शनिवार, 29 मई 2010

जाति आधारित जनगणना पर गोल मटोल जवाब क्यों ??

भारत के प्रधान मंत्री ने अपनी प्रेस कांफ्रेंस में जाति आधारित जनगरना-२०११ को जिस तरह गोल मटोल जवाब देकर टाल गए है, उससे संदेह के घेरे में कांग्रेस की नियति आ जाती है, जिस देश का प्रधानमंत्री देश की सबसे बड़ी पंचायत में यह स्वीकार करता हो की जाति आधारित जनगरना करायी जाएगी उससे इस प्रकार गोल मटोल जवाब की अपेक्षा नहीं हो सकती पर एसा करके उन्होंने सारी संभावनाओ को दर किनार कर दिया है। लगता है की कांग्रेस की आतंरिक चाल के कोई नए हथकंडे तैयार किये जा रहे है, समय और सत्य की समझ से कोसों दूर जिस बडबोलेपन का आदी समाज सार्वजनिक तौर पर अन्याय और हड़प का सिद्धांत अख्तियार कर सारा समय अपने एसों आराम के लिए चुना और तो और देश के कारीगरों मेहनतकशों किसानों मजदूरों की जिंदगी को नारकीय बनाने की योजनाये बनायीं तब उन्हें यह कहाँ पता था की बराबरी या हिस्सेदारी की मांग तो एक ना एक दिन उठेगी जरुर पर ये टालू किस्म के लोग तब सब कुछ टाल गए थे।
आज का एक अहम् मुद्दा जिसे अंग्रेजों ने जरुरी समझा था और तत्कालीन 'विश्वयुद्ध' की विडंबनाओ की वजह से जिसे कट कर दिया गया था उसे देसी अंग्रेजों ने आज तक टाल कर रखा थोड़ी सी संभावना तब 'बनी' जब कांग्रेस की अध्यक्षता एक विदेशी हाथों में है, अगर वैसी ही नियति इन्होने भी अख्तियार 'न' की तो वर्तमान समय में पूरे देश से कांग्रेस को जाना होगा, यह जाती का सवाल इतना आसान नहीं है जितना आसान आज के बौद्धिक बरगलस करके तमाम सुविधाभोगी जमात द्वारा आज नहीं सदियों से किया जा रहा जो कुछ इनके भ्रष्ट बेहुदे और विकृत मानसिकता से किया जा रहा है, जिसे वक़्त ने बड़ी बुद्धिमत्ता से यहाँ तक खींच कर खड़ा किया है। आज राष्ट्रीय स्तर पर जिस अपराधिक प्रवृत्ति के लोग देश की सत्ता के नियामक बने है उनकी नियती साफ नहीं है. कहने को वह देशप्रेमी राष्ट्रभक्त आदी-आदी कहे जा रहे है लेकिन सारी संपदाओं पर उनके बहकाओं में आकर पिछड़े और दलित उन्हें सारी सत्ता सौंप देते रहे है आज उनकी मौजूदा हालत के लिए यही पिछड़े और दलित की मानसिकता जिम्मेवार है जहाँ उनकी संख्या तक का लेखा जोखा कराने पर इतना बड़ा समाज असहाय है, इसमे कोई दो राय नहीं की हमारा देश विकास की जिस गति को प्राप्त कर सकता था उसे इन्ही सुबिधाभोगी देशद्रोहियों ने नहीं होने दिया है, फिर ऐसा प्रधानमंत्री जो कहीं से ग्राम प्रधान तक का चुनाव नहीं जीत सकता वह जनता जो 'वोट' डालती है उसके लिए क्यों नीति बनाएगा या बनवाएगा वह तो अपने गृह-मंत्री से नंगे भूखों की जायज मांगों पर उन्हें गोलियों से भुनवायेगा.
आज सारा समाज केंद्र की ओर देख रहा है की वह जातीय गरना पर क्या फैसला लेता है और सदियों की छुटी हुयी आधारभूत मान्यताओं को दरकिनार कराने की साजिश में लगे पूरे तथाकथित समाज बुद्धिजीवियों की विरासत यह देश और दौलत उनकी ही है एसा उनका मानना है. यदि यही हाल रहे तो देश को उन तमाम जातियों को दिल्ली घेरना होगा जिन्हें जानबूझकर छोड़ दिया जा रहा है जिनकी गिनती नहीं हो रही है. नहीं तो सदियों से दबे कुचले लोग जिस जातिवाद का शिकार है उसका कोई निदान करने का उपाय ढूढ़ना पड़ेगा उसका सारा मूल्यांकन तभी होगा जब समग्र इंतजामात करना होगा अन्यथा भारतीय लोकतंत्र का नया स्वरुप गढ़ ही नहीं जा रहा है सर्वत्र दिखाई देने लगा है. राजतन्त्र की पुरानी अवधारणा पर सदियों से लड़ी गयी लड़ाई को दर किनार करके फिर से राजतन्त्र गढ़ा जा रहा है.
पिछड़ी जातियों और दलितों को भी बांटना उनका सदियों का मोनोपली रही है जिससे उनकी हार होती रहती है, इसी हार के बदले बदलते माहौल के लिए बनाये जाने वाली ताकतों का भी जिक्र उनके द्वारा किया जा रहा है, उनकी दिक्कतें यहीं नहीं खत्म होती है बल्कि वो अब ज्यादा चिंतित हो गए है की कहीं उनकी असलियत खुल न जाय ! आज जब पुरे देश की यह मांग है जाती की पहचान और उनकी संख्या उन्हें यह एहसास हो ऐसी जानकारी से कतराना क्या पुरे अवाम के लिए क्या सन्देश है, जहाँ एक तरफ आई टी और सूचना के अधिकार की बात हो रही हो वहां जातियों की संख्या छुपाने की साजिस का कारण आसानी से समझ आता है पूरी दुनिया इस देश के सबसे खतरनाक इरादे को समझ रही है पर आज के देश के इन्त्ज़म्कारों को यह समझ नहीं आ रहा है.

