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मैं वापस आऊँगा, जरूर आऊँगा, पहचान पाओगे मुझे' -राजेन्द्र यादव. ..1983 में पापा की टेबल पर रखे कुछ थीसिस के नोट्स में मैंने यह लाइन पढ़ी. ऐसा लगा कि यह लाइन एक ऐसे व्यक्ति के अंदर से फूटी है, जो कहीं भटक गया है, खो गया है या खत्म हो रहा है. पर अपने आपको फिर से खड़ा करने की चाह उतनी ही जीवित है और उम्मीद उतनी की प्रबल. और क्यों यह पंक्ति पापा द्वारा कही गई थी तो मेरे अनुमान से यह एक लेखक अपने पाठकों को संबोधित कर रहा था. मरते हुए लेखक की इस लाइन ने, पापा को पहली बार मेरे सामने एक लेखक के रूप में जीवित कर दिया.जानती तो थी ही कि वे लेखक हैं. जानती क्या, दिन-रात पापा को लिखते-पढ़ते देखती थी. पर इस पंक्ति में छिपी कुंठा ने मुझे अंदर तक इस हद तक छू लिया कि पहली बार मुझे पापा के लेखक होने का अर्थ समझ आया. केवल लेखक ही नहीं, एक सफल लेखक होना उनकी जिंदगी में कितनी अहमियत रखता है, इस बात का अहसास मुझे उस दिन पहली बार हुआ.
साल भर पहले गीताश्रीजी ने मुझे पापा के बारे में लिखने को कहा और मैं टालती गई. मैंने तो इतनी गहराई से कभी पापा का व्यक्ति-विश्लेषण किया ही नहीं. दिमाग में ही नहीं किया तो कागज पर क्या उतारूँ. वैसे भी मनुष्य का यह स्वभाव होता है कि वह प्रसन्न दिखने वालों का कम और दुखी लोगों का विश्लेषण ज्यादा करता है. और जब पापा के बारे में सोचने बैठी तो इतना तो समझ आ ही गया कि इतने प्रसन्न, सहज-सरल दिखने वाले पापा, विश्लेषण के लिए एक जटिल विषय हैं.
जैसा मैंने कहा कि उस दिन पहली बार मुझे अहसास हुआ कि लेखन और लेखक होना, पापा की जिंदगी में कितना महत्व रखता है. उनकी समस्त जिंदगी और शायद जीने का कारण ही उनका लेखन है. पर क्योंकि अनेक लोगों ने, समीक्षकों ने उनकी रचनाओं पर और लेखक-राजेन्द्र यादव पर बहुत कुछ लिखा है, मैं कोशिश करूँगी कि अपने अनुभव के आधार पर, उनके पिता-रूप पर टिप्पणी करूँ.
मुझे नहीं याद कि पापा (जिनको मैं बचपन से ही पप्पू बुलाती हूँ) को मैंने कभी दुखी या अवसाद में देखा हो. कुछ किस्से मम्मी बताती हैं, जब वे बहुत रोए या दुखी हुए पर मैंने खुद कभी नहीं देखा. सारे समय हँसी-मजाक, मस्ती-मुझे तो बस यही याद है. 'बाबा मौज करेगा' ताली बजाते हुए, फकीरी अंदाज में वह इस तकिया-कलाम को बोलकर घर में कभी भी किसी भी चिंताजनक या तनाव के माहौल को क्षणभर में हलका कर देते.
मुझे यह भी याद नहीं कि उन्होंने मुझे कभी डाँटा हो या नाराज हुए हों. या कभी अच्छे बच्चे बनने के तौर-तरीकों पर लंबे भाषण पेले हों, जो अक्सर आम पिता अपने बच्चों के साथ करते हैं. या कभी पढ़ाई करने के लिए डॉक्टर-इंजीनियर बनने के लिए कोई जोर या दबाव डाला हो. इस सबको पढ़कर तो कोई भी बच्चा यह सोच सकता है कि वाह! ऐसे पापा सबको मिलें और कम ही लोग इतने अच्छे पापा बन पाते हैं.
