संतोष यादव ने दो बार माउंट एवेरस्ट की दुर्गम चढ़ाई पर अपनी जीत दर्ज करते हुए तिरंगे का परचम लहराया है. ज़िन्दगी में मुश्किलों के अनगिनत थपेड़ों की मार से भी वह विचलित नहीं हुईं और अपनी इस हिम्मत की बदौलत माउंट एवरेस्ट की दो बार चढाई करने वाली विश्व की पहली महिला बनीं. उनके इस अदम्य साहस के लिए उन्हें साल २००० में पद्मश्री से सम्मानित किया गया. हिमालय की चोटी पर पहुँचने का एहसास क्या होता है, इसे संतोष यादव ने दो बार जिया है. 'ऑन द टॉप ऑफ़ द वर्ल्ड' जुमले का प्रयोग हम अक्सर करते हैं पर इसके सार को असल मायनो में संतोष ने समझा. वह भी आज से डेढ़ दशक पहले. अरावली की पहाड़ियों पर चढ़ते हुए कामगारों से प्रेरणा लेकर उन्होंने ऐसा करिश्मा कर दिखाया, जिसकी कल्पना खुद उन्होंने कभी नहीं की थी. हरियाणा के रेवाड़ी जिले के एक छोटे से गाँव से निकल कर, बर्फ से ढके हुए हिमालय के शिखर का आलिंगन करने के यादगार लम्हे तक का सफ़र संतोष यादव के लिए कितने उतार चढ़ाव भरा रहा, यह जानने की एक कोशिश (साभार-हिन्दीलोक) --
-जीवन के किस मोड़ पर आपने यह महसूस किया कि मैं माउंट एवरेस्ट जैसी दुर्गम चढ़ाई कर सकती हूँ?
यह बात साल १९९२ की है, जब हिमालय की चढ़ाई के लिए मेरा चयन हुआ। यह सोच कर अब भी मेरे रोंगटे खड़े हो रहे हैं. मेरा चयन होने मात्र से मेरे मन में ख्याल आया कि मैं भी एवरेस्ट की चढ़ाई कर सकती हूँ... मैं एक बहुत साधारण परिवार से हूँ. कभी ऐसा सोचा नहीं था कि इतना मुश्किल काम मैं कर पाऊँगी. खासकर माउंट एवरेस्ट की चढाई जैसा कठिन अभियान मेरे लिए सोच पाना भी उस वक़्त मुश्किल था. हालाँकि मेरे अन्दर बहुत आत्मविश्वास रहता है लेकिन मैं अति आत्मविश्वास खुद में कभी नहीं आने देती. चयन हुआ क्यूंकि उसके बारे में मैंने बहुत पढ़ा था और ट्रेनिंग भी ली थी उत्तरकाशी नेहरु माउंटइनीयारिंग महाविद्यालय से, जिसका निश्चित रूप से मुझे फायदा मिला. मुझे लोगों ने तब बहुत हतोत्साहित किया था. शुरुआत के कुछ दिनों में लोगों का नजरिया मुझे लेकर यह रहा कि 'ये भी ट्रेनिंग करेगी?' लेकिन मुझमे बहुत हिम्मत थी, मैं मानती हूँ. क्यूंकि चढ़ाई करने से पहले मुझे परिवार की ओर से भी खासी मुश्किलात थीं.
-आपके परिवार से विरोध के बावजूद जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा क्या रही?
