सोमवार, 21 जून 2010

'डेली न्यूज एक्टिविस्ट' में यदुकुल की चर्चा

' डेली न्यूज एक्टिविस्ट' अख़बार के 'ब्लॉग राग' में यदुकुल पर 6 जून को प्रकाशित पोस्ट ' जाति आधारित जनगणना अनिवार्य : सामाजिक न्याय हेतु आवश्यक' की चर्चा की गई है..आभार !!

(चित्र हेतु साभार : प्रिंट मीडिया पर ब्लॉगचर्चा)

रविवार, 6 जून 2010

जाति आधारित जनगणना अनिवार्य : सामाजिक न्याय हेतु आवश्यक

स्पष्ट है कि जाति व्यवस्था हमारे समाज की हकीकत है, इससे मुँह नहीं फेरा जा सकता। मुद्दा यहाँ जाति की जड़ता का नहीं बल्कि जाति के जनतंत्र का है। जब तक विभिन्न संस्थाओं पर कुछ द्विज जातियों का वर्चस्व बना हुआ है, तब तक प्रगतिशीलता का दंभ एक ढकोसला है। फिर जब जाति के आधार पर शिक्षा, नौकरियों और विभिन्न योजनाओं में आरक्षण की व्यवस्था है तो जातियों की वास्तविक स्थिति का पता लगाने में हिचक क्यों होनी चाहिए। मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करते समय भी अन्य पिछड़ी जातियों की आबादी को लेकर विवाद खड़ा हुआ था। सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस समुदाय के लिए आरक्षण की सीमा निर्धारित करने से पहले उनकी वास्तविक संख्या पर सवाल उठाया था। ऐसे में जातिवार जनगणना जरूरी ही नहीं अनिवार्य बन जाती है, ताकिं सामाजिक न्याय, एफर्मेटिव एक्शन और सामाजिक समरसता के लिए प्रमाणिक आँकड़े उपलब्ध हो सकें।
(समाप्त)

शनिवार, 5 जून 2010

जाति आधारित जनगणना अनिवार्य : लोकतंत्र में संख्याबल का महत्त्व

जाति आधारित जनगणना के विपक्ष में उठाए जा रहे सवालों पर सिलसिलेवार चर्चा करें-
जातीय गणना नेताआंे के लिए राजनीति का औजार बनेगी।
भारत एक लोकतांत्रिक राज्य हैए जहाँ बहुमत के आधार पर शासन-व्यवस्था चलती है। यदि किसी जाति विशेष के लोग आबादी में ज्यादा होने के बावजूद शासन-प्रशासन में उचित प्रतिनिधित्व नहीं रखते हंै और उनमंे से कोई उनका नेतृत्वकर्ता बनकर उन्हें आगे बढ़ने के लिए पे्ररित करता हैए तो हर्ज ही क्या है घ् कम से कम यह उस व्यवस्था से तो अच्छी होगी जहाँ कुछेक जातियाँ समाज को भरमाकर उच्च-नीच जाति का मुहावरा गढ़ती हंै और लोगांे पर शासन करती हैं। ऐसे में बात-बात में लोकतंत्र का तकाजा देनेवाली शक्तियाँ ही अब संरव्या-बल से घबरा रही हैं और जाति-गणना का विरोध कर रही हैं । वस्तुतरू हमारे देश का सवर्ण- वर्ग अभी इतना उदार नहीं हुआ है कि अपनी हैसियत व कुर्सी की ओर बढ़ते किसी कदम का स्वागत करे । दलित-पिछडे़ वर्ग के लोगों का अपने अस्तित्व को लेकर जागरुक होना और सत्ता पर पहले से काबिज सवर्णों को धीरे-धीरे पदच्युत करना इन्हें सुहा नहीं रहा है। ऐसे में अब जाति-जनगणना में अपनी पोल खुलने के डर से ये इसमें राजनीति देख रहे हैं.

