सोमवार, 31 अगस्त 2009

प्रियंका यादव ने तैराकी में जीते पांच स्वर्ण

व्यक्ति में हौसला हो तो वह आसमां से तारे भी तोड़ लाता है। ग्रामीण अंचलों में अभी भी कई ऐसी प्रतिभायें बसती हैं, जिन्हें यदि उचित परिवेश उपलब्ध कराया जाय तो वे वैश्विक स्तर पर देश का नाम रोशन कर सकती हैं। 30 अगस्त 2009 को लखनऊ के के0डी0 सिंह बाबू स्टेडियम के ओलंपिक आकार के स्वीमिंग पूल में के0एन0 कपूर की याद में सम्पन्न राज्य सीनियर तैराकी चैंपियनशिप में कुशीनगर की प्रियंका यादव ने महिला वर्ग में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए चैंपियनशिप हासिल की। जितनी स्पर्धाओं में प्रियंका यादव उतरी सभी में अर्थात् पांच स्वर्ण पदक उसके गले लगा। तीन में तो राज्य का नया रिकार्ड ही बना दिया। पूल के इर्द-गिर्द बैठे खेल प्रेमी इंडीविजुअल मिडले के हर स्ट्रोक में उसको पानी को चीर कर तेजी से बढ़ते हुए आश्चर्य से देख रहे थे। जब लाउडस्पीकर पर गूँजा ‘प्रियंका ने कुशीनगर के देवरिया गाँव के तालाब में अभ्यास कर राष्ट्रीय स्तर पर कई पदक जीते हैं। प्रियंका पहली बार सीनियर लेवल पर हिस्सा ले रही है।‘ इसके बाद तो हर कोई प्रियंका को पास से देखने को उतावला था। प्रियंका यादव ने राज्य चैंम्पियनशिप में पाँच स्वर्ण पदक अपने नाम किए। यहीं पर गोताखोरी प्रतियोगिता में डी0एल0डब्ल्यू0 के गोताखोर नवीन यादव व्यक्तिगत चैंपियन बने।

प्रियंका के पिता जयलाल यादव ग्रामीण किसान हैं। खेती बस इतनी है कि परिवार का पेट ही भर पाता है। आय का कोई साधन नहीं है। जब से प्रियंका यादव ने होश संभाला तब से गाँव के पोखर में ही नहाने जाती थी। धीरे-धीरे पानी में उतरी और तैरना भी आ गया। पहली बार तो कुछ खास नहीं किया। पर 2004 के बाद पदक जीतने लगी। प्रियंका यादव बताती है कि ‘अब मैं अपने इवेंटों में चैंपियन हूँ। गाँव में न कोई कोच है और न ही अभ्यास का तय शेड्यूंल बस, सीनियर तैराक भूपेन्द्र उपाध्याय जो बताते रहे वही वह करती गई।‘ साल भर पहले प्रियंका ने भारतीय खेल प्राधिकरण के कैंप के लिए ट्रायल दिया। उसका चयन भी हो गया। प्रियंका बताती है कि अब वह अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पदक जीतकर दिखाएगी।

(साभार - हिंदुस्तान, 31 अगस्त 2009)

शुक्रवार, 28 अगस्त 2009

80 साल के हुए राजेंद्र यादव

यूँ तो व्यक्ति का जन्म एक ही दिन होता है। अतः उसका जन्मदिन भी साल में एक बार ही पड़ता है। इंसान बुलंदियों पर होता है तो उसका जन्मदिन उत्सव के रूप में कई-कई दिनों तक चलता रहता है। अब यही चर्चित साहित्यकार राजेंद्र यादव जी के साथ हो रहा है. साहित्याकाश के वह चमकते सितारे हैं। जिसकी कथा उन्होंने ’हंस‘ में छाप दी, वह भी रातोंरात स्टार बन जाता है। तो जनाब इसी शख्सियत का 80वां जन्मदिन आज 28 अगस्त (1929 में जन्म) को है लेकिन उनके चाहने वालों ने इस बार उनका जन्मदिनोंत्सव दो दिन मनाने का फैसला किया है। एक दिन का जिम्मा ख्यात साहित्यकार अशोक वाजपेयी ने अपने कंधे पर उठा रखा है तो दूसरे दिन की जिम्मेदारी स्वयं राजेंद्र यादव की नृत्यांगना बिटिया रचना यादव पर है। अब बिटिया की बात तो समझ में आती है लेकिन अशोक वाजपेयी के ‘होस्ट‘ बनने का कारण क्या है? इस बारे में पत्र-पत्रिकाओं में तरह-तरह की बातें हो रही हैं, लेकिन सुना यह भी जा रहा है कि जबसे एक मंच से नामवर सिंह ने राजेंद्र यादव की खिंचाई की है, अशोक वाजपेयी राजेंद्र यादव जी के और करीब सरक आए हैं। अब यह तो सभी जानते हैं कि नामवर सिंह और अशोक वाजपेयी के साहित्य जगत में परस्पर रिश्ते कैसे हैं? इसलिए यह बताने की जरूरत भी नहीं कि अशोक वाजपेयी दावत क्यों दे रहे हैं....! खैर, हम तो यही कहेंगे हैप्पी बर्थ-डे टू राजेंद्र यादव जी. आप दीर्घायु हों...आपकी साहित्यिक उम्र दीर्घायु हो...आखिरकार आप साहित्य जगत के साथ-साथ यदुवंशियों के भी सिरमौर हैं.

मंगलवार, 25 अगस्त 2009

"अनंता" पत्रिका में "यदुकुल" की चर्चा

लखनऊ से पूनम यादव के संपादन में प्रकाशित मासिक पत्रिका अनंता ने अगस्त-2009 अंक में यदुकुल ब्लॉग की चर्चा की है....अनंता का आभार !!

शनिवार, 22 अगस्त 2009

विदेशी राजनीति में भी छाये यदुवंशी

भारत वर्ष में यादवों के राजनैतिक उत्कर्ष के तमाम उदाहरण मिलते हैं, पर अब विदेशों में भी तमाम उदाहरण मिलने लगे हैं। नेपाल की जनता ने अपने 240 वर्ष पुराने राजतंत्र को उखाड़कर लोकतांत्रिक पद्धति अपनाई और डा0 रामबरन यादव को अपना पहला राष्ट्रपति चुना. डा0 रामबरन यादव ने 1981 में मेडिकल कालेज कलकत्ता से एम0बी0बी0एस0 की डिग्री प्राप्त की और उसके बाद 1985 में एम0डी0 (फिजीशियन) की डिग्री चंडीगढ़ से प्राप्त की। अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने लगभग आठ साल तक चण्डीगढ़ में रहकर ही अपनी मैडिकल प्रैक्टिस की। यह भारत और विशेषकर यहां के यादवों के लिए गौरव का विषय है। इससे पूर्व विदेशों में त्रिनिडाड व टोबैगो के पूर्व प्रधानमंत्री श्री वासुदेव पांडे (उनके पूर्वज पानी पिलाते थे, अतः पानी पांडे कहलाने से पांडे सरनेम आया) और मारीशस के पूर्व प्रधानमंत्री अनिरूद्ध जगन्नाथ को भी यादव मूल का माना जाता है। नेपाल के उपप्रधानमंत्री रहे उपेन्द्र यादव और वहाँ संसद की डिप्टी स्पीकर चन्द्र लेखा यादव भी यादवों की ही वंशज हैं।

