुल के अमीर ने उन्हें सम्मान सहित वहां रखा।लेकिन रूस के साथ सम्पर्क कर विदेशी सहायता का प्रबंध किया जाता तब तक सूचना मिली कि अंग्रेजांे ने उस विद्रोह को बुरी तरह से कुचल दिया है और स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों को पकड़-पकड़कर फांसी दी जा रही है।
अब राव तुलाराम का स्वास्थ्य भी इस लम्बी भागदौड के कारण बुरी तरह प्रभावित हुआ था। वे अपने प्रयास में सफल होकर कोई दूसरी तैयारी करते तब तक उनका स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित हो गया था। वे काबुल में रहकर ही स्वास्थ्य लाभ कर कुछ दूसरा उपाय करने की सोचने लगे। उस समय तुरंत भारत लौटना उचित भी नहीं था। उनका काबुल में रहने का प्रबंध वहां के अमीर ने कर तो दिया पर उनका स्वास्थ्य नहीं संभला और दिन पर दिन गिरता ही गया। अंततः 2 सितम्बर 1863 को उस अप्रतिम वीर का देहंात काबुल में ही हो गया। वीर-शिरोमणि यदुवंशी राव तुलाराम के काबुल में देहान्त के बाद वहीं उनकी समाधि बनी जिस पर आज भी काबुल जाने वाले भारतीय यात्री बडी श्रद्वा से सिर झुकाते हैं और उनके प्रति आदर व्यक्त करते हैं। राव तुलाराम पर डाक विभाग द्वारा 23 सितम्बर, 2001को डाक-टिकट जारी किया गया.


"यादव साम्राज्य" का भव्य विशेषांक

"यादव साम्राज्य" पत्रिका का विशेषांक एक लम्बे समय बाद बड़ी सज-धज के साथ प्रकाशित हुआ है। कानपुर से भंवर सिंह यादव के संपादन में प्रकाशित इस 232 पृष्ठीय पत्रिका में यादव वंश की उत्पत्ति, गीता के 18 अध्यायों का सार, यादव विभूतियों के नाम डाक-टिकट, राव तुलाराम, 1857 के यादव सेनानी के साथ-साथ यादव समाज के महापुरुषों, मुख्यमंत्रियों और तमाम राजनेताओं के बारे में सारगर्भित जानकारी दी गई है. राजनीति-प्रशासन-समाज सेवा से जुडी यादव विभूतियों पर उनके जीवन प्रवाह और योगदान को समेटे लेख इस पत्रिका को आकर्षक बनाते हैं. यादव सांसदों के नाम-पते भी पत्रिका में शामिल किये गए हैं.विभिन्न युद्धों में यादवों की शूर वीरता की चर्चा के साथ अहीर रेजिमेंट के गठन का प्रस्ताव भी किया गया है. यदुवंशी रजवाड़ों और उनके दुर्गों पर शामिल रिपोर्ट यादवी समाज के गौरवशाली इतिहास के बारे में बताती है. वर्तमान में चर्चित यादव यथा- बाबा रामदेव, लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, शरद यादव, नेपाल के राष्ट्रपति राम बरन यादव इत्यादि पर विस्तृत आलेख पढ़कर किसी भी यादव का सीना गर्व से चौड़ा हो सकता है. तमाम यादव योगियों के बारे में जानकारी अपने आप में अनूठी है. कोई भी समाज युवा शक्ति को नजर अंदाज नहीं कर सकता. युवा प्रशासक-साहित्यकार कृष्ण कुमार यादव पर पत्रिका में विस्तृत जानकारी समाहित है.गौरतलब है कि कृष्ण कुमार यादव इस पत्रिका के संरक्षक भी हैं. युवा लेखिका आकांक्षा यादव पर प्रकाशित आलेख भी अल्पायु में उनकी योग्यता को ही प्रदर्शित करता है. इसके अलावा तमाम चर्चित-अचर्चित यादवों के बारे में सम्यक जानकारी को जोड़कर संपादक ने यदुवंशियों में भाईचारे का ही प्रवाह किया है. पत्रिका का मुख-पृष्ठ बेहद आकर्षक है एवं इस पर महाभारत के युद्ध में रथ दौड़ते भगवान कृष्ण का सुन्दर चित्र अंकित है. मात्र 150 रुपये की राशि में इतना ज्ञान का भंडार दुर्लभ ही है. पत्रिका में कमी खलती है तो बस विश्लेषणात्मक लेखों की। पत्रिका में यदुवंश के अतीत का गान है पर वर्तमान और भविष्य के बारे में बहुत कुछ नहीं व्यक्त किया गया है। यह वार्षिकांक एक ऐसे समय में आया है जब राजनीति में यादव कमजोर पड़ते दिख रहे हैं, ऐसे में पत्रिका यदि उन कारणों का भी विश्लेषण करती जिनके चलते यह नाजुक स्थिति उत्पन्न हुई है तो इसे बेहतर रूप में देखा जा सकता। फिलहाल नौजवान संपादक भंवर सिंह यादव का यह प्रयास प्रशंसनीय है एवं यदुवंश से जुड़ी तमाम अनूठी बातों को पत्रिका सामने लाती है।
संपर्क: भंवर सिंह यादव, 130/61, बगाही, बाबा कुटी चौराहा, किदवई नगर, कानपुर-208011