पर असलियत तो यह है कि पापा बनना तो उन्हें कभी आया ही नहीं. फिर अच्छा पापा बनना तो दूर की बात है.
मेरे लिए तो माँ और पिता, इन दोनों की भूमिकाएँ मम्मी ने ही अदा कीं. मुझे नहीं लगता कि उन्हें कभी इस बात का अहसास हुआ कि उनकी एक बेटी है, जो उनकी जिम्मेदारी है.बचपन में मुझे कई बार बात खटकती थी कि मेरे पापा अन्य पापाओं से अलग क्यों हैं? वे दूसरे बच्चों के पापाओं की तरह मुझे बस-स्टाप पर छोड़ने क्यों नहीं आते? इंडिया-गेट और चिल्ड्रन म्यूजियम क्यों नहीं जाते? या टाई और सूट पहन, ब्रीफकेस लेकर, ऑफिस की गाड़ी में बैठे, ऑफिस क्यों नहीं जाते? आसपास के माहौल से प्रभावित जो मेरे दिमाग में उस समय एक 'पिता-छवि' थी, उसमें वे दूर-दूर तक कहीं फिट नहीं होते थे. बुरा भी लगता था और शायद अपनी सहेलियों के बीच कॉलेक्स भी होता था.पर आज सोचती हूँ तो लगता है कि यदि वह एक आम पिता की तरह यह सब करते तो मैं भी शायद आम लड़की की तरह एक सुघड़ गृहिणी होकर रह जाती. इसका मतलब यह कतई नहीं है कि हर आम और अच्छे पिता के बच्चे साधारण ही निकलते हैं. मैं केवल अपने संदर्भ में यह बात कह रही हूँ.
हाँ, यह जरूर है कि इस नॉन-पापा की भूमिका को पापा ने इस हद तक अदा किया कि मेरे बहुत बीमार होने पर भी वे गायब. डॉक्टर के पास ले जाने की तो उनसे अपेक्षा ही नहीं करनी चाहिए थी. जिस व्यक्ति के अपने पिताजी यानी मेरे दादा साहेब ने, उनकी बीमारी के दिनों में महीनों उनके सिरहाने बैठकर उनकी देखभाल की वह व्यक्ति अपनी खुद की बेटी की बीमारी में ऐसा कर सकता है-यह विश्वास करना ही बहुत कठिन है, पर सुनती हूँ कि ऐसा ही हुआ. और मम्मी का इस बात पर बहुत-बहुत नाराज होना तो जायज ही था.
ऐसी कुछ और घटनाएं हैं, जिनको सुनकर मुझे पापा से बहुत नाराजगी होनी चाहिए. जिस पल सुनती हूँ उस क्षण गुस्सा भी आता है पर बाद में गुस्से से ज्यादा उनके लिए दुख होता है-'घर-बार', 'बाल-बच्चे' न वे इन सबके लिए बने हैं और न यह सब उनके लिए. कहाँ फँस गए बेचारे! और हाँ, यह खयाल मम्मी के लिए भी उतना ही आता है-किस आदमी के साथ फँस गईं बेचारी!इन दोनों 'बेचारे' माँ-बाप की इकलौती संतान होने के नाते, मुझे तो अति बेचारा होना चाहिए था. पर अपने बेचारेपन के बावजूद दोनों ने मुझे इतना मनोबल दिया कि मैंने अपने आप को कभी बेचारा महसूस ही नहीं किया. मेरे व्यक्तित्व को ढालने में मम्मी का तो बहुत बड़ा और सक्रिय योगदान है ही, पर यदि कभी उन पर लिखा तो इसकी चर्चा करूँगी. इस लेख को मैं पापा पर ही केंद्रित रखने की कोशिश करूँगी.
