शुक्रवार, 22 मई 2009

1857 की क्रान्ति के यदुवंशी नायक : राव तुलाराम

1857 की क्रान्ति भारतीय इतिहास ही नहीं वरन् जनमानस के संदर्भ में भी एक मील का पत्थर मानी जाती है। पराधीन भारत से लेकर स्वाधीन भारत के बीच 1857 वह महत्वपूर्ण रेखा है, जिसके दोनों ओर सौ-सौ वर्ष के घटनाक्रमों की लम्बी श्रृंखला जुड़ी हुई हैं, जो 1857 की प्रथम स्वाधीनता क्रान्ति को ठीक 90साल बाद 1947 के शिखर तक ले जाने वाली कड़ियाँ बनीं। इस क्रान्ति का देश के विभिन्न हिस्सों में भिन्न-भिन्न लोगों ने नेतृत्व किया। नेतृत्व कर्ताओं ने हर जाति-धर्म के लोग शामिल थे। इनमें से एक थे रेवाड़ी के शासक- राव तुलाराम, जिन्होंने इस क्रान्ति का हरियाणा में नेतृत्व किया। यदुवंशी राव तुलाराम की वीरता के किस्से आज भी मशहूर हैं। हरियाणा प्रान्त स्थित रेवाड़ी एक प्रसिद्व ऐतिहासक नगर रहा है। महाभारत काल में भी यह नगर अवस्थित था। भगवान श्रीकृष्ण के ज्येष्ठ भ्राता बलराम जी की पत्नी रेवती के पिता राजा रेवत ने अपनी पुत्री रेवती को दहेज में वह स्थान दिया था। उसी स्थान पर बलरामजी ने एक नगर बसाया जिसका नाम रखा गया रेवत वाड़ी। वही रेवत वाड़ी कालान्तर में अपभ्रंश होकर रेवाड़ी कहलाया।

राजा राव तुलाराम के एक दूर के भाई राव कृष्ण गोपाल अंग्रेजों की सेवा में थे और 1857 में वे मेरठ में एक पुलिस अफसर थे। मेरठ में जब अंग्रजी फौज में अंग्रेज शासकांे के प्रति विद्रोह की आग सुलगने लगी तो सैनिकों ने वहां के अन्य सरकारी अफसरों को भी विश्वास में लेने की कोशिश की। उन अफसरों ने उन्हें सहानुभूति ही नहीं दी बल्कि हर तरह की सहायता का भी आश्वासन दिया। किसी तरह यह बात अंग्रेज अफसरों को मालूम हो गई उन्होंने शक के आधार पर उन लोगो में से अधिकांश को कैद कर लिया और जेल में बंद कर दिया। जब यह तथ्य राव कृष्ण गोपाल को मालूम हुआ तो उन्होने अंगे्रजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया। उनके नेतृत्व में सेना व अन्य गैर सैनिक अफसरों एवं विद्रोहियों ने क्रांति का बिगुल फूंक दिया। मेरठ की जेल पर आक्रमण कर उन लोगों ने बंद क्रांतिकारियों को मुक्त कर दिया। क्रांतिकारियों की यह टुकडी दिल्ली पहंुची, जहां दिल्ली के बादशाह बहादुर शाह जफर से सम्पर्क किया। उनका आशीर्वाद और सहायता का आश्वासन पाकर वह टुकड़ी रेवाड़ी की ओर बढी। तवाडू के पास अग्रेजो की एक सैनिक टुकड़ी से उनका युद्व हुआ जिसमें राव तुलाराम भी उन लोगों से मिल गये। अंग्रेजी सेना हार कर भाग गई। राव तुलाराम को समय मिल गया और उन्हांेने अपनी सेना को फिर से संगठित कर अग्रंेजांे के खिलाफ युद्व की घोषणा कर दी।

राव तुलाराम की सेना अंग्रेजों से युद्व के लिए तैयार थी। अंग्रेजी सेना भी दिल्ली की ओर से बढ़ी आ रही थी। नारनौल के पास नसीबपुर के मैदान में दोनांे संेंनाओं का आमना-सामना हो गया। युद्व शुरू हुआ और रेवाड़ी की आम जनता ने राव तुलाराम की सेना की हर तरह से मदद की। उनकी सेना में अहीर,जाट,गूजर,राजपूत आदि सभी थे। यह युद्व एक सप्ताह तक चलता रहा। उधर अंग्रेजो को राव तुलाराम के विद्रोही हो जाने की खबर मिल चुकी थी। वे लोग एक बडी सेना का संगठन करने में लग गये। जनरल कार्टलैंड के सेनापतित्व में अंग्रेजो़ं की सेना ने पीछे से ही राव तुलाराम की सेना पर वार किया। अंग्रेजों की सेना में पटियाला, नाभा जिंद, अलवर आदि जगहों के सैनिक भी थे। दोनों सेनाओं के बीच में पडकर राव तुलाराम की सेना को काफी हानि उठानी पडी। अंग्रेजों की इस विशाल सेना के साथ राव तुलाराम की सेना बहादुरी से लडी, लेकिन अंततः जीत अंग्रेजों की ही हुई।