सशक्त यदुवंशी राजनेता: मुलायम सिंह यादव

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे मुलायम सिंह यादव एक सधे हुए राजनेता हंै। तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और एक बार केन्द्र में रक्षामंत्री की कुर्सी संभाल चुके मुलायम सिंह एक ऐसे राज्य में सत्तासीन रहे हैं जहाँ सत्ता की लड़ाई के लिए चार प्रमुख राजनैतिक दलों में सीधी लड़ाई है, जबकि अन्य राज्यों में यह दो या तीन दलों मंे सिमटी हुई है। 9 सितम्बर 1992 को सजपा से अलग होकर उन्होंने समाजवादी पार्टी का गठन किया। पहली बार 5 दिसम्बर 1989-24 जून 1991 तक वे उ0प्र0 के मुख्यमंत्री रहे एवं तत्पश्चात सपा-बसपा गठजोड़ से 5 दिसम्बर 1993-3 जून 1995 तक और तीसरी बार 29 अगस्त 2003-11 मई 2007 तक मुख्यमंत्री रहे। देवगौड़ा सरकार में 1 जून 1996 को मुलायम सिंह ने केन्द्रीय रक्षा मंत्री का कार्यभार संभाला।

अपने मुख्यमंत्रित्व काल में मुलायम सिंह ने अपने कुशल वित्तीय प्रबंधन का परिचय देते हुए जहाँ एक तरफ कन्याओं, बेरोजगारों, महिलाओं इत्यादि तमाम वर्गों को तमाम कल्याणकारी योजनाओं से उपकृत किया वहीं एक लम्बे समय बाद प्रदेश सरकार हेतु भारी मात्रा में राजस्व भी एकत्र किया। तथ्य बतातें हैं कि उनके कार्यकाल में उत्तर प्रदेश में 23 वर्ष के बाद राजस्व घाटा बेहद कम हुआ, आर्थिक पिछड़ापन पाँच पायदान सुधरा और राजकोषीय घाटा भी संतोषजनक स्तर तक नीचे आ गया। भारतीय रिजर्व बैंक ने भी माना कि उत्तर प्रदेश में तीन वर्षो के दौरान न केवल राजस्व और राजकोषीय घाटे में कमी आई अपितु ऋणग्रस्तता भी कम हुई और विकास दर भी 3.2 प्रतिशत से बझ़कर सात प्रतिशत तक पहुच गई। स्वयं मुलायम सिंह यादव कई बार दोहरा चुके हैं कि सरकार के पास धन की कमी नहीं है वरन् धन को खर्च करने की समस्या है।

शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

लोकप्रिय यदुवंशी राजनेता: लालू प्रसाद यादव

लालू प्रसाद यादव ने एक राजनेता के रूप में काफी ख्याति अर्जित की। लालू प्रसाद यादव का अंदाज ही निराला है। कभी-कभी उनके विरोधी उन्हें ‘‘पाॅलिटिक्स का जोकर‘‘ भी कहते हैं पर उनके मैनेजमेंट के हुनर को देखते हुए तमाम प्रतिष्ठित संस्थानों और यहांँ तक कि विदेशों से उन्हें लेक्चर देने के लिए आमंत्रित किया गया। आलम ये है कि उन पर किताब लिखने से लेकर उनसे मिलते-जुलते खिलौनों तक बाजार में उतारने की होड़ मची रहती है। प्रबंधन पर 40 से भी अधिक पुस्तकें लिख चुके प्रख्यात लेखक प्रमोद बत्रा लालू के नुस्खों पर भी अब एक किताब लिखने जा रहे हैं। बिहार में लम्बे समय तक मुख्यमंत्री (10 मार्च 1990-31 मार्च 1995 एवं 4 अप्रैल 1995-25 जुलाई 1997) के रूप में शासन करने वाले लालू यादव ने केन्द्रीय रेलमंत्री के रूप में रेल सेवा का भी भारत में कायापलट कर डाला।

ग्रामीण जीवन से जुड़े प्रबंधन के सहज तत्वों को मंत्रालय के रोजमर्रा के कार्यों से जोड़ने का लालू यादव का कौशल बेमिसाल है। अपनी देहाती छवि के अनुरूप उन्होंने पाश्चात्य अर्थव्यवस्था के नियमों का अनुसरण करने की बजाय देशी नुस्खा दे डाला कि यदि गाय को पूरी तरफ नहीं दुहोगे तो वह बीमार पड़ जाएगी। भूतल परिवहन क्षेत्र के जिस सबसे बड़े सरकारी उपक्रम को राकेश मोहन समिति की रिपोर्ट में घाटे का सौदा करार दे दिया गया था, वही लालू यादव के कार्यकाल में लगातार अपने कारोबार में उल्लेखनीय सुधार करता रहा। यह लालू प्रसाद यादव की प्रबन्धन क्षमता का ही कमाल था कि रेलवे की व्यवसायिक सफलता की कहानी को समझने के लिए हार्वर्ड के अकादमीशियनों और एचएसबीसी-गोल्डमैन शैच्स व मेरिल लिंच जैसे कई अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के विशेषज्ञ उनके कार्यकाल में रेल मंत्रालय के मुख्यालय का दौरा करने आये। यही नहीं भारतीय प्रबंध संस्थान, बंगलौर और भारतीय प्रशासनिक सेवा के प्रशिक्षु अधिकारियों को प्रशिक्षण देने वाली लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय अकादमी, मसूरी ने लालू यादव को व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया। भारतीय प्रबंध संस्थान, अहमदाबाद ने अपने पाठ्यक्रम में लालू की रेल की कहानी को विशेष विषय के रूप में शामिल किया और स्वयं लालू प्रसाद यादव ने इस संस्थान के विद्यार्थियों की मैनेजमेंट की क्लास ली। भारतीय प्रबंध संस्थान, अहमदाबाद के निदेशक बकुल एच0 ढोलकिया के अनुसार- ‘‘हमें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि श्री लालू प्रसाद यादव की राजनीतिक छवि कैसी है। हम तो बस इतना जानते हैं कि वह व्यक्ति मैनेजमेंट गुरू होने के काबिल है और हम हमेशा नई चीजें सीखने के लिए तैयार रहते हंै।’’