ऐसे प्रधानमंत्री को क्यों रहना चहिये जिसे उसकी ही कैबिनेट ही घुमा रही हो,उनके यह सच उनकी अध्यक्ष को जो समझा रहे है उन्हें यह भी समझ में आना चाहिए की यू पी ये -१ के कामकाज में लालू प्रसाद यादव का भी योगदान था मुलायम सिंह यादव ने ही अंततः इन्हें बचाया था जिससे उनकी जनता ने उन्हें उसका सबब भी दिया है। यह इनको भी नहीं भूलना चाहिए की जनता कभी भी सबक सिखा सकती है।
डॉ.लाल रत्नाकर

शुक्रवार, 28 मई 2010

महिला मुक्केबाज : सोनम यादव

कजाखस्तान के अस्ताना में में चल रही छठी एशियाई महिला मुक्केबाजी चैंपियनशिप में भारत की 11 सदस्यीय टीम में यदुवंशी सोनम यादव भी शामिल हैं। यहाँ महिला मुक्केबाज पहली बार तीन वजन वर्गों में पदार्पण करेंगी। 23 से 31 मई तक चलने वाले इस टूर्नामेंट में 16 देशों की मुक्केबाज शिरकत कर रही हैं। फ़िलहाल सोनम यादव (75 कि. ग्रा.) ने मंगोलिया की उन्बर्न जरदेंस्योल को 5-0 से हराकर सेमीफाइनल में अपनी जगह पक्की कर ली है और इसी के साथ उनका एक पदक भी पक्का हो गया है.

महिला मुक्केबाज सोनम यादव ग्रामीण पृष्ठïभूमि से संबंध रखती हैं। 5 फीट 11 इंच लंबी मुक्केबाज सोनम यादव पाँच स्वर्ण पदक अर्जित कर चुकी है। सोनम ने सन 2006 व 2007 में हुई जूनियर राष्ट्रीय महिला मुक्केबाजी में लगातार दो बार स्वर्ण पदक जीते हैं। इसी तरह वर्ष 2008 व 2009 में आयोजित सीनियर महिला मुक्केबाजी में भी उन्होंने लगातार दो बार स्वर्ण पदक जीते हैं। इसके अलावा सोनम यादव ने फैडरेशन कप मुक्केबाजी नैनीताल में 75 किलोग्राम भार वर्ग में स्वर्ण जीता है।फ़िलहाल अपने लक्ष्य को मुकाम तक पहुंचाने के लिए सोनम यादव रोजाना जी तोड़ अभ्यास कर रही हैं। यदुकुल की तरफ से शुभकामनायें !!

गुरुवार, 20 मई 2010

नैसर्गिकता को सहेजते : रजनीकांत यादव

रजनीकांत यादव 37 वर्षों से फोटोग्राफी से जुड़े हुए हैं। वे मानते हैं कि कोई भी विधा व्यक्तिगत अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं होती। रजनीकांत यादव पिछले 16 वर्षों से आदिवासी और ग्रामीण भारत की फोटोग्राफी कर रहे हैं। जब वे इन क्षेत्रों में फोटोग्राफी करने गए, तब उन्हें इस बात का आभास हुआ कि निर्धन और मूलभूत सुविधाओं से वंचित लोग कितनी भयावह जिंदगी जी रहे हैं। आदिवासियों और ग्रामीणों की स्थिति को देख कर रजनीकांत यादव के कुछ मिथक भी टूटे। उन्होंने उसी समय तय कर लिया कि वे अपने छायाचित्रों के माध्यम से आदिवासियों और ग्रामीणों की वास्तविक समस्याओं को जन-साधारण के सामने ला कर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से समाधान करने का प्रयास करेंगे। इसी मुहिम में कैमरे के साथ कलम भी उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम कब बन गई, यह रजनीकांत यादव को भी याद नहीं। रजनीकांत यादव ने मेघा पाटकर के नर्मदा बचाओं आंदोलन में कैमरे के साथ सार्थक भूमिका निभाते हुए खयाति अर्जित की है।

रजनीकांत यादव ने नर्मदा चित्र प्रदर्शनी के माध्यम से नर्मदा घाटी की उस अविकृत रूप की एक झलक प्रस्तुत की है 'जो था, जो है और जो नहीं रहेगा'। उन्होंने नर्मदा का गद्‌गद्‌ गुणगान या लच्छेदार भाषा में लिखा गया चित्रित वृतांत प्रस्तुत नहीं किया है। उनके छायाचित्र तो उस डूबती और खत्म होती दुनिया के छवि चित्र हैं, जो हमें जीवन सहज और इस धरती पर सबसे अनुकूल जीवन का गुणसूत्र समझाती है।


फोटो फीचर-रजनीकांत यादव के फोटो फीचर द हिंदु, टाइम्स आफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस, एशियन एज, हिंदुस्तान टाइम्स, जनसत्ता, दैनिक भास्कर, नवभारत, मिड-डे, बासुमति, आजकल, जन्मभूमि, अमृत बाजार पत्रिका, डाउन टू अर्थ, द इकोलॉजिस्ट, ह्‌यूमन स्पेस, सेंचुरी एशिया, संडे, इंडिया टुडे, एकलव्य पब्लिकेशन, पहल और कादम्बिनी जैसे समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में प्रकाशित हो कर खूब सराहे गए हैं।

एकल प्रदर्शनी-उनकी एकल प्रदर्शनी इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, सी। एस. इ., गांधी पीस फाउंडेशन (नई दिल्ली), बिरला एकेडमी आफ आट्‌र्स (कोलकाता), बाम्बे नेचुरल हिस्ट्री आफ सोसायटी, नेशन सेंटर फार परफार्मिंग आट्‌र्स-एनसीपीए, टाटा इंस्टीट्‌यूट आफ फार सोशल साइंस-टीआईएसएस (मुंबई), म्यूजियम आफ मेनकाइंड-आईजीआरएमएस, रवीन्द्र भवन (भोपाल) में आयोजित हो चुकी है।