बुधवार, 20 मई 2009

लोकसभा में अपराधियों व करोड़पतियों की बहार

15वीं लोकसभा के नतीजे आ चुके हैं। तमाम दावों के बावजूद जहां मत प्रतिशत काफी कम रहा, वहीं राजनैतिक पंडितों एवं विश्लेषकों के पूर्वानुमान को धता बताते हुए जनता ने अपने वोट द्वारा एक बार फिर से सिद्ध कर दिया कि उसे स्थायित्व एवं शालीनता की राजनीति चाहिए न कि आरोप-प्रत्यारोप, ग्लैमर एवं बाहुबल की। इसके बावजूद आंकड़ों पर सरसरी नजर डाली जाए तो इस नवनिर्वाचित लोकसभा में 150 ऐसे प्रत्याशियों ने चुनाव जीता है जिन पर कई अपराधिक मामले लंबित हैं। इनमें 73 प्रत्याशियों पर कुल 412 संगीन मामले चल रहे हैं, जिसमें अकेले 213 गंभीर प्रकृति के हैं। पिछले 2004 के लोक सभा चुनाव में 128 सांसद आपराधिक पृष्ठभूमि के थे। उन पर 302 संगीन गंभीर प्रकृति के मामले चल रहे थे। इस प्रकार इस बार अपराधी छवि वाले सांसदों में 30।9 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। संतोष की बात यह है कि संगीन अपराध वाले बाहुबलियों की संसद में संख्या इस बार घटी है। फिलहाल यह गम्भीर विषय है कि नवनिर्वाचित लोकसभा में हर तीसरा सांसद आपराधिक पृष्ठभूमि वाला है।

नवनिर्वाचित 15वीं लोकसभा में करोड़पतियों की भी कोई कमी नहीं दिखती। हर दूसरा सांसद करोड़पति और तीसरा आपराधिक पृष्ठभूमि वाला है। 300 सौ सांसदों की संपत्ति करोड़ों में हैं। जहाँ आपराधिक पृष्ठभूमि में उत्तर प्रदेश सबसे आगे है वहीं करोड़पतियों की फेहरिस्त में भी उत्तर प्रदेश के ही प्रत्याशी छाये हुए हैं।

तो ये हैं नई संसद की तस्वीर। जिस संसद से हम देश को प्रतिष्ठा एवं सामाजिक न्याय दिलाने की आशा करते हैं, दुर्भाग्यवश वही संसद अपने निर्वाचित सदस्यो ंके चलते कटघरे में खड़ी होती नजर आती है। धनबल-बाहुबल के बीच जनता की इच्छााओं का कितना सम्मान होगा, यह तो वक्त ही बतायेगा। फिलहाल हम तो प्रधानमंत्री जी से इतनी अपेक्षा अवश्य कर सकते हैं कि मंत्रिपरिषद से दागियों को बाहर रखकर एक नजीर प्रस्तुत करें।

सोमवार, 18 मई 2009

543 में मात्र 19 यादव सांसद ??

पूरे देश में संपन्न चुनावों में 543 लोक सभा सीटों में से मात्र 19 यादव सांसद चुने गये हैं। उत्तर प्रदेश अकेले लोकसभा में सर्वाधिक 80 सांसद भेजता है। उत्तर प्रदेश को यादवी राजनीति के गढ़ के रूप में देखा जाता है, वहाँ इस लोकसभा चुनाव में निर्वाचित यादव सांसदों की संख्या मात्र 05 है। इनमें समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव (मैनपुरी), उनके पुत्र अखिलेश यादव (कन्नौज एवं फिरोजाबाद), उनके भतीजे धर्मेन्द्र यादव (बदायूँ), रामकिशुन यादव (चन्दौली) एवं सपा से बगावत कर भाजपा का आजमगढ़ में पहली बार खाता खोलने वाले रमाकान्त यादव हैं।

