शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

तुम जियो हजारों साल...


आज आकांक्षा यादव का जन्मदिन है। आकांक्षा उन चुनिंदा रचनाधर्मियों में शामिल हैं, जो एक साथ ही पत्र-पत्रिकाओं के साथ-साथ ब्लागिंग में भी उतनी ही सक्रिय हैं. इनके चार ब्लॉग हैं- शब्द-शिखर, उत्सव के रंग, सप्तरंगी प्रेम और बाल-दुनिया. आकांक्षा यादव के जन्मदिन पर यदुकुल की तरफ से ढेरों बधाई.

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तुम जियो हजारों साल !
साल के दिन हों पचास हजार !!

! जन्मदिन के अवसर पर ढेरों शुभकामनायें और आशीर्वाद !
!! आपकी कलम से यूँ ही प्रखर रचनाधर्मिता निरंतर प्रवाहित होती रहे !!

बुधवार, 28 जुलाई 2010

जर्मनी में हिंदी सेवा के वरिष्ठ उद्घोषक और पत्रकार राम यादव

(प्रत्येक व्यक्ति नौकरी से एक न एक दिन रिटायर होता है. बस रह जाती हैं यादें और आपके किये गए अच्छे कार्य. जर्मनी में डॉयचे वेले से दशकों से जुड़े हिंदी सेवा के वरिष्ठ उद्घोषक और पत्रकार राम यादव के रिटायरमेंट पर श्रोताओं ने अपनी राय भेजी तो उसे DW-WORLD-DE ने गौरवान्वित करते हुए अपनी वेबसाईट पर प्रस्तुत किया. इसे यदुकुल पर साभार प्रकाशित किया जा रहा है, ताकि आप भी इस विलक्षण व्यक्तित्व से परिचित हो सकें )

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राम यादवजी की सेवानिवृत्ति की जानकारी मिली. काफी दुःख हुआ. इतना लम्बा साथ इतनी आसानी से टूट जायेगा सोचा भी नहीं जा सकता है पर प्रकृति को यही मंजूर है तो क्या किया जाये. डॉयचे वेले परिवार तथा हम श्रोताओं को उनकी कमी बहुत खलेगी. उनकी मधुर चिरपरिचित आवाज अब सुनने को जो नहीं मिलेगी. ईश्वर से कामना है कि राम यादवजी जहां कहीं भी रहे पु्र्ण रूप स्वस्थ रहे. आपका बहुत बहुत धन्यवाद हम श्रोताओं को इतने बरसों तक मनोरंजन करने के लिए.
अतुलकुमार, राजबाग रेडियो लिस्नर्स क्लब, सीतामढ़ी, बिहार

डी.डब्ल्यू की वेबसाइट पर हिंदी सेवा के वरिष्ठ उद्घोषक और पत्रकार श्री राम यादवजी की सेवानिवृति होने पर उनके साथ लिया गया इंटरव्यू पढ़ कर दुःख हुआ. आज के बाद यादवजी की आवाज़ सुनने को नहीं मिलेगी, ख़ासकर खोज कार्यक्रम सूना सूना लगेगा, जो हमारे लिए काफी कष्टदायक होगा. वास्तव में राम यादवजी डॉयचे वेले के पर्यायवाची बन चुके थे. बहरहाल यादवजी जहां भी रहे, खुश रहें, सफलता उनके कदम चूमे. मैं और मेरे क्लब के सभी सदस्य उनके खुशहाल जीवन और उज्जवल भविष्य की कामना करते हैं. उनके द्वारा लिखित और प्रेषित किताब हमारे क्लब के लिए अमूल्य धरोहर है, धन्यवाद.
चुन्नीलाल कैवर्त, ग्रीन पीस डीएक्स क्लब, बिलासपुर, छत्तीसगढ़

नमस्कार, मैं राम यादव, डॉयचेवेले के हिंदी कार्यक्रम में आपका स्वागत है....... ये शब्द सुनते ही मन आनंदित हो उठता था. मुझे याद है, जब मै कक्षा 7 का छात्र था, तब पहली बार मैंने डॉयचे वेले का स्वाद चखा और उस समय राम यादवजी ही प्रोग्राम दे रहे थे. मैं लगातार डॉयचे वेले सुनता रहा, राम यादव जी के लिए दिल में सम्मान बढता ही गया और अब दुःख महसूस कर रहा हूं कि यादवजी की आवाज ले लिए सिर्फ मैं ही नहीं बल्कि जिसने भी उन्हें सुना सब को तकलीफ तो जरुर होगी. यादवजी अगर आप कभी भारत आये तो अपने इस मामूली से श्रोता को दर्शन जरुर दीजियेगा, ऐसी आशा और उम्मीद के साथ मैं अशोक कुमार साहू डॉयचे वेले परिवार को सच्चे मन से धन्यवाद देता हूं.
अशोक कुमार साहू, इमेल से

डीडब्ल्यू की साईट पर राम यादवजी से मुलाकात पढ़ने को मिली. उनके व्यक्तिगत अनुभव और विचार काफी प्रभावशाली लगे. डीडब्ल्यू का हर एक श्रोता राम यादवजी को हमेशा याद रखेगा. भविष्य में वे भारत या जर्मनी में ही रहेंगे इस बारे में हम जानना चाहेंगे. रिटायरमेंट के बाद के उनके जीवन प्रवास के लिए हमारी हार्दिक शुभकामनायें.
संदीप, सविता, आरती और आदर्श जवाले, मार्कोनी डी एक्स क्लब, परली वैजनाथ, महाराष्ट्र

नमस्ते डॉयचे वेले हिंदी, आज के इंटरनेट संस्करण में राम यादव जी की सेवानिवृति के बारे में पढ़ा. राम यादव एक लम्बे कार्यकाल के बाद अवकाश पा रहे हैं. आज की पत्रकारिता पर उनके विचार जाने सचमुच यह एक कड़वी सच्चाई है कि आज का पत्रकार सेवाभावी नहीं है. समाज-सुधार के अपने लक्ष्य से वह कोसों दूर है. यादवजी आपने अपने अनुभवों को हमारे साथ बांटा आपका दिल से धन्यवाद. हम आपके सुखद और उज्जवल भविष्य की कामना करते हैं.
माधव शर्मा नागौर, राजस्थान

