बुधवार, 29 अप्रैल 2009

'हिंदुस्तान' अख़बार में ब्लॉग वार्ता में "यदुकुल" की चर्चा

10 नवम्बर 2008 को 'यदुकुल' ब्लाग का आरम्भ किया गया था। इसके पीछे उद्देश्य था कि समाज-राजनीति-प्रशासन-साहित्य-संस्कृति इत्यादि तमाम क्षेत्रों में यादव समाज के लोग देश-विदेश में नाम रोशन कर रहे हैंण् इनमें से कई ऐसे नाम और काम हैं जो समाज के सामने नहीं आ पाते या यूँ कहें कि उन्हें ऐसा कोई मंच नहीं मिलता जिसके माध्यम से वे और उनकी उपलब्धियाँ सामने आयें. यादव समाज पर केन्द्रित कुछेक पत्र-पत्रिकाएं जरुर प्रकाशित हो रही हैंए पर नेटवर्क और संसाधनों के अभाव में उनकी पहुँच काफी सीमित है. तमाम मित्रों और बुद्धिजीवियों का भी आग्रह था कि अंतर्जाल के इस माध्यम का इस दिशा में उपयोग किया जाय. ऐसे में ‘यदुकुल‘ के रूप में यह प्रयास सामने आया। यदुकुल के माध्यम से यह कोशिश की गई कि यादव समाज में और यादव समाज द्वारा किये जा रहे उन तमाम प्रयासों को यहाँ रेखांकित किया जाय और उनसे संबंधित रचनाएँ इत्यादि भी यहाँ प्रस्तुत की जाएँ. इसके अलावा विभिन्न विषयों पर सारगर्भित लेख, पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों की समीक्षाए, जानी-अनजानी यादव विभूतियों पर आलेख इत्यादि भी यदुकुल में समाहित किये जा रहे हैं. ‘यदुकुल‘ को जहाँ आप सभी का पूरा सहयोग मिला, वहीं अब इसकी चर्चा प्रिन्ट मीडिया में भी होने लगी है। प्रतिष्ठित हिन्दी अखबार हिन्दुस्तान में आज 29 अप्रैल 2009 को ‘‘ब्लाग वार्ता‘‘ के तहत रवीश कुमार ने इस ब्लाग की यदुकुल गौरव माडल और जाति की एकता शीर्षक से व्यापक चर्चा की है। समालोचनात्मक रूप में प्रस्तुत इस ब्लाग वार्ता में उन्होंने इसकी अच्छाइयों-कमियों दोनों को रेखांकित किया है। हमारा उद्देश्य दिनों-ब-दिन ‘यदुकुल‘ ब्लाग को और भी समग्र बनाना है।

मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

यदुवंशी एकता चौधरी बनीं मिस इंडिया यूनिवर्स

ग्लैमर की दुनिया की बात ही निराली है. अभी भी इस क्षेत्र में कुछ लोगों का वर्चस्व है. फिल्मों में यद्यपि तमाम यदुवंशी दिख जाते हैं, पर अपना मुकाम कम ही लोग बना पाए हैं. हिंदी फिल्मों में राजपाल यादव, रघुवीर यादव, लीना यादव (निर्देशक-शब्द),संगीता यादव(प्रोड्यूसर-अपने वाह लाइफ हो तो ऐसी), द्विज यादव(नन्हें जैसलमेर फिल्म में बाबी देओल के साथ १० वर्षीय बाल अभिनेता) तो दक्षिण में कासी (तमिल अभिनेता), पारुल यादव(तमिल अभिनेत्री), माधवी(अभिनेत्री), रमेश यादव (कन्नड़ फिल्म प्रोड्यूसर), नरसिंह यादव(तेलगु अभिनेता), अर्जुन सारजा(अभिनेता, निर्देशक-निर्माता), विजय यादव(तेलगू टी.वी. अभिनेता) जैसे नाम दिखते हैं. भोजपुरी फिल्मों में निरहुआ यादव ने आगाज़ किया है तो हाल ही में जी. टी. वी. पर आयोजित सारेगामापा प्रतियोगिता में स्थान पाकर लखनऊ की पूनम यादव भी चर्चा में रहीं. इनमें से राजपाल यादव को छोड़ दें तो कोई भी बहुत जगजाहिर नहीं हुआ. पर यदुवंशियों हेतु यह ख़ुशी की बात है कि इस वर्ष पेंटालून्स फेमिना मिस इंडिया प्रतियोगिता में मिस इंडिया यूनिवर्स चुनी गयी एकता चौधरी भी यदुवंशी ही हैं. अंधेरी स्पोर्ट्स क्लब में ५ अप्रैल २००९ को आयोजित भारत की इस सबसे प्रतिष्ठित सौंदर्य प्रतियोगिता में हिस्सा लेने के लिए देशभर की युवतियाँ किस्मत आजमाने आई थीं। अंतिम दौर में सभी प्रतिभागियों से सवाल पूछा गया कि अगर आपको भगवान मिले तो क्या पूछेंगी? इस पर एकता ने कहा जब हम एक जैसे पैदा हुए तो धर्म के नाम पर अलग-अलग क्यों हो गए? धर्म तो जोड़ने का काम करता है। यह संभवत: पहला मौका है जब ग्लेमर की दुनिया में यदुवंश से कोई इस मुकाम पर पहुँचा है. एकता चौधरी दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री चौधरी ब्रह्म प्रकाश के परिवार से हैं....सो मिस इंडिया यूनिवर्स चुने जाने पर एकता चौधरी को बधाई और शुभकामनायें कि वह मिस यूनिवर्स का ताज जीतकर लायें एवं भारत के साथ-साथ यदुवंशियों का नाम भी रोशन करें !!