राव तुलाराम नसीवपुर के युद्व में पराजित जरूर हुए पर उनकी हिम्मत ने हार नहीं मानी। वे वहीं से राजस्थान की ओर निकल गये और बीकानेर, जोधपुर और कोटा, बूंदी होते हुए अपने कुछ विश्वस्त साथियों के साथ कालपी पहंुचे। कालपी में नाना साहब, तात्या टोपे और रानी लक्ष्मीबाई पहले ही से आ गये थे। उन लोगों ने राव साहब का स्वागत किया। वहीं मंत्रणा हुई कि अंग्रेजों को पराजित करने के लिए विदेशों से भी मदद ली जाये। एतदर्थ सबकी राय हुई कि राव तुलाराम विदेशी सहायता प्रबंध करने ईरान जायंे। राव साहब अपने मित्रों नजात अली, रामसुख, तारा सिंह और हर सहाय के साथ अहमदाबाद होते हुए बम्बई चले गये। वहां से वे लोग छिपकर ईरान पहुंचे। वहां के शाह ने उनका खुले दिल से स्वागत किया। वहां राव तुलाराम ने रूस के राजदूत से बातचीत की । वे काबुल के शाह से मिलना चाहते थे। एतदर्थ वे ईरान से काबुल गये जहां उनका शानदार स्वागत किया गया। काबुल के अमीर ने उन्हें सम्मान सहित वहां रखा।लेकिन रूस के साथ सम्पर्क कर विदेशी सहायता का प्रबंध किया जाता तब तक सूचना मिली कि अंग्रेजांे ने उस विद्रोह को बुरी तरह से कुचल दिया है और स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों को पकड़-पकड़कर फांसी दी जा रही है।
अब राव तुलाराम का स्वास्थ्य भी इस लम्बी भागदौड के कारण बुरी तरह प्रभावित हुआ था। वे अपने प्रयास में सफल होकर कोई दूसरी तैयारी करते तब तक उनका स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित हो गया था। वे काबुल में रहकर ही स्वास्थ्य लाभ कर कुछ दूसरा उपाय करने की सोचने लगे। उस समय तुरंत भारत लौटना उचित भी नहीं था। उनका काबुल में रहने का प्रबंध वहां के अमीर ने कर तो दिया पर उनका स्वास्थ्य नहीं संभला और दिन पर दिन गिरता ही गया। अंततः 2 सितम्बर 1863 को उस अप्रतिम वीर का देहंात काबुल में ही हो गया। वीर-शिरोमणि यदुवंशी राव तुलाराम के काबुल में देहान्त के बाद वहीं उनकी समाधि बनी जिस पर आज भी काबुल जाने वाले भारतीय यात्री बडी श्रद्वा से सिर झुकाते हैं और उनके प्रति आदर व्यक्त करते हैं। राव तुलाराम पर डाक विभाग द्वारा 23 सितम्बर, 2001को डाक-टिकट जारी किया गया.


11 टिप्‍पणियां:

Amit Kumar Yadav ने कहा…

राव तुलाराम जी के बारे में अच्छी जानकारी.

Amit Kumar Yadav ने कहा…
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www.dakbabu.blogspot.com ने कहा…

Rav Tularam was really a great warrior...salute.

www.dakbabu.blogspot.com ने कहा…

आपने डाक टिकट तो खूब देखे होंगे...पर "सोने के डाक टिकट" भी देखिये. मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है!!

Akanksha Yadav ने कहा…

यदुकुल ब्लॉग के द्वारा आप जिस तरह तमाम विभूतियों से परिचित करा रहे हैं, सराहनीय है.

शरद कुमार ने कहा…

१८५७ के इस वीर को नमन.

KK Yadav ने कहा…

Nice Article on Tularam.

KK Yadav ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Ram Avtar Yadav ने कहा…

bahut achchhi jankari di gai gai.

Unknown ने कहा…

सराहनीय

Unknown ने कहा…

Aaj tak ye history me nahi padhaya jata oor ye padhaya jata Akbar mahan tha baki haquikat me kartik tha