चयन-छत्तीसगढ़ शासन द्वारा प्रदेश की स्थापना की प्रथम वर्षगांठ के अवसर पर रायपुर में रजनीकांत यादव की आदिवासी संस्कृति पर आधारित फोटो प्रदर्शनी आयोजित। छत्तीसगढ शासन के कला एवं संस्कृति विभाग ने उनके छायाचित्रों स्थाई वीथिका में संजोकर रखा है। फोर्ड फाउंडेशन द्वारा प्रायोजित घुमंतू प्रदर्शनी ''मोबाइल एक्जीबिशन-ब्लैक एंड वाइट-ए कलेक्शन आफ रिप्रेजेन्टेटिव पिक्चर्स आफ 40 लेंस मेन एंड वूमेन फार्म अराउंड द ग्लोब'' में छायाचित्र चयनित।

सम्मान-फेडरेशन आफ इंडियन फोटोग्राफी द्वारा सम्मानित, मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह द्वारा सर्वश्रेष्ठ छायाकार सम्मान से अलंकृत और कई राष्ट्रीय प्रदर्शनी में निर्णायक के रूप में सम्मिलित।

रजनीकांत के लिए कुछ शब्द- रजनीकांत को हम सब मुकम्मल नहीं जानते। उनकी काया को जानते भी हों, उनकी आत्मा को नहीं जानते। मैं भी उनको आधा-अधूरा जानता हूं, पर मैं उनके प्रति हमेशा उत्सुक और जागरूक रहा हूं। जब वे शहर के मध्य अपने स्टूडियो में बैठते और काम करते थे, तब मैं उनके पास जाता था। फिर हम लोग अपनी-अपनी दुनिया में खो गए और मिलना बाधित हो गया। रजनीकांत बेहद संकोची, आत्मजयी, अन्तर्मुखी और अपनी मार्केटिंग एवं अपनी सेल्समेनशिप से निरंतर बचने वाले जीव हैं। उनके जीवन और उनकी कार्यप्रणाली में गांधीवादी झलक है, वे पुरानी साधना पद्धति से काम करते हैं, पर मानवतावादी और आधुनिक संवेदनाओं से भरपूर व्यक्ति हैं। उन्हें सम्पूर्ण और वास्तविक रूप में जानना कठिन है, पर वे काम करते हुए भीतरी उमंग, श्रम और लक्ष्य से सदा भरे रहते हैं। यह तो जाहिर सच्चाई है।

नर्मदा घाटी अपने विशद रूप में इन दिनों काफी चर्चित है। उस पर अध्ययन करने वाली एजेंसियों, फिल्म निर्माण करने वाले उत्साहियों, यायावरों, लेखकों, राजनैतिक, सामाजिक आंदोलनकारियों और उद्योग धंधों की, नई पूंजी की गहरी नजर पड़ रही है। कुछ ही साल पहले हरसूद का बडा इलाका डूब गया, जैसे टेहरी डूब गई। इस बडे अंचल पर लूट के भावी खतरे मंडरा रहे हैं। प्राकृतिक संपदा का जहां भी भंडार होगा, वहां छद्‌म विकास के खतरे मंडराएंगे ही। सभ्यताएं उथल-पुथल में होंगी, पर्यावरण अशांत होगा और नर्मदा का जल ही नहीं, उसकी गोद में जो जीवन है, वह भी क्षतिग्रस्त होगा। मुझे इसका खतरा दिख रहा है, वह भले ही दूर हों। जिसे आज रेड कोरिडोर कहा जाता है और जो देश के सर्वाधिक अशांत इलाके हैं, अनेक राज्यों का जीवन, जिसकी चपेट में है, वे आदिवासी बहुल्य अंचल हैं। इस देश का सर्वोच्च खनन लकडी, बिजली, औषधि और शिल्प जिन इलाकों से आ रहा है, वहीं सर्वाधिक रक्तपात, हिंसा और युद्ध है। इसलिए नर्मदा घाटी का विपुल जीवन भले आपको रसिक, सुंदर, श्रद्धालु, शांत और समृद्ध दिख रहा हो, उस पर विकास के गिद्ध मंडरा रहे हैं। गरीबी, भोलेपन और सुंदरता को यह सेलेब्रट करने का समय नहीं है। हिंसा के अंखुए कभी भी फूट सकते हैं। ज्वालामुखी जो अभी ठंडा है, कभी भी गरम हो सकता है। नर्मदा घाटी के प्रति हमारा नया आचरण एक जिम्मेदार और चिंता प्रमुख नागरिक का होना चाहिए। जहां तक मैं जानता हूं रजनीकांत की स्टडी, उनका डेटा उपक्रम, उनकी यात्राएं और कैमरा वर्क हमारी सबसे खरी और उज्जवल सच्चाई को बोलता है। उनकी किताबें जब खंडों में प्रकाशित होंगी, तब लोग सच्चाई से अवगत होंगे। जिन वंचितों की त्वचा पर आंसू, रक्त, धूल, पसीना और हंसी चिपकी हुई है, वहां रजनीकांत का कैमरा भी उपस्थित है, पहुंचा हुआ है। यह आपको उनकी प्रदर्शनी भी बतलाती है।यह जो हमारी तत्कालिक दुनिया है, उसमें कब पापुलर कल्चर ने सेंध लगा दी, यह हमें भी पता नहीं चला। संभवतः भू-मण्डलीकरण के दौर में ऐसा हुआ है। बाजार संगीत और शोर के कारण यह हुआ है और इसलिए कि सिनेमा, मीडिया की चमक ने भी इस मीना बाजार को समर्थन दिया है। मुझे याद है, वह दौर हाल ही का जब अखबार ब्लैक एंड व्हाइट से रंगीनी की तरफ पलटे थे, तो एक हल्की सी मुठभेड़ विचारों की हुई थी, पर फिर सब कुछ परास्त हो गया। हम उन लोगों को तो जानने लगते हैं, जो मीडिया में प्रतिदिन आते है, जाते हैं, रमते हैं, बोलते हैं, पर हर शहर के खंडहरों में कुछ खोए हुए लोग बचे हैं, जिन्हें हम स्वमेव नहीं पा लेते, उन्हें खोजना पड़ता है। अब हीरों के खोजी लोग दुर्लभ है, गायब हैं, इसलिए हीरों की तलाश भी खत्म हो गई है। जबलपुर में भी अलग-अलग विधाओं में ऐसे लोग बहुतेरे होंगे, जैसे हमारे रजनीकांत हैं। देश-विदेश में उनका काम सराहा गया, प्रदर्शित हुआ, पर जबलपुर में जहां तक मुझे ज्ञात है, रजनीकांत की यह संभवतः पहली नुमाइश है। हम भी यह काम बहुत विलंब से कर सके।