रविवार, 5 अप्रैल 2009

21वीं सदी में यादवों के बढ़ते कदम

भगवान श्री कृष्ण के वंशज कहे जाने वाले यादवों ने शायद अब अपने अतीत के गौरव के पन्नों को फिर से पलटना आरम्भ कर दिया है। पौराणिक व ऐतिहासिक ग्रंथों में यादवों के बारे में विस्तार से जानकारी मिलती है पर सुप्त चेतना के चलते एक ऐसा भी दौर आया जब यादव इतिहास के पन्नों पर यदा-कदा ही दिखते। 21वीं सदी का प्रथम दशक तो मानो यादवों की सर्वोच्चता को ही समर्पित है। भारत सरकार के सबसे बड़े विभाग के मुखिया रूप में रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव अपनी बुलंदियों का परचम फहरा रहे हैं तो भारत के सर्वाधिक जनसंख्या वाले राज्य और इसकी हृदयस्थली उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री पद पर मुलायम सिंह यादव आसीन रहे। सिर्फ राजनीति ही नहीं अध्यात्म के क्षेत्र में यादव कुल के बाबा रामदेव ने जिस प्रकार भारतीय संस्कृति के गौरव ‘योग’ को पुनः प्रतिष्ठित किया है, वह यादव साम्राज्य के गौरव में अपार वृद्धि करता है। राजनीति व अध्यात्म से परे देश की सर्वाधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ के सम्पादक राजेन्द्र यादव भी इसी समुदाय के हंै।

स्वतन्त्रता पश्चात यादव कुल के जिस दीपक ने सर्वप्रथम यादवों की खोयी गरिमा को लौटाने का प्रयास किया, उनमें बी0 पी0 मंडल का नाम प्रमुख है। बिहार के मधेपुरा जिले के मुरहो गाँव में पैदा हुए बी0 पी0 मंडल ने मंडल कमीशन के अध्यक्ष रूप में इसके प्रस्तावों को 31 दिसम्बर 1980 को राष्ट््र के समक्ष पेश किया। यद्यपि मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने में एक दशक का समय लग गया पर इसकी सिफारिशों ने देश के समाजिक व राजनैतिक वातावरण में काफी दूरगामी परिवर्तन किए। कहना गलत न होगा कि मंडल कमीशन ने देश की भावी राजनीति के समीकरणांे की नींव रख दी। बहुत कम ही लोगों को पता होगा कि बी0 पी0 मंडल के पिता रास बिहारी मंडल जो कि मुरहो एस्टेट के जमींदार व कांग्रेसी थे, ने ‘‘अखिल भारतीय गोप जाति महासभा’’ की स्थापना की और सर्वप्रथम माण्टेग्यू चेम्सफोर्ड समिति के सामने 1917 में यादवों को प्रशासनिक सेवा में आरक्षण देने की माँग की। यद्यपि मंडल परिवार रईस किस्म का था और जब बी0 पी0 मंडल का प्रवेश दरभंगा महाराज (उस वक्त दरभंगा महाराज देश के सबसे बडे़ जमींदार माने जाते थे) हाई स्कूल में कराया गया तो उनके साथ हाॅस्टल में दो रसाईये व एक खवास (नौकर) को भी भेजा गया। पर इसके बावजूद मंडल परिवार ने सदैव सामाजिक न्याय की पैरोकारी की, जिसके चलते अपने हलवाहे किराय मुसहर को इस परिवार ने पचास के दशक के उत्तरार्द्ध में यादव बहुल मधेपुरा से सांसद बनाकर भेजा।