परिवार से विरोध था इसलिए मैं अन्दर से बहुत टूटा हुआ महसूस करती थी। उस वक़्त सिर्फ मेरी हिम्मत मेरे साथ थी. खासकर माँ बाप जो आपको इतना प्यार करते हैं, उनका दिल भी नहीं दुखाना चाहती थी. मेरे माँ बाप भी मजबूर थे. जिस तरह से मेरे सामने एवरेस्ट का पहाड़ था, उनके सामने भी समाज का इतना बड़ा पहाड़ था. वह भी हरियाणा जैसे राज्य में मैं पली बढ़ी जहाँ लड़कियों को बंदिशों में रखा जाता है. आज की स्थिति थोड़ी अलग है. लेकिन जब मैं पढ़ रही थी, तब मेरे पिताजी को कहा जाता था 'राम सिंह तू बावडा हो गया है के... छोरी को इतना पढ़ा के, के करेगा.' मैं उन दिनों आईएएस की तैयारी कर रही थी. पिताजी को लोग बोलते थे "इतना पढ़ रही है छोरी, छोरा भी न मिलेगा पढ़ा लिखा." लाडली मैं बहुत थी घरवालों की. इसलिए मेरे अन्दर बहुत हिम्मत थी. और यह बात हर माँ-बाप से मैं कहूँगी कि जितना आप अपने बच्चों को प्यार करेंगे उतना उनके अन्दर हिम्मत और आत्मविश्वास बढ़ेगा.
-तकनीक और कौशल ही इंसान को ऊंचाई तक नहीं ले जा सकती। इसके लिए शिक्षा भी ज़रूरी है. इस बात से आप कितनी सहमत हैं ?
पढ़ाई और खेल दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। यदि आपकी शिक्षा अच्छी नहीं है तो आप किसी भी क्षेत्र में बेहतर नहीं कर पाएँगे. खेल को मैंने बहुत ही शिक्षात्मक ढ़ंग से लिया है. इसमें बहुत समय प्रबंधन की ज़रूरत है. मैं यह नहीं कहूँगी कि माउंटइनीयारिंग के कारण मैं पूरी तरह से आईएएस में चयनित नहीं हो पाई. बल्कि मुझे लगता है कि मेरी पढ़ाई ने मुझे बहुत फायदा पहुँचाया है. मैं बहुत ही लाड़ प्यार और नाजुकता से पली बढ़ी और स्पोर्ट्स पर्सन मैं शुरुआत से नहीं थी. मेरे अन्दर एक जिज्ञासा थी कि बर्फ से ढके पहाड़ और हिमालय कैसे लगते होंगे! इस सोच से मैं रोमांचित हो जाती थी. अपने इस सपने को साकार करने की चाह से मैंने एवरेस्ट की चढाई की. जब मैं वहां गई तो ऋषिकेश में हम सभी प्रशिक्षुओं का हमारे इंस्टिट्यूट वालों ने स्वागत किया. ट्रेनिंग के दौरान मेरा नंबर धूप में पड़ गया और मैं धूप में लाल हो गयी थी. मेरी पतली काया को देखकर प्रशिक्षकों ने मेरी ट्रेनिंग को लेकर शंका जताई. धीरे धीरे मैंने अपना प्रशिक्षण पूरा किया और समापन के समय मुझे भी यह देखकर आर्श्चय हुआ कि मेरा प्रदर्शन सबसे अच्छा आँका गया. मैं क्लिप ऑन क्लाइम्बिंग बड़ी ही फुर्ती से कर लेती थी और सब देखते थे कि आखिर ये इतनी जल्दी करती कैसे है. असल में मैं तकनीक को कार्य करने के साथ साथ बहुत अच्छे से समझती भी रहती थी. जल्दबाजी कभी नहीं करती थी. देखती थी, रास्ते को याद करती थी उसके बाद कोशिश करती थी. मैं खुद से यह सवाल भी करती रहती थी 'मैंने ये कर लिया, मैं यह कर गई?' फिर मुझे उसका जवाब मिलता था क्यूंकि मैंने इस तकनीक का इस्तेमाल इसमें किया.
-जिस ट्रेनिंग का आप हिस्सा रहीं, उसमे किन बातों पर ख़ास ध्यान रखना पड़ता था?