(जातिवार गणना के विरोध में उठाये गए हर सवाल का जवाब क्रमश: अगले खंड में)

जाति आधारित जनगणना अनिवार्य : 50 % से ज्यादा आरक्षण का 9वीं सूची में प्रावधान

जाति आधारित जनगणना के विपक्ष में उठाए जा रहे सवालों पर सिलसिलेवार चर्चा करें-
यदि जाति आधारित जनगणना में कुछेक जातियों की संख्या ज्यादा हुई तो वे आरक्षण की 50 प्रतिशत् सीमा को बढ़ाने का दवाब डाल सकते हैं, जो कि संविधान विरूद्ध होगा।

दुर्भाग्यवश, जाति आधारित जनगणना की चर्चा के बाद ही लोग इसे मात्र आरक्षण से जोड़कर देख रहे हैं। मात्र इस कपोल कल्पना के आधार पर जाति-जनगणना का विरोध अनुचित है। जिन लोगों ने भाई-भतीजावाद की आड़ में सरकारी नौकरियों पर कब्जा कर रखा है, उन्हें अपनी जमीं खिसकती नजर आ रही है। कार्मिक मंत्रालय की वर्ष 06-07 की इस वार्षिक रिपोर्ट पर गौर करें तो केंद्र सरकार की सेवाओं का चेहरा आसानी से समझा जा सकता है-स्पष्ट है कि कुल 31,05,048 पदों में से 5,50,989 अनुसूचित जातियों, 1,98,400 अनुसूचित जनजातियों एवं मात्र 1,61,818 पद पिछड़ों के पास हैं। अर्थात लगभग 31 लाख पदों में से करीब 22 लाख पदों पर सवर्ण जातियों के लोग भरे हुए हैं। यह हालात तब हैं, जबकि आरक्षण लागू है। स्पष्ट है कि आरक्षण नीति के बावजूद सवर्ण शक्तियाँ इसे प्रभावी रुप में लागू नहीं होने दे रही हैं। आखिरकार प्रशासन के अधिकतर शीर्ष पदों पर बैठे सवर्णों से यह आशा करना बेकार भी है और ऐसे में आरक्षण के बावजूद यदि दलित, जनजातियों और पिछड़ी जातियों को समुचित प्रतिनधित्व नहीं मिल रहा है तो जिम्मेदार कौन हैं, स्वतः स्पष्ट है। यह अनायास ही नहीं है कि 20 मंत्रालयों व 18 विभागों में ग्रुप ‘ए‘ सर्विस में कोई भी पिछड़े वर्ग से नहीं हैं। लगभग 52 फीसदी आबादी में हिस्सेदारी के बावजूद सिर्फ 10 फीसदी आई।ए.एस. ही पिछड़े वर्ग से हैं। 96 फीसदी उच्च और मध्य स्तरीय न्यायिक संस्थाओं में भी 12 फीसदी सवर्णों का ही कब्जा है। जहाँ तक 50 प्रतिशत आरक्षण की बात है तो संविधान की 9वीं सूची के अंतर्गत इसका भी प्रावधान है। इसके तहत ही राजस्थान ने 68, महाराष्ट्र में 52 तो तमिलनाडु ने 69 प्रतिशत आरक्षण लागू करने की बात कही है। हाल ही में स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने एकल पद के मामले में आरक्षण को सही ठहराया है।

(जातिवार गणना के विरोध में उठाये गए हर सवाल का जवाब क्रमश: अगले खंड में)

शुक्रवार, 4 जून 2010

जाति आधारित जनगणना अनिवार्य : जातिवादी उंच-नीच के चलते ही मिली गुलामी

जाति आधारित जनगणना के विपक्ष में उठाए जा रहे सवालों पर सिलसिलेवार चर्चा करें-
तमाम जातियाँ विभिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न वर्गों में है। मसलन एक ही जाति कहीं अनुसूचित जाति तो कहीं पिछड़े वर्ग में है।

जाति आधारित जनगणना का उद्देश्य ही ऐसी विषमताओं को खत्म करना होगा। इस जनगणना से विभिन्न जातियों का सामाजिक-आर्थिक स्तर, प्रशासन में भागीदारी, रोजगार इत्यादि कई मायनों में जानकारी ली जा सकती है और उनके लिए एक समान्वित नीति बनाई जा सकती है।