बी0 पी0 मंडल के बाद के सबसे प्रसिद्ध यादव राजनेता लालू प्रसाद यादव रहे हैं। एक तरफ जहाँ उन्होंने बिहार में लम्बे समय तक शासन किया वहीं रेलमंत्री के रूप में रेल सेवा का भी भारत में कायापलट कर डाला। ग्रामीण जीवन से जुड़े प्रबंधन के सहज तत्वों को अपने मंत्रालय के रोजमर्रा के कार्यों से जोड़ने का लालू यादव का कौशल बेमिसाल है। अपनी देहाती छवि के अनुरूप उन्होंने पाश्चात्य अर्थव्यवस्था के नियमों का अनुसरण करने की बजाय देशी नुस्खा दे डाला कि यदि गाय को पूरी तरफ नहीं दुहोगे तो वह बीमार पड़ जाएगी। भूतल परिवहन क्षेत्र के जिस सबसे बड़े सरकारी उपक्रम को राकेश मोहन समिति की रिपोर्ट में घाटे का सौदा करार दे दिया गया था, वही तीन साल से लगातार अपने कारोबार में उल्लेखनीय सुधार करता जा रहा है। आज यह 13,000 करोड़ रूपये के फायदे में आ गई है। रेलमंत्री लालू यादव ने रेलवे की बचत को 20 हजार करोड़़ तक पहुँचाने का लक्ष्य रखा है। रेलवे की व्यवसायिक सफलता की कहानी को समझने के लिए हार्वर्ड के अकादमीशियनों और एचएसबीसी-गोल्डमैन शैच्स व मेरिल लिंच जैसे कई अंतर्राष्ट््रीय वित्तीय संस्थानों के विशेषज्ञ रेल मंत्रालय के मुख्यालय का दौरा कर चुके हंै। भारतीय प्रबंध संस्थान, बंगलौर और भारतीय प्रशासनिक सेवा के प्रशिक्षु अधिकारियों को प्रशिक्षण देने वाली लाल बहादुर शास्त्री राष्ट््रीय अकादमी, मसूरी ने लालू यादव को व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया तो रेलवे स्ट््रेटजिक मैनेजमेंट इंस्टीटयूट इंदौर में रेल प्रबंधन पर होने वाले अंतर्राष्ट््रीय सम्मलेन में, जिसमें फ्रांस, अमेरिका तथा कई अन्य देशों के विशेषज्ञ भाग लंेंगे, को सम्बोधित करने हेतु भी लालू यादव को आमंत्रित किया गया। दिल्ली में कम्पनियों के मुख्य कार्यकारी अधिकरियों के सम्मेलन में ‘परिवर्तन और कायाकल्प’ विषय पर सम्मेलन में भी वे आमंत्रित किए गए, जिसमें एच0 सी0 एल के शिव नाडार, आई0 टी0 सी0 के वाई0 सी0 देवेश्वर, बायोकाॅन की किरन शाॅ मजूमदार समेत देश के अनेक शीर्ष उद्यमियों के अलावा कई विदेशी विशेषज्ञों ने भाग लिया। भारतीय प्रबंध संस्थान, अहमदाबाद पहले ही अपने पाठ्यक्रम में लालू की रेल की कहानी को विशेष विषय के रूप में शामिल कर चुका है और हाल ही में लालू प्रसाद यादव ने इस संस्थान के विद्यार्थियों की मैनेजमेंट की क्लास भी ली। भारतीय प्रबंध संस्थान, अहमदाबाद के निदेशक बकुल एच0 ढोलकिया के अनुसार- ‘‘हमें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि श्री लालू प्रसाद यादव की राजनीतिक छवि कैसी है। हम तो बस इतना जानते हैं कि वह व्यक्ति मैनेजमेंट गुरू होने के काबिल है और हम हमेशा नई चीजें सीखने के लिए तैयार रहते हंै।’’ प्रबंधन पर 40 से भी अधिक पुस्तकें लिख चुके प्रख्यात लेखक प्रमोद बत्रा लालू के नुस्खों पर भी अब एक किताब लिखने जा रहे हैं। बत्रा के अनुसार- ‘‘हेनरी फोर्ड ने कार को आम लोगों की पहँुच तक लाने के लिए जिस तरह के प्रयास किये थे, ठीक उसी तरह लालू यादव ने भी रेल की वातानुकूलित श्रेणी को आम आदमी के लिए उपलब्ध करवाने की बेहद सफल कोशिश की है।’’ जनरल इलेक्ट््िरकल्स के प्रमुख जेफ्री इमेल्ट जब पहली बार रेलमंत्री लालू यादव से मिले तो उन्हें काफी आश्चर्य भी हुआ और खुशी भी। जी0 ई0 प्रमुख की टिप्पणी थी- ‘‘ग्रामीण पृष्ठभूमि के किसी राजनीतिज्ञ के मुँह से कारोबार का आकार, मुनाफा और प्रति इकाई लागत की बात सुनना सुकूनदायी संगीत की तरह है।’’ यह सुनकर कि अगले साल रेलवे को होने वाला मुनाफा पाँच बिलियन डाॅलर होगा इमेल्ट ने कहा कि अगर यही रतार रही तो अगले साल तक आप हमारी कम्पनी खरीद सकते हैं। लालू यादव का जवाब था कि जिस तरह आप अपने क्षेत्र में सबसे आगे हैं, हमारी कोशिश है कि रेल नेटवर्क के मामले में हम नंबर वन हों। दिसम्बर 2006 के अंत में अमेरिका के हार्वर्ड व ह्यटर्न बिजनेस स्कूल के क्रमंशः 100 व 37 विद्यार्थियों ने लालू प्रसाद यादव से मैनेजमेंट का पाठ सीखा। इन विदेशी संस्थानों ने यूँ ही लालू प्रसाद की क्लास नहीं अटेण्ड की, वरन् अपने विद्यार्थियों को रेल भवन भेजने से पूर्व इन बिजनेस स्कूलों के चुनिंदा गुरूओं ने दो समूहों में पहले खुद भारत का दौरा किया और दिल्ली, मुम्बई, गोवा, चक्रधरपुर समेत देश के कई प्रमुख रेल केन्द्रों का दौरा किया और यह जानने की कोशिश की कि लालू प्रसाद का करिश्मा असली है या महज दिल्ली तक ही सीमित है। यही नहीं लालू प्रसाद एक-एक कर इन बिजनेस स्कूलों का दौरा कर अपना करिश्मा छोड़ रहे हैं। यह पूरा अभ्यास अमेरिकन डिफेन्स यूनिवर्सिटी, बोस्टन यूनिवर्सिटी और ह्यटर्न बिजनेस स्कूल की संयुक्त देखरेख में हो रहा है।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे मुलायम सिंह यादव भी एक सधे हुए राजनेता हंै। तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अैार एक बार केन्द्र में रक्षामंत्री की कुर्सी संभाल चुके मुलायम सिंह एक ऐसे राज्य में सत्तासीन रहे हैं जहाँ सत्ता की लड़ाई के लिए चार प्रमुख राजनैतिक दलों में सीधी लड़ाई है, जबकि अन्य राज्यों में यह दो या तीन दलों मंे सिमटी हुई है। मुलायम सिंह ने भी अपने कुशल वित्तीय प्रबंधन का परिचय देते हुए जहाँ एक तरफ कन्याओं, बेरोजगारों, महिलाओं इत्यादि तमाम वर्गों को तमाम कल्याणकारी योजनाओं से उपकृत किया वहीं एक लम्बे समय बाद अपने कार्यकाल में प्रदेश सरकार हेतु भारी मात्रा में राजस्व भी एकत्र किया। तथ्य बतातें हैं कि उनके कार्यकाल में उत्तर प्रदेश में 23 वर्ष के बाद राजस्व घाटा बेहद कम हुआ, आर्थिक पिछड़ापन पाँच पायदान सुधरा और राजकोषीय घाटा भी संतोषजनक स्तर तक नीचे आया । भारतीय रिजर्व बैंक ने भी उस दौरान माना कि उत्तर प्रदेश में तीन वर्षो के दौरान न केवल राजस्व और राजकोषीय घाटे में कमी आयी अपितु ऋणग्रस्तता भी कम हुई और विकास दर भी 3।2 प्रतिशत से बझ़कर सात प्रतिशत को छू गई. स्वयं मुलायम सिंह यादव कई बार दोहरा चुके हैं कि सरकार के पास धन की कमी नहीं है वरन् धन को खर्च करने की समस्या है।