मानसिक और शारीरिक तौर पर सतर्क रहना पड़ता था। भोर सुबह उठना भी मेरे लिए फायदेमंद रहा. तीन बजे सवेरे हम उठ जाते थे और तैयार हो के साढ़े तीन बजे तक कैंप से निकल जाना होता था. क्यूंकि जितनी जल्दी हम चढ़ाई शुरू करेंगे उतना जीवन का खतरा कम है. माउंटइनीयारिंग में देरी जीवन के लिए खतरनाक साबित हो सकती है. ग्लेशिअर्स और बर्फ की दरारें इतनी चौड़ी होती हैं कि कभी कभी समझ में नहीं आता कि किस तरह से उसे पार किया जाए. कभी कभी नज़रंदाज़ भी करना होता है बर्फानी तूफानों को. हमे हर पल को बड़ी नाजुकता और संतुलित ढ़ंग से बिना आवाज़ किये आगे बढ़ना पड़ता था.
-उन्तीस हज़ार फीट की ऊंचाई पर अनेक बाधाएं आपके रास्ते में आई होंगी। कोई ऐसा वाक्या आपको याद है जिसने आपको अन्दर तक हिला दिया हो?
कई बार तो ऐसा हुआ कि मुझे उठा के बर्फानी तूफानों ने दूर तक फेंका है। कंचनजंघा की चढाई के वक़्त मुझे याद है कि बात लगभग तय हो चली थी कि मैं जिंदा नहीं बचूंगी. मैं नेपाल की तरफ लटक गयी थी क्यूंकि तूफ़ान ने मुझे पूरे वेग से उड़ा लिया था. मैं पेंडुलम की तरह लटकी हुई थी और उस समय मैंने अपने आप को मजबूती से रस्सी में बांधे रखा. साथ ही मेरे दो साथी जिसमे में एक फुदोर्जे थे, उन्हें भी तूफ़ान उड़ा ले गया था. यह देखकर मुझे थोड़ी घबराहट ज़रूर हुई लेकिन उस वक़्त मुझे मेरे मानसिक संतुलन ने बचाया. मैं हमेशा यह कहती हूँ कि जब भी इंसान परेशानी में आता है उसे अपने मानसिक संतुलन को नहीं खोना चाहिए. पहला हिम्मत और दूसरा मानसिक संतुलन ही आपका सबसे बड़ा हथियार है. इससे मुझे यह सीखने को मिला कि मानसिक संतुलन बड़ी ऊंची चीज़ है. अगर वो आप बनाये रखेंगे तो डर भय सब दूर हो जाते हैं और आप अच्छे से सोच के, दिमाग का इस्तेमाल करते हुए सही फैसला ले पाएँगे. मैं ऐसी परिस्थितियों से कई बार गुज़र चुकी हूँ.
-योजनाओं और सिद्धांतों को आप किस हद तक महत्वपूर्ण मानती हैं?
मैंने बचपन से लेकर अपना अभी तक का जीवन काल एक कुशल योजना के तहत बिताया है। यदि मैं ऐसा नहीं करती तो शायद यहाँ तक का सफ़र तय कर पाना मेरे लिए मुश्किल रहता. यह मैंने इसलिए समझ लिया था क्यूंकि मैं बहुत सुरक्षित क्लाइम्बर हूँ. बहुत ज़रूरी भी है क्यूंकि जब भी आप कोई रिस्क लेते हैं तो सुरक्षा का आपको पूरा ध्यान रखना होता है. मैं सिद्धांतों को बहुत मानती हूँ. चाहे वो जीवन के सिद्धांत हों या खेल के. यदि आप उसको सही रूप से निभाएँगे तो मेरे ख्याल से आप कभी मार नहीं खाएँगे. माउंटइनीयारिंग में अधिकतर आपकी सुरक्षा आपके ही हाथों में है. क्यूंकि बाहर मौसम ख़राब है तो आपने क्या फैसला लिया ऐसे में, किस वक़्त कहाँ जाना है, अचानक फंस भी गए तो आपके जो सिखाये हुए सिद्धांत हैं उसका पालन कीजिये. आपके मानसिक संतुलन को न खोएं. दूसरी बात है कि आप पूरी तैयारी से जाएँ. मैंने महसूस किया है कि तैयारी में कोताही जीवन के रिस्क का कारन बन सकती है. क्यूंकि माउंटइनीयारिंग के सिद्धांत के अनुसार आप सुबह में ही चढाई करें. बारह बजे के बाद यह उम्मीद मत कीजिये कि आपको मौसम अच्छा मिलेगा और आप सही सलामत अपने कैंप वापस पहुंचेंगे. बारह बजे के तुंरत बाद वापस आ जाएँ. दो बजे तक तो रिस्क लेने की बात है. अगर मौसम साफ़ रहे तो भी. क्यूंकि किस वक़्त मौसम ख़राब हो जाये ये मालूम नहीं.
