मंगलवार, 1 जून 2010

जाति आधारित जनगणना अनिवार्य : पहले जाति के आधार पर राज, अब विरोध क्यों

राजस्थान के दौसा जिले के हिंगोटा पंचायत में स्थित 'कुंआ का वास' नामक गाँव को लगभग 23 साल पहले अपनी सवर्ण एवं सामंती मानसिकता से ग्रस्त एक लेखपाल ने रिकार्ड में बदलकर दुर्भावनावश ' चमारों का वास' गाँव कर दिया, क्योकि वहाँ अनुसूचित जाति के लोगों की बहुलता है। गाँव वाले पिछले 23 साल से इस नाम को बदलवाने के लिए संघर्षरत हैं। उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद शहर में एक दबंग ब्राह्मण अधिकारी ने नियम-कानूनों को ठेंगा दिखाते हुए एक चैराहे का नाम ही 'त्रिपाठी चौराहा' घोषित कर दिया। जबकि रिकार्ड में इस चैराहे का नाम दूसरा है। यह दोनों उदाहरण अपने देश भारत में जाति की विभीषका को दिखाते हैं। एक जगह जाति नाम से 'हीनता' का बोध होता है तो दूसरी जगह यह ' प्रतिष्ठापरक' है। दुर्भाग्यवश भारत में व्यक्ति की पहचान उसकी प्रतिभा से नहीं जाती से होती है। सदियों से इसी जाति की आड़ में सवर्ण जाति के लोगों ने दलितों-पिछडों व जनजातियों पर जुल्म ढाए और उन्हें पग-पग पर जलील कर उनके नीच होने व पिछडेपन का अहसास कराया। एक युवा कवि इस दर्द को बखूबी उकेरता है- उसने मेरा नाम नहीं पूछा काम नहीं पूछा / पूछी सिर्फ एक बात / क्या है मेरी जात / मैनें कहा इन्सान/ उसके चेहरे पर थी कुटिल मुस्कान (मुकेश मानस)।
भारत में जाति आधारित जनगणना इस समय चर्चा में है। पहले सरकार की हाँ और फिर टालमटोल ने इसे व्यापक बहस का मुद्दा बना दिया है। चारों तरफ इसके विरोध में लोग अपने औजार लेकर खड़े हो गए हैं। जाति आधारित जनगणना के विरोध में प्रिंट मीडिया से लेकर इलेक्ट्रानिक मीडिया तक ने ऐसी भ्रांति फैला रखी है, मानो इसके बाद भारत में जातिवाद का जहर फैल जाएगा और भूमंडलीकरण के इस दौर में दुनिया हमें एक पिछड़े राष्ट्र के रुप में दर्ज करेगी। सवर्ण शक्तियाँ जाति आधारित जनगणना को यादव त्रयी मुलायम सिंह, लालू प्रसाद यादव एवं शरद यादव की देन बताकर इसे ‘यादवी‘ कूटनीति तक सीमित रखने की कोशिश कर रही है। पर सूचना-संजाल के इस दौर में इस तथ्य को विस्मृत किया जा रहा है जाति भारतीय समाज की रीढ़ है। चंद लोगों के जाति को नक्कारने से सच्चाई नहीं बदल जाती।
जाति-व्यवस्था भारत की प्राचीन वर्णाश्रम व्यवस्था की ही देन है, जो कालांतर में कर्म से जन्म आधारित हो गई। जब सवर्ण शक्तियों ने महसूस किया कि इस कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था से उनके प्रभुत्व को खतरा पैदा हो सकता है तो उन्होंने इसे परंपराओं में जन्मना घोषित कर दिया। कभी तप करने पर शंबूक का वध तो कभी गुरुदक्षिणा के बहाने एकलव्य का अंगूठा माँगने की साजिश इसी का अंग है। रामराज के नाम पर तुलसीदास की चैपाई-”ढोल, गँंवार, शूद्र, पशु नारी, ये सब ताड़ना के अधिकारी,’ सवर्ण समाज की सांमती मानसिकता का ही द्योतक है। यह मानसिकता आज के दौर में उस समय भी परिलक्षित होती है जब मंडल व आरक्षण के विरोध में कोई एक सवर्ण आत्मदाह कर लेता है और पूरा सवर्णवादी मीडिया इसे इस रुप में प्रचारित करता है मानो कोई्र राष्ट्रीय त्रासदी हो गई है। रातों-रात ऐसे लोगों को हीरो बनाने का प्रोपगंडा रचा जाता है। काश मीडिया की निगाह उन भूख से बिलबिलाते और दम तोड़ते लोगों पर भी जाती, जो कि देश के किसी सुदूर हिस्से में रह रहे हैं और दलित या पिछड़े होने की कीमत चुकाते हैं। दुर्भाग्यवश जिन लोगों ने जाति की आड़ में सदियों तक राज किया आज उन हितों पर चोट पड़ने की आशंका के चलते जाति को ‘राष्ट्रीय शर्म‘ बता रहे हैं एवं जाति आधारित जनगणना का विरोध कर रहे हैं। अब जाति आधारित जनगणना के विपक्ष में उठाए जा रहे सवालों पर सिलसिलेवार चर्चा करें-
(जातिवार गणना के विरोध में उठाये गए हर सवाल का जवाब क्रमश: अगले खंड में)

4 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

आदरणीय श्री राम शिव मूर्ति यादव जी,

आपकी यह पोस्ट काफी तार्किक व सटीक लगी. इसीलिए इसे 'युवा-मान' पर भी साभार प्रस्तुत किया, ताकि इस पर व्यापक बहस हो सके.

Unknown ने कहा…

आपने सटीक उदाहरणों द्वारा एक कडवे सच को पेश किया है..आभार.

Shyama ने कहा…

दुर्भाग्यवश जिन लोगों ने जाति की आड़ में सदियों तक राज किया आज उन हितों पर चोट पड़ने की आशंका के चलते जाति को ‘राष्ट्रीय शर्म‘ बता रहे हैं एवं जाति आधारित जनगणना का विरोध कर रहे हैं...Ekdam sahi kaha apne.

Shyama ने कहा…

जाति आधारित जनगणना अनिवार्य है..बहुत सही कहा आपने. मंडल कमीशन कि सिफारिशों का भी लोगों ने विरोध किया, पर क्या हुआ. हल्ला मचाकर सच को नहीं बदला जा सकता. आज नहीं तो कल सरकार को जाति-गणना करानी ही होगी, नहीं तो गद्दी छोड़ने को तैयार रहना होगा. ८० फीसदी पिछड़ों-दलितों पर जोर नहीं चलने वाला, वे जग चुके हैं.