पत्रकार जगत की एक बड़ी हस्ती, निष्ठावान पत्रकार, डॉयचे वेले हिंदी अनुष्ठान का पर्याय बन गए. श्री राम यादव का रिटायरमेंट बहुत खलेगा. उन्होंने जिन विषयों पर भी कार्यक्रम प्रस्तुत किये उन्हें जीवंत बना दिया और श्रोता उनकी बात बहुत गौर से सुनते थे. हिन्दुस्तानी पत्रकार जगत पर उनकी खेदपूर्ण टिप्पणी दिल को छू गई. उन्होंने एक अत्यंत कटु सत्य को बिना हिचक प्रस्तुत किया यह उनकी ईमानदारी का परिचायक है. भविष्य में उनके सुखद् जीवन की मैं ह्रदय से कामना करता हूं.
प्रमोद महेश्वरी , फतेहपुर -शेखावाटी

यादव जी नमस्कार, सबसे पहले मैं आपका धन्यवाद करता हूं. जैसे ही मैं आपको यह पत्र लिख रहा हूं मुझे वर्ष 2004 मन में आ रहा है . यह 5 साल से भी ज्यादा का समय कब और कैसे गुज़र गया पता ही नहीं चला. शायद डॉयचे वेले को दूसरा राम यादव ना मिले, लेकिन हमारे साथ तो आप हैं ही. आने वाले जीवन के लिए आपको हमारी शुभकामनायें
नोरिस प्रीतम, नई दिल्ली

आज नेट पर राम यादव जी डॉयचे वेले से रिटायर हुए ये पढ़कर मैं अतीत में खो गया. चेहरे से कभी नहीं लगता था कि यह व्यक्ति की उम्र इतनी बड़ी (60) है. 40 साल रेडियो से और 30 साल डॉयचे वेले से जुड़े हुए उनकी कई यादें दिल में संजोये हुए हूं. आर.बी.आई. के जमाने से राम यादव जी की आवाज़ एक अलग ही अंदाज़ का परिचय देती थी. डाक्टर गोएबल ग्रोस के साथ और जर्मनी के एकीकरण के दिनों में उनकी आवाज का जादू अभी भी कानों में गूंज रहा है. सच श्री राम यादवजी की कमी हम सब को खलेगी. हम उनको कभी भी नहीं भूल पायेंगे.उनके अच्छे स्वास्थ्य और प्रगति की कामनाएं करते हैं.
नानाजी जानजानी , भुज, गुजरात

आपकी बारी आपकी बात के अंतर्गत राम यादव जी के बारे में यह जान कर मन बोझिल हो गया कि राम यादव जी डॉयचे वेले से सेवानिवृत हो गए हैं. राम यादवजी से बातचीत काफी अच्छी लगी. फिर भी मेरे मन में एक सवाल बार बार आ रहा है कि - "क्या यादवजी से डी डब्ल्यू के श्रोता फिर कभी मिलेंगे या नहीं? " इसके बारे में यादवजी ने कुछ भी स्पष्ट नहीं कहा. हालांकि मैंने डी डब्ल्यू की साईट पर आपकी यादवजी से पूरी बातचीत पढ़ी भी और आज मैं उनकी अधूरी बातचीत भी मिस नहीं करूंगा.
मनोज कुमार आजाद, रेनबो इंटरनेट क्लब, भागलपुर, बिहार

राम यादवजी से भेंट यादगार रही. मुझे डॉयचे वेले सुनते लगभग 25 साल हो गए है. राम यादवजी की आवाज़ का शुरू से दीवाना रहा हूं. उनकी वाक्यशैली सदा याद रहेगी. राम यादवजी सेवानिवृत हो रहे है जान कर दिल को मायूसी हुई. अब हमें उनकी मधुर आवाज़ में कार्यक्रम सुनने को नहीं मिलेंगे. यह हमारे लिए दुःख का विषय है. उनकी आवाज़ में वह जादू है जो हमें कार्यक्रम सुनने को प्रेरित करता है. वे निश्चय ही एक मंझे हुए लेखक है. यह उनके द्वारा होम्योपैथी पर रची गई पुस्तक से साबित होता है. उनके आगामी जीवन के लिए हार्दिक शुभकामनाएं. डॉयचे वेले श्रोता परिवार को सदा उनकी कमी खलेगी.
उमेश कुमार शर्मा, स्टार लिस्नर्स क्लब, नारनौल, हरियाणा

रिपोर्टः विनोद चढ्डा / संपादनः आभा मोंढे

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

यदुवंशियों द्वारा प्रकाशित पत्र-पत्रिकाएं

किसी भी वर्ग के निरंतर उन्नयन और प्रगतिशीलता के लिए जरुरी है कि विचारों का प्रवाह हो। विचारों का प्रवाह निर्वात में नहीं होता बल्कि उसके लिए एक मंच चाहिए। राजनीति-प्रशासन-मीडिया-साहित्य-कला से जुड़े तमाम ऐसे मंच हैं, जहाँ व्यक्ति अपनी अभिव्यक्तियों को विस्तार देता है। आधुनिक दौर में किसी भी समाज-राष्ट्र के विकास में साहित्य और मीडिया की प्रमुख भूमिका है, क्योंकि ये ही समाज को चीजों के अच्छे-बुरे पक्षों से परिचित करने के साथ-साथ उनका व्यापक प्रचार-प्रसार भी करती हैं। व्यवहारिक तौर पर भी देखा जाता है कि जिस वर्ग की मीडिया-साहित्य पर जितनी मजबूत पकड़ होती है, वह वर्ग भी अपनी बुद्धिजीविता के बाल पर उतना ही सशक्त और प्रभावी होता है और लोगों के विचारों को भी प्रभावित करने की क्षमता रखता .है यादव समाज से जुड़े तमाम बुद्धिजीवी देश के कोने-कोने से पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन/संपादन कर रहे हैं. जरुरत है की इनका व्यापक प्रचार-प्रसार हो और इनके पाठकों की संख्या में भी अभिवृद्धि हो. यदुकुल की कोशिश होगी कि इन पत्र-पत्रिकाओं को सामने लाया जाय। कुछ प्रमुख पत्र-पत्रिकाएं-