बाबा रामदेव जो कि यादव कुल के हैं के आध्यात्मिक ज्ञान और तेज का परचम पूरे विश्व में लहरा रहा है। गौरतलब है कि रामदेव ढ़ाई वर्ष के थे तो बायें अंग को लकवा मार गया। वे सात बार मौत के मुँह से बाहर आये। जहाँ अन्य धर्मगुरूओं ने अपने को सम्प्रदाय विशेष या धार्मिक प्रवचनों व कर्मकाण्ड तक ही सीमित कर दिया, वहीँ मात्र आठवीं तक पढ़ाई किये बाबा रामदेव ने भारतीय संस्कृति का अटूट अंग रहे ‘योग’ जिसे पश्चिमी देशों ने ‘योगा’ बनाकर हाईजैक कर लिया था की भारतीय समाज में न सिर्फ पुनर्प्रतिष्ठा की वरन् लोगों को इससे दीवानगी की हद तक जोड़ने में भी सफल रहे। जाति-सम्प्रदाय-धर्म की सीमाओं से परे बाबा रामदेव ने सिर्फ राष्ट्र हित की बात कही और राष्ट््र हेतु घातक बने ठंडा पेय कम्पनियों, तम्बाकू उत्पाद इत्यादि का उत्पादन करने वाली बहुराष्ट््रीय कम्पनियों का भी विरोध किया। अक्टूबर 2006 में आपको संयुक्त राष्ट्र संघ के स्टैण्ड अगेन्स्ट पावर्टी अभियान में आपकी अंतर्राष्र्ट्ीय छवि और प्रतिष्ठा के चलते आमंत्रित किया गया।बाबा रामदेव ने 19 जुलाई 2007 को अमेरिका स्थित हृूस्टन में पतंजलि विश्वविद्यालय एवं योगपीठ के पहले अन्तर्राष्ट्रीय केन्द्र की आधार शिला रखी। योग और आयुर्वेद शिक्षा को समर्पित यह अनुसंधान केन्द्र 100 एकड़ क्षेत्र में बनेगा।