बिहार भी यादवी राजनीति का गढ़ माना जाता है। वहाँ से लालू प्रसाद यादव स्वयं पाटलिपुत्र की सीट अपने पुराने मित्र रंजन प्रसाद यादव (जद यू) से हार चुके हैं तो सारण सीट ने उनका वरण किया है। शरद यादव मधोपुरा से सांसद निर्वाचित हुए हैं। इसके अलावा दिनेश चन्द्र यादव (जद यू, खगड़िया) और ओम प्रकाश यादव (निर्दलीय, सिवान), हुकुम देव यादव (भाजपा, मधुबनी), अर्जुन राय(जद यू,सीतामढ़ी)सहित 07 यादव सांसद बिहार में निर्वाचित हुए हैं। छत्तीसगढ़ में मधुसूदन यादव (भाजपा, राजनांदगांव), महाराष्ट्र में एच0 जी0 अहीर (भाजपा, चन्द्रपुर), सुरेश कलमाड़ी (कांग्रेस, पुणे), गुजरात में वी0 ए0 अहीर (कांग्रेस, जामनगर), मध्य प्रदेश में अरूण सुभाष चन्द्र यादव (कांग्रेस, खंडवा),हरियाणा में राव इन्द्रजीत सिंह (कांग्रेस, गुडगाँव), एवं आंध्र प्रदेश में अंजन कुमार यादव (कांग्रेस, सिकन्दराबाद) यादव प्रत्याशियों के रूप में निर्वाचित हुए हैं।

जिस यदुकुल की अच्छी-खासी जनसंख्या हो और उसके राजनेता भारत ही नहीं अन्य पडोसी देशों में प्रभावशाली पदों पर हों, वहां 543 में 19 सासदों की संख्या संतोषजनक नहीं कही जा सकती। जरुरत है कि यादव राजनेताओं के साथ-साथ यदुवंशी भी इस और ध्यान दें !!

(नोट-यदि किसी यादव सांसद का नाम भूलवश छूट गया हो तो अवश्य सूचित करने का कष्ट करें)

रविवार, 17 मई 2009

कहाँ जा रही है यादवी राजनीति ??

उत्तर प्रदेश भारत का न सिर्फ सर्वाधिक जनसंख्या वाला राज्य है बल्कि राजनैतिक तौर पर भी उतना ही महत्वपूर्ण है। देश को सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री देने वाला यह राज्य इस समय राजनैतिक तौर पर संक्रमण काल से गुजर रहा है। जहाँ अन्य राज्यों में लड़ाई दो दलों के बीच होती है, वहीं उत्तर प्रदेश में कांग्रेस, भाजपा, सपा एवं बसपा सहित चार दलों के बीच सीधी टक्कर देखने को मिलती है। इन सब के बीच उत्तर प्रदेश लोकसभा में सर्वाधिक 80 सांसद भेजता है। राजनैतिक समीकरणों के साथ-साथ जातीय समीकरण भी यहाँ काफी महत्व रखते हैं। जिस उत्तर प्रदेश को कभी यादवी राजनीति के गढ़ के रूप में देखा जाता था, वहाँ इस लोकसभा चुनाव में निर्वाचित यादव सांसदों की संख्या मात्र 05 है। इनमें समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव (मैनपुरी), उनके पुत्र अखिलेश यादव (कन्नौज एवं फिरोजाबाद), उनके भतीजे धर्मेन्द्र यादव (बदायूँ), रामकिशुन यादव (चन्दौली) एवं सपा से बगावत कर भाजपा का आजमगढ़ में पहली बार खाता खोलने वाले रमाकान्त यादव हैं। इतने ही प्रत्याशियों ने निकटतम प्रतिद्वंद्वी के रूप में दूसरा स्थान प्राप्त किया-डी0 पी0 यादव (बसपा, बदायूं), मित्रसेन यादव (बसपा, फैजाबाद), संग्राम सिंह यादव (बसपा, बलिया), पारसनाथ यादव (सपा, जौनपुर) एवं कैलाश नाथ यादव (बसपा, चन्दौली)।

बिहार भी यादवी राजनीति का गढ़ माना जाता है। वहाँ से लालू प्रसाद यादव स्वयं पाटलिपुत्र की सीट अपने पुराने मित्र रंजन प्रसाद यादव से हार चुके हैं तो सारण सीट ने उनका वरण किया है। शरद यादव मधोपुरा से सांसद निर्वाचित हुए हैं। भारतीय राजनीति में यह जुमला लम्बे समय से दोहराया जाता था कि यदि मुलायम और लालू आपस में मिलकर राजनीति करें तो यादवों की पौ बारह होगी। दुर्भाग्यवश ऐसा कुछ नहीं हुआ। यादवों के नाम पर राजनीति करने वाली समाजवादी पार्टी एवं राष्ट्रीय जनता दल के लिए यह अन्तःविश्लेषण का समय है कि आखिरकार उनकी इतनी दुर्गति क्यों हुई। यदि वक्त रहते वह निष्पक्षता से इसका उत्तर नहीं ढूंढ़ पाये तो आगामी पीढ़ियों को एक गलत संदेश जाएगा!!