हंस(मा0): सं0-राजेन्द्र यादव, अक्षर प्रकाशन प्रा0 लि0, 2/36 अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली
सामयिक वार्ता(मा0):सं0-योगेन्द्र यादव, एक्स बी-4, सह विकास सोसायटी, 68, इंद्रप्रस्थ विस्तार, पटपड़गंज, दिल्ली
प्रगतिशील आकल्प(त्रै0): सं0-डा0 शोभनाथ यादव, पंकज क्लासेज, पोस्ट आफिस बिल्डिंग, जोगेश्वरी (पूर्व), मुम्बई
मड़ई (वार्षिक): सं0-डा0 कालीचरण यादव, बनियापारा, जूना विलासपुर, छत्तीसगढ़-495001
राष्ट्रसेतु(त्रै0):सं0-जगदीश यादव, मिश्रा भवन, आमानाका, रायपुर (छत्तीसगढ़)
छत्तीसगढ़ समग्र(मा0):सं0-जगदीश यादव, मिश्रा भवन, आमानाका, रायपुर (छत्तीसगढ़)
मुक्तिबोध (अनि0):सं0-मांघीलाल यादव, साहित्य कुटीर, टिकरापारा, गंडई-पंडरिया, राजनादगाँव(छ0ग0)
बहुजन दर्पण(सा0):सं0- नन्द किशोर यादव, विजय वार्ड नं0 2, जगदलपुर, छत्तीसगढ़
नाजनीन():सं0-रामचरण यादव ‘याददाश्त‘, सदर बाजार, बैतूल (म0प्र0)
डगमगाती कलम के दर्शन(मा0):सं0-रमेश यादव, 127-गोकुलगंज, कन्डीलपुरा, इंदौर - 452006
प्रियंत टाइम्स(मा0): सं0-प्रेरित प्रियन्त, 22- भालेकरीपुरी, इमली बाजार, इन्दौर-4
वस्तुतः (अनि0): सं0-अरुण कुमार, तरुण-निवास, त्रिवेणीगंज, बिहार-852139
मण्डल विचार (मा0): सं0-श्यामल किशोर यादव, श्यामप्रिया सदन, गुलजारबाग, मधेपुरा, बिहार-852113
आपका आईना(त्रै0):सं0-डा0 राम अशीष सिंह, समीक्षा प्रकाशन, मानिक चंद तालाब, अनीसाबाद, पटना-800002
अनंता(मा0):सं0-पूनम यादव, 203-204, सरन चैंबर-IIदितीय तल, 5 पार्क रोड, लखनऊ (यू.पी.)
शब्द (मा0): सं0-आर0सी0यादव, सी-1104, इन्दिरा नगर, लखनऊ-226016
अमृतायन():सं0-डा0 अशोक ‘अज्ञानी‘, हिन्दी अनुभाग, राजकीय हुसैनाबाद इंटर कालेज, चौक,लखनऊ-226003
प्रगतिशील उद्भव(त्रै0):सं0-गिरसन्त कुमार यादव, 1/553, विनयखण्ड, गोमती नगर, लखनऊ- 226010/
कृतिका(छ0):सं0-डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव, 1760, नया रामनगर, उरई, जालौन (उ0प्र0)-285001
सोशल ब्रेनवाश (द्वै०):सं0-कौशलेन्द्र प्रताप यादव, 405 शिवपुरी लेन, सिविल लाइन-2, बिजनौर उ0प्र0)-246701
बाबू जी का भारतमित्र(अर्ध0):सं0-रघुविंदर यादव, प्रकृति भवन, नीरपुर, नारनौल, हरियाणा-123001
पर्यावरण संजीवनी():सं0-डा0 राम निवास यादव, पर्यावरण भवन, धिकाडा रोड, चरखी दादरी, हरियाणा.
हिन्द क्रान्ति(पा0):सं0-सतेन्द्र सिंह यादव, आर-4/17, राजनगर, गाजियाबाद (उ0प्र0)
स्वतन्त्रता की आवाज(सा0):सं0-आनन्द सिंह यादव, ग्राम-ईशापुर पो0-मलिहाबाद, लखनऊ
दहलीज(पा0):सं0-ओमप्रकाश यादव 13,पटेल परमानंद की चाली(पठान की चाली), अमृता मील के सामने, सरसपुर, अहमदाबाद/
द्वीप मंथन (सा०):सं0-श्याम सिंह यादव, MB/22 अबरदीन गाँव, पोर्टब्लेयर, दक्षिण अंडमान
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यादव ज्योति(मा0):सं0-श्रीमती लालसा देवी, ‘यादव-ज्योति‘ कार्यालय, के0 54/157-ए, दारानगर, वाराणसी-221001.
यादव कुल दीपिका(मा0):सं0- चिरंजी लाल यादव, बी-73, शिवाजी रोड, उत्तरी घोण्डा, दिल्ली-53.
यादव डायरेक्ट्री (वार्षिक): सं0-सत्येन्द्र सिंह यादव, 27, सुरेश नगर, न्यू आगरा, आगरा-5.
यादवों की आवाज(त्रै0): सं0-डा0 के0सी0 यादव, अखिल भारत वर्षीय यादव महासभा, श्री कृष्ण भवन, सेक्टर-IVवैशाली, टी0एच0ए0, गाजियाबाद -201011.
यादव साम्राज्य(त्रै0):सं0-भंवर सिंह यादव, 130/61, बगाही, बाबा कुटी चौराहा, किदवई नगर, कानपुर-208011.
यादव शक्ति(त्रै0): सं0- राजबीर सिंह यादव, 161, बाजार दक्षिणी सिधौली, सीतापुर (उ0प्र0)-261303
यादव दर्पण():सं0-डा0 जगदीश व्योम, 1206, सेक्टर-37, नोएडा, गौतमबुद्ध नगर
राऊताही(वा0): स0-डा0 मंतराम यादव, जब्बल एंड संस गली, नेहरु नगर, बिलासपुर, छत्तीसगढ़