जिस तरह राहुल सांस्कृत्यायन ने एशिया के दुर्गम भूखंडों की यात्राएं की हैं और उन यात्राओं को अभिव्यक्त भी किया है, उसी तरह अपने अन्वेषण, अपनी जानकारियों और अपनी जनसेवा से भरे ज्ञान को अर्जित करने के लिए रजनीकांत ने भी अपनी जिंदगी को दांव पर लगा दिया। नर्मदा घाटी में अपनी घुमक्कडी से अपने घुटने ध्वस्त कर लिए और हृदय की धौंकनी को इतना थका डाला कि कुशल डाक्टर और अस्पताल ही उन्हें बचा सके। अब वे काफी स्वस्थ हुए है, अपनी कार्यशैली भी बदली है और टेबल पर अधिक बैठ रहे हैं, बरसों के संग्रहण को लिपिबद्ध कर रहे हैं।ऐसा व्यक्ति जो प्रामाणिक जीवन से स्पंदित दस्तावेजों और विचारों को एक बड़ी पोटली में एकट्ठा कर चुका है और जो उनको लिपिबद्ध कर रहा है और साथ में कैमरे की आंख को ले कर नदियों के मुहानों, जंगल की खोई पगडंडियों, सात-आठ से अधिक राज्यों के बीहड , आदिवासी अंचलों में घूमता रहता आया हो, उनका एक हिस्सा ही हो गया हो, उस रजनीकांत को हम-तुम कितना जानते हैं, हमारे नागरिक, हमारे सामाजिक, हमारे जबलपुरिया और हमारे मॉल-मल्टीप्लेक्स, मल्टीप्लेक्स चिल्लाने वाले विकास के नाम पर गलत राहों पर दौड ने वाले लोगों और इसी शहर के दर्प भरे, प्रतिद्वंदिता से भरे अखबार कितना जानते हैं। उनके पन्ने अपराधिक और राजनैतिक डायरियों से भरे रहते हैं। उनके पन्ने लोकल ही लोकल हैं। पर फिर भी अनेक पन्ने शहर के अंधेरे में ही रहते हैं। दिनोंदिन यह अंधेरा बढ रहा है। जबकि शहरों की सड कों पर उजाला बढ गया है।मित्रों यह सब कड़वा मैं जो कह रहा हूं, रजनीकांत की यह सब शिकायतें नहीं हैं। वे तो तल्लीन है, रोज अपनी दुनिया में, अपने काम में। अगर मुझे एक शब्द में, एक वाक्य में रजनीकांत को संबोधित करना हो तो मैं कहूंगा-आइसबर्ग, आइसबर्ग। तीन हिस्सा डूबा हुआ, बस एक हिस्सा पानी में। अर्थात्‌ रजनीकांत एक आइसबर्ग। तैरता हुआ, घूमता हुआ। जो थोडा-बहुत नजर आता है, वह टिप आफ द आइसबर्ग है। अधिकांश लोग रजनीकांत को फोटोग्राफर कहते हैं। वे हैं भी, पर उनके कैमरे में जो लेंस है, उससे बडा और बेहतर लेंस उनकी प्रगतिशील क्रांतिकारी जीवन दृष्टि में है। वे घुमंतू हैं, अन्वेषक हैं, पुरातात्विक है और विनाश, पतनोन्मुखता, क्षय के खिलाफ सभ्यता की मूलगामी सच्चाईयों को बचाने वाले हैं। उनकी सौंदर्यवादी नजर रस सम्प्रदाय, धर्मांधता और मध्ययुगीन पिछडेपन को तोड कर आगे बढ ती है। एक नर्मदा और उसके इर्द-गिर्द के जीवन को हम सर्व साधरण लोग देखते हैं। एक को यायावर वेगड देखते हैं, एक को पंचायतें, सरकारें, मठाधीश, योजनाकार देखते हैं, एक को रजनीकांत देखते हैं।रजनीकांत की वाणी, उनकी शारीरिक भाषा, उनका कैमरा, उनकी लेखनी परिवर्तन दर्द और जीवन-मृत्यु को देखती है। इसलिए उनकी रचनाएं, उनके दस्तावेज, उनके फोटोग्राफ अधिक समकालीन और संवेदनाओं के पास हैं। उन्होंने ध्यानस्थ हो कर काम किया, वे शोर मचाते नहीं चले, उन्होंने अपनी कृतियां बाजार में नहीं बेंची। वे काल को लांघते हुए, भविष्य के संग्रहालयों और आगे की दुनिया के लिए काम कर रहे हैं।