एक सबक है लोकसभा चुनाव का जनादेश

लोकसभा के चुनाव खत्म हो चुके हैं। सारी कयासों को धता बताते हुए जनता ने एक बार पुनः सिद्ध कर दिया कि उसका मत किसको जाता है और क्यों जाता है, इसका विश्लेषण इतना आसान नहीं है। यही कारण है कि भाजपा के पी0एम0 इन वेटिंग, वेटिंग लाइन में ही लगे रहे और कांग्रेस को छोड़कर लगभग हर राष्ट्रीय दल एवं तमाम क्षेत्रीय दल अपने में ही सिमट कर रह गया। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्य जहां मुलायम सिंह और लालू प्रसाद यादव ने कांग्रेस को कमतर आंका था वहाँ इनकी ही जमीन खिसकती नजर आई। वस्तुतः तमाम क्षेत्रीय दलों का उदभव किसी न किसी रूप में जाति आधारित राजनीति से हुआ। दुर्भाग्यवश इन राजनैतिक दलों के शीर्ष नेतृत्व ने यह मान लिया कि जिस जाति के समर्थन से ये सत्ता में आती हैं, वो उन्हें छोड़कर नहीं जा सकती हैं। पर जनता भी एक ही पगहे से बंधकर नहीं रह पाती। पिछड़ो-दलितों में जो राजनैतिक चेतना आई उसको भुनाने के नाम पर तमाम राजनैतिक दल कुकुरमुत्तों की तरह उगे और उनको ढाल बनाकर सत्ता की मलाई खाने लगे। आंतरिक लोकतंत्र को धता बताकर इन्होंने भाई-भतीजावाद को बढ़ावा दिया एवं सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर अपने परम्परागत जाति वोट बैंक पर सवर्ण जातियों को तरजीह दी। उत्तर प्रदेश में सपा में अमर सिंह तो बसपा में सतीश चन्द्र मिश्र इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। जमीनी सच्चाईयों से कटकर ग्लैमर की गोद में बैठकर अपने को महान समझ बैठे इन राजनेताओं के लिए वर्ष 2009 का लोकसभा चुनाव का जनादेश एक सबक है। यदि इसके बाद भी यह नहीं समझे तो इनकी राजनीति की नैया डूबना तय है।

गुरुवार, 14 मई 2009

भारतीय बाल कल्याण संस्थान द्वारा के. के. यादव सम्मानित

भारतीय बाल कल्याण संस्थान द्वारा युवा साहित्यकार एवं भारतीय डाक सेवा के अधिकारी श्री कृष्ण कुमार यादव को बाल साहित्य में उनके उत्कृष्ट योगदान के मद्देनजर ‘‘श्री प्यारे मोहन स्मृति सम्मान‘‘ से सम्मानित किया गया। इस सम्मान के तहत श्री यादव को भारतीय बाल कल्याण संस्थान के अध्यक्ष श्री रामनाथ महेन्द्र ने स्मृति चिन्ह, अंगवस्त्रम्, प्रशस्ति पत्र एवं नकद राशि देकर विभूषित किया। गौरतलब है कि श्री यादव को यह सम्मान रामपुर में आयोजित 44वें बाल साहित्यकार सम्मान समारोह में दिया जाना था, पर अस्वस्थता के चलते श्री यादव वहाँ सम्मान लेने नहीं पहुँच सके थे। इसी क्रम में कानपुर में आयोजित एक कार्यक्रम में यह सम्मान श्री यादव को प्रदान किया गया। उक्त अवसर पर भारतीय बाल कल्याण संस्थान के अध्यक्ष श्री रामनाथ महेन्द्र, उपाध्यक्ष श्री शम्भूनाथ टण्डन, महामंत्री श्री हरिभाऊ खाण्डेकर, प्रसिद्व बाल साहित्यकार डा0 राष्ट्रबन्धु सहित तमाम साहित्यकार उपस्थित रहे।

बुधवार, 13 मई 2009

मशहूर फोटोग्राफर रघु राय भी अब लालू यादव के मुरीद

लालू प्रसाद यादव का अंदाज ही निराला है। कभी-कभी उनके विरोधी उन्हें ‘‘पाॅलिटिक्स का जोकर‘‘ भी कहते हैं तो उनके मैनेजमेंट के हुनर को देखते हुए तमाम प्रतिष्ठित संस्थानों और यहां तक कि विदेशों से उन्हें लेक्चर देने के लिए आमंत्रित किया जाता है। आलम ये है कि उन पर किताब लिखने से लेकर उनसे मिलते-जुलते खिलौनों तक बाजार में उतारने की होड़ मची है। इस कड़ी में मशहूर फोटोग्राफर रघु राय भी अब लालू के मुरीद हो गए हैं। बकौल रघु राय लालू बेहद फोटोजेनिक हैं। एक वर्कशाप में रघु राय ने लालू यादव की तस्वीर खींचने की दिली-ख्वाहिश जाहिर की। वैसे रघु राय इंदिरा गांधी, मदर टेरेसा समेत तमाम मशहूर लोगों को अपने कैमरे में कैद कर चुके हैं और अपनी फोटोग्राफी के लिए वे विश्व स्तर पर मशहूर हैं। आखिरकार जिस लालू प्रसाद यादव को लोग बन्दर से लेकर जोकर तक और भैंस चरवाहे की उपमाओं से नवाजते रहे हैं, ऐसे में रघु राय का कहना कि लालू यादव की पर्सनाॅलिटी डायनेमिक है और उनके चेहरे के भावों को कैमरे में कैद करना एक अनोखा अनुभव होगा, तमाम मिथकों को तोड़ता नजर आता है।