सोमवार, 26 जुलाई 2010

एक नॉन-पापा की बात : रचना यादव

'मैं वापस आऊँगा, जरूर आऊँगा, पहचान पाओगे मुझे' -राजेन्द्र यादव. ..1983 में पापा की टेबल पर रखे कुछ थीसिस के नोट्स में मैंने यह लाइन पढ़ी. ऐसा लगा कि यह लाइन एक ऐसे व्यक्ति के अंदर से फूटी है, जो कहीं भटक गया है, खो गया है या खत्म हो रहा है. पर अपने आपको फिर से खड़ा करने की चाह उतनी ही जीवित है और उम्मीद उतनी की प्रबल. और क्यों यह पंक्ति पापा द्वारा कही गई थी तो मेरे अनुमान से यह एक लेखक अपने पाठकों को संबोधित कर रहा था. मरते हुए लेखक की इस लाइन ने, पापा को पहली बार मेरे सामने एक लेखक के रूप में जीवित कर दिया.जानती तो थी ही कि वे लेखक हैं. जानती क्या, दिन-रात पापा को लिखते-पढ़ते देखती थी. पर इस पंक्ति में छिपी कुंठा ने मुझे अंदर तक इस हद तक छू लिया कि पहली बार मुझे पापा के लेखक होने का अर्थ समझ आया. केवल लेखक ही नहीं, एक सफल लेखक होना उनकी जिंदगी में कितनी अहमियत रखता है, इस बात का अहसास मुझे उस दिन पहली बार हुआ.

साल भर पहले गीताश्रीजी ने मुझे पापा के बारे में लिखने को कहा और मैं टालती गई. मैंने तो इतनी गहराई से कभी पापा का व्यक्ति-विश्लेषण किया ही नहीं. दिमाग में ही नहीं किया तो कागज पर क्या उतारूँ. वैसे भी मनुष्य का यह स्वभाव होता है कि वह प्रसन्न दिखने वालों का कम और दुखी लोगों का विश्लेषण ज्यादा करता है. और जब पापा के बारे में सोचने बैठी तो इतना तो समझ आ ही गया कि इतने प्रसन्न, सहज-सरल दिखने वाले पापा, विश्लेषण के लिए एक जटिल विषय हैं.

जैसा मैंने कहा कि उस दिन पहली बार मुझे अहसास हुआ कि लेखन और लेखक होना, पापा की जिंदगी में कितना महत्व रखता है. उनकी समस्त जिंदगी और शायद जीने का कारण ही उनका लेखन है. पर क्योंकि अनेक लोगों ने, समीक्षकों ने उनकी रचनाओं पर और लेखक-राजेन्द्र यादव पर बहुत कुछ लिखा है, मैं कोशिश करूँगी कि अपने अनुभव के आधार पर, उनके पिता-रूप पर टिप्पणी करूँ.

मुझे नहीं याद कि पापा (जिनको मैं बचपन से ही पप्पू बुलाती हूँ) को मैंने कभी दुखी या अवसाद में देखा हो. कुछ किस्से मम्मी बताती हैं, जब वे बहुत रोए या दुखी हुए पर मैंने खुद कभी नहीं देखा. सारे समय हँसी-मजाक, मस्ती-मुझे तो बस यही याद है. 'बाबा मौज करेगा' ताली बजाते हुए, फकीरी अंदाज में वह इस तकिया-कलाम को बोलकर घर में कभी भी किसी भी चिंताजनक या तनाव के माहौल को क्षणभर में हलका कर देते.

मुझे यह भी याद नहीं कि उन्होंने मुझे कभी डाँटा हो या नाराज हुए हों. या कभी अच्छे बच्चे बनने के तौर-तरीकों पर लंबे भाषण पेले हों, जो अक्सर आम पिता अपने बच्चों के साथ करते हैं. या कभी पढ़ाई करने के लिए डॉक्टर-इंजीनियर बनने के लिए कोई जोर या दबाव डाला हो. इस सबको पढ़कर तो कोई भी बच्चा यह सोच सकता है कि वाह! ऐसे पापा सबको मिलें और कम ही लोग इतने अच्छे पापा बन पाते हैं.

पर असलियत तो यह है कि पापा बनना तो उन्हें कभी आया ही नहीं. फिर अच्छा पापा बनना तो दूर की बात है.

मेरे लिए तो माँ और पिता, इन दोनों की भूमिकाएँ मम्मी ने ही अदा कीं. मुझे नहीं लगता कि उन्हें कभी इस बात का अहसास हुआ कि उनकी एक बेटी है, जो उनकी जिम्मेदारी है.बचपन में मुझे कई बार बात खटकती थी कि मेरे पापा अन्य पापाओं से अलग क्यों हैं? वे दूसरे बच्चों के पापाओं की तरह मुझे बस-स्टाप पर छोड़ने क्यों नहीं आते? इंडिया-गेट और चिल्ड्रन म्यूजियम क्यों नहीं जाते? या टाई और सूट पहन, ब्रीफकेस लेकर, ऑफिस की गाड़ी में बैठे, ऑफिस क्यों नहीं जाते? आसपास के माहौल से प्रभावित जो मेरे दिमाग में उस समय एक 'पिता-छवि' थी, उसमें वे दूर-दूर तक कहीं फिट नहीं होते थे. बुरा भी लगता था और शायद अपनी सहेलियों के बीच कॉलेक्स भी होता था.पर आज सोचती हूँ तो लगता है कि यदि वह एक आम पिता की तरह यह सब करते तो मैं भी शायद आम लड़की की तरह एक सुघड़ गृहिणी होकर रह जाती. इसका मतलब यह कतई नहीं है कि हर आम और अच्छे पिता के बच्चे साधारण ही निकलते हैं. मैं केवल अपने संदर्भ में यह बात कह रही हूँ.

हाँ, यह जरूर है कि इस नॉन-पापा की भूमिका को पापा ने इस हद तक अदा किया कि मेरे बहुत बीमार होने पर भी वे गायब. डॉक्टर के पास ले जाने की तो उनसे अपेक्षा ही नहीं करनी चाहिए थी. जिस व्यक्ति के अपने पिताजी यानी मेरे दादा साहेब ने, उनकी बीमारी के दिनों में महीनों उनके सिरहाने बैठकर उनकी देखभाल की वह व्यक्ति अपनी खुद की बेटी की बीमारी में ऐसा कर सकता है-यह विश्वास करना ही बहुत कठिन है, पर सुनती हूँ कि ऐसा ही हुआ. और मम्मी का इस बात पर बहुत-बहुत नाराज होना तो जायज ही था.