जाति आधारित जनगणना ष्फूट डालो और राज करोष् की अंगे्रजी नीति को बढ़ावा देगी।

भारत में जाति अंग्रेजों की देन नहीं हैं और दुर्भाग्यवश न ही उन्होंने जाति पदानुक्रम से ज्यादा छेड़छाड़ किया। तथाकथित द्विज जातियाँ अंगे्रजी शासन में भी अपनी जमींदारी बचाने व अच्छे पद की आशा में उनकी जी-हुजूरी कर रही थीं। जब विदेशी आक्रंाता भारत पर आक्रमण कर रहे थे तो कहीं भी एकता का भाव नहीं दिखा। यदि एकता होती तो भारत गुलाम न होता। स्वाभाविक है कि जातीय पदानुक्रम के चलते भारत में पहले से ही फूट थीए जिसे अंगे्रजों ने जमकर भुनाया ।
(जातिवार गणना के विरोध में उठाये गए हर सवाल का जवाब क्रमश: अगले खंड में)

जाति आधारित जनगणना अनिवार्य : जाति की अपेक्षा जातिवादी मानसिकता खतरनाक

जाति आधारित जनगणना के विपक्ष में उठाए जा रहे सवालों पर सिलसिलेवार चर्चा करें-

जाति आधारित जनगणना के दौरान लोग अपनी जाति छुपा या बदल सकते हैं।

इस संबंध में हौव्वा फैलाने की बजाय लोगों को जागरूक करने की जरुरत है। सामान्यतया जनगणना से जुड़े लोग स्थानीय प्राधिकारी ही होते हैं और अधिकांश मामलों में लोगों की जाति-धर्म से परिचित होते हैं। जानबूझकर झूठ बोलने वालों के लिए जनगणना अधिनियम 1948 की धारा 8 के उपखंड 2 में अनिवार्य प्रावधान किया गया है कि-श्हर व्यक्ति जिससे कोई भी प्रश्न पूछा जाए वह उसका उत्तर देने के लिए कानूनी रूप से बाध्य है और उसे जो कुछ भी ज्ञात है और जिस पर भरोसा है, ऐसी सब जानकारी देगा।श् ऐसे प्रश्नों का उत्तर नहीं देने या जान-बूझकर जानकारी छिपाने या उत्तर देने देने से इन्कार करने पर उस पर 1,000 रु. तक का जुर्माना लगाया जा सकता है। जो सचमुच जातिमुक्त होना चाहते हैं वे जनगणना में अपने को ‘जाति-मुक्त‘ लिखवा सकते हैं। जाति आधरित गणना के विरोध में इस तरह के कुतर्क देने वाले शायद यह नहीं जानते कि जनगणना के दौरान जो भी व्यक्ति अल्पसंरव्यक की श्रेणी में दर्ज 6 धर्मों में से किसी में अपना नाम नहीं दर्ज कराता, उसे हिन्दू मान लिया जाता है। जाति-धर्म न मानने वाले आदिवासी और अपने को धर्म के परे नास्तिक मानने वाले सभी लांेगों की गिनती हिन्दू-धर्म में ही की जाती है। पर इन सब तथ्यों का कभी विरोध नहीं हुआ। सही मायनों में जाति-मुक्त होने के लिए जाति से भागने की बजाय जातिवादी मानसिकता को खत्म करना ज्यादा जरूरी है, जो कुछ लोगों को द्विज घोषित करती है।
(जातिवार गणना के विरोध में उठाये गए हर सवाल का जवाब क्रमश: अगले खंड में)

गुरुवार, 3 जून 2010

जाति आधारित जनगणना अनिवार्य : अन्य देशों में भी है नस्लीय गणना

जाति आधारित जनगणना के विपक्ष में उठाए जा रहे सवालों पर सिलसिलेवार चर्चा करें-
दुनिया के अन्य देशों में जाति आधारित जनगणना नहीं होती है।

जाति भारतीय समाज व्यवस्था की देन है। वर्ष 2001 की जनगणनुसार हमारे यहाँ 18,740 अनुसूचित जातियाँ व जनजातियों से जुड़े वर्ग सूचीबद्ध हैं। इसी प्रकार अन्य पिछ़ड़ा वर्ग की केंद्रीय सूची में 1963 जातियाँ और तकरीबन 4000 उपजातियाँ शामिल हैं। इसके अलावा हर राज्य की अन्य पिछड़े वर्गों की अपनी अलग सूचियाँ हैं। इस तरह की जाति व्यवस्था दुनिया के अन्य देशों में नहीं पाई जाती। वहाँ पर धार्मिक-भाषाई-सामाजिक-एथनिक आदि पर आधारित समुदाय अवश्य हैं, जिनकी गिनती उनकी जनगणना में की जाती है। स्वयं अमेरिका जैसे विकसित राष्ट्र में अश्वेत, नेटिव इंडियन, एशियन व डिस्पैनिक जैसे समूहों की बकायदा गणना की जाती है।
(जातिवार गणना के विरोध में उठाये गए हर सवाल का जवाब क्रमश: अगले खंड में)