उनका एक परिचय यह भी है कि वे उस जबलपुर के बड़े और कम उम्र में ही विदा हो गए महान फोटोग्राफर शशिन के भाई हैं। जो मृत्यु के बाद कई दशक तक चुपचाप अपने फोटोग्राफ के साथ छपते रहे। देश ही देश में। उन्होंने परसाई और मुक्तिबोध को अमरचित्र कथा का हिस्सा बनाया। एक अच्छा चित्र क्या होता है, यह आप जैसे फोटोग्राफरों को बताने की जरूरत नहीं है। एक अच्छा पोट्रेट सम्पूर्ण आत्मा का उजाला होता है, वह प्यासों के लिए कुंओं से निकाला गया, बालटी भर जल होता है। वह आजीवन धधकता रहता है। रजनीकांत ऐसे ही छायाचित्रों के फोटोग्राफर हैं। उनकी नदियां और उनके आदिवासी धरती के प्राणतत्व हैं, जिसको छत्तीसगढ का एक पुलिस अधिकारी और देश के गृह मंत्री खदेड -खदेड कर हिंद महासागर में डुबो देना चाहते हैं। रजनीकांत की कार्यकारी मैत्री देश की उन विभूतियों और महापुरूषों से है, जो जन संग्राम में लगे हैं। जो तालाब बना रहे हैं, जो विस्थापन के दर्द की दवा बनाते हैं, जो उखडे और बियावन लोगों के बीच काम कर रहे हैं, जो स्कूल, प्राथमिक चिकित्सा और कुटीर की रक्षा कर रहे हैं। स्वयं रजनीकांत ने इन्हीं लोगों के बीच और देश के आधे दर्जन से अधिक राज्यों में घूम-घूम कर काम किया है और टूटे पुलों, टूटी नाव, उजाड बंजारों, भुखमरों की मुस्कानों के बीच वे कई बार खो गए हैं, गुम गए हैं।रजनीकांत से पहली बार 67-68 में कहीं मेरे एक छात्र जयंतीलाल पटेल ने मुलाकात कराई थी। यह छात्र एक दुर्लभ प्राणी था, ऐसा कि उसे हम लोग बापू कहने लगे थे। बापू-याने गांधी। आज वह जयंती गुजरात के एक सखत इलाके में फंसा हुआ, जीवन-मृत्यु की लड़ाई लड रहा है। सफलता उसे छू नहीं गई है। हमेशा खुश रहता है और पक्का ईडियट है।एक प्रसंग और है। जो न मैं भूला और न रजनीकांत। दिल्ली में रजनीकांत की प्रदर्शनी एक विश्वसनीय और सम्मानित केन्द्र इंडिया इंटरनेशनल में थी। संभवतः 8-10 साल पहले। मैं दिल्ली में था, उन दिनों। लम्बे समय के लिए। इस प्रदर्शनी से देश के अनेक उज्जवल कीर्तिमान समाज वैज्ञानिक और पुरस्कृत सेवाभावी लोग जुडे थे। मुझे उसमें पहुंचना था। मेरी प्रतीक्षा थी वहां, वहां सुख और संतोष की संभावना थी, पर मैं भटक गया, वहां नहीं पहुंच सका। मेरे और रजनीकांत के बीच एक गहरा खेद आज तक बना है। और मैं उसकी क्षतिपूर्ति आजीवन करना चाहता हूं। रजनीकांत के काम में मुझे वहीं तरंग मिलती है, जो मुझे अपने काम में मिलती थी। और पीछे पड -पड के एक बार उनसे 'पहल' में लिखवाया भी था। मुख पृष्ठ पर उनका एक दुर्लभ फोटोग्राफ भी दिया था।विकास की अवधारणाओं पर हमारा देश बंटा हुआ है। बुनियादी तौर पर हम जिस ढांचे को निर्मित कर रहे हैं, वह हमारे देश में मिस फिट है। जिसके कारण असंखय समस्याएं पैदा हो रहीं हैं। हमारे वास्तविक सुर मंद पड़ गए हैं। हम इमारतों, बाजारों, मशीनों के विप्लव, हाईटेक जिंदगी को विकास मानते हैं। यह तेजी-मंदी की धारणा विनाशकारी है। जिस तरह से संसार के महान्‌ आदिवासियों, जन जातियों को मौत के कंसों ने निगल लिया है, हम उसके खिलाफ हैं। हम अल्पसंख्यक भी हों, पर हम उसके खिलाफ हैं।रजनीकांत ने इसी खिलाफत को सच्चाई और सौंदर्य में बदला है। वास्तविक सौंदर्य हमारी नैसर्गिकता में है। रजनीकांत का कैमरा, रजनीकांत की कलम विकास के असहमत मार्गों पर चल रही है। उन्हें हमारा सलाम।