ऐसी कुछ और घटनाएं हैं, जिनको सुनकर मुझे पापा से बहुत नाराजगी होनी चाहिए. जिस पल सुनती हूँ उस क्षण गुस्सा भी आता है पर बाद में गुस्से से ज्यादा उनके लिए दुख होता है-'घर-बार', 'बाल-बच्चे' न वे इन सबके लिए बने हैं और न यह सब उनके लिए. कहाँ फँस गए बेचारे! और हाँ, यह खयाल मम्मी के लिए भी उतना ही आता है-किस आदमी के साथ फँस गईं बेचारी!इन दोनों 'बेचारे' माँ-बाप की इकलौती संतान होने के नाते, मुझे तो अति बेचारा होना चाहिए था. पर अपने बेचारेपन के बावजूद दोनों ने मुझे इतना मनोबल दिया कि मैंने अपने आप को कभी बेचारा महसूस ही नहीं किया. मेरे व्यक्तित्व को ढालने में मम्मी का तो बहुत बड़ा और सक्रिय योगदान है ही, पर यदि कभी उन पर लिखा तो इसकी चर्चा करूँगी. इस लेख को मैं पापा पर ही केंद्रित रखने की कोशिश करूँगी.

मम्मी कहती हैं कि मेरी शक्ल-सूरत भले ही उनसे मिलती हो, पर मेरा स्वभाव, मेरी आदतें अपने पिता से बहुत मिली हैं. अब इस बात को वह नाराजगी के क्षणों में कहती हैं या प्यार के, यह तो मैं आज तक नहीं समझ पाई. पर लगता है, इसमें कुछ सच्चाई अवश्य है.मेरी माँ और कुछ बहुत ही करीबी मित्र मेरी एक आदत से परेशान और कभी-कभी नाराज भी रहते हैं कि मैं अपने अंदर चलते विचारों को खुलकर कभी व्यक्त नहीं करती. कोई काम करने का विचार है तो उसे पहले न बताकर काम शुरू हो जाने के बाद सूचना देती हूँ. और यही आदत मैंने कई गुणा अधिक पापा में देखी हैं. आप कभी अंदाज ही नहीं लगा सकते हैं कि उनके भीतर क्या चल रहा है. किस काम को करने की कैसी योजना. ऐसी बातों को वे शायद ही किसी के साथ शेयर करते हों. और यदि कभी मजबूरी में करना भी पड़ा हो तो केवल उस स्थिति में, जब उनकी योजना में दूसरे व्यक्ति की साझेदारी अनिवार्य हो.अब ऐसे व्यक्ति के साथ रहना और रिश्ता निभाना कतई आसान नहीं है पर क्योंकि कुछ हद तक मैं भी ऐसी ही हूँ तो शायद एक स्तर पर समझ सकती हूँ और एक सीमा तक बिना गिला-शिकवे के स्वीकार भी कर सकती हूँ.

बात को बहुत देर तक छिपाए रखने के पीछे स्थिति अनुसार कारण तो अनेक हो सकते होंगे पर मेरे अनुमान से मोटा-मोटी दो कारण दिमाग में आते हैं-या तो वह बात, काम या विचार इतना गलत है कि उसे छिपाने में ही अपनी और सामने वाली की भलाई है. या फिर अपने अंदर आत्मविश्वास की कमी होना.

सोचे हुए काम को करने की क्षमता मुझमें न हुई तो? योजना असफल हो जाए तो? पहले से ही ढिंढ़ोरा पीट लिया तो कितनी खिल्ली उड़ेगी. बेहतर यही है कि पहले समझ लो, परख लो, करके देख लो. अगर सफल हो गए तो वाह! अपने आप ही बात बाहर आ जाएगी. और अगर नहीं बन पाया तो कम से कम इस शर्मनाक हार के बारे में किसी को पता तो नहीं चलेगा. मेरी क्षमता और काबिलियत पर प्रश्न तो नहीं उठेंगे.

यह विश्लेषण मेरी अपनी सोच है, मेरे निष्कर्ष. मेरे दृष्टिकोण से. हो सकता है कि यह सच्चाई से कोसों दूर हो, पर हर व्यक्ति का अपना एक नजरिया होता है, जिसके अनुसार वह अपनी धारणाएँ बना लेता है और उसके लिए वही सच है. उसका सच.


तो जहाँ तक मेरी समझ जाती है, मेरी यही धारणा है कि कहीं बहुत गहराई में छिपे इस आत्मविश्वास की कमी से मुक्त होने के लिए या उस पर विजय पाने की निरंतर और अटूट कोशिश ने पापा के चरित्र में एक और विशेषता को जन्म दिया. उनकी बेहिसाब और उदाहरणीय दृढ़ता. यदि एक बार किसी काम को करने का दृढ़ संकल्प कर लिया तो बस, उसके पीछे लग गए. पूरी एकाग्रता और तल्लीनता के साथ.

ऊपर से इतने मस्त और फक्कड़ दिखने वाले पापा इस हद तक आत्मप्रेरित और अनुशासित हैं कि जब वे किसी योजना में लगते हैं उनका यह अनुशासन उसमें किसी भी प्रकार की रुकावट या अड़चन डालने की अनुमति नहीं देता. अपने लिखने-पढ़ने का समय न वे किसी को दे सकते हैं, न ही किसी के साथ शेयर कर सकते हैं. फिर चाहे वह उनका कितना ही करीबी या प्रिय मित्र अथवा संबंधी ही क्यों न हो.


सुनने में भले ही यह एक सेल्फ-सेंटर्ड व्यक्ति का चित्र उभारता हो और पापा के लिए यह कहना गलत भी नहीं होगा. पर मैं समझती हूँ कि कुछ विशिष्ट पाने के लिए थोड़ा सेल्फ-सेंटर्ड होना ही पड़ता है.

अब चाहे यह सही हो या गलत, मैं तो अपने आपको बहुत भाग्यशाली समझती हूँ, क्योंकि उनकी यह चरित्र-विशेषता मैंने उनसे विरासत में ली है. यदि आज मुझमें कुछ अलग करने की चाह है और मैं लगभग भूतियाभाव से उस काम के पीछे लग जाने की क्षमता रखती हूँ तो वह काफी हद तक पापा की ही देन है. बिना पैशन और जुनून के जिंदगी व्यर्थ है- यह मैंने पापा से ही सीखा है.