बुधवार, 19 अगस्त 2009

प्रथम यदुवंशी पर डाक टिकट : राम सेवक यादव

प्रथम यदुवंशी जिनके ऊपर डाक टिकट जारी हुआ, वे हैं राम सेवक यादव। उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जनपद में जन्मे राम सेवक यादव ने छोटी आयु में ही राजनैतिक-सामाजिक मामलों में रूचि लेनी आरम्भ कर दी थी। लगातार दूसरी, तीसरी और चौथी लोकसभा के सदस्य रहे राम सेवक यादव लोक लेखा समिति के अध्यक्ष, विपक्ष के नेता एवं उत्तर प्रदेश विधान सभा के सदस्य भी रहे। समाज के पिछड़े वर्ग के उद्धार के लिए प्रतिबद्ध राम सेवक यादव का मानना था कि कोई भी आर्थिक सुधार यथार्थ रूप तभी ले सकता है जब उससे भारत के गाँवों के खेतिहर मजदूरों की जीवन दशा में सुधार परिलक्षित हो। इस समाजवादी राजनेता के अप्रतिम योगदान के मद्देनजर 2 जुलाई 1997 को उन पर डाक टिकट जारी किया गया। राम सेवक यादव को यह गौरव प्राप्त है कि वे प्रथम यादव विभूति थे, जिन पर डाक टिकट जारी किया गया। अन्य लोगों में बी0पी0 मण्डल (1 जून, 2001), चौधरी ब्रह्म प्रकाश (11 अगस्त, 2001) एवं राव तुलाराम (23 सितम्बर, 2001) शामिल हैं।

प्रथम यदुवंशी मुख्यमंत्री :चौधरी ब्रह्म प्रकाश

भारत में यादवों का राजनीति में पदार्पण आजादी के बाद ही आरम्भ हो चुका था, जब शेर-ए-दिल्ली एवं मुगले-आजम के रूप में मशहूर चौधरी ब्रह्म प्रकाश दिल्ली के प्रथम मुख्यमंत्री बने थे।1952 में मात्र 34 वर्ष की आयु में मुख्यमंत्री पद पर पदस्थ चौधरी ब्रह्म प्रकाश 1955 तक दिल्ली के मुख्यमंत्री रहे। बाद में वे संसद हेतु निर्वाचित हुए एवं खाद्य एवं केन्द्रीय खाद्य, कृषि, सिंचाई और सहकारिता मंत्री के रूप में उल्लेखनीय कार्य किये। 1977 में उन्होंने पिछड़ी जातियों, अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों व अल्पसंख्यकों का एक राष्ट्रीय संघ बनाया ताकि समाज के इन कमजोर वर्गों की भलाई के लिए कार्य किया जा सके। राष्ट्र को अप्रतिम योगदान के मद्देनजर 11 अगस्त 2001 को चौधरी ब्रह्म प्रकाश के सम्मान में डाक टिकट भी जारी किया गया।

सोमवार, 17 अगस्त 2009

सामाजिक न्याय के पैरोकार: बी. पी. मंडल

स्वतन्त्रता पश्चात यादव कुल के जिन लोगों ने प्रतिष्ठित कार्य किये, उनमें बी0पी0 मंडल का नाम प्रमुख है। बिहार के मधेपुरा जिले के मुरहो गाँव में पैदा हुए बी0पी0 मंडल 1968 में बिहार के मुख्यमंत्री बने। 1978 में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष रूप में 31 दिसम्बर 1980 को मंडल कमीशन के अध्यक्ष रूप में इसके प्रस्तावों को राष्ट्र के समक्ष उन्होंने पेश किया। यद्यपि मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने में एक दशक का समय लग गया पर इसकी सिफारिशों ने देश के समाजिक व राजनैतिक वातावरण में काफी दूरगामी परिवर्तन किए। कहना गलत न होगा कि मंडल कमीशन ने देश की भावी राजनीति के समीकरणांे की नींव रख दी। बहुत कम ही लोगों को पता होगा कि बी0 पी0 मंडल के पिता रास बिहारी मंडल जो कि मुरहो एस्टेट के जमींदार व कांग्रेसी थे, ने ‘‘अखिल भारतीय गोप जाति महासभा’’ की स्थापना की और सर्वप्रथम माण्टेग्यू चेम्सफोर्ड समिति के सामने 1917 में यादवों को प्रशासनिक सेवा में आरक्षण देने की माँग की। यद्यपि मंडल परिवार रईस किस्म का था और जब बी0पी0 मंडल का प्रवेश दरभंगा महाराज (उस वक्त दरभंगा महाराज देश के सबसे बडे़ जमींदार माने जाते थे) हाई स्कूल में कराया गया तो उनके साथ हाॅस्टल में दो रसोईये व एक खवास (नौकर) को भी भेजा गया। पर इसके बावजूद मंडल परिवार ने सदैव सामाजिक न्याय की पैरोकारी की, जिसके चलते अपने हलवाहे किराय मुसहर को इस परिवार ने पचास के दशक के उत्तरार्द्ध में यादव बहुल मधेपुरा से सांसद बनाकर भेजा। राष्ट्र के प्रति बी0पी0 मंडल के अप्रतिम योगदान पर 1 जून 2001 को उन पर डाक टिकट जारी किया गया।

रविवार, 16 अगस्त 2009

राजनीति में यदुवंशी- अब तक 9 यादव मुख्यमंत्री

लोकतंत्र में राजनीति सत्ता को निर्धारित करती है। राजनीति में सशक्त भागीदारी ही अंतोगत्वा सत्ता में परिणिति होती है। भारत के संविधान निर्माण हेतु गठित संविधान सभा के सदस्य रूप में लक्ष्मी शंकर यादव ने अपनी भूमिका का निर्वाह किया। वे बाद में उत्तर प्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री एवं उ0प्र0 कांग्रेस अध्यक्ष भी रहे। भारत में यादवों का राजनीति में पदार्पण आजादी के बाद ही आरम्भ हो चुका था, जब शेर-ए-दिल्ली एवं मुगले-आजम के रूप में मशहूर चौधरीब्रह्म प्रकाश दिल्ली के प्रथम मुख्यमंत्री बने थे। तब से अब तक भारत के विभिन्न राज्यों में 9 यादव मुख्यमंत्री पद पर आसीन हो चुके हैं।
1952 में मात्र 34 वर्ष की आयु में मुख्यमंत्री पद पर पदस्थ चौधरी ब्रह्म प्रकाश 1955 तक दिल्ली के मुख्यमंत्री रहे। हरियाणा में 1857 की क्रान्ति का नेतृत्व करने वाले राव तुलाराम के वंशज राव वीरेन्द्र सिंह हरियाणा के द्वितीय मुख्यमंत्री (1967) रहे। उत्तर प्रदेश में राम नरेश यादव (23 जून 1977-5 फरवरी 1979) व मुलायम सिंह यादव, बिहार में बी0पी0मण्डल (1 फरवरी 1968-22 मार्च 1968), दरोगा प्रसाद राय (16 फरवरी 1970-22 सितम्बर 1970), लालू प्रसाद यादव (10 मार्च 1990-31 मार्च 1995 एवं 4 अप्रैल 1995-25 जुलाई 1997), राबड़ी देवी (25 जुलाई 1997-12 फरवरी 1999, 9 मार्च 1999-1 मार्च 2000 एवं 11 मार्च 2000-22 मई 2005) एवं मध्य प्रदेश में बाबू लाल गौर ने मुख्यमंत्री पद को सुशोभित कर यादव समाज को गौरवान्वित किया। सुभाष यादव मध्य प्रदेश के तो सिद्धरमैया कर्नाटक के उपमुख्यमंत्री रहे।
चौधरी ब्रह्म प्रकाश, राव वीरेन्द्र सिंह, देवनंदन प्रसाद यादव, चन्द्रजीत यादव, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, शरद यादव, बलराम सिंह यादव, राम लखन सिंह यादव, सुरेश कलमाड़ी, सत्यपाल सिंह यादव, कांती सिंह, जय प्रकाश यादव, राव इन्द्रजीत सिंह, अरूण यादव इत्यादि तमाम यदुवंशी राजनेताओं ने केन्द्रीय मंत्रिपरिषद का समय-समय पर मान बढ़ाया है। वर्तमान में लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव एवं शरद यादव क्रमशः राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी तथा जनता दल (यू) के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तो मुलायम सिंह के सुपुत्र अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश में सपा अध्यक्ष का पद सम्भाले हुए हैं। अरुण यादव केन्द्र सरकार में राज्य मंत्री हैं। वर्तमान 15वीं लोकसभा में कुल 20 यादव सांसद हैं।