मम्मी कहती हैं कि मेरी शक्ल-सूरत भले ही उनसे मिलती हो, पर मेरा स्वभाव, मेरी आदतें अपने पिता से बहुत मिली हैं. अब इस बात को वह नाराजगी के क्षणों में कहती हैं या प्यार के, यह तो मैं आज तक नहीं समझ पाई. पर लगता है, इसमें कुछ सच्चाई अवश्य है.मेरी माँ और कुछ बहुत ही करीबी मित्र मेरी एक आदत से परेशान और कभी-कभी नाराज भी रहते हैं कि मैं अपने अंदर चलते विचारों को खुलकर कभी व्यक्त नहीं करती. कोई काम करने का विचार है तो उसे पहले न बताकर काम शुरू हो जाने के बाद सूचना देती हूँ. और यही आदत मैंने कई गुणा अधिक पापा में देखी हैं. आप कभी अंदाज ही नहीं लगा सकते हैं कि उनके भीतर क्या चल रहा है. किस काम को करने की कैसी योजना. ऐसी बातों को वे शायद ही किसी के साथ शेयर करते हों. और यदि कभी मजबूरी में करना भी पड़ा हो तो केवल उस स्थिति में, जब उनकी योजना में दूसरे व्यक्ति की साझेदारी अनिवार्य हो.अब ऐसे व्यक्ति के साथ रहना और रिश्ता निभाना कतई आसान नहीं है पर क्योंकि कुछ हद तक मैं भी ऐसी ही हूँ तो शायद एक स्तर पर समझ सकती हूँ और एक सीमा तक बिना गिला-शिकवे के स्वीकार भी कर सकती हूँ.
बात को बहुत देर तक छिपाए रखने के पीछे स्थिति अनुसार कारण तो अनेक हो सकते होंगे पर मेरे अनुमान से मोटा-मोटी दो कारण दिमाग में आते हैं-या तो वह बात, काम या विचार इतना गलत है कि उसे छिपाने में ही अपनी और सामने वाली की भलाई है. या फिर अपने अंदर आत्मविश्वास की कमी होना.
सोचे हुए काम को करने की क्षमता मुझमें न हुई तो? योजना असफल हो जाए तो? पहले से ही ढिंढ़ोरा पीट लिया तो कितनी खिल्ली उड़ेगी. बेहतर यही है कि पहले समझ लो, परख लो, करके देख लो. अगर सफल हो गए तो वाह! अपने आप ही बात बाहर आ जाएगी. और अगर नहीं बन पाया तो कम से कम इस शर्मनाक हार के बारे में किसी को पता तो नहीं चलेगा. मेरी क्षमता और काबिलियत पर प्रश्न तो नहीं उठेंगे.
यह विश्लेषण मेरी अपनी सोच है, मेरे निष्कर्ष. मेरे दृष्टिकोण से. हो सकता है कि यह सच्चाई से कोसों दूर हो, पर हर व्यक्ति का अपना एक नजरिया होता है, जिसके अनुसार वह अपनी धारणाएँ बना लेता है और उसके लिए वही सच है. उसका सच.
तो जहाँ तक मेरी समझ जाती है, मेरी यही धारणा है कि कहीं बहुत गहराई में छिपे इस आत्मविश्वास की कमी से मुक्त होने के लिए या उस पर विजय पाने की निरंतर और अटूट कोशिश ने पापा के चरित्र में एक और विशेषता को जन्म दिया. उनकी बेहिसाब और उदाहरणीय दृढ़ता. यदि एक बार किसी काम को करने का दृढ़ संकल्प कर लिया तो बस, उसके पीछे लग गए. पूरी एकाग्रता और तल्लीनता के साथ.
ऊपर से इतने मस्त और फक्कड़ दिखने वाले पापा इस हद तक आत्मप्रेरित और अनुशासित हैं कि जब वे किसी योजना में लगते हैं उनका यह अनुशासन उसमें किसी भी प्रकार की रुकावट या अड़चन डालने की अनुमति नहीं देता. अपने लिखने-पढ़ने का समय न वे किसी को दे सकते हैं, न ही किसी के साथ शेयर कर सकते हैं. फिर चाहे वह उनका कितना ही करीबी या प्रिय मित्र अथवा संबंधी ही क्यों न हो.
सुनने में भले ही यह एक सेल्फ-सेंटर्ड व्यक्ति का चित्र उभारता हो और पापा के लिए यह कहना गलत भी नहीं होगा. पर मैं समझती हूँ कि कुछ विशिष्ट पाने के लिए थोड़ा सेल्फ-सेंटर्ड होना ही पड़ता है.