रविवार, 10 मई 2009

के. के. यादव के जीवन पर आधारित पुस्तक का पद्मश्री गिरिराज किशोर द्वारा लोकार्पण

युवा प्रशासक एवं साहित्यकार कृष्ण कुमार यादव के व्यक्तित्व-कृतित्व को सहेजती पुस्तक ‘‘बढ़ते चरण शिखर की ओर : कृष्ण कुमार यादव‘‘ का लोकार्पण ९ मई, २००९ को ब्रह्मानन्द डिग्री कालेज के प्रेक्षागार में आयोजित एक भव्य समारोह में किया गया। उमेश प्रकाशन, इलाहाबाद द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक का सम्पादन दुर्गा चरण मिश्र ने किया है। कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित सुविख्यात साहित्यकार पद्मश्री गिरिराज किशोर ने कहा कि अल्पायु में ही कृष्ण कुमार यादव ने प्रशासन के साथ-साथ जिस तरह साहित्य में भी ऊंचाइयों को छुआ है, वह समाज और विशेषकर युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत है। वे एक साहित्य साधक एवं सशक्त रचनाधर्मी के रूप में भी अपने दायित्वों का बखूबी निर्वहन कर रहे हैं। ऐसे युवा व्यक्तित्व पर इतनी कम उम्र में पुस्तक का प्रकाशन स्वागत योग्य है। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए आभार ज्ञापन करते हुए राष्ट्रभाषा प्रचार समिति उ०प्र० के संयोजक पं० बद्री नारायण तिवारी ने कृष्ण कुमार यादव की रचनाधर्मिता को सराहा और कहा कि ‘क्लब कल्चर‘ एवं अपसंस्कृति के इस दौर में उनकी हिन्दी-साहित्य के प्रति अटूट निष्ठा व समर्पण शुभ एवं स्वागत योग्य है।

इस अवसर पर कृष्ण कुमार यादव की साहित्यिक सेवाओं का सम्मान करते हुए विभिन्न संस्थाओं द्वारा उनका अभिनंदन एवं सम्मान किया गया। इन संस्थाओं में भारतीय बाल कल्याण संस्थान, मानस संगम, साहित्य संगम, उत्कर्ष अकादमी, मानस मण्डल, विकासिका, वीरांगना, मेधाश्रम, सेवा स्तम्भ, पं० प्रताप नारायण मिश्र स्मारक समिति एवं एकेडमिक रिसर्च सोसाइटी प्रमुख हैं।

कार्यक्रम में कृष्ण कुमार यादव के कृतित्व के विभिन्न पहलुओं पर विद्वानजनों ने प्रकाश डाला। डा० सूर्य प्रसाद शुक्ल ने कहा कि श्री यादव भाव, विचार और संवेदना के कवि हैं। उनके भाव बोध में विभिन्न तन्तु परस्पर इस प्रकार संगुम्फित हैं कि इन्सानी जज्बातों की, जिन्दगी के सत्यों की पहचान हर पंक्ति-पंक्ति और शब्द-शब्द में अर्थ से भरी हुई अनुभूति की अभिव्यक्ति से अनुप्राणित हो उठी है। वरेण्य साहित्यकार डा० यतीन्द्र तिवारी ने कहा कि आज के संक्रमणशील समाज में जब बाजार हमें नियमित कर रहा हो और वैश्विक बाजार हावी हो रहा हो ऐसे में कृष्ण कुमार जी की कहानियाँ प्रेम, सम्वेदना, मर्यादा का अहसास करा कर अपनी सांस्कृतिक चेतना के निकट ला देती है। डा० राम कृष्ण शर्मा ने कहा कि श्री यादव की सेवा आत्मज्ञापन के लिए नहीं बल्कि जन-जन के आत्मस्वरूप के सत्यापन के लिए। भारतीय बाल कल्याण संस्थान के अध्यक्ष श्री रामनाथ महेन्द्र ने श्री यादव को बाल साहित्य का चितेरा बताया। प्रसिद्व बाल साहित्यकार डा० राष्ट्रबन्धु ने इस बात पर प्रसन्नता जाहिर की कि श्री यादव ने साहित्य के आदिस्रोत और प्राथमिक महत्व के बाल साहित्य के प्रति लेखन निष्ठा दिखाई है। समाजसेवी राजेन्द्र प्रसाद ने कहा कि श्री यादव में जो असीम उत्साह, ऊर्जा, सक्रियता और आकर्षक व्यक्तित्व का चुम्बकत्व गुण है उसे देखकर मन उल्लसित हो उठता है। अर्मापुर पी०जी० कालेज की हिन्दी विभागाध्यक्ष डा० गायत्री सिंह ने श्री यादव के कृतित्व को अनुकरणीय बताया तो बी०एन०डी० कालेज के प्राचार्य डा० विवेक द्विवेदी ने श्री यादव के व्यक्तित्व को युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत माना। शम्भू नाथ टण्डन ने एक युवा प्रशासक और साहित्यकार पर जारी इस पुस्तक में व्यक्त विचारों के प्रसार की बात कही।