(प्रसिद्ध साहित्यकार ज्ञानरंजन ने यह वक्तव्य पिछले दिनों जबलपुर में प्रगतिशील लेखक संघ के तत्वावधान में आयोजित रजनीकांत यादव की नर्मदा घाटी संस्कृति : छायाचित्र प्रदर्शनी एवं व्याख्यान के अवसर पर दिया था।)


मंगलवार, 18 मई 2010

बहुमुखी प्रतिभा की नन्हीं धनी : पूजा यादव

प्रतिभा उम्र की मोहताज नहीं होती। उसे बस अनुकूल परिवेश चाहिए. यदुवंश में तमाम ऐसी नन्हीं प्रतिभाएं हैं, जिनके जौहर आप विभिन्न ब्लॉग पर देख सकते हैं. ऐसी नन्हीं प्रतिभाओं को हमें यदुकुल पर स्थान देकर प्रसन्नता हो रही है, आखिर यही कल के भविष्य हैं. इस कड़ी में हमने आपको सबसे पहले नन्हीं प्रतिभा अक्षिता (पाखी) से मिलाया था. आज मिलिए पूजा यादव से, जो इतनी कम उम्र में ही ढेर सारी उपलब्धियां सहेजे हुए हैं. बाल उद्यान में हमें इनकी चित्रकारी के अद्भुत रंग देखने को मिले. चलिए हम भी पूजा यादव से परिचित होते हैं-
नाम- पूजा प्रेम यादव
जन्मतिथि- 17 जून 1997
कक्षा- 7, स्कूल- एसबीओए पब्लिक स्कूल, औरंगाबाद, महाराष्ट्र।
कक्षा में हमेशा शुरू के दो स्थानों में होती हैं।
रुचियाँ- चित्रांकन (ड्रॉइंग), चित्रकारी, नृत्य, किताबें पढ़ना और खेलना।
उपलब्धियाँ- राज्यस्तरीय और राष्ट्रस्तरीय एथलीट प्रतियोगिता में भाग लिया। ललित कला अकादमी की ओर से ड्रॉइंग और पेंटिंग के लिए ढेरों पुरस्कार प्राप्त किये। ज़ी, ज़ेप और इनफाइनाइट जैसे समूहों की ओर से डांसिंग के लिए अवार्ड। बूगी-वूगी में भी भाग लिया। राज्यस्तरीय वाद-विवाद प्रतियोगिता में पुरस्कृत।
पूजा यादव के बनाये गए तमाम चित्र आप बाल-उद्यान पर जाकर देख सकते हैं. पूजा यादव को यदुकुल की तरफ से ढेरों शुभकामनायें !!

रविवार, 16 मई 2010

क्रिकेट सिखाने के लिए यदुवंशी कोच

आजकल क्रिकेट की खूब धूम है। हर कोई इसमें हाथ आजमाना चाहता है। इस सम्बन्ध में गाइडेंस के लिए क्रिकेट में करियर
नामक इस लेख पर जाएँ. यहीं हमको एक यदुवंशी कोच विजय यादव भी मिले. उनके बारे में भी जानें-


कोच : विजय यादव।
एक्सपीरियंस / प्रोफाइल : 1996 से क्रिकेट कोचिंग दे रहे हैं। भारत की टेस्ट और वन डे टीम में खेल चुके हैं। एनसीए से लेवल -1, 2 और 3 का कोर्स कर चुके हैं। बीसीसीआई की तरफ से विकेट कीपिंग एकेडमी का कोच नियुक्त किया गया है।
अकैडमी / क्लब : विजय यादव क्रिकेट अकैडमी.
पता : डॉ 0 कर्मवीर पब्लिक स्कूल , सेक्टर -11, फरीदाबाद.
फोन : 98117-79201, 93129-72012

धूम मचाती नन्हीं प्रतिभा : अक्षिता (पाखी)

प्रतिभा उम्र की मोहताज नहीं होती। उसे बस अनुकूल परिवेश चाहिए. यदुवंश में तमाम ऐसी नन्हीं प्रतिभाएं हैं, जिनके जौहर आप विभिन्न ब्लॉग पर देख सकते हैं. ऐसी नन्हीं प्रतिभाओं को हमें यदुकुल पर स्थान देकर प्रसन्नता हो रही है, आखिर यही कल के भविष्य हैं. इस कड़ी में आज मिलिए नन्हीं प्रतिभा अक्षिता (पाखी) से, जो न सिर्फ आपने ब्लॉग पाखी की दुनिया के माध्यम से सक्रिय हैं, बल्कि परिकल्पना ब्लागोत्सव और वैशाखानंद सम्मान प्रतियोगिता में भी इनकी रचनाएँ और ड्राइंग हमें देखने को मिले. चलिए हम भी अक्षिता (पाखी) से परिचित होते हैं-
नाम- अक्षिता
निक नेम - पाखी
जन्म- 25 मार्च, 2007 (कानपुर)
मम्मी-पापा - श्रीमती आकांक्षा - श्री कृष्ण कुमार यादव
अध्ययनरत - नर्सरी, कार्मेल स्कूल, पोर्टब्लेयर
रुचियाँ- प्लेयिंग, डांसिंग, ड्राइंग, बाल कवितायेँ पढ़ना व लिखना, ब्लागिंग
मूल निवास - तहबरपुर, आजमगढ़ (यू।पी.)
वर्तमान पता - द्वारा- श्री कृष्ण कुमार यादव, निदेशक डाक सेवा, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह, पोर्टब्लेयर -744101 ई-मेल- akshita_06@rediffmail।com ब्लॉग- पाखी की दुनिया

अक्षिता की कविता: !! नन्हीं गौरैया !!
उड़कर आई नन्हीं गौरैया
लान में हमारे।
चूं-चूं करते उसके बच्चे
लगते कितने प्यारे।

गौरैया रोज तिनका लाती
प्यारा सा घोंसला बनाती।
चूं-चूं करते उसके बच्चे
चोंच से खाना खिलाती।