यदि भारत में आज हिन्दी साहित्य जगत के मूर्धन्य विद्वानों का नाम लिया जाय तो सर्वप्रथम राजेन्द्र यादव और नामवर सिंह का नाम सामने आता है। जहाँ नामवर सिंह ने अपने को आलोचनात्मक विमर्श तक ही सीमित कर लिया वहीं कविता से शुरूआत करने वाले राजेन्द्र यादव अन्य विधाओं में भी निरन्तर लिख रहे हैं। राजेन्द्र यादव ने बड़ी बेबाकी से सामन्ती मूल्यों पर प्रहार किया और दलित व नारी विमर्श को हिन्दी साहित्य जगत में चर्चा का मुख्य विषय बनाने का श्रेय भी उनके खाते में है। कविता में ब्राह्यणों के बोलबाला पर भी वे बेबाक टिप्पणी करने के लिए मशहूर हैं। मात्र 13-14 वर्ष की उम्र में जातीय अस्मिता का बोध राजेन्द्र यादव को यूँ प्रभावित कर गया कि उसी उम्र में ‘चन्द्रकांता‘ उपन्यास के सारे खण्ड वे पढ़ गये और देवगिरी साम्राज्य को लेकर तिलिस्मी उपन्यास लिखना आरम्भ कर दिया। दरअसल देवगिरी दक्षिण में यादवों का मजबूत साम्राज्य माना जाता था। साहित्य सम्राट प्रेमचंद की विरासत व मूल्यों को जब लोग भुला रहे थे, तब राजेन्द्र यादव ने प्रेमचंद द्वारा प्रकाशित पत्रिका ‘हंस’ का पुर्नप्रकाशन आरम्भ करके साहित्यिक मूल्यों को एक नई दिशा दी। आज भी ‘हंस’ पत्रिका में छपना बड़े-बड़े साहित्यकारों की दिली तमन्ना रहती है। न जाने कितनी प्रतिभाओं को उन्होंने पहचाना, तराशा और सितारा बना दिया, तभी तो उन्हें हिन्दी साहित्य का ‘द ग्रेट शो मैन‘ कहा जाता है। साहित्यिक क्षेत्र में राजेन्द्र यादव का योगदान अप्रतिम है।