कार्यक्रम में अपने कृतित्व पर जारी पुस्तक से अभिभूत कृष्ण कुमार यादव ने आज के दिन को अपने जीवन का स्वर्णिम पल बताया। उन्होंने कहा कि साहित्य साधक की भूमिका इसलिए भी बढ़ जाती है कि संगीत, नृत्य, शिल्प, चित्रकला, स्थापत्य इत्यादि रचनात्मक व्यापारों का संयोजन भी साहित्य में उसे करना होता है। उन्होने कहा कि पद तो जीवन में आते जाते हैं, मनुष्य का व्यक्तित्व ही उसकी विराटता का परिचायक है।

स्वागत पुस्तक के सम्पादक श्री दुर्गा चरण मिश्र एवं संचालन उत्कर्ष अकादमी के निदेशक प्रदीप दीक्षित ने किया। कार्यक्रम के अन्त में दुर्गा चरण मिश्र द्वारा उमेश प्रकाशन, इलाहाबाद की ओर से सभी को स्मृति चिन्ह भेंट किया गया। कार्यक्रम में श्रीमती आकांक्षा यादव, डा० गीता चौहान, सत्यकाम पहारिया, कमलेश द्विवेदी, मनोज सेंगर, डा० प्रभा दीक्षित, डा० बी०एन० सिंह, सुरेन्द्र प्रताप सिंह, पवन तिवारी सहित तमाम साहित्यकार, बुद्धिजीवी, पत्रकारगण एवं गणमान्य नागरिक उपस्थित थे।

आलोक चतुर्वेदी
उमेश प्रकाशन
100, लूकरगंज, इलाहाबाद

शुक्रवार, 8 मई 2009

IAS के रिजल्ट में 12 यादव अभ्यर्थी सफल

सिविल सेवाएँ प्रशासन और शासन की रीढ़ हैं. इनमें जिसकी जितनी ज्यादा भागीदारी होती है वह राजनैतिक और सामाजिक तौर पर भी उतना ही मजबूत होकर उभरता है.वर्ष 2008 के IAS के रिजल्ट घोषित हो चुके हैं. इनमें कुल 791 में मात्र 12 यादव अभ्यर्थी सफल हुए हैं. इनमें सबसे अच्छी रेंक एक महिला अभ्यर्थी ज्योति यादव (127) की है. यदुकुल की ओर से इन सभी सफल अभ्यर्थियों को बधाई !!

गुरुवार, 7 मई 2009

प्रेरित-प्रियंत पत्रिका के बारे में..

यादव समाज के लोग देश के कोने-कोने में फैले हुए हैं। जो जहां भी है, वहीं से समाज सेवा, साहित्य सेवा एवं राष्ट्रसेवा अपनी स्थिति अनुसार कर रहा है। इसी कड़ी में इंदौर से प्रेरित प्रियन्त ‘प्रियन्त टाइम्स‘ नामक मासिक पत्रिका का संपादन-प्रकाशन कर रहे हैं। पत्रिका देखने में भले ही दुबली-पतली लगती हो पर इसमें निहित सामग्री संपादक की प्रतिबद्धता को दर्शाती है। चूंकि पत्रिका की अपनी सीमाएं हैं, अतः लम्बी रचनाएं प्रकाशित करना संभव नहीं। पर इसके बावजूद कई बार पत्रिका में तमाम समाज सेवियों, महापुरूषों पर विशेषांक रूप में विस्तृत सामग्री दी गई है। सामान्य अंकों में कविता, लेख, लघु कथाएं, गतिविधियों की रिपोर्ट इत्यादि शामिल होती हैं। प्रेरित प्रियन्त का कानपुर से अभिन्न नाता रहा है, यही कारण है कि कानपुर की कोई भी प्रमुख गतिविधि उनकी निगाहों से ओझल नहीं हो पाती और पत्रिका में ससम्मान उपस्थिति दर्ज कराती है।
संपर्क- प्रेरित प्रियन्त, 22- भालेकरीपुरी, इमली बाजार, इन्दौर-4