शनिवार, 15 अगस्त 2009

पराक्रमी एवं स्वतंत्रता प्रिय जाति यादव

किसी भी राष्ट्र के उत्थान में विभिन्न जाति समुदायों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। जाति समाज की एक महत्वपूर्ण इकाई है। समाज में वही जाति प्रमुख स्थान बना पाती है जिसका न सिर्फ अपना गौरवशाली इतिहास हो बल्कि भविष्य की चुनौतियों का सामना करने का सत्साहस भी हो। यही कारण है कि तमाम जातियाँ कभी न कभी संक्रमण काल से गुजरती हैं। जातीय सर्वोच्चता एवं जातिवाद जैसे तत्व कहीं न कहीं समाज को प्रभावित करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण के वंशज कहे जाने वाले यादवों के बारे में पौराणिक व ऐतिहासिक ग्रन्थों में विस्तार से जानकारी मिलती है। श्रीमद्भागवत (9/23/19) में कहा गया है कि-

यदोर्वंशः नरः श्रुत्वा सर्व पापैः प्रमुच्यते।
यत्रावतीर्ण कृष्णाख्यं परं ब्रह्म निराकृति।।
यादव आरम्भ से ही पराक्रमी एवं स्वतंत्रता प्रिय जाति रही है। यूरोपीय वंश में जो स्थान ग्रीक व रोमन लोगों का रहा है, वही भारतीय इतिहास में यादवों का है। आजादी के आन्दोलन से लेकर आजादी पश्चात तक के सैन्य व असैन्य युद्धों में यादवों ने अपने शौर्य की गाथा रची और उनमें से कई तो मातृभूमि की बलिवेदी पर शहीद हो गये। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के विरूद्ध सर्वप्रथम 1739 में कट्टलापुरम् (तमिलनाडु) के यादव अजगमुत्थु कोणें ने विद्रोह का झण्डा उठाया और प्रथम स्वतंत्रता सेनानी के गौरव के साथ वीरगति को प्राप्त हुए। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में यादवों ने प्रमुख भूमिका निभाई। बिहार में कुँवर सिंह की सेना का नेतृत्व रणजीत सिंह यादव ने किया। रेवाड़ी (हरियाणा) के राव रामलाल ने 10 मई 1857 को दिल्ली पर धावा बोलने वाले क्रान्तिकारियों का नेतृत्व किया एवं लाल किले के किलेदार मिस्टर डगलस को गोली मारकर क्रान्तिकारियों व बहादुर शाह जफर के मध्य सम्पर्क सूत्र की भूमिका निभाई। 1857 की क्रांति की चिंगारी प्रस्फुटित होने के साथ ही रेवाड़ी के राजा राव तुलाराम भी बिना कोई समय गंवाए तुरन्त हरकत में आ गये। उन्होंने रेवाड़ी में अंग्रेजों के प्रति निष्ठावान कर्मचारियों को बेदखल कर स्थानीय प्रशासन अपने नियन्त्रण में ले लिया तथा दिल्ली के शहंशाह बहादुर शाह ज़फर के आदेश से अपने शासन की उद्घोषणा कर दी। 18 नवम्बर 1857 को राव तुलाराम ने नारनौर (हरियाणा) में जनरल गेरार्ड और उसकी सेना को जमकर टक्कर दी। इसी युद्ध के दौरान राव कृष्ण गोपाल ने गेरार्ड के हाथी पर अपने घोड़े से आक्रमण कर गेरार्ड का सिर तलवार से काटकर अलग कर दिया। अंग्रेजों ने जब स्वतंत्रता आन्दोलन को कुचलने का प्रयास किया तो राव तुलाराम ने रूस आदि देशों की मदद लेकर आन्दोलन को गति प्रदान की। अंततः 2 सितम्बर 1863 को इस अप्रतिम वीर का काबुल में देहंात हो गया। वीर-शिरोमणि यदुवंशी राव तुलाराम के काबुल में देहान्त के बाद वहीं उनकी समाधि बनी जिस पर आज भी काबुल जाने वाले भारतीय यात्री बडी श्रद्वा से सिर झुकाते हैं और उनके प्रति आदर व्यक्त करते हैं। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में राव तुलाराम के अप्रतिम योगदान के मद्देनजर 23 सितम्बर 2001 को उन पर एक डाक टिकट जारी किया गया।

चौरी-चौरा काण्ड से भला कौन अनजान होगा। इस काण्ड के बाद ही महात्मा गाँंधी ने असहयोग आन्दोलन वापस लेने की घोषणा की थी। कम ही लोग जानते होंगे कि अंग्रेजी जुल्म से आजिज आकर गोरखपुर में चैरी-चैरा थाने में आग लगाने वालों का नेतृत्व भगवान यादव ने किया था। इसी प्रकार भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान गाजीपुर के थाना सादात के पास स्थित मालगोदाम से अनाज छीनकर गरीबों में बांँटने वाले दल का नेतृत्व करने वाले अलगू यादव अंग्रेज दरोगा की गोलियों के शिकार हुये और बाद में उस दरोगा को घोड़े से गिराकर बद्री यादव, बदन सिंह इत्यादि यादवों ने मार गिराया। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने जब ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा‘ का नारा दिया तो तमाम पराक्रमी यादव उनकी आई0एन0एस0 सेना में शामिल होने के लिए तत्पर हो उठे। रेवाड़ी के राव तेज सिंह तो नेताजी के दाहिने हाथ रहे और 28 अंग्रेजों को मात्र अपनी कुल्हाड़ी से मारकर यादवी पराक्रम का परिचय दिया। आई0एन0ए0 का सर्वोच्च सैनिक सम्मान ‘शहीद-ए-भारत‘ नायक मौलड़ सिंह यादव को हरि सिंह यादव को ‘शेर-ए-हिन्द‘ सम्मान और कर्नल राम स्वरूप यादव को ‘सरदार-ए-जंग‘ सम्मान से सम्मानित किया गया। नेता जी के व्यक्तिगत सहयोगी रहे कैप्टन उदय सिंह आजादी पश्चात दिल्ली में असिस्टेंट पुलिस कमिश्नर बने एवं कई बार गणतंत्र परेड में पुलिस बल का नेतृत्व किया।