यादव कुल के लोग आज राजनीति, समाज सेवा, प्रशासन, पत्रकारिता, फिल्म जगत, साहित्य, खेल जगत इत्यादि सभी क्षेत्रों में फैले हुए हैं, पर उपरोक्त चार उदाहरण देने का तात्पर्य मात्र इतना है कि अंतर्राष्ट््रीय स्तर पर इन्होंने यादव जाति को पुनः प्रतिष्ठा दिलाई है। चौधरी ब्रह्म प्रकाश,रामनरेश यादव, बाबूलाल गौर, शरद यादव, चन्द्रजीत यादव जैसे नेता जहाँ अपने समय में सत्ता के प्रमुख पदों पर रहे, वहीं तमाम अन्य यादव नेता भी आज सत्ता के विभिन्न प्रतिष्ठानों में अपनी साख बनाये हुए हैं। प्रशासनिक सेवाओं में भी यादव समाज के लोगों की बहुतायत है। साहित्यिक-समसामयिक विषयों पर देश के कोने-कोने से तमाम यादवों द्वारा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं का संपादन-प्रकाशन किया जा रहा है-हंस (राजेंद्र यादव, दिल्ली), मड़ई ( डा। कालीचरण यादव, बिलासपुर-छत्तीसगढ़), प्रगतिशील आकल्प ( डा.शोभनाथ यादव-मुंबई),राष्ट्रसेतु(जगदीश यादव, रायपुर), शब्द (आर. सी. यादव, लखनऊ), वस्तुतः (प्रो0 अरुण कुमार, त्रिवेणीगंज,बिहार), मुक्ति बोध( मंघिलाल यादव, राजनांदगांव-छत्तीसगढ़), कृतिका (डा. वीरेन्द्र सिंह यादव, जालौन-उत्तर प्रदेश), अमृतायन (अशोक अज्ञानी, लखनऊ), अनंता (पूनम यादव, लखनऊ), नाजनीन (रामचरण यादव, बैतूल-मध्य प्रदेश), प्रगतिशील उद्भव ( गिरसंत कुमार (प्रबंध संपादक), लखनऊ), सामयिक वार्ता ( योगेन्द्र यादव, दिल्ली), दस्तक (उदय यादव कार्यकारी संपादक, लखनऊ), मंडल विचार (श्यामल किशोर यादव, मधेपुरा-बिहार), आपका आईना ( डा. राम आशीष सिंह, अनीसाबाद, पटना), दहलीज (ओम प्रकाश यादव, अहमदाबाद), स्वतंत्रतता की आवाज़ ( आनंद सिंह यादव, मलिहाबाद, लखनऊ), हिंद क्रान्ति (सतेन्द्र सिंह यादव, राजनगर, गाजियाबाद), डगमगाती कलम के दर्शन ( रमेश यादव, कंदीलपुरा, इंदौर ), बहुजन दर्पण ( नन्द किशोर यादव, जगदलपुर, छत्तीसगढ़), प्रियंत टाईम्स ( प्रेरित प्रियंत, इमली बाज़ार, इंदौर). फिल्म इण्डस्ट््री में हिंदी फिल्मों में राजपाल यादव, रघुवीर यादव, लीना यादव (निर्देशक-शब्द),संगीता यादव(प्रोड्यूसर-अपने वाह लाइफ हो तो ऐसी), द्विज यादव(नन्हें जैसलमेर फिल्म में बाबी देओल के साथ १० वर्षीय बाल अभिनेता) तो दक्षिण में कासी (तमिल अभिनेता), पारुल यादव(तमिल अभिनेत्री), माधवी(अभिनेत्री), रमेश यादव (कन्नड़ फिल्म प्रोड्यूसर), नरसिंह यादव(तेलगु अभिनेता), अर्जुन सारजा(अभिनेता, निर्देशक-निर्माता), विजय यादव(तेलगू टी।वी। अभिनेता) जैसे नाम दिखते हैं। क्रिकेट के क्षेत्र में शिवलाल यादव, ज्योति यादव और जे0 पी0 यादव ने देश को गौरवान्वित किया तो संतोष यादव ने दो बार एवरेस्ट पर सफलतापूर्वक चढायी कर पर्वतारोहरण के क्षेत्र में नए कीर्तिमान बनाए।

यादव कुल के ही बाबा जयगुरूदेव एक लम्बे समय से अपनी पहचान कायम किए हुए हैं तो शोध पत्रकार और राजनैतिक विश्लेषक के रूप में योगेन्द्र यादव का नाम काफी प्रसिद्ध है। मुम्बई की सुरेखा यादव एशिया की प्रथम महिला ट््रेन चालक के रूप में प्रसिद्ध हुयीं तो विश्व मुक्केबाजी (1994) में कांस्य पदक विजेता, ब्रिटेन में पाकेट डायनामो के नाम से मशहूर भारतीय लाईवेट मुक्केबाज धर्मेन्द्र सिंह यादव ने देश में सबसे कम उम्र में ‘अर्जुन पुरस्कार’ प्राप्त कर कीर्तिमान बनाया। दिनेश लाल यादव ‘निरूहा‘ ने भोजपुरी नाटकों को विदेशों तक फैलाकर भारतीय संस्कृति का डंका दुनिया में बजाया है। भारतीय डाक सेवा के प्रथम यादव अधिकारी कृष्ण कुमार यादव अपनी साहित्यिक रचनाधर्मिता के चलते अल्पायु में ही साहित्य के नए मानदंड स्थापित कर रहे हैं तो उनकी पत्नी आकांक्षा यादव भी इस क्षेत्र में नाम कमा रही हैं. उत्तर प्रदेश में झांसी के एक सेवानिवृत्त शिक्षक रघुवीर सिंह यादव ने यादव जाति के बारे में गोत्रों और वंशावली का अनूठा सजोया है। रघुवीर यादव के पास करीब 70,000 यादवों का सचित्र विवरण मौजूद है, जिनमें से कई का तो 26 पीढ़ियों तक का इतिहास शामिल है। एक तरफ जहाँ रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव रेलवे को घाटे से उबार कर मुनाफे की पटरी पर दौड़ा रहे हैं, वहीं उनकी बेटी रागिनी यादव एक कदम आगे निकल कर जीवन बीमा के क्षेत्र में सफलता के झण्डे गाड़ रही हैं। करीब 15 साल से इस व्यापार में पैर जमाये रितु नंदा को पीछे छोड़कर 21 करोड़ रूपये का कारोबार कराकर वह 22 साल की उम्र में ही एल0आई0सी0 की नम्बर एक एजेण्ट बन चुकी हैं। जीवन के समानांतर ही जल, जमीन और जंगल को देखने वाली ग्रीन गार्जियन सोसाइटी की एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर सुनीति यादव कई वर्षों से पर्यावरण संरक्षण की दिशा में कार्य कर रही हैं। छत्तीसगढ़ में एक वन अधिकारी की पत्नी सुनीति यादव सार्थक पहल करते हुए वृक्षों को राखी बाँधकर वृक्ष रक्षा-सूत्र कार्यक्रम का सफल संचालन कर रही हैं.

