जाति आधारित जनगणना के विपक्ष में उठाए जा रहे सवालों पर सिलसिलेवार चर्चा करें-
यदि जाति आधारित जनगणना में कुछेक जातियों की संख्या ज्यादा हुई तो वे आरक्षण की 50 प्रतिशत् सीमा को बढ़ाने का दवाब डाल सकते हैं, जो कि संविधान विरूद्ध होगा।
दुर्भाग्यवश, जाति आधारित जनगणना की चर्चा के बाद ही लोग इसे मात्र आरक्षण से जोड़कर देख रहे हैं। मात्र इस कपोल कल्पना के आधार पर जाति-जनगणना का विरोध अनुचित है। जिन लोगों ने भाई-भतीजावाद की आड़ में सरकारी नौकरियों पर कब्जा कर रखा है, उन्हें अपनी जमीं खिसकती नजर आ रही है। कार्मिक मंत्रालय की वर्ष 06-07 की इस वार्षिक रिपोर्ट पर गौर करें तो केंद्र सरकार की सेवाओं का चेहरा आसानी से समझा जा सकता है-स्पष्ट है कि कुल 31,05,048 पदों में से 5,50,989 अनुसूचित जातियों, 1,98,400 अनुसूचित जनजातियों एवं मात्र 1,61,818 पद पिछड़ों के पास हैं। अर्थात लगभग 31 लाख पदों में से करीब 22 लाख पदों पर सवर्ण जातियों के लोग भरे हुए हैं। यह हालात तब हैं, जबकि आरक्षण लागू है। स्पष्ट है कि आरक्षण नीति के बावजूद सवर्ण शक्तियाँ इसे प्रभावी रुप में लागू नहीं होने दे रही हैं। आखिरकार प्रशासन के अधिकतर शीर्ष पदों पर बैठे सवर्णों से यह आशा करना बेकार भी है और ऐसे में आरक्षण के बावजूद यदि दलित, जनजातियों और पिछड़ी जातियों को समुचित प्रतिनधित्व नहीं मिल रहा है तो जिम्मेदार कौन हैं, स्वतः स्पष्ट है। यह अनायास ही नहीं है कि 20 मंत्रालयों व 18 विभागों में ग्रुप ‘ए‘ सर्विस में कोई भी पिछड़े वर्ग से नहीं हैं। लगभग 52 फीसदी आबादी में हिस्सेदारी के बावजूद सिर्फ 10 फीसदी आई।ए.एस. ही पिछड़े वर्ग से हैं। 96 फीसदी उच्च और मध्य स्तरीय न्यायिक संस्थाओं में भी 12 फीसदी सवर्णों का ही कब्जा है। जहाँ तक 50 प्रतिशत आरक्षण की बात है तो संविधान की 9वीं सूची के अंतर्गत इसका भी प्रावधान है। इसके तहत ही राजस्थान ने 68, महाराष्ट्र में 52 तो तमिलनाडु ने 69 प्रतिशत आरक्षण लागू करने की बात कही है। हाल ही में स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने एकल पद के मामले में आरक्षण को सही ठहराया है।
(जातिवार गणना के विरोध में उठाये गए हर सवाल का जवाब क्रमश: अगले खंड में)