बुधवार, 6 मई 2009

दलितों-पिछड़ों की सामाजिक, शैक्षणिक, राजनीतिक चेतना को समर्पित पत्रिका

‘आपका आईना‘ पत्रिका ने अभी प्रकाशन आरम्भ ही किया है, परन्तु अल्प समय में ही यह प्रभाव छोड़ने में सफल रही है। दलितों-पिछड़ों की सामाजिक, शैक्षणिक, राजनीतिक चेतना को समर्पित यह त्रैमासिक पत्रिका विभिन्न मुद्दों पर मुखरता से आवाज उठा रही है। इसका स्वर खरा और उच्छृंखल उच्च वर्गों, जातियों, मानसिकताओं के वर्चस्व से नकारात्मक रूप से गहरे प्रभावित वंचितों के पक्ष में है। 90 के दशक के बाद सामाजिक न्याय की लड़ाई में ऐसे तमाम पत्रिकाओं की भूमिका महत्वूपर्ण हो जाती है। पत्रिका के मुख पृष्ठ पर अंकित महात्मा बुद्ध का सूत्रवाक्य ‘अप्प दीपो भव‘ शायद दलितों-पिछड़ों को किसी पर अवलम्बित रहने की बजाय स्वयं का प्रकाश बनने की सीख देता है। डाॅ0 राम आशीष सिंह की सम्पादकीय ‘शूद्र उवाच‘ काफी तीक्ष्ण होती है, पर यह उस तीक्ष्णता के आगे कुछ भी नहीं है जिसे दलितों-पिछड़ों ने एक लम्बे समय तक सहा है। पत्रिका में प्रकाशित रचनायें जहाँ विचारोत्तेजक हैं, वहीं तमाम महापुरूषों-व्यक्तित्व पर प्रकाशित लेख पत्रिका को सुदृढ़ता देते हैं। निश्चिततः आज का भारतीय समाज जिस रूप में हमारे सामने मौजूद है, उसमें ‘आपका आईना‘ की उपस्थिति काफी प्रासंगिक एवं समयानुकूल है।
संपर्क-डाॅ0 राम अशीष सिंह, समीक्षा प्रकाशन, मानिक चंद तालाब, अनीसाबाद, पटना-800002

सोमवार, 4 मई 2009

लघु पत्रिका:शब्द

आमतौर से लघु पत्रिकाओं का जीवन बहुत संक्षिप्त होता है किन्तु उनके महत्व का आंकलन इस दृष्टि से नहीं किया जाना चाहिए। महत्वपूर्ण यह है कि लघु जीवन काल में पत्रिका ने कितना गौरव सम्मान अर्जित किया। लखनऊ की साहित्यिक संस्था ‘शब्द पीठ‘ द्वारा मासिक रूप में 1971 से प्रकाशित ‘शब्द‘ पत्रिका के आाकर पर मत जाइये, यह अपने अन्दर व्यापक आयामों को समेटे हुए है। कविता, कहानी, लेख, व्यंग्य, लघु कथाएं जैसी साहित्य की लगभग सभी विधायें उपलब्ध हैं तो पत्रिका में वैचारिक आलेख भी प्रकाशित किये जाते हैं। सारगर्भित रूप में प्रकाशित पुस्तक समीक्षायें इसे पाठकों के और करीब लाती हैं। निश्चिततः पत्रिका जिन उद्देश्यों को लेकर चली थी, उनमें सफल दिखती है।
संपर्क- श्री आर0सी0यादव, सी-1104, इन्दिरा नगर, लखनऊ-226016

रविवार, 3 मई 2009

लोक साहित्य को समर्पित: अमृतायन

लोक साहित्य को समर्पित त्रैमासिक पत्रिका ‘अमृतायन‘ का प्रवेशांक मार्च-मई 2009 अंक रूप में प्रकाशित हुआ है। पहले यह पत्रिका ‘लोकायन‘ नाम से प्रकाशित हुई थी पर कुछ तकनीकी दिक्कतों के कारण अब यह ‘अमृतायन‘ नाम से प्रकाशित होगी। आज हिन्दी के समानांतर ही अवधि, ब्रज, भोजपुरी जैसी तमाम बोलियां भी लिखित रूप में साहित्य में प्रश्रय पा रही हैं। लोक साहित्य की रचनाधर्मिता और उमंग को इन बोलियों से निकाल कर लोगों के समक्ष प्रस्तुत करने का कार्य ‘अमृतायन‘ द्वारा किया जा रहा है। लोक साहित्य और संस्कृति से जुड़े तमाम आयाम इस पत्रिका की शोभा बढ़ा रहे हैं। कुमाऊंनी भाषा के परिचय से लेकर लोकपर्व - टेसू विवाह पर प्रस्तुत आलेख महत्वपूर्ण है। कजरी पर कृष्ण कुमार यादव का प्रस्तुत लेख लोक रंगत की धाराओं के माध्यम से लोक जीवन में तेजी से मिटते मूल्यों को बचाने की भी बात करता है। अवधि के लोग कवि घाघ पर प्रकाशित लेख सारगर्भित है। आकांक्षा यादव ने ‘लोक चेतना में स्वाधीनता की लय‘ को खूबसूरत शब्दों में पिरोया है। तमाम लोकोक्तियों, कविताओं एवं लेखों से सुशोभित ‘अमृतायन‘ को हिन्दी के विद्वान प्रो0 सूर्य प्रसाद दीक्षित का संरक्षण और भी महत्वपूर्ण बनाता है।
संपर्क-डा0 अशोक ‘अज्ञानी‘, हिन्दी अनुभाग, राजकीय हुसैनाबाद इंटर कालेज, चौक, लखनऊ-226003