अब चाहे यह सही हो या गलत, मैं तो अपने आपको बहुत भाग्यशाली समझती हूँ, क्योंकि उनकी यह चरित्र-विशेषता मैंने उनसे विरासत में ली है. यदि आज मुझमें कुछ अलग करने की चाह है और मैं लगभग भूतियाभाव से उस काम के पीछे लग जाने की क्षमता रखती हूँ तो वह काफी हद तक पापा की ही देन है. बिना पैशन और जुनून के जिंदगी व्यर्थ है- यह मैंने पापा से ही सीखा है.
कहते हैं कि 'पीपुल हू हैव ए पैशन इन लाइफ आर ट्रली ब्लैंस्ड, एंड पीपुल हू स्पेंड देयर एंटायर लाइव्स विदाउट ए पैशन, मे ऐस वेल हैव नॉट लिव्ड' और इसे मैं पापा की अपने लिए सबसे बड़ी और सबसे महत्वपूर्ण देन समझती हूँ. इसी से जुड़ा हुआ एक और पहलू है. एक और ऐसी शिक्षा जो मैंने पापा से ही ली. बचपन से ही मैंने अपने घर में कभी भी पूजा-पाठ होते नहीं देखा. मंदिर जाना, व्रत रखना या जागरण में जाना-इस सबका कोई सिलसिला नहीं था.
जागरण तो जरूर होते थे और उनमें मम्मी-पापा के करीबी मित्र भी शामिल होते थे, पर धार्मिक और सत्संगी भाव से एकदम विपरीत. हँसी-मजाक, एक दूसरे की टाँग खिंचाई और बौध्दिक बहसों में रातें गुजरती थीं. मम्मी फिर भी साल में एक बार दीपावली पर पूजा का माहौल बनाने का प्रयत्न करती थीं, पर पापा के होते वह भी अक्सर महज, मजाक या बनकर रह जाता था.
मुझे याद है कि एक दीपावली पर मैंने पापा से थोड़ा खीजकर कहा था- 'आप कभी तो भगवान की सीरियसली पूजा कर लिया कीजिए. साल में एक बार ही सही.'मजाक की मुद्रा में, दोनों हाथ फैलाकर पापा ने जवाब दिया, 'तो फिर हमें तो अपनी ही पूजा करनी चाहिए क्योंकि साक्षात भगवान हमारे अंदर ही तो बैठे हैं. हमें तो केवल अपने आप पर ही विश्वास हैं.' पापा को तो शायद याद भी नहीं होगा, पर सालों पहले मजाक में कही इस एक पंक्ति का मुझ पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि उसने मेरी सोच को एक नया मोड़ दिया. मैं अपने आपको नास्तिक तो नहीं मानूँगी, पर हाँ इतना जरूर कहूँगी कि मुझे आज सबसे ज्यादा अपने आप पर और अपनी क्षमता पर भरोसा है. मेरा यह विश्वास है कि घंटे-दो-घंटे मंदिर में पूजा करने के बजाय यदि मैं उतने समय में कुछ सकारात्मक करूँ तो शायद ज्यादा हासिल कर पाऊँ. तो मैं भी पापा की तरह कुछ हद तक अपने आपको ही पूजने की वृत्ति रखती हूँ. कुछ न मिलने पर अपने आपको ही कोसती हूँ और कुछ पाने के लिए मेहनत करने पर अपने आप को ही मजबूर करती हूँ और हड़काती रहती हूँ.
अब इस सबसे हटकर एक और किस्सा मुझे याद आता है, जो पापा के पापा-पन या नॉन पापा-पन पर प्रकाश डालता है. जैसा कि हम सब जानते हैं कि हर अच्छे भारतीय पिता की अपनी बेटियों को लेकर जो सबसे बड़ी चिंता होती है, वह होती है उसकी शादी की. अच्छी नौकरी में लगा, कमाऊ लड़का ढूँढ़ने की. पर पापा ने तो शायद यह सब कभी सोचा ही नहीं था. मेरी पढ़ाई, पहली नौकरी इत्यादि हर चीज जैसे अपने आप होती चली गई, उन्हें शायद यह विश्वास था कि यह भी अपने आप ही हो जाएगा और बाबा मौज करता रहेगा.