-जिस जीवन मरण की स्थिति को आपने चढाई के दौरान जिया, उसे आप असल ज़िन्दगी में कैसे लागू करती हैं?
ये बहुत अच्छी बात आपने पूछी। इससे जीवन को जीने का बहुत अच्छा अनुभव आपको मिलता है. क्यूंकि जब भी आपके जीवन में परेशानी आती है तो उसको किस ढ़ंग से सँभालते हुए आगे बढ़ना है, उस परेशानी को किस तरीके से सुलझाना है, यह भी एक चुनौती है, जिसे सुलझाने की समझ मुझे अपने उन्ही अनुभवों से मिली.
-आपने एवरेस्ट की मुश्किल चढाई के साथ आईएएस की कठिन परीक्षा पर भी विजय पाई। इन दोनों अभियान के इतर घर परिवार की ज़िम्मेदारी को आप किस तरह निभाती हैं?
अपनी ज़िम्मेदारी को हर स्तर पे समझना ज़रूरी है। मुझे याद है कि मेरे स्नातक के समय में मैंने किसी से कहा था कि आपका जो व्यवहार है वही आपकी कसौटी है. हर जगह आपका व्यवहार उसके अनुरूप होना चाहिए. मैं दो बच्चों की माँ हूँ और मैं अपने दोनों बच्चों का पालन पोषण खुद करती हूँ. माँ बनना अपने आप में बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी की बात है. सही पालन पोषण और सही संस्कार देना, गलत चीज़ों से दूर रखना एक अभियान है. अति नहीं करनी चाहिए लेकिन सहज रूप से होना चाहिए ताकि बच्चे को पता भी न चले और उसका ख्याल भी रहे. यह बहुत ज़रूरी है. मेरी कोशिश रहेगी और इसकी मैं सरकार और कारपोरेट सेक्टर से अनुरोध करने वाली हूँ कि महिला कर्मचारियों को ख़ास तवज्जो दी जाये. राष्ट्र को अच्छा नागरिक देने वाली एक गर्भवती स्त्री/माँ को कुछ ज्यादा छुट्टियाँ होनी ही चाहिए. कम से कम तब तक जब तक बच्चा माँ पर आश्रित है. उससे बच्चे को बहुत सहारा मिलता है.
-आप अपनी इस ऊर्जा और अनुभवों की सबसे बड़ी उपलब्धि क्या मानती हैं?