इसी प्रकार यादव समाज की न जाने कितनी विभूतियाँ राष्ट््रीय और अन्तर्राष्ट््रीय स्तर पर अपनी कामयाबी के परचम फहरा रहीं हैं, बस जरूरत है उनकी प्रतिभा को पहचानने और अंततः इस समुदाय के सभी लोगों की एकजुटता की।

शनिवार, 4 अप्रैल 2009

लोकतंत्र में भागीदारी सुनिश्चित करती स्याही

लोकसभा और विधान सभा चुनावों के दौरान हर मतदाता के बाएं हाथ की तर्जनी के नाखून पर एक स्याही लगाई जाती है, जो इस बात का प्रतीक होता है कि वह अपना मत दे चुका है। स्याही का यह निशान भारतीय लोकतंत्र की एक अनुपम पहचान बन चुका है। जब हम लोग छोटे-छोटे थे तो इस स्याही के प्रति काफी क्रेज था। इस स्याही को येन-केन-प्रकरेण मिटाना हम लोगो का शगल होता था पर ये मिटने का नाम नहीं लेती थी। तब न तो लोकतंत्र की परिभाषा पता थी और न ही चुनाव का मतलब। पूरी मित्र मण्डली के साथ जाकर अपना वोट दे आते थे और फिर उधर से विभिन्न राजनैतिक दलों के पम्फलेट्स इत्यादि बटोर कर लाते थे। वक्त के साथ जैसे-जैसे किताबी ज्ञान बढ़ा, वैसे-वैसे राजनीति की बारीकियाँ एवं चुनाव की महिमा भी समझ में आती गई। आज के चुनाव पहले के चुनावों जैसे नहीं रहे। जिस प्रकार पर्यावरण में प्रदूषण फैलता गया वैसे ही चुनाव भी प्रदूषित होते गये। जाति-धर्म-धन-गुण्डई जैसे तत्व प्रत्याशियों के लिए आम बात हो गये। इसके बावजूद लोकतंत्र की महिमा कम नहीं हुई और हर बार हम यह सोच कर वोट दे आते हैं कि शायद इससे अगली बार कुछ आमूल चूल परिवर्तन होंगे। इस सकारात्मक दृष्टिकोण पर ही लोकतंत्र का भविष्य टिका हुआ है।

फिलहाल हम बात कर रहे थे वोट के दौरान बाएं हाथ की तर्जनी के नाखून पर लगाई जाने वाली स्याही की। इस चुनावी स्याही के उत्पादन का श्रेय कर्नाटक के प्रसाद नगर स्थित मैसूर पेंट्स एंड वार्निश लिमिटेड (एमपीवीएल) को जाता है। आजादी के बाद दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में फर्जी मतदान रोकने के लिए स्याही लगाने का फैसला किया गया। मैसूर के पूर्व महाराजा नलवाड़ी कृष्णराजे वाडेयार और प्रसिद्ध इंजीनियर भारतरत्न सर मोक्षगंुडम विश्वेश्वरैया ने यह कंपनी बनाने का सपना देखा था। उनके प्रयासों से 1937 में इस कंपनी की स्थापना की गई और आजादी के बाद 1947 में इसे सार्वजनिक उपक्रम में बदल दिया गया। आज भी इस स्याही के उत्पादन का अधिकार केवल मैसूर पेंट्स एंड वार्निश लिमिटेड के पास है।

यह चुनावी स्याही एक अलोप्य स्याही है, जो उंगली पर लगने के बाद एक मिनट में सूखती है। सूखने के बाद उंगली पर ऐसे चिपकती है कि लाख प्रयास कर लीजिए, कई महीनों तक छूटने का नाम ही नहीं लेती। इसे किसी रसायन, साबुन या तेल से भी नहीं हटाया जा सकता। वस्तुतः यह स्याही फर्जी मतदान को रोककर स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने में महत्वपूर्ण भूमिका चुपचाप अदा करती है। यह स्याही एक मतदाता द्वारा एक ही मत डालने की प्रक्रिया को भी सुनिश्चित करती है। एक फरवरी 2006 से चुनाव आयोग द्वारा मतदाता की उंगली पर इसके लगाने के तरीके में थोड़ा बदलाव किया गया है। अब इसे बांये हाथ की तर्जनी उंगली पर नाखून के निचले किनारे से लेकर ऊपरी किनारे और त्वचा के जोड़ तक एक रेखा के रूप में लगाया जाता है। इससे पहले इस स्याही को नाखून के ऊपरी किनारे और त्वचा के जोड़ पर ही लगाया जाता था। यह बात कम लोगों को ही पता होगी कि अगर कोई व्यक्ति फर्जी तौर पर मतदान करते हुए (प्राक्सी मतदान) पकड़ा गया तो इस स्याही को उसके बांये हाथ की बीच की उंगली पर लगाया जाता है।