कहते हैं कि 'पीपुल हू हैव ए पैशन इन लाइफ आर ट्रली ब्लैंस्ड, एंड पीपुल हू स्पेंड देयर एंटायर लाइव्स विदाउट ए पैशन, मे ऐस वेल हैव नॉट लिव्ड' और इसे मैं पापा की अपने लिए सबसे बड़ी और सबसे महत्वपूर्ण देन समझती हूँ. इसी से जुड़ा हुआ एक और पहलू है. एक और ऐसी शिक्षा जो मैंने पापा से ही ली. बचपन से ही मैंने अपने घर में कभी भी पूजा-पाठ होते नहीं देखा. मंदिर जाना, व्रत रखना या जागरण में जाना-इस सबका कोई सिलसिला नहीं था.

जागरण तो जरूर होते थे और उनमें मम्मी-पापा के करीबी मित्र भी शामिल होते थे, पर धार्मिक और सत्संगी भाव से एकदम विपरीत. हँसी-मजाक, एक दूसरे की टाँग खिंचाई और बौध्दिक बहसों में रातें गुजरती थीं. मम्मी फिर भी साल में एक बार दीपावली पर पूजा का माहौल बनाने का प्रयत्न करती थीं, पर पापा के होते वह भी अक्सर महज, मजाक या बनकर रह जाता था.

मुझे याद है कि एक दीपावली पर मैंने पापा से थोड़ा खीजकर कहा था- 'आप कभी तो भगवान की सीरियसली पूजा कर लिया कीजिए. साल में एक बार ही सही.'मजाक की मुद्रा में, दोनों हाथ फैलाकर पापा ने जवाब दिया, 'तो फिर हमें तो अपनी ही पूजा करनी चाहिए क्योंकि साक्षात भगवान हमारे अंदर ही तो बैठे हैं. हमें तो केवल अपने आप पर ही विश्वास हैं.' पापा को तो शायद याद भी नहीं होगा, पर सालों पहले मजाक में कही इस एक पंक्ति का मुझ पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि उसने मेरी सोच को एक नया मोड़ दिया. मैं अपने आपको नास्तिक तो नहीं मानूँगी, पर हाँ इतना जरूर कहूँगी कि मुझे आज सबसे ज्यादा अपने आप पर और अपनी क्षमता पर भरोसा है. मेरा यह विश्वास है कि घंटे-दो-घंटे मंदिर में पूजा करने के बजाय यदि मैं उतने समय में कुछ सकारात्मक करूँ तो शायद ज्यादा हासिल कर पाऊँ. तो मैं भी पापा की तरह कुछ हद तक अपने आपको ही पूजने की वृत्ति रखती हूँ. कुछ न मिलने पर अपने आपको ही कोसती हूँ और कुछ पाने के लिए मेहनत करने पर अपने आप को ही मजबूर करती हूँ और हड़काती रहती हूँ.

अब इस सबसे हटकर एक और किस्सा मुझे याद आता है, जो पापा के पापा-पन या नॉन पापा-पन पर प्रकाश डालता है. जैसा कि हम सब जानते हैं कि हर अच्छे भारतीय पिता की अपनी बेटियों को लेकर जो सबसे बड़ी चिंता होती है, वह होती है उसकी शादी की. अच्छी नौकरी में लगा, कमाऊ लड़का ढूँढ़ने की. पर पापा ने तो शायद यह सब कभी सोचा ही नहीं था. मेरी पढ़ाई, पहली नौकरी इत्यादि हर चीज जैसे अपने आप होती चली गई, उन्हें शायद यह विश्वास था कि यह भी अपने आप ही हो जाएगा और बाबा मौज करता रहेगा.

दिनेश जब पहली बार हमारी शादी की बात करने और घर आने वाला था तब मम्मी दिल्ली से बाहर थीं. अब इस इंटरव्यू की सारी जिम्मेदारी पापा पर! जब दिनेश कमरे में घुसा (कुर्ता, दाढ़ी और कान में बालियाँ) तो पापा अपनी कुर्सी पर, पाइप लेकर एक सख्त और जिम्मेदार पिता का चोगा पहनकर बैठे थे. शायद अपने किसी मित्र से पूछ भी लिया होगा कि ऐसी स्थिति में, एक अच्छे और सतर्क पिता की भूमिका अदा करने के लिए क्या-क्या प्रश्न पूछने चाहिए.

सारी बात तो मुझे याद नहीं, पर जो दो प्रश्न उन्होंने दिनेश से पूछे, वे मुझे अच्छी तरह याद हैं-

पापा-तो आजकल क्या कर रहे हो?
दिनेश-फिलहाल तो कुछ नहीं.
पापा-तो अब क्या करने का विचार है?
दिनेश-अभी तो पता नहीं.

यह उत्तर सुनकर कौन पिता अपनी बेटी की शादी ऐसे लड़के से करना चाहेगा? पर पापा प्रसन्न-'यह तो बिलकुल हमारी तरह है.'

हाँ, उन्होंने इतना जरूर कहा कि लड़का कुछ क्रियेटिव टाइप का दिखता है. कितना स्टेबल होगा, यह तुम देख लो. और जितने प्रसन्न पापा दिनेश से थे, आज दिनेश भी उनसे उतना ही प्रसन्न हैं. वह अक्सर कहता है. 'आई एम लकी टु हैवप ए बोहीमियन फादर-इन-लॉ लाइक हिम. डोंट ईवर ट्राय एंड पुट हिम इन ए कन्वेंशनल फ्रेमवर्क. यू विल डिस्ट्रॉय हिम.'