मुझे सबसे बड़ी चीज़ इससे 'इंसानियत' सीखने को मिली। इतने बड़े ब्रम्हांड में इतना छोटा है इंसान. यह बात महसूस होती थी कि हमें एक जीवन मिला है इंसान के रूप में. हम नहीं जानते कि अगला जीवन किस रूप में मिलेगा. इसलिए जो जीवन है उसे अच्छे से जीना चाहिए. हर एक के साथ अच्छा व्यवहार करके और मदद करके. व्यवहार सिर्फ इंसान के साथ नहीं होता. जीवन में हर एक के सामने हर तरह की कठिनाइयाँ आती हैं. उस समस्या का डट के और हिम्मत से मुकाबला करते हुए समाधान करना चाहिए. दूसरी बात, हम अक्सर यह कहते हैं कि हमारे किस्मत में यह नहीं. गलत है. बचपन से लेकर मैंने अभी तक के जीवन काल में देखा है कि मैंने शिक्षा हासिल की जिसके लिए मैंने बहुत संघर्ष किया. उसके बाद मेरी शादी दसवीं क्लास में हुई. मैं रोती रही और तब मैंने यह जिद्द की कि मुझे हॉस्टल जाना है क्यूंकि मैं जानती थी कि यहाँ रही तो मैं जीवन में शायद आगे न बढ़ पाऊं. हालाँकि मुझे बहुत तकलीफ हुई और माँ पिताजी की भी बहुत याद आती थी. लेकिन मैंने अपनी किस्मत का खुद निर्माण किया.
-एक महिला होने के नाते क्या इस अभियान में ख़ास परेशानियों से आपको दो चार होना पड़ा?
मुझे याद है साल १९९३ में मुझे चढाई से पहले हुए स्वास्थ जांच में फ़ेल कर दिया गया था। डॉक्टर को पता ही नहीं था कि मैं पहले ही एवरेस्ट की चढाई कर चुकी हूँ. मेरे फेंफडे बहुत छोटे बताये गए थे जांच में, इसलिए उन्होंने सलाह दी कि मेरा कैंप में न जाना ही अच्छा रहेगा. फिर मेरे एक साथी क्लाइम्बर ने डॉक्टर को मेरा परिचय दिया. मुझे टीम में रखने में हमेशा सुरक्षा के नज़रिए से सही माना गया. मैं सिर्फ एक महिला की हैसियत से नहीं बल्कि ज्यादातर महिला अभियान दल की लीडर की भूमिका में रही. मैंने कभी ऐसा महसूस नहीं किया कि मैं ये काम इसलिए नहीं करुँगी क्यूंकि मैं महिला हूँ. दीवार फान्दनी होती थी, रस्सा चढ़ना, ऊपर से आग निकल रही होती थी और मैं नीचे से रेंगती हुई निकल जाती थी. इन सारे कामों को मैंने किया हुआ है. अन्दर से कुछ करने की इच्छा शक्ति मेरे अन्दर बहुत प्रबल थी. मैं मानती हूँ कि इंसान को हमेशा जिज्ञासु रहना चाहिए. यह बहुत ज़रूरी है. जानने की इच्छा से आपको बहुत कुछ सीखने को मिलता है.
-जीवन की इस चढाई में और किन योजनाओं को अंजाम देने की ख्वाहिश है?
फिलहाल तो माँ का रोल अदा कर रही हूँ. बच्चों को पालना भी बहुत महत्वपूर्ण और ज़िम्मेदारी भरा काम है. जीवन में बहुत सारे उद्देश्य हैं. डेस्टिनी और किस्मत दोनों एक दूसरे के बहुत करीब हैं लेकिन अलग हैं. यदि भाग्य में कोई चीज़ लिखी है लेकिन उसे पाने के लिए आप कर्म ही नहीं करेंगे तो उसका कोई मतलब नहीं. मैं पहाड़ी इलाके से नहीं आती हूँ. हमारे हरयाणा के लोग तो पहाड़ देख के बहुत डरते हैं. इतनी ऊंचाई में और ठंडे मौसम में मेरे लिए सांस ले पाना भी मुश्किल था लेकिन मैंने अपनी इच्छा शक्ति से उसे हासिल किया इसलिए ताजिंदगी खुद को पर्यावरण से जुड़ा हुआ देखना चाहती हूँ और इसके बचाव के लिए काम करती रहूंगी. क्यूंकि प्रकृति को मैंने भगवान् माना है और अगर आप इसकी इज्ज़त करेंगे तो ये आपकी इज्ज़त करेगी वरना तमाम सुरक्षा उपकरणों के साथ भी आप अपना बचाव नहीं कर पाएँगे.