शनिवार, 2 मई 2009

हिन्दी साहित्य के ‘द ग्रेट शो मैन‘ राजेन्द्र यादव और ‘हंस‘

यदि भारत में आज हिन्दी साहित्य जगत की लब्धप्रतिष्ठित पत्रिकाओं का नाम लिया जाये तो उनमें शीर्ष पर है-हंस और यदि मूर्धन्य विद्वानों का नाम लिया जाय तो सर्वप्रथम राजेन्द्र यादव का नाम सामने आता है। साहित्य सम्राट प्रेमचंद की विरासत व मूल्यों को जब लोग भुला रहे थे, तब राजेन्द्र यादव ने प्रेमचंद द्वारा 1930 में प्रकाशित पत्रिका ‘हंस’ का पुर्नप्रकाशन आरम्भ करके साहित्यिक मूल्यों को एक नई दिशा दी।

आज 23वें वर्ष में प्रकाशित हो रही यह पत्रिका अपने अन्दर कहानी, कविता, लेख, संस्मरण, समीक्षा, लघुकथा, गजल इत्यादि सभी विधाओं को उत्कृष्टता के साथ समेटे हुए है। ‘‘मेरी-तेरी उसकी बात‘‘ के तहत प्रस्तुत राजेन्द्र यादव की सम्पादकीय सदैव एक नये विमर्श को खड़ा करती नजर आती है। यह अकेली ऐसी पत्रिका है जिसके सम्पादकीय पर तमाम प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाएं किसी न किसी रूप में बहस करती नजर आती हैं। समकालीन सृजन संदर्भ के अन्तर्गत भारत भारद्वाज द्वारा तमाम चर्चित पुस्तकों एवं पत्र-पत्रिकाओं पर चर्चा, मुख्तसर के अन्तर्गत साहित्य-समाचार तो बात बोलेगी के अन्तर्गत कार्यकारी संपादक संजीव के शब्द पत्रिका को धार देते हैं। साहित्य में अनामंत्रित एवं जिन्होंने मुझे बिगाड़ा जैसे स्तम्भ पत्रिका को और भी लोकप्रियता प्रदान करते है।

कविता से लेखन की शुरूआत करने वाले हंस के सम्पादक राजेन्द्र यादव ने बड़ी बेबाकी से सामन्ती मूल्यों पर प्रहार किया और दलित व नारी विमर्श को हिन्दी साहित्य जगत में चर्चा का मुख्य विषय बनाने का श्रेय भी उनके खाते में है। निश्चिततः यह तत्व हंस पत्रिका में भी उभरकर सामने आता है। आज भी ‘हंस’ पत्रिका में छपना बड़े-बड़े साहित्यकारों की दिली तमन्ना रहती है। न जाने कितनी प्रतिभाओं को इस पत्रिका ने पहचाना, तराशा और सितारा बना दिया, तभी तो इसके संपादक राजेन्द्र यादव को हिन्दी साहित्य का ‘द ग्रेट शो मैन‘ कहा जाता है। निश्चिततः साहित्यिक क्षेत्र में हंस एवं इसके विलक्षण संपादक राजेन्द्र यादव का योगदान अप्रतिम है।


(राजेंद्र यादव के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए क्लिक करें- http://en.wikipedia.org/wiki/Rajendra_Yadav)
संपर्क-राजेन्द्र यादव, अक्षर प्रकाशन प्रा0 लि0, 2/36 अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली

शुक्रवार, 1 मई 2009

अब 24 कैरेट सोने में भगवदगीता

भगवदगीता भला किसे नहीं प्रिय होगी। कारपोरेट संस्कृति के इस दौर से भगवदगीता भी अछूती नहीं रही। प्रसिद्ध ज्वैलरी कम्पनी तनिष्क ने 24 कैरेट खरे सोने से निर्मित 1 वर्ग से0मी0 आकार के पेंडेंट में गीता के 18 अध्याय समेटने का करिश्मा कर दिखाया है। तनिष्क द्वारा प्रस्तुत इस पेंडेट में गीता के उपदेशों को 20 गुना माइक्रोस्कोप से देखा जा सकता है और उन्हें पढ़ने के लिए 200 गुना माइक्रोप की जरूरत होगी। नैनो तकनीक से तैयार यह पेंडेट 6 अलग डिजाइनों में उपलब्ध होगा। ....तो यदि आपको भगवदगीता में आस्था है एवं आपकी पाकेट अनुमति देती है तो निःसंकोच आप 24 कैरेट खरे सोने से निर्मित पेंडेट में इसे साथ लेकर चल सकते हैं।