बुधवार, 21 दिसंबर 2011

मैं कोसी यादव

राजनीति का नशा भी अजीब होता है. आखिर कुर्सी भला किसे ख़राब लगती है. कई बार ऐसे जुनूनी किस्से सुनाने को मिलते हैं कि बस...! ऐसी ही एक रिपोर्ट के अनुसार के अनुसार बिहार में 1998 के संसदीय चुनाव में 'कोसी यादव' नामक व्यक्ति ने अपनी सारी संपत्ति बेच कर चुनावी अखाड़े में अपनी किस्मत आजमाने का दुस्साहस दिखाया. आज भी लोकतंत्र ऐसे ही दुस्साहसियों के भरोसे ही है और कल भी रहेगा! इसी भावभूमि पर 'सागर त्रिवेदी' ने एक बेजोड़ कविता लिखी है और इसे यहाँ पर bihardays.com से साभार प्रकाशित किया जा रहा है-

उम्र तिरपन चार बच्चे
डेढ़ एकड़ खेत दो बैल
तीन बीजू आम के झाड़
सात सीसो के, एक
कटहल का दरख़्त
उजड़ी बंसवारी में एक सेमल भी
मैं और मेरी जोड़ी के बीच
एक लम्बी जीभ, छै गज अंतड़ी फी
और एक भोथर हल, दरका ओखल
क्या करूं मैं क्या खाऊँ क्या सोचूँ क्या पोसूं

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जीत यादव उम्र बनी तीस
सजात चालाक खरहा, नाते में
सुदूर भगिना
शहर की हर पान दूकान का थुकनिहार, चाबक
उसने राय दी छोडो चिंता छोटी, मामा ततकाल
चुनावी लहर पर छहर कर दूर निकल जाओ
पंचायत नहीं जिला परिषद् नहीं विधानसभा नहीं
दिल्ली के गोलाकार संसद में
जहाँ आदमी की असली कीमत आंकी जाती है
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मै कोसी यादव, बिके बीघे डेढ़
घूमने लगा छुट्टा मै घर घर
बताशा पानी दो थके मांदे को
वोट दो नेता बनाओ
खुद अपने विम्ब की छाँही को
साथ में कुत्ते लगे, लगे आवारे बीड़ी मांगने
परदे के पीछे भौजाइयों की हंसती सहानुभूति मिली
चौबे पञ्च हंसा तो एकदम अनरोक
अपमानित अहीर को हज़ार साल बाद गुस्सा आवे तो कैसे आवे
अपमानित अहीर को हज़ार साल बाद रोना भी क्यों आये, डटा रहे वो
सिर्फ कसीं कलाई की नसें
मैंने अकेले कहा कोसी जिंदाबाद
सवाल ये नहीं कि कोसी क्यों
सवाल असल ये है की कोसी क्यों नहीं?
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ना हम में कोई खासियत है तेज है चमक है
ना ही जीप है पैसा बन्दूक है
ना ही किसी प्यासे बटोही को कभी ठंढई पिलाया
ना ही कुम्हार चमार पर बेमानी थप्पड़ चलाया
जवार में हर कोई कोसी को जानता है
पर कोई खास कारणवश नहीं
जवार में हर पेड़ हर मेड़ हर पाठे की पहचान है
जीत कहता है मामा चुनाव लड़ो
अभी अदने हो बढाओ कदम बढ़े कद
भगिना धोखेबाज़ पहुँचे में मुस्कराता है
उस खिलंदर को नहीं मालूम
आदमी छोटा चुनाव हारने से
और छोटा नहीं हो जाता है

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अतीत के भगत सत का हिसाब नहीं जोड़े
साँच के लोलुप मुंशी नहीं होते थे
बेरोक सुनते आतंरिक पुकार, गुहार देते थे
बारह की उम्र में कच्छी तान
बाकी दुनियादारी सब अगल बगल झटपट फ़ेंक लेते थे
कोई बन भटके कोई तीर्थ
कोई मेले मेले घूमता हाय गुरु हाय गुरु मिलो कहाँ मिलो
कोई किसी बरगद तले पालथी मारता
तो ना बर्रे करे टस, ना हुणार करे मस्स
लगन होती थी गोह सी ज़बरदस्त, आज जैसी ढीली नहीं
चूँकि आत्मा तेज़ तर्रार होती थी

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कोसी निरा आम – ना भक्ति, ना दया, ना क्रोध
अन्दर ना लगन ना पुकार
एक चपटा कागजी अहीर डेढ़ बीघे वाला, उम्र तिरपन
तीन पेटू बेटियां एक बीमार लड़का
जोरू जो माने मुझे दुनियादारी का चैम्पियन,
पर मैं उकसाने से कंडीडेट नहीं बना कतई, दुनिया को जीत को वहम है
सच ये है कि मेरे दिल में बसा दिल्ली का गम है
कैसे पुकारे है राजधानी मेरा नाम ‘कोसी, कोसी, कोसी’
हाय कितना मार्मिक है
हाय राम, हाय ये कौन सी लगन है
जानूं ना कि दिल्ली का लाल पथरीला हाथ, हाथ मेरे पकड़े है विनय से
या थामे उँगलियाँ अति प्रेम से, या लागे मेरा गोड़
या सरकते हैं उसके पंजे धीरे धीरे मेरे टेंटुए की ओर!

-सागर त्रिवेदी

2 टिप्‍पणियां:

Akshitaa (Pakhi) ने कहा…

अच्छा लगा यह पढ़कर..

Dr. Brajesh Swaroop ने कहा…

Vakai Interesting.