जाति आधारित जनगणना अनिवार्य : समाज का वास्तविक स्वरुप पता करना जरुरी

जाति आधारित जनगणना के विपक्ष में उठाए जा रहे सवालों पर सिलसिलेवार चर्चा करें-
जाति आधारित जनगणना भारत को बहुत पीछे धकेल देगी।

यह एक भ्रम मात्र है। इस जनगणना से हमें समाज का वास्तविक रुप पता चल सकेगा। भारतीय समाज के समाजशास्त्रीय-नृतत्वशास्त्रीय अध्ययन में ये सूचनाएं काफी सहायक सिद्ध होंगी। इसके अलावा सामाजिक न्याय को भी इन सूचनाओं के संग्रहण द्वारा नए आयाम दिये जा सकेंगे। जाति आधारित जनगणना कई आयामों में एक बेहतर कदम होगा। अभी भी केंद्र सरकार के पास जाति आधारित अपना कोई आंकड़ा नहीं है, इस संबंध में वह राज्यों पर निर्भर है। ऐसे में विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं एवं आरक्षण नीति के सम्यक अनुपालन के लिए यह प्रमाणिक जानकारी बेहद जरुरी है।

(जातिवार गणना के विरोध में उठाये गए हर सवाल का जवाब क्रमश: अगले खंड में)

बुधवार, 2 जून 2010

'हिंदुस्तान' अख़बार में ब्लॉग वार्ता में "यदुकुल" की चर्चा

आज 2 जून, 2010 के दैनिक 'हिंदुस्तान' अख़बार में सम्पादकीय पृष्ठ पर 'ब्लॉग-वार्ता : जात भी पूछो साधु की' में 'यदुकुल' की चर्चा की गई है. जाति-गणना के पक्ष में यदुकुल पर प्रकाशित लेख जाति आधारित जनगणना पर गोल मटोल जवाब क्यों को इस चर्चा में लिया गया है। गौरतलब है कि हिंदुस्तान अख़बार में पहले भी 29 अप्रैल 2009 को ‘ब्लाग वार्ता‘ के तहत रवीश कुमार ने इस ब्लाग की यदुकुल गौरव माडल और जाति की एकता शीर्षक से व्यापक चर्चा की है। 'यदुकुल' की चर्चा के लिए आभार !!

(चित्र हेतु साभार : प्रिंट मीडिया पर ब्लॉगचर्चा)

जाति आधारित जनगणना अनिवार्य : 1941 में विश्वयुद्ध के चलते नहीं हुई जाति गणना

जाति आधारित जनगणना के विपक्ष में उठाए जा रहे सवालों पर सिलसिलेवार चर्चा करें-
भारत में 1931 के बाद जाति-आधारित जनगणना नहीं की गई और अंग्रेजों ने भी इसे सामाजिक वैमनस्य बढ़ाने वाला बताया।

भारत में प्रथम स्थायी जनगणना 1881 में हुई। 1931 तक अंग्रेजों ने जाति-आधारित जनगणना ही की। 1941 में द्वितीय विश्वयुद्ध के चलते जनगणना व्यापक रूप में नहीं हो सकी, अतः जाति आधारित जनगणना नहीं की जा सकी। स्वतंत्र भारत की सरकार ने 1951 व उसके बाद जाति-आधारित जनगणना नहीं कराई, जिसकी कि अब माँग की जा रही है। यहाँ यह भी जोड़ना जरुरी है कि भारत सरकार का राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन अपने प्रतिवेदन में कल्याणकारी योजनाओं हेतु विभिन्न जाति-वर्गाें की अनुमानित गणना करता है। मसलन इस संगठन ने अपने 61वें दौर ;2004.05द्ध में अन्य पिछड़ा वर्ग के 41 फीसदी होने का अनुमान व्यक्त किया था।
(जातिवार गणना के विरोध में उठाये गए हर सवाल का जवाब क्रमश: अगले खंड में)