तो ऐसे अजीबो गरीब पापा-फिगर के साथ मैं बड़ी हुई. एक ऐसे पापा जिनको इस बात की कभी चिंता नहीं हुई कि मैं क्या खा-पी रही हूं, किस क्लास में हूँ, मैं अच्छे बच्चों की तरह आज्ञाकारी बन रही हूँ या नहीं, समाज के बने हर नियम को भरसक निभा रही हूँ या नहीं. अगर मुझे लेकर उन्हें कभी कोई चिंता हुई होगी तो वह यही होगी कि कहीं मैं बिना कोई प्रश्न उठाए समाज के बने ढर्रे पर चलने वाली, हर नियम का पालन करने वाली, एक आम हँसती-खेलती भरी-पूरी जिंदगी को ही अपनी सफलता समझने वाली, उन लाखों-करोड़ों लड़कियों की तरह न बन जाऊँ जो आईं और बिना कोई छाप छोड़े चली गईं.

कहने को तो अभी भी कई बातें हैं, कई किस्से हैं, पर यहाँ अंत करते हुए यही कहूँगी कि 1983 में पढ़ी उस पंक्ति ने एक लेखक को तो मेरे सामने जीवित कर दिया पर ऐसा कोई भी किस्सा याद नहीं आता है, जिसने मुझे उनके एक कन्वेंशनल पिता होने का अहसास दिलाया हो. वह लेखक बनने में ही इतने व्यस्त रह गए कि पिता बनने तक की तो नौबत ही नहीं आई.

पर इस सबके बावजूद आज पापा और मेरे बीच इतना स्ट्रांग बॉडी है कि उसे केवल हम दोनों ही समझ सकते हैं. बिना पिता की भूमिका अदा किए हुए ही उन्होंने मुझे और मेरे व्यक्तित्व को इतना कुछ दे दिया है कि मुझे इस बात का बहुत गर्व है कि मैं राजेन्द्र यादव की बेटी हूँ।
(रचना यादव, चर्चित साहित्यकार व हंस के संपादक राजेंद्र यादव जी की पुत्री हैं. उनका यह आलेख किताबघर से गीताश्री के संपादन व संयोजन में प्रकाशित 'राजेंद्र यादव और तेइस लेखिकाएं' में शामिल है. इस किताब में राजेंद्र यादव से संबंधित आलेख, संस्मरण और साक्षात्कार हैं.)
साभार : रविवार

नन्हीं ब्लॉगर बनी अक्षिता यादव 'पाखी'

धन्य हैं वे माता-पिता जो बच्चों के भविष्य की चुनौतियों को अभी से ही आसान बना रहे हैं। अक्षिता यादव 'पाखी' कल जब दुनिया में अपने पैरों पर खड़ी होगी तो उसके सामने तकनीक से समृद्धशाली संसार होगा और एक क्लिक भर की दूरी पर सफलताएं और उपलब्धियां उसकी मुट्ठी में होंगी। माता-पिता की जागरुकता ने अक्षिता यादव 'पाखी' को नन्हीं ब्लॉगर बना दिया है। इसके लिए उसको वर्ष 2010 की श्रेष्ठ ब्लॉगर का खिताब मिला है। अक्षिता का ब्लॉग है 'पाखी की दुनिया' http://www।pakhi-akshita.blogspot.com ब्लॉगोत्सव-2010 के संयोजक रवीन्द्र प्रभात ने अक्षिता के लिए लिखा है कि-'एक ऐसी नन्हीं ब्लॉगर जिसके तेवर किसी परिपक्व ब्लॉगर से कम नहीं,जिसकी मासूमियत में छिपा है एक समृद्ध रचना संसार। यही नही उन्होंने अक्षिता को ब्लॉगोत्सव का सुपर स्टार बताते हुए लिखा कि-'अक्षिता पाखी हिंदी ब्लॉग जगत की एक ऐसी मासूम चिट्ठाकारा, जिसकी कविताओं और रेखाचित्र से ब्लॉगोत्सव की शुरुआत हुई और सच्चाई यह है कि उसकी रचनाओं की प्रशंसा हिंदी के कई महत्वपूर्ण चिट्ठाकारों से कहीं ज्यादा हुई है। लोकसंघर्ष-परिकल्पना के ब्लॉगोत्सव-2010 में प्रकाशित रचनाओं की श्रेष्ठता के आधार पर ब्लॉगोत्सव की टीम ने अक्षिता को वर्ष की श्रेष्ठ नन्हीं ब्लॉगर के रूप में सम्मानित करने का निर्णय लिया है।'

पच्चीस मार्च 2007 को कानपुर में जन्मीं अक्षिता यादव वर्तमान में कार्मेल स्कूल, पोर्टब्लेयर में नर्सरी में पढ़ती है। अक्षिता के पिता कृष्ण कुमार यादव, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में निदेशक डाक सेवाएं हैं और अक्षिता की मां आकांक्षा यादव उत्तर प्रदेश के एक कॉलेज में प्राध्यापक हैं। ये दोनों भी चर्चित साहित्यकार और सक्रिय ब्लॉगर हैं। अक्षिता की रुचियां हैं- प्लेयिंग, डांसिंग, ड्राइंग, ट्रेवलिंग, ब्लॉगिंग। उसे ड्राइंग बनाना बहुत अच्छा लगता है। पहले तो हर माँ-बाप की तरह उसके मम्मी-पापा ने भी उसकी प्रतिभा पर ध्यान नहीं दिया, पर धीरे-धीरे उन्होंने अक्षिता के बनाए चित्रों को सहेजना आरंभ कर दिया। इस तरह इन चित्रों और अक्षिता की गतिविधियों को ब्लॉग के माध्यम से भी लोगों के सामने प्रस्तुत करने का विचार आया और 24 जून 2009 को 'पाखी की दुनिया' नाम से अक्षिता का ब्लॉग अस्तित्व में आ गया। एक साल के भीतर ही करीब 14,000 हिन्दी ब्लॉगों में इस ब्लॉग की रेटिंग बढ़ती गई और फिलहाल यह टॉप 150 हिन्दी ब्लॉगों में शामिल है।