और अब अक्षिता की ड्राईंग -













अक्षिता (पाखी) को यदुकुल की तरफ से ढेरों शुभकामनायें !!
साभार : ब्लागोत्सव 2010

शुक्रवार, 14 मई 2010

पद चुनने में आरक्षण के हक को सही ठहराया सुप्रीम कोर्ट ने

पद चुनने में आरक्षण के हक को सुप्रीम कोर्ट ने सही ठहराया है। इससे अरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों को बहुत बड़ा संबल मिला है। गौरतलब है कि प्रतियोगी परीक्षाओं में जो अभ्यर्थी अपनी मेरिट के आधार पर सामान्य वर्ग में आ जाते थे, उन्हें सामान्य वर्ग की भांति ट्रीट करने से उन्हें मेरिट के बावजूद अच्छा पद नहीं मिल पाता था. ऐसे में आरक्षण का कोई मतलब भी नहीं रह जाता. यदि यह मन लिया जाय कि जिस वर्ग को जितना आरक्षण मिला है, वह उतने में ही रहेगा तो आरक्षण का क्या मतलब. फिर तो सामान्य वर्ग के लिए अघोषित 50 प्रतिशत आरक्षण हो गया. जो कि मूल भावना के विपरीत है. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने संघ लोकसेवा आयोग के नियम 16 (2) को संवैधानिक रूप से वैध माना है। इसके तहत योग्यता सूची में आए आरक्षित वर्ग के प्रतियोगियों को पद चुनते वक्त आरक्षण का लाभ लेने की सुविधा है। मुख्य न्यायाधीष के जी बालाकृष्णन, न्यायमूर्ति एस एच कपाड़िया, न्यायमूर्ति आर वी रवींद्रन, न्यायमूर्ति पी सुदर्शन रेडी और न्यायमूर्ति पी सदाशिवम की एक संविधान पीठ ने मद्रास हाईकोर्ट के फैसले को उलटते हुए यह अहम राय दी है। मर्दास हाईकोर्ट ने आयोग के नियम को असंवैघानिक माना था।
संविधान पीठ ने स्पष्टतया कहा है कि आरक्षित श्रेणी के प्रतियोगियों को योग्यता सूची में आने के बाद भी आरक्षण का लाभ लेने का अधिकार है। और संवैधानिक प्रावधान के हिसाब से यह असंगत नहीं है। मद्रास हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती केंद्र सरकार ने दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दे दी कि आरक्षित श्रेणी में आने के बाद आरक्षण का लाभ लेने के विकल्प की आयोग की अनुमति वैध है। सुप्रीम कोर्ट के इस ऐतिहासिक फैसले का तहेदिल से स्वागत किया जाना चाहिए !!

गुरुवार, 13 मई 2010

नरसिंह यादव के बाद सुशील कुमार की 'स्वर्ण' कुश्ती

पेइचिंग ओलंपिक के कांस्य पदक विजेता यदुवंशी पहलवान सुशील कुमार ने एशियाई कुश्ती प्रतियोगिता में शानदार प्रदर्शन करते हुए 66 किग्रा वर्ग में पुरुषों की फ़्रीस्टाइल प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीता है। दिल्ली में चल रही सीनियर एशियन रेसलिंग चैंपियनशिप में 13 मई, 2010 को उन्होनें कोरिया के दाए सुंग को 4-0, 2-0 से हरा दिया. एक दिन पहले ही यदुवंशी नरसिंह यादव ने 74 किग्रा वर्ग में स्वर्ण पदक जीता था.गौरतलब है कि राष्ट्रपति महोदया ने वर्ष 2009 के लिए सुशील कुमार को देश के सर्वोच्च खेल पुरस्कार राजीव गाँधी खेल रत्न से सम्मानित किया था.
सुशील कुमार जी को इस गौरवमयी उपलब्धि पर यदुकुल की बधाई !!

बुधवार, 12 मई 2010

कुश्ती का जांबाज सितारा : नरसिंह यादव

सीनियर एशियाई कुश्ती प्रतियोगिता में मुंबई के पहलवान नरसिंह यादव ने देश को पहला स्वर्ण पदक दिलाकर यदुवंश के साथ-साथ पूरे देश का नाम रोशन किया है। नरसिंह यादव ने 12 मई, 2010 को ईरान के पहलवान सईद रियाही को 74 किग्रा फ्री स्टाइल वर्ग में तकनीकी श्रेष्ठता के आधार पर हराकर स्वर्ण पदक जीता था।गौरतलब है कि ईरानी पहलवान काफी अच्छे माने जाते हैं। इस युवा पहलवान ने अपनी सफलता का श्रेय अपने मुंबई के कोच जगमाल सिंह और राष्ट्रीय कोच जगमिंदर सिंह को देते हुए कहा, एशियाई प्रतियोगिता एक बड़ी प्रतियोगिता है और इसमें स्वर्ण पदक जीतना मेरे लिए बड़ी बात है। मैं अपने इस स्वर्ण पदक को देश को समर्पित करता हूं। ईरानी प्रतिद्वंद्वी रियाही के बारे में नरसिंह ने कहा, मैंने उसके पिछले मुकाबलों में वीडियो देखे थे। उसके स्टाइल को भांपने की कोशिश की थी। नरसिंह के कोच साई सेंटर कांधीवली मुंबई के जगमाल सिंह ने अपने शिष्य की इस उपलब्धि पर कहा, जब नरसिंह 13 वर्ष का था, जब यह मेरे पास आया था। यह पिछले आठ वर्ष से मेरे पास अभ्यास कर रहा है।

नरसिंह यादव एक गरीब परिवार से है। उनके पिता दूध का काम करते हैं और छोटी डेयरी चलाते हैं, लेकिन नरसिंह ने अपनी कामयाबियों से अपने परिवार की स्थिति सुधार दी है। कोच ने कहा, नरसिंह जब 13 वर्ष की उम्र में मेरे पास आया था, तभी मैंने भांप लिया था कि यह प्रतिभाशाली बच्चा है। उन्होंने स्कूली खेलों, सब जूनियर, जूनियर और जूनियर एशियाई चैम्पियनशिप में पदक जीतकर खुद को साबित कर दिया था और अब तो उन्होंने सीनियर एशियाई चैम्पियपशिप में स्वर्ण पदक जीत लिया है। जगमाल ने बताया कि नरसिंह ने इस वर्ष बेलारूस में विश्व स्तरीय प्रतियोगिता में ओलंपिक कांस्य पदक विजेता को हराकर रजत जीता था। अब नरसिंह यादव को आगामी राष्ट्रमंडल तथा एशियाई खेलों में देश का नाम रोशन करना है।

नरसिंह यादव को इस गौरवमयी उपलब्धि पर यदुकुल की बधाई !!