आजादी के बाद का इतिहास भी यादव सैन्य अधिकारियों तथा सैनिकों की वीरता एवं शहादत से भरा पड़ा है। फिर चाहे वह सन् 1947-48 का कबाइली युद्ध, 1955 का गोवा मुक्ति युद्ध, 1962 का भारत-चीन युद्ध हो अथवा 1965 व 1971 का भारत-पाक युद्ध। भारत-चीन युद्ध के दौरान 18,000 फुट की ऊंचाई पर स्थित चिशूल की रक्षा में तैनात कुमायँू रेजीमेन्ट के मेजर शैतान सिंह यादव ने चीनियों के छक्के छुडा़ दिये। गौरतलब है कि चिशूल के युद्व में 114 यादव जवान शहीद हुए थे। चिशूल की हवाई पट्टी के पास एक द्वार पर लिखा शब्द ‘वीर अहीर‘ यादवों के गौरव में वृद्धि करता है। 1971 के युद्ध में प्रथम शहीद बी0एस0एफ0 कमाण्डर सुखबीर सिंह यादव की वीरता को कौन भुला पायेगा। मातादीन यादव (जार्ज क्रास मेडल), नामदेव यादव (विक्टोरिया क्रास विजेता), राव उमराव सिंह(द्वितीय विश्व युद्ध में उत्कृष्ट प्रदर्शन हेतु विक्टोरिया क्रास), हवलदार सिंह यादव (विक्टोरिया क्रास विजेता), प्राणसुख यादव (आंग्ल सिख युद्ध में सैन्य कमाण्डर), मेजर शैतान सिंह यादव (मरणोपरान्त परमवीर चक्र), कैप्टन राजकुमार यादव (वीर चक्र, 1962 का युद्ध), बभ्रुबाहन यादव (महावीर चक्र, 1971 का युद्ध), ब्रिगेडियर राय सिंह यादव (महावीर चक्र), चमन सिंह यादव (महावीर चक्र विजेता), ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह यादव (1999 में कारगिल युद्ध में उत्कृष्टम प्रदर्शन के चलते सबसे कम उम्र में 19 वर्ष की आयु में सर्वोच्च सैन्य पदक परमवीर चक्र विजेता) जैसे न जाने कितने यादव जंाबांजों की सूची शौर्य-पराक्रम से भरी पड़ी है। कारगिल युद्ध के दौरान अकेले 91 यादव जवान शहादत को प्राप्त हुए। गाजियाबाद के कोतवाल रहे ध्रुवलाल यादव ने कुख्यात आतंकी मसूद अजगर को नवम्बर 1994 में सहारनपुर से गिरतार कर कई अमेरिकी व ब्रिटिश बंधकों को मुक्त कराया था। उन्हें तीन बार राष्ट्रपति पुरस्कार (एक बार मरणोपरान्त) मिला। ब्रिगेडियर वीरेन्द्र सिंह यादव ने नामीबिया में संयुक्त राष्ट्र शांति सेना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पूर्व सांसद चैधरी हरमोहन सिंह यादव को 1984 के दंगों में सिखों की हिफाजत हेतु असैनिक क्षेत्र के सम्मान ‘शौर्य चक्र‘ (1991) से सम्मानित किया जा चुका है। संसद हमले में मरणोपरान्त अशोक चक्र से नवाजे गये जगदीश प्रसाद यादव, विजय बहादुर सिंह यादव अक्षरधाम मंदिर पर हमले के दौरान आपरेशन लश आउट के कार्यकारी प्रधान कमाण्डो सुरेश यादव तो मुंबई हमले के दौरान आर0पी0एफ0 के जिल्लू यादव तथा होटल ताज आपरेशन के जाँबाज गौरी शंकर यादव की वीरता यदुवंशियों का सीना गर्व से चौडा कर देती है। वाकई यादव इतिहास तमाम जांबाजों की वीरताओं से भरा पड़ा है !!

शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान हैं कृष्ण (कृष्ण-जन्माष्टमी की बधाई )

विगत पांच हजार वर्षों में श्रीकृष्ण जैसा अद्भुत व्यक्तित्व भारत क्या, विश्व मंच पर नहीं हुआ और न होने की संभावना है। यह सौभाग्य व पुण्य भारत भूमि को ही मिला है कि यहाँ एक से बढकर एक दिव्य पुरूषों ने जन्म लिया। इनमें श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व अनूठा, अपूर्व और अनुपमेय है। हजारों वर्ष बीत जाने पर भी भारत वर्ष के कोने-कोने में श्रीकृष्ण का पावन जन्मदिन अपार श्रद्धा, उल्लास व प्रेम से मनाया जाता है। श्रीकृष्ण अतीत के होते हुए भी भविष्य की अमूल्य धरोहर हैं। उनका व्यक्तित्व इतना बहुआयामी है कि उन्हें पूरी तरह से समझा नहीं जा सका है। मुमकिन है कि भविष्य में उन्हें समझा जा सकेगा। हमारे अध्यात्म के विराट आकाश में श्रीकृष्ण ही अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जो धर्म की परम गहराइयों व ऊंचाइयों पर जाकर भी गंभीर या उदास नहीं हैं। श्रीकृष्ण उस ज्योतिर्मयी लपट का नाम है जिसमें नृत्य है, गीत है, प्रीति है, समर्पण है, हास्य है, रास है, और है जरूरत पड़ने पर युद्ध का महास्वीकार। धर्म व सत्य के रक्षार्थ महायुद्ध का उद्घोष। एक हाथ में वेणु और दूसरे में सुदर्शन चक्र लेकर महाइतिहास रचने वाला दूसरा व्यक्तित्व नहीं हुआ संसार में।

कृष्ण ने कभी कोई निषेध नहीं किया। उन्होंने पूरे जीवन को समग्रता के साथ स्वीकारा है। प्रेम भी किया तो पूरी शिद्दत के साथ, मैत्री की तो सौ प्रतिशत निष्ठा के साथ और युद्ध के मैदान में उतरे तो पूरी स्वीकृति के साथ। हाथ में हथियार न लेकर भी विजयश्री प्राप्त की। भले ही वो साइड में रहे। सारथी की जिम्मेदारी संभाली पर कौन नहीं जानता कि अर्जुन के पल-पल के प्रेरणा स्त्रोत और दिशा निर्देशक कृष्ण थे।

अल्बर्ट श्वाइत्जर ने भारतीय धर्म की आलोचना में एक बात बड़ी मूल्यवान कही। वह यह कि भारत का धर्म जीवन निषेधक है। यह बात एकदम सत्य है, यदि कृष्ण का नाम भुला दिया जाए तो ओशो के शब्दों में कृष्ण अकेले दुख के महासागर में नाचते हुए एक छोटे से द्वीप हैं। यानी कि उदासी, दमन, नकारात्मकता और निंदा के मरूस्थल में नाचते-गाते मरू-उद्यान हैं।