दिनेश जब पहली बार हमारी शादी की बात करने और घर आने वाला था तब मम्मी दिल्ली से बाहर थीं. अब इस इंटरव्यू की सारी जिम्मेदारी पापा पर! जब दिनेश कमरे में घुसा (कुर्ता, दाढ़ी और कान में बालियाँ) तो पापा अपनी कुर्सी पर, पाइप लेकर एक सख्त और जिम्मेदार पिता का चोगा पहनकर बैठे थे. शायद अपने किसी मित्र से पूछ भी लिया होगा कि ऐसी स्थिति में, एक अच्छे और सतर्क पिता की भूमिका अदा करने के लिए क्या-क्या प्रश्न पूछने चाहिए.
सारी बात तो मुझे याद नहीं, पर जो दो प्रश्न उन्होंने दिनेश से पूछे, वे मुझे अच्छी तरह याद हैं-
पापा-तो आजकल क्या कर रहे हो?
दिनेश-फिलहाल तो कुछ नहीं.
पापा-तो अब क्या करने का विचार है?
दिनेश-अभी तो पता नहीं.
यह उत्तर सुनकर कौन पिता अपनी बेटी की शादी ऐसे लड़के से करना चाहेगा? पर पापा प्रसन्न-'यह तो बिलकुल हमारी तरह है.'
हाँ, उन्होंने इतना जरूर कहा कि लड़का कुछ क्रियेटिव टाइप का दिखता है. कितना स्टेबल होगा, यह तुम देख लो. और जितने प्रसन्न पापा दिनेश से थे, आज दिनेश भी उनसे उतना ही प्रसन्न हैं. वह अक्सर कहता है. 'आई एम लकी टु हैवप ए बोहीमियन फादर-इन-लॉ लाइक हिम. डोंट ईवर ट्राय एंड पुट हिम इन ए कन्वेंशनल फ्रेमवर्क. यू विल डिस्ट्रॉय हिम.'
तो ऐसे अजीबो गरीब पापा-फिगर के साथ मैं बड़ी हुई. एक ऐसे पापा जिनको इस बात की कभी चिंता नहीं हुई कि मैं क्या खा-पी रही हूं, किस क्लास में हूँ, मैं अच्छे बच्चों की तरह आज्ञाकारी बन रही हूँ या नहीं, समाज के बने हर नियम को भरसक निभा रही हूँ या नहीं. अगर मुझे लेकर उन्हें कभी कोई चिंता हुई होगी तो वह यही होगी कि कहीं मैं बिना कोई प्रश्न उठाए समाज के बने ढर्रे पर चलने वाली, हर नियम का पालन करने वाली, एक आम हँसती-खेलती भरी-पूरी जिंदगी को ही अपनी सफलता समझने वाली, उन लाखों-करोड़ों लड़कियों की तरह न बन जाऊँ जो आईं और बिना कोई छाप छोड़े चली गईं.
कहने को तो अभी भी कई बातें हैं, कई किस्से हैं, पर यहाँ अंत करते हुए यही कहूँगी कि 1983 में पढ़ी उस पंक्ति ने एक लेखक को तो मेरे सामने जीवित कर दिया पर ऐसा कोई भी किस्सा याद नहीं आता है, जिसने मुझे उनके एक कन्वेंशनल पिता होने का अहसास दिलाया हो. वह लेखक बनने में ही इतने व्यस्त रह गए कि पिता बनने तक की तो नौबत ही नहीं आई.
पर इस सबके बावजूद आज पापा और मेरे बीच इतना स्ट्रांग बॉडी है कि उसे केवल हम दोनों ही समझ सकते हैं. बिना पिता की भूमिका अदा किए हुए ही उन्होंने मुझे और मेरे व्यक्तित्व को इतना कुछ दे दिया है कि मुझे इस बात का बहुत गर्व है कि मैं राजेन्द्र यादव की बेटी हूँ।