आज मैसूर पेंट्स एंड वार्निश लिमिटेड द्वारा इस स्याही का व्यावसायिक स्तर पर उत्पादन हो रहा है। पिछले साल सितंबर तक पहले छह महीने में एमपीवीएल से एनआरडीसी को करीब 20 लाख रूपये रायल्टी मिली। शुरू से यह उपक्रम ही इस स्याही की आपूर्ति चुनाव आयोग को करती आ रही है। खास बात तो यह है कि दुनिया के 25 देशों में यह चुनावों के सफल निष्पादन में अपनी भूमिका निभाती है। भारत में बनने वाली इस चुनावी स्याही को लगभग 25 देशों को निर्यात किया जाता है।

गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

सुबाचन यादव के शीर्षकहीन चित्र

राजनीति-प्रशासन से परे तमाम यदुवंशी साहित्य-कला-संस्कृति के क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रहे हैं। इनमें से एक हैं सुबाचन यादव। सुबाचन यादव जिद की हद तक डटे रहने वाले कलाकारों में से हैं। वह पिछले दो दशकों से टैक्सचर में काम कर रहे हैं, उसमें भी श्याम-श्वेत उनके प्रिय रंग हैं, जिनसे वे आकार का निर्माण करतें हैं। उनके आकारों में जो बिंब उभरता है उसमें एक स्त्री का चेहरा रहता है। कुछ चित्र आकारहीनता का अहसास कराते हैं, तो कुछ ब्रह्मांड की रचना करते प्रतीत होते हैं। एक चित्र को देखकर तो लगता है मानो वृक्ष ने अपने पत्ते बिखरा दिये हों। इसी क्रम में उनके द्वारा चित्र अलौकिकता के करीब पहँुच जाते हैं। फिर भी चित्रों को देखकर उनकी तकनीकी सर्वोपरिता का अहसास हो जाता है। यह शायद उनकी व्यवसायिक सक्रियता के चलते लगता है।

श्याम-श्वेत रंग के ही इस्तेमाल पर वह कहते हैं-’सफेद रंग सादगी का प्रतीक है और काले रंग में सभी को अपने भीतर समाहित करने की ताकत है और यह भी सच है कि दोनों का एक दूसरे के बगैर अस्तित्व ही नहीं है।‘ इनके समायोजन से जो कला उभरती है वह गंभीर बहस की माँग करती है। सुबाचन आगे कहते हैं-’बेशक दो रंगों में काम करना कटिन है, और टैक्सचर में यह कठिनाई बढ़ जाती है, लेकिन काम आनंद भाव से किया जाय तो फिर आसान जान पड़ता है, यही वहज है कि सुबाचन के काम में एक ठहराव भी दिखाई पड़ता है। अपने चित्रों को सुबाचन कोई शीर्षक नहीं देते। वह कहते है-’शब्द में इतनी ताकत नहीं है कि वह किसी पेंटिंग को संपूर्णता में आंक सके। वैसे भी एक ही पेंटिग से हर व्यक्ति अपने-अपने अर्थ ग्रहण करता है। फिर कैसे किसी कृति को शीर्षक दिया जा सकता है? कलाकार-कवि अपनी सुविधा के लिए कृति को शाीर्षक दे सकता है, अन्यथा शीर्षक का कोई अर्थ नहीं है। वह शीर्षकहीनता को अन्तर्राष्ट्रीय भाषा का नाम देते हैं। सुबाचन स्वीकारते हैं कि पेटिंग प्रारम्भ करते समय कोई विशेष आकार दिमाग नहीं होता, जैसे-जैसे रंगों का समायोजन होना शुरू होता है, आकार उभरने लगते हैं। कभी-कभी तो ऐसे आकार सामने आते हैं जिनकी हम कल्पना भी नहीं करते। ऐसे आकारों में हर कोई सामंजस्य नहीं बैठा सकता। सुबाचन मानते हैं कि जो कलाकार सच्चाई के करीब होगा, उसका काम स्वतः ऐसा होना शुरू हो जाता है। अध्यात्मिकता शायद इसका चरम बिन्दु है। (साभारः आजकल,मार्च 2009 में कलानिधि द्वारा प्रस्तुत)