कुछ लोग कहते हैं कि कृष्ण केवल रास रचैया भर थे। इन लोगों ने रास का अर्थ व मर्म ही नहीं समझा है। कृष्ण का गोपियों के साथ नाचना साधारण नृत्य नहीं है। संपूर्ण ब्राह्मांड में जो विराट नृत्य चल रहा है प्रकृति और पुरूष (परमात्मा) का, श्रीकृष्ण का गोपियों के साथ नृत्य उस विराट नृत्य की एक झलक मात्र है। उस रास का कोई सामान्य या सेक्सुअल मीनिंग नहीं है। कृष्ण पुरूष तत्व है और गोपिकाएं प्रकृति। प्रकृति और पुरूष का महानृत्य है यह। विराट प्रकृति और विराट पुरूष का महारस है यह, तभी तो हर गोपी को महसूस होता है कि कृष्ण उसी के साथ नृत्यलीन हैं। यह कोई मनोरंजन नहीं, पारमार्थिक है।

कृष्ण एक महासागर हैं। वे कोई एक नदी या लहर नहीं, जिसे पकड़ा जा सके। कोई उन्हें बाल रूप से मानता है, कोई सखा रूप में तो कोई आराध्य के रूप में। किसी को उनका मोर मुकुट, पीतांबर भूषा, कदंब वृक्ष तले, यमुना के तट पर भुवनमोहिनी वंशी बजाने वाला, प्राण वल्लभा राधा के संग साथ वाला प्रेम रूप प्रिय है, तो किसी को उनका महाभारत का महापराक्रमी रणनीति विशारद योद्धा का रूप प्रिय है। एक ओर हैं-

वंशीविभूषित करान्नवनीरदाभात्,
पीताम्बरादरूण बिम्बफला धरोष्ठात्,
पूर्णेंदु संुदर मुखादरविंदनेत्रात्,
कृष्णात्परं किमपि तत्वमहं न जाने।।

तो दूसरी ओर-
सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।।

वस्तुतः श्रीकृष्ण पूर्ण पुरूष हैं। पूर्णावतार सोलह कलाओं से युक्त उनको योगयोगेश्वर कहा जाता है और हरि हजार नाम वाला भी।

आज देश के युवाओं को श्रीकृष्ण के विराट चरित्र के बृहद अध्ययन की जरूरत है। राजनेताओं को उनकी विलक्षण राजनीति समझने की दरकार है और धर्म के प्रणेताओं, उपदेशकों को यह समझने की आवश्यकता है कि श्रीकृष्ण ने जीवन से भागने या पलायन करने या निषेध का संदेश कभी नहीं दिया। वे महान योगी थे तो ऋषि शिरोमणि भी। उन्होंने वासना को नहीं, जीवन रस को महत्व दिया। वे मीरा के गोपाल हैं तो राधा के प्राण बल्लभ और द्रोपदी के उदात्त सखा मित्र। वे सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान और सर्व का कल्याण व शुभ चाहने वाले हैं। अति रूपवान, असीम यशस्वी और सत् असत् के ज्ञाता हैं। जिसने भी श्रीकृष्ण को प्रेम किया या उनकी भक्ति में लीन हो गया, उसका जन्म सफल हो गया। धर्म, शौय और प्रेम के दैदीप्यमान चंद्रमा श्रीकृष्ण को कोटि कोटि नमन।

यतो सत्यं यतो धर्मों यतो हीरार्जव यतः !
ततो भवति गोविंदो यतः श्रीकृष्णस्ततो जयः !!

सत्या सक्सेना

शुक्रवार, 7 अगस्त 2009

एक अनूठी पहल ऐसी भी

पिछले दिनों एक प्रतिष्ठित अखबार के कोने में छपी एक खबर ने ध्यान आकर्षित किया। समाज में कुछेक कार्य ऐसे होते हैं, जो भले ही अनायास होते हैं पर ऐसी पहल समाज के लिए प्रेरणास्पद होती है। यह वाकया है गाजीपुर जिले के दो मित्रों का, जिसके चलते एक मित्र न सिर्फ पढ़ाई कर पा रहा है बल्कि उसकी फीस भी माफ कर दी गई है। सर, यह मेरा दोस्त है। पढ़ना चाहता है लेकिन इसके पापा के पास पैसा नहीं है। छोटा सा है यह वाक्य, इसे बोलने वाला भी छोटा सा ही बालक है,लेकिन काम उसने बड़ा कर दिखाया। इस बच्चे ने अपने साधनहीन दोस्त को न सिर्फ विद्यालय में प्रवेश दिलाया बल्कि प्रधानाचार्य से उसकी फीस माफ करा दी।

यह प्रशंसनीय काम करने वाला करीब छह वर्र्षीय बालक है विशाल चौहान। ‘सब पढ़ें और सब बढ़ें‘ के जुमले को सच कर दिखाया एक ऐसे मासूम ने, जिसे सरकारी नारों से कुछ लेना देना नहीं। बरही निवासी विशाल अलगू यादव इण्टर कालेज, बरेंदा, गाजीपुर में कक्षा एक का छात्र है। पड़ोसी हम उम्र रामविलास उसका दोस्त है। विशाल रोज स्कूल जाता और रामविलास से भी चलने को कहता,लेकिन परिवार की गरीबी के कारण रामविलास स्कूल नहीं जा पा रहा था। विशाल ने रामविलास के घरवालों से बात की। घरवालों ने अपनी जर्जर माली हालत का हवाला दिया। तब विशाल ने पहल कर प्रधानाचार्य वासुदेव यादव से चर्चा की। प्रधानाचार्य उसकी बात सुन कर चकित हुए। उन्होंने कोशिश करके रामविलास का विद्यालय में न केवल निःशुल्क नाम लिखा बल्कि पूरी फीस भी माफ कर दी। विशाल ने रामविलास को अपनी यूनीफार्म व कुछ पाठ्य पुस्तकें भी दी। अब दोनों दोस्त साथ स्कूल जाते हैं। विशाल के अनुकरणीय कार्य से प्रधानाचार्य इतने अभिभूत हुए कि स्कूल की दैनिक प्रार्थना सभा समाप्त होने के बाद सभी बच्चों के सामने उसका उदाहरण रखा। उन्होंने विशाल को विद्यालय की ओर से पुरस्कृत भी किया।

बुधवार, 5 अगस्त 2009

गीता में भी है रक्षाबंधन का जिक्र

रक्षाबन्धन भारतीय सभ्यता का एक प्रमुख त्यौहार है जो कि श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इस दिन बहन अपनी रक्षा के लिए भाई को राखी बाँधती है। भारतीय परम्परा में विश्वास का बन्धन ही मूल है और रक्षाबन्धन इसी विश्वास का बन्धन है। यह पर्व मात्र रक्षा-सूत्र के रूप में राखी बाँधकर रक्षा का वचन ही नहीं देता वरन् प्रेम, समर्पण, निष्ठा व संकल्प के जरिए हृदयों को बाँधने का भी वचन देता है। पहले रक्षा बन्धन बहन-भाई तक ही सीमित नहीं था, अपितु आपत्ति आने पर अपनी रक्षा के लिए अथवा किसी की आयु और आरोग्य की वृद्धि के लिये किसी को भी रक्षा-सूत्र (राखी) बांधा या भेजा जाता था। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है कि- ‘मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव’- अर्थात ‘सूत्र’ अविच्छिन्नता का प्रतीक है, क्योंकि सूत्र (धागा) बिखरे हुए मोतियों को अपने में पिरोकर एक माला के रूप में एकाकार बनाता है। माला के सूत्र की तरह रक्षा-सूत्र (राखी) भी लोगों को जोड़ता है। गीता में ही लिखा गया है कि जब संसार में नैतिक मूल्यों में कमी आने लगती है, तब ज्योर्तिलिंगम भगवान शिव प्रजापति ब्रह्मा द्वारा धरती पर पवित्र धागे भेजते हैं, जिन्हें बहनें मंगलकामना करते हुए भाइयों को बाँधती हैं और भगवान शिव उन्हें नकारात्मक विचारों से दूर रखते हुए दुख और पीड़ा से निजात दिलाते हैं।