'पाखी की दुनिया' ब्लॉग का संचालन अक्षिता के मम्मी-पापा करते हैं। इस ब्लॉग के माध्यम से अक्षिता की सृजनात्मकता को भी पंख लग गए और लोगों ने उसे हाथों-हाथ लिया। राजस्थान के चर्चित बाल साहित्यकार दीनदयाल शर्मा अक्षिता की मासूम प्रतिभा से इतने प्रभावित हुए कि अपनी पुस्तक 'चूं-चूं' के कवर-पेज पर अक्षिता की फोटो ही लगा दी। सरस-पायस के संपादक रावेन्द्र कुमार 'रवि' ने अक्षिता की ड्राइंग को लेकर पूरा बाल-गीत ही रच डाला तो तमाम ब्लॉग्स पर अक्षिता की चर्चा होने लगी। हिन्दी ब्लॉग जगत के सर्वाधिक सक्रिय ब्लॉगर समीर लाल ने कनाडा से 'पाखी की दुनिया' के लिए सुन्दर-सुन्दर कविताएं भी रचीं। कृष्ण कुमार यादव और आकांक्षा यादव एवं अक्षिता को यह भी गौरव प्राप्त है कि एक ही परिवार के सभी सदस्य ब्लॉग-जगत में बखूबी सक्रिय हैं।
बचपन बेहद मासूम, निश्छल, रचनात्मक और अनूठा होता है। जरूरत होती है उसे स्पेस देने की। बच्चों की बातों या बनाये गए चित्रों को यूं ही हवा में नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि बच्चे को दुनिया का सबसे बड़ा आविष्कारक कहा जाता है क्योंकि आविष्कार के लिए उनमें भी कुछ न कुछ छुपा हुआ है। इक्कीसवीं सदी टेक्नोलॉजी की है और उसकी बदौलत ही संचार एवं सूचना क्रांति का व्यापक विस्तार हो रहा है। आज बच्चा कलम बाद में पकड़ता है, कंप्यूटर, मोबाइल और लैपटॉप पर उंगलियां पहले से ही फिराने लगता है। बच्चे कम उम्र में ही अनुभव और अभिरूचियों के विस्तृत संसार से परिचित हुए जा रहे हैं। नई-नई बातों को सीखने की ललक और नये एडवेन्चर उन्हें दिनों-ब-दिन एडवांस बना रहे हैं। उनकी दृष्टि प्रश्नात्मक है तो हृदय उद्गारात्मक।
कभी अज्ञेय ने बच्चों की दुनिया के बारे में कहा था कि-भले ही बच्चा दुनिया का सर्वाधिक संवेदनशील यंत्र नहीं है पर वह चेतनशील प्राणी है और अपने परिवेश का समर्थ सृजनकर्ता भी। वह स्वयं स्वतंत्र चेता है, क्रियाशील है एवं अपनी अंतः प्रेरणा से कार्य करने वाला है, जो कि अधिक स्थायी होता है। अक्षिता को सर्वश्रेष्ठ नन्हीं ब्लॉगर का खिताब मिलना यह दर्शाता है कि बच्चों में आरंभ से ही सृजनात्मक-शक्ति निहित होती है। उसकी उपेक्षा करना या बड़ों से तुलना करने की बजाय यदि उसे बाल-मन के धरातल पर देखा जाए तो उसके शिखर पर पहुंचने का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है। ऋग्वेद की दो पंक्तियां यहां काफी प्रासंगिक हैं-
आयने ते परायणे दुर्वा रोहन्तु पुष्पिणीः।
पुण्डरीकाणि समुद्रस्य गृहा इमें।।
अर्थात आपके मार्ग प्रशस्त हों, उस पर पुष्प हों, नये कोमल दूब हों, आपके उद्यम, आपके प्रयास सफल हों, सुखदायी हों और आपके जीवन सरोवर में मन को प्रफुल्लित करने वाले कमल खिले।
इंटरनेट के पंख लगाकर अक्षिता अभी से ही ब्रह्मांड का चक्कर लगा रही है। वह उस सफर पर अभी से ही निकल चुकी है जिस पर चलने के लिए कुछ बालक अपने युवा होने की प्रतीक्षा ही कर रहे हैं। दुनिया में तेजी से फैलते इंटरनेट को घर-घर तक पहुचाने का भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने रास्ता खोला है जिस पर चलने की शुरूआत हो चुकी है। भारत की तकनीकी क्षेत्र में प्रगति का यह एक सुखद सत्य है कि यहां प्रतिभाएं तेजी से उसके उपयोग की ओर बढ़ती हैं। केके यादव और उनकी पत्नी आकांक्षा की दृष्टि सफलता की अनंत ऊचाईयों पर है जहां हर कोई अपने बच्चों को देखना चाहता है। यदि हर मां-बाप अपने बच्चों को प्रोत्साहित करने की शुरूआत कर ले तो यह किसी भी देश और उसके समाज की प्रगति का इससे अच्छा सुगम रास्ता कोई नहीं हो सकता।
साभार : स्वतंत्र आवाज़

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

यादव जाति का अनोखा संग्रह

जातीय अस्मिता हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करती है। कोई इसे छुपाकर प्रर्दशित करता है तो कोई इसी में रचनात्मकता तलाश लेता है। उत्तर प्रदेश में झांसी के रिटायर्ड शिक्षक रघुवीर सिंह यादव ने ऐसा ही कुछ रोचक कार्य किया है। उन्होंने यादव जाति के लोगों की 26 पीढ़ियों तक का इतिहास संजोकर रखा हुआ है। उनके पास क्षेत्र के करीब 70,000 यादवों का विवरण मौजूद है। यही नहीं, उन लोगों की 26 पीढ़ियों तक के गोत्र और वंशावली का विवरण भी हैै। सबसे मजेदार बात तो यह है कि रघुवीर यादव को जब भी कोई यादव मिलता है, तुरंत उसकी फोटो मांग लेते हैं या अपने कैमरे से खींच लेते हैं और फिर वंशावली की फाइल में संजो लेते हैं। वंशावली के लिए उन्होंने १०x10 फुट का जो सफेद कपड़ा बनाया है, वह अब पूरा भर गया है यानी उनका संग्रह निरंतर बढ़ रहा है। अपने इस शौक पर करीब पांच लाख रू0 खर्च कर चुके रघुबीर सिंह यादव का मानना है-‘‘मेरी सारी मेहनत अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धांजलि है। मैं चाहता हूँ कि उनके बारे में जानकारी जुटाकर मैं उनका ऋण चुका सकूँ।‘‘ इस अनूठे संग्रह एवं रघुवीर यादव की जिजीवषा पर ‘‘यदुकुल‘‘ उन्हें साधुवाद देता है।