सोमवार, 10 मई 2010

भारतीय क्रिकेट का नया चेहरा : उमेश यादव

क्रिकेट की शोहरत किसे नहीं भाती। दुनिया की छोड़िये खुद भारत में इसके इतने दीवाने हैं कि उनकी गिनती मुश्किल है. प्रतिभाशाली यदुवंशी हर क्षेत्र में अपना जौहर दिखा रहे हैं, पर क्रिकेट में इसकी कमी अक्सर खलती है. अभी तक क्रिकेट के क्षेत्र में शिवलाल यादव, ज्योति यादव और जे0 पी0 यादव के ही नाम उभरकर सामने आते है, पर शिवलाल यादव के अलावा अन्य किसी को बहुत आगे जाने का मौका नहीं मिला. पूर्व टेस्ट खिलाड़ी शिव लाल यादव के पुत्र अर्जुन यादव का चयन आई.पी.एल. थर्ड सीजन में डेक्कन चार्जस (हैदराबाद) में किया तो गया, पर उन्हें खेलने का मौका ही नहीं मिला. इसी प्रकार लालू प्रसाद यादव के पुत्र तेजस्वी यादव का भी चयन आई.पी.एल. प्रथम सीजन में दिल्ली डेयर डेविल्स द्वारा किया गया था, पर उन्हें भी खेलने का मौका नहीं दिया गया था.

ऐसे में उमेश यादव के रूप में एक लम्बे समय बाद भारतीय क्रिकेट टीम में किसी यदुवंशी का चयन हुआ है। बाईस वर्षीय तेज गेंदबाज उमेश यादव ने आई.पी.एल. थर्ड सीजन में दिल्ली डेयर डेविल्स की तरफ से खेलते हुए सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया था. विदर्भ के तेज गेंदबाज उमेश यादव ने इसी दौरान अपनी तेज गेंदबाजी से सबको प्रभावित किया, जिसके फलस्वरूप वेस्टइंडीज में चल रही ट्वेंटी-20 विश्वकप में उन्हें प्रवीण कुमार की जगह लिया गया, जो कि जख्मी होने के कारण खेलने में संभव नहीं थे. प्रवीण के विकल्प के रूप में उमेश यादव नाम बल्लेबाज गौतम गंभीर ने सुझाया था। टीम के गेंदबाजी कोच एरिक सिमंस भी उमेश यादव कि गेंदबाजी से काफी प्रभावित थे. सबसे खास बात तो यह है कि उमेश यादव विश्‍व कप के लिए 30 प्रस्‍तावित खिलाडि़यों में से नहीं हैं। उन्‍हें तकनीकी सलाहकार समिति की सिफारिश पर भेजा जा रहा है।

उमेश यादव की कामयाबी की भी अपनी दिलचस्प दास्ताँ है। कल तक वह नागपुर (महाराष्ट्र )के नजदीक खापरखेड़ा की कोयला खदान के मजदूर का साधारण बेटा था। चार साल पहले वह अपने गाँव से नागपुर क्रिकेट मैच खेलने, 25 किमी की दूरी ट्रक से तय करके आए थे। तब उन्होंने यह सोचा भी नहीं था कि यह सफर उन्हें एक दिन इतना दूर ले जाएगा। पहली बार भारतीय क्रिकेट टीम में चयन की खबर पर उमेश यादव के आश्चर्य का कोई ठिकाना नहीं था। लेकिन उन्हें जानने वालों को इस प्रतिभा पर भरोसा था। वे कहते हैं कि उमेश यादव कुदरती गेंदबाजी करते हैं और अंतराष्ट्रीय क्रिकेट के मुताबिक तेज गेंदबाजी करने में सक्षमः हैं. उमेश यादव के माता-पिता भी उनकी इस उपलब्धि पर बहुत खुश हैं, लेकिन उन्हें घबराहट भी है। वे गांव के हैं और बाहरी दुनिया के बारे में उन्हें कोई ठोस जानकारी नहीं है। उमेश यादव की प्रतिभा के बारे में विदर्भ के पूर्व खिलाड़ी प्रीतम गाँधी बताते हैं कि, यह साल 2008 की बात है। मैदान में खेल रहे एक नौजवान लड़के की जबरदस्त गेंदबाजी मेरी आखों में बस गई। गेंदबाजी की अहम बात रफ्तार थी। उसका एक्शन अच्छा था। लेकिन रनअप में बदलाव जरूरी था। मैने उसे रणजी ट्राफी के नेट पर बुलाया। वह जल्द ही प्रथम श्रेणी क्रिकेट में खेलने लगा। पर उमेश यादव के परिवार के लोगों को उनके खेलने को लेकर उत्साह नहीं था। उनके पिता की खेल में कोई रूचि नहीं थी। सभी लोगों ने उन्हें यही सलाह दी कि कुछ ऐसा करो कि जिंदगी सुख चैन से बीत सके।
खैर परिवार की उधेड़ बुन और अपने संकल्पों के मध्य उमेश यादव वर्ष 2008 के पहले सत्र में एयर इंडिया की तरफ से खेले। बाद में वे मध्य क्षेत्र की टीम का हिस्सा बन गए। वर्ष 2009 में दिलीप ट्राफी में दक्षिण क्षेत्र के खिलाफ खेले। मैच के दौरान उन्होंने देश के दो शानदार बल्लेबाजों-राहुल द्रविड़ और वीवीवएस लक्ष्मण के विकेट चटकाए। इसमें 76 रन देकर उन्होंने पाँच विकेट लिए। फिर तो उन पर सबकी निगाह पदनी ही थी और इसके बाद ही राष्ट्रीय चयनकर्ताओं ने भविष्य के लिए उमेश यादव का नाम प्रस्तावित किया, जबकि दिल्ली डेयर डेविल्स ने उन्हें अपनी टीम में शामिल किया। लेकिन आईपीएल के सीजन-2 में अफ्रीका में लगी चोट ने उन्हें छह महीने के लिए क्रिकेट से दूर कर दिया। खैर, वह 2010 के साधारण सीजन में फिर से वापस लौटे और बोर्ड प्रेसीडेंट एकादश के लिए चुने गए. लेकिन आईपीएल-3 में जाकर उमेश यादव सही रूप से अपनी पहचान बना सके। आज पूरे देश ही नहीं दुनिया भर के क्रिकेट दीवानों की निगाह उमेश यादव की तेज गेंदबाजी पर टिकी है।