राखी का सर्वप्रथम उल्लेख पुराणों में प्राप्त होता है जिसके अनुसार असुरों के हाथ देवताओं की पराजय पश्चात अपनी रक्षा के निमित्त सभी देवता इंद्र के नेतृत्व में गुरू वृहस्पति के पास पहुँचे तो इन्द्र ने दुखी होकर कहा- ‘‘अच्छा होगा कि अब मैं अपना जीवन समाप्त कर दूँ।’’ इन्द्र के इस नैराश्य भाव को सुनकर गुरू वृहस्पति के दिशा-निर्देश पर रक्षा-विधान हेतु इंद्राणी ने श्रावण पूर्णिमा के दिन इन्द्र सहित समस्त देवताओं की कलाई पर रक्षा-सूत्र बाँधा और अंततः इंद्र ने युद्ध में विजय पाई। एक अन्य कथानुसार राजा बालि को दिये गये वचनानुसार भगवान विष्णु बैकुण्ठ छोड़कर बालि के राज्य की रक्षा के लिये चले गये । तब देवी लक्ष्मी ने ब्राह्मणी का रूप धर श्रावण पूर्णिमा के दिन राजा बालि की कलाई पर पवित्र धागा बाँधा और उसके लिए मंगलकामना की। इससे प्रभावित हो बालि ने देवी को अपनी बहन मानते हुए उसकी रक्षा की कसम खायी। तत्पश्चात देवी लक्ष्मी अपने असली रूप में प्रकट हो गयीं और उनके कहने से बालि ने भगवान इन्द्र से बैकुण्ठ वापस लौटने की विनती की। त्रेता युग में रावण की बहन शूर्पणखा लक्ष्मण द्वारा नाक कटने के पश्चात रावण के पास पहुँची और रक्त से सनी साड़ी का एक छोर फाड़कर रावण की कलाई में बाँध दिया और कहा कि- ‘‘भैया! जब-जब तुम अपनी कलाई को देखोगे तुम्हें अपनी बहन का अपमान याद आएगा और मेरी नाक काटनेवालों से तुम बदला ले सकोगे।’’ इसी प्रकार महाभारत काल में भगवान कृष्ण के हाथ में एक बार चोट लगने व फिर खून की धारा फूट पड़ने पर द्रौपदी ने तत्काल अपनी कंचुकी का किनारा फाड़कर भगवान कृष्ण के घाव पर बाँध दिया। कालांतर में दुःशासन द्वारा द्रौपदी-हरण के प्रयास को विफल कर उन्होंने इस रक्षा-सूत्र की लाज बचायी। द्वापर युग में ही एक बार युधिष्ठिर ने भगवान श्री कृष्ण से पूछा कि वह महाभारत के युद्ध में कैसे बचेंगे तो उन्होंने तपाक से जवाब दिया- ‘‘राखी का धागा ही तुम्हारी रक्षा करेगा।’’
साभार: कृष्ण कुमार यादव द्वारा उपलब्ध कराई गई सामग्री पर आधारित

शनिवार, 1 अगस्त 2009

मुड़ मुड़ के देखता हूँ- राजेंद्र यादव

मुड़ मुड़ के देखता हूँ....राजेंद्र यादव जी की ये आत्मकथा पढ़ने का मन हुआ मेरा मन्नू भंडारी की आत्मकथा एक कहानी ये भी पढ़ने के बाद। चूँकि राजेंद्र यादव की आत्मकथा पहले लिखी गई थी और मन्नू जी की बाद में तो सोचा पहले इस की चर्चा कर लें। मगर ये भी सच है कि मन्नू भंडारी की आत्मकथा पढ़ने के बाद बड़ा मुश्किल था खुद को तटस्थ और पूर्वाग्रहों से अलग रख पाना। मगर फिर भी प्रयास यही किया है कि इस चर्चा में खुद को मन्नू भंडारी से मुक्त रख सकूँ और चर्चा सिर्फ और सिर्फ मुड़ मुड़ के देता हूँ पुस्तक की करूँ!

यह पुस्तक १० अध्यायों मे लिखी गई है। अध्याय को अध्याय नाम नही बल्कि सुंदर शीर्षकों से सजाया गया है। पहले अध्याय मुड़ मुड़ के देखता हूँ में ही राजेन्द्र यादव जी ने कहा कि इसे उनकी आत्मकथा नही बल्कि आत्मकथांश समझा जाये॥! शायद सही ही कहा। क्योंकि आगे चल के कई जिज्ञासाएं अधूरी ही रह जाती हैं, राजेंन्द्र जी को जानने से संबंधित।फिर दूसरा अध्याय भूमिका।तीसरा अध्याय हक़ीर कहो फक़ीर कहो में अपनी साठवीं वर्षगाँठ पर मित्रों के बीच राजेंद्र जी द्वारा आगरे में दिया गया वक्तव्य है।चौथा अध्याय है अंत से शुरुआत॥जो दुर्घटनाओं में भी बचा रहता है अर्थात संकल्प, जिसमें जिक्र किया है उन्होने दिल्ली से कानपुर गिरिराजकिशोर जी के सम्मान में आयोजित कार्यक्रम मे जाते हुए हुई राजधानी ट्रेन दुर्घटना से सही सलामत आ जाने का।पाँचवा अध्याय ऐयार (इम्पोस्टर) से सावधान में अपने हम शक्लो की चर्चा के साथ अपने विभिन्न चेहरों (मुखौटों) के प्रति आगाह किया है।छठे अध्याय अपनी नज़र से में किसी प्रिय को संबोधित करते पत्र मे अपने विषय में टुकड़ों ड़ुकड़ों में लिखा है जहाँ कुछ कुछ देर के लिये कुछ लेखक मित्र मन्नू से विवाह उनसे मनोमालिन्यता और पिता की मृत्यु का भी जिक्र है।

सातवाँ अध्याय पुनः मुड़ मुड़ के देखता हूँ, जहाँ मुझे कुछ क्रम सा नज़र आता है,जिसमे शुरु से ही शुरु है :)। और मैने जब पुस्तक पढ़ी तो यहीं से पढ़ी। पीछे का कुछ तब समझ में आया जब इसे पढ़ लिया। अतः पिछले छः अध्याय मैने पुनः पढ़े या बाद में पढ़े। यहाँ राजेंद्र जी के बचपन का घर, उनका अपने चाचा जी के घर पढ़ने को जाना, वहाँ बच्चों के झगड़े में किसी बच्चे के हाकी मार देने से राजेंद्र जी के पैर में चोट आना, घर पर बात छुपा ले जाने के कारण चोट का बढ़ जाना और घुटने से टखने तक की हड्डी का गल जाना और आपरेशन द्वार निकाल दिये जाने से पैर में कुछ समस्या आ जाना तथा बैसाखी के सहारे चलना। यहीं उन्होने अपनी रचनात्मकता की शुरुआत को भी समझा। दिनभर बिस्तर पड़े होने से उनकी कल्पना शक्ति बढ़ी और कथाकारी करने लगी। यहाँ उन्होने अपनी विभिन्न किताबों के विषय में लिखा।