मंगलवार, 1 जून 2010

जाति आधारित जनगणना अनिवार्य : अनुसूचित जातियों-जनजातियों की गिनती से तो जातिवाद नहीं फैला

जाति आधारित जनगणना के विपक्ष में उठाए जा रहे सवालों पर सिलसिलेवार चर्चा करें-
(1) जाति आधारित जनगणना से जातिवाद को बढ़ावा मिलेगा।

यह सोच पूर्णतया निरर्थक है। जनगणना में अनुसूचित जाति, जनजाति एवं धार्मिक अल्पसंख्यकों की गिनती सदैव से होती आ रही है, पर उससे तो कोई जातिवाद या संप्रदायवाद नहीं बढ़ा। उलटे उनके हित में कल्याणकारी योजनाएं बनाने में आसानी हुई। भारत में स्त्री-पुरुष की गणना भी अलग-अलग होती है, पर इससे लिंग-विभेद को तो बढ़ावा नहीं मिलता। दुर्भाग्यवश हमारे समाज ने अब तक जाति की गंदगी को छिपाने का ही काम किया है। निन्यानवे प्रतिशत परिवार अब भी जन्मकुंडली के अनुसार जाति और गोत्र देख कर शादियांँ करते हैं, भले वे प्रगतिशीलता का मुखौटा पहने रहें। फिर यह कहना कि जाति-गणना से जातिवाद बढ़ेगा, अतिरेक ही है।

क्या जब आजादी के बाद से जातियों की गणना नहीं हो रही थी तो जातिवाद खत्म हो गया था या जनगणना में जाति मात्र का कालम हटा देने से जातिवाद का जहर खत्म हो जाएगा ।जब तक जातिवाद का जहर नहीं खत्म होगा तब तक जाति-गणना से अगड़ापन या पिछड़ापन नहीं आता है। भारत अभी भी पिछड़ा है तो सदियों से चली आ रही इस सामाजिक विषमता के कारण जो प्रतिभाओं को कुंठित कर रही है। समाज में अभी भी व्यक्ति के चेहरे पर लगा कथित ष्निचली या पिछड़ी जातिष् का ठप्पा व्यक्ति के पूरे व्यक्तिव को ध्वस्त कर देता है। गोहना, खैरलाजी और हाल ही में मिर्चपुर जैसे कांड इसके ज्वलंत उदाहरण हंै। जहाँ राजनीतिक पार्टियाँ खुद जातीय समीकरणों के आधार पर प्रत्याशियों का चयन और चुनावी रणनीतियाँ तैयार करती हैं, शादी-विवाह जैसे मामलों में खाप पंचायतों के साथ खड़ी नजर आती हैं वहाँ जातिवार जनगणना न भी कराएँ तो समाज में जातीय जकड़बंदी को तोड़ पाना, कितना आसान होगा, कहना मुश्किल है।

(जातिवार गणना के विरोध में उठाये गए हर सवाल का जवाब क्रमश: अगले खंड में)