आठवें अध्याय मुड़ मुड़ के देखता हूँ भाग २ ये तुम्हारा स्वर मुझे खींचे लिये जाता.... में चर्चा की है अपने मित्रों की जिसमें विस्तार महिला मित्रों को ही मिला है। हेमलता नाम की उनकी किसी उद्योगपति घराने से संबंध रखने वाली प्रशंसिका, जिसे उन्होने बाद में दीदी कहना शुरू कर दिया, उनकी रचनाओं पर उन दीदी का प्रभाव इस कदर था कि मित्र उन्हे दीदीवादी लेखक भी कहने लगे बाद में कुछ आकर्षण..... जिसको बंधन आर्थिक विषमता के कारण नही मिल सका। कर्मयोगी के संपादक रामरखसिंह सहगल की मृत्यु के बाद बी०एड० करने आई उनकी पु्त्री से अति आकर्षण,जिसके आगे ना बढ़ पाने के लिये राजेन्द्र जी ने अपनी अपंगता को दोषी माना। फर्राट मीता जिससे परिचय उनका ट्यूशन के जरिये तभी हुआ जब वो १४-१५ वर्ष की ही थी और अब लगभग ५० वर्षो की जनपहचान हो चुकी है; जिसने विवाह प्रस्ताव कि यह कर टाल दिया कि हम मित्र है है और मित्र ही रहेंगे। राजेंन्द्र यादव ने जिसे पर लिखा कि "ये साफ साफ मेरा रिजेक्शन था। तुम सिर्फ कभी कभी मित्रता के लायक हो, साथ बँधने के नही।" बाद में उन्होने ये भी स्वीकार किया कि मन्नू जी से विवाहके पश्चात कई बार जब मीता और राजेंन्द्र जी ने शादी की तारीखें भी तय कर लीं तब पता नही किन कारणों से राजेन्द्र यादव ही पीछे हट गये। इस विश्वासघात के लिये उनका कहना है कि इसने उन्हे ही बार बार तोड़ा। इन सारे संबंधों से परे जहाँ किसी ने शारीरिक और किसी ने आर्थिक विषमताओं की आड़ ले कर राजेंद्र जी से, मित्रता की तो सारी मान्यताए निभाईं मगर जीवनबंधन में बँधने से परे रह गये; पर जब मन्नू जी ने उन्हे जस का तस स्वीकार किया तब भी वो ना जाने कौन से कारण थे जिन्होने उन दोनो को साथ नही रहने दिया। जबकि राजेंन्द्र जी स्वीकार करते हैं कि रिश्तेदारों और मित्रों के बीच मन्नू जी उनका अहम् बड़ी चतुराई से रख लेती थी। बच्ची, परिवार, समाज, राजेंन्द्र जी को जब जब जरूरत हुई तब तब सहयोग के बावजूद राजेंद्र जी घर गृहस्थी में न जम सके क्योंकि उनके अनुसार "बौद्धिक और व्यक्तिगत तौर पर वह सब मुझे असहज बनाता है जो जिंदगी को बने बनाये ढर्रे में कैद कर के सारी संभावनाओं को समाप्त कर देता है।" प्रभा खेतान का भी हल्का फुल्का जिक्र है। अनेकानेक स्त्रियो से संबंध मे वे दीदी, मीता और मन्नू का विशेष योगदान मानते हैं अपने जीवन में। मगर अब तीनो ही उनकी जिंदगी में नही है। जिंदगी किशन नाम के एक नौकर के सहारे ही चल रही है।अध्याय के अंत में कलकत्ते का एक रात घूमने का वर्णन है। नवें अध्याय हम ना मरै मरिहैं संसारा में अपनी मृत्यु की परिकल्पना का दृश्य

और अंत में एक आटोप्सी (शव परीक्षा) जिसे तोते की जान शीर्षक से लिखा है अर्चना वर्मा ने और मैं इसे पुस्तक की जान मानती हूँ। राजेंन्द्र जी के गुण और दोषों को जिस पारदर्शिता के साथ लिखा गया इस परिशिष्ट में वो काबिल-ए-तारीफ है। संपादक राजेंद्र जी के साथ के रोज के अनुभवो से ले कर मन्नू जी को खाँटी घरेलू औरत कहने पर तीक्ष्ण प्रतिक्रिया तक।

अंत में अपनी तरफ से ये कहूँगी कि कहना तो बहुत कुछ चाह रही थी मैं। मगर फिर ये लगता है कि किसी की कहानी पर कुछ कहो तो कहो किसी की जिंदगी पर क्या कहना? शायद सच ही कह रहे हो राजेंद्र जी कि " जो कुछ उन्होने किया, उसके सिवा वे और कुछ कर ही नही सकते थे। रफ़ हो या फेयर उनकी जिंदगी यही होती जो है...!" हाँ मगर कुछ चीजो को स्थान न देने की शिकायत तो कर ही सकती हूँ। बचपन में एक बड़ी दुर्घटना जिसने उनका जीवन बदल दिया उससे निकलने में कहीं न कहीं परिवार का, माता पिता का शायद बहुत बड़ा सहयोग रहा होगा। उसको उतना विस्तार नही मिला जितना मिलना चाहिये था। एक पाठक के मन में उनके और मोहन राकेश की मित्रता और विरक्ति के भी कारण जानने की जिज्ञासा बनती है और कमलेश्वर को तो खैर उतना भी स्थान नही मिला जितना मोहन राकेश को। क्या व्यक्तित्व निर्माण में सिर्फ विपरीतलिंगी मित्रों का ही हाथ होता है।

कुछ भी हो इस बात का अफसोस भी है कि चाहे वो जो भी कारण हो मगर इस मामले में मैं राजेंद्र जी को मैं भाग्यहीन मानती हूँ कि बहुत से निःस्वार्थ रिश्ते वो संभाल न सके। उन्होने इसका दोष अपनी कुंठा को दिया। वो कुंठा जो उन्होने बार बार बताया कि उनकी अपंगता के कारण आयी॥यहाँ तो शायद मै बोलने का अधिकार रखती ही हूँ कि ये जो दैवीय गाँठे हैं, उन्हे खोलने का एक ही तरीका है स्वार्थहीन स्नेह..! और अगर ये स्नेह भी ना खोल सके गाँठें तो क्षमा करें मगर आप कोई भी जीवन पाते कुंठा के शिकार ही रहते।यह पुस्तक राजकमल प्रकाशन की सजिल्द पुस्तक है मूल्य है रु० १९५/-
(साभार-कंचन सिंह चौहान,हृदय गवाक्ष)