जाति आधारित जनगणना अनिवार्य : पहले जाति के आधार पर राज, अब विरोध क्यों

राजस्थान के दौसा जिले के हिंगोटा पंचायत में स्थित 'कुंआ का वास' नामक गाँव को लगभग 23 साल पहले अपनी सवर्ण एवं सामंती मानसिकता से ग्रस्त एक लेखपाल ने रिकार्ड में बदलकर दुर्भावनावश ' चमारों का वास' गाँव कर दिया, क्योकि वहाँ अनुसूचित जाति के लोगों की बहुलता है। गाँव वाले पिछले 23 साल से इस नाम को बदलवाने के लिए संघर्षरत हैं। उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद शहर में एक दबंग ब्राह्मण अधिकारी ने नियम-कानूनों को ठेंगा दिखाते हुए एक चैराहे का नाम ही 'त्रिपाठी चौराहा' घोषित कर दिया। जबकि रिकार्ड में इस चैराहे का नाम दूसरा है। यह दोनों उदाहरण अपने देश भारत में जाति की विभीषका को दिखाते हैं। एक जगह जाति नाम से 'हीनता' का बोध होता है तो दूसरी जगह यह ' प्रतिष्ठापरक' है। दुर्भाग्यवश भारत में व्यक्ति की पहचान उसकी प्रतिभा से नहीं जाती से होती है। सदियों से इसी जाति की आड़ में सवर्ण जाति के लोगों ने दलितों-पिछडों व जनजातियों पर जुल्म ढाए और उन्हें पग-पग पर जलील कर उनके नीच होने व पिछडेपन का अहसास कराया। एक युवा कवि इस दर्द को बखूबी उकेरता है- उसने मेरा नाम नहीं पूछा काम नहीं पूछा / पूछी सिर्फ एक बात / क्या है मेरी जात / मैनें कहा इन्सान/ उसके चेहरे पर थी कुटिल मुस्कान (मुकेश मानस)।
भारत में जाति आधारित जनगणना इस समय चर्चा में है। पहले सरकार की हाँ और फिर टालमटोल ने इसे व्यापक बहस का मुद्दा बना दिया है। चारों तरफ इसके विरोध में लोग अपने औजार लेकर खड़े हो गए हैं। जाति आधारित जनगणना के विरोध में प्रिंट मीडिया से लेकर इलेक्ट्रानिक मीडिया तक ने ऐसी भ्रांति फैला रखी है, मानो इसके बाद भारत में जातिवाद का जहर फैल जाएगा और भूमंडलीकरण के इस दौर में दुनिया हमें एक पिछड़े राष्ट्र के रुप में दर्ज करेगी। सवर्ण शक्तियाँ जाति आधारित जनगणना को यादव त्रयी मुलायम सिंह, लालू प्रसाद यादव एवं शरद यादव की देन बताकर इसे ‘यादवी‘ कूटनीति तक सीमित रखने की कोशिश कर रही है। पर सूचना-संजाल के इस दौर में इस तथ्य को विस्मृत किया जा रहा है जाति भारतीय समाज की रीढ़ है। चंद लोगों के जाति को नक्कारने से सच्चाई नहीं बदल जाती।
जाति-व्यवस्था भारत की प्राचीन वर्णाश्रम व्यवस्था की ही देन है, जो कालांतर में कर्म से जन्म आधारित हो गई। जब सवर्ण शक्तियों ने महसूस किया कि इस कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था से उनके प्रभुत्व को खतरा पैदा हो सकता है तो उन्होंने इसे परंपराओं में जन्मना घोषित कर दिया। कभी तप करने पर शंबूक का वध तो कभी गुरुदक्षिणा के बहाने एकलव्य का अंगूठा माँगने की साजिश इसी का अंग है। रामराज के नाम पर तुलसीदास की चैपाई-”ढोल, गँंवार, शूद्र, पशु नारी, ये सब ताड़ना के अधिकारी,’ सवर्ण समाज की सांमती मानसिकता का ही द्योतक है। यह मानसिकता आज के दौर में उस समय भी परिलक्षित होती है जब मंडल व आरक्षण के विरोध में कोई एक सवर्ण आत्मदाह कर लेता है और पूरा सवर्णवादी मीडिया इसे इस रुप में प्रचारित करता है मानो कोई्र राष्ट्रीय त्रासदी हो गई है। रातों-रात ऐसे लोगों को हीरो बनाने का प्रोपगंडा रचा जाता है। काश मीडिया की निगाह उन भूख से बिलबिलाते और दम तोड़ते लोगों पर भी जाती, जो कि देश के किसी सुदूर हिस्से में रह रहे हैं और दलित या पिछड़े होने की कीमत चुकाते हैं। दुर्भाग्यवश जिन लोगों ने जाति की आड़ में सदियों तक राज किया आज उन हितों पर चोट पड़ने की आशंका के चलते जाति को ‘राष्ट्रीय शर्म‘ बता रहे हैं एवं जाति आधारित जनगणना का विरोध कर रहे हैं। अब जाति आधारित जनगणना के विपक्ष में उठाए जा रहे सवालों पर सिलसिलेवार चर्चा करें-
(जातिवार गणना के विरोध में उठाये गए हर सवाल का जवाब क्रमश: अगले खंड में)