सोमवार, 27 सितंबर 2010

मानवता को नई राह दिखाती कैंसर सर्जन डॉ. सुनीता यादव

भोपाल शहर की कैंसर सर्जन डॉ. सुनीता यादव को चिकित्सा के क्षेत्र में विशेष ढंग से काम करने और गरीब कैंसर मरीजों को स्वयं चिकित्सा खर्च वहन करते हुए इलाज और सेवा देने के लिए जाना जाता है. वे शायद इस मुहावरे को चरितार्थ करती नजर आती हैं की डाक्टर भगवन का ही दूसरा रूप है. वस्तुत: बचपन में ही सुनीता यादव ने अपने दादाजी को कैंसर का इलाज नहीं मिल पाने के कारण खोया था। इसी बीमारी के चलते अपनी नानी को भी खोया और तभी से तय कर लिया कि बड़े होकर कैंसर सर्जन ही बनना है। 1985 में ग्वालियर के गजराराजा मेडिकल कॉलेज से पढ़ाई पूरी करने के बाद 1994 में प्रैक्टिस शुरू की और 1995 से भोपाल में प्रैक्टिस शुरू कर दी। कैंसर सर्जन बनने के बाद कई गरीब कैंसर मरीजों को कम से कम खर्च पर इलाज दिया। सुनीता यादव 80 हजार रुपए में होने वाली सर्जरी को फिलहाल पांच से छह हजार रुपए में कर रही हैं। डॉ. यादव के पास अक्सर महीने में ऐसे दो-तीन केस आते हैं जिनके इलाज का खर्च माफ करना पड़ता है। डा0 सुनीता यादव इंडियन रेडक्रास सोसायटी में भी वे बतौर कंसल्टेंट अपनी सेवाएं दे रही हैं। वे कहती हैं, कैंसर पीड़ित महिलाओं को देखकर दुख होता है क्योंकि वे पारिवारिक जिम्मेदारियों ने इतनी उलझी रहती हैं कि चौथी स्टेज में इलाज के लिए आती हैं। महिलाओं को सलाह है कि वे अपने स्वास्थ्य को नजरअंदाज न करें और प्रारंभिक लक्षण दिखने पर ही इलाज के लिए आएं।

डा0 सुनीता यादव को उनकी उल्लेखनीय सेवाओं के लिए तमाम संस्थाओं द्वारा सम्मानित भी किया जा चुका है. 21 मई, 2009 को उनकी उल्लेखनीय सेवाओं के लिए उपराष्ट्रपति मोहम्मद हमीद अंसारी द्वारा नई दिल्ली स्थित आंध्र प्रदेश भवन में सम्मानित किया जाएगा। उन्हें यह सम्मान राष्ट्रीय समता स्वतंत्र मंच के 82 वें शिखर सम्मेलन में दिया गया , जिसमें चिकित्सा, उद्योग, शिक्षा, समाज सेवा और न्याय के लिए अनुकरणीय कार्य करने वाले व्यक्तियों को सम्मानित किया जाता है।

गौरतलब है कि इस सम्मान के लिए नामांकित होने पर पूर्व लोकसभा अध्यक्ष बलिराम भगत ने स्वयं उनका इंटरव्यू लिया था। डा0 सुनीता यादव ने न सिर्फ चिकित्सा जगत वरन पूरी मानवता को नई राह दिखाई है और ऐसे लोग ही समाज में प्रेरणा-स्रोत बनते हैं !!

बुधवार, 22 सितंबर 2010

भारी उद्योग एवं लोक उपक्रम राज्यमंत्री अरूण यादव का जज्बा...

आजकल जब स्वतंत्रता दिवस समारोहों को मात्र औपचारिकता निभाने के तौर पर ही देखा जाने लगा है, उस दौर में भारतीय राजनीति के कुछ युवा नेता इस बीत गए जमाने को लौटाने की कवायद में जुटे नजर आ रहे हैं। इसी में एक नाम है भारी उद्योग एवं लोक उपक्रम राज्यमंत्री अरूण यादव का जो पिछले छह साल से 14, 15 और 16 अगस्त को अपने गृह नगर खरगौन से 12 ज्योतिर्लिंगों में एक ओंकारेश्वर तक पदयात्रा करते हैं। हर साल 90 किमी0 की इस यात्रा में बड़ी संख्या में उनके समर्थक भी उनके साथ होते हैं। 2005 में ही अपने कॅरियर की शुरुवात करने वाले यादव कहते हैं, “मैंने नीमाड़ इलाके में बारिश होने के लिए मन्नत मांगी थी और कहा था कि हर साल पैदल यात्रा करूँगा।” वाकई यह विचार राष्ट्रीय एकजुटता और क्षेत्रीय समृद्धि के संदेश से जुड़ा है

साभार : इंडिया टुडे- 1 सितम्बर 2010

बुधवार, 15 सितंबर 2010

जाति-गणना के फैसले का स्वागत...

सरकार अंतत: जाति-गणना के लिए राजी हो गई. लम्बे विरोध और तमाम झंझावातों के बाद ही सरकार को अंतत: यह सुधि आई कि इसके कितने फायदे हैं. जाति-गणना के पक्ष में 'यदुकुल' पर हमने पूरी एक सीरिज ही प्रकाशित की थी. खैर, देर से ही सही सरकार का यह फैसला स्वागत-योग्य है. आशा की जानी चाहिए कि इस गणना के बाद तमाम आमूल-चूल परिवर्तन देखे जा सकेंगें. !!

गुरुवार, 9 सितंबर 2010

बिरहा गायन सम्राट राम कैलाश यादव का जाना....

बात हो हल्ले की नहीं है मगर फिर कुछ तो आहट होनी थी उसके जाने पर जो उसके काम को बाकी दुनिया की तरफ से सही आदर हो सकता था.,मगर ऐसा कुछ हुआ नहीं. गाँव के ठेठपन को आभास कराता एक लोककलाविद हमारे बीच अपने सादेपन और लोक गायकी की खुशबू बिखेरता हुआ ही अचानक चल बसा और मीडिया जगत में आहट तक ना हुई.दिल तब अधिक दु;खता है जब देश का कोई सादगी संपन्न कलाकार ये जहां चुपचाप छोड़ जाता है. उसके मरने के बाद उसके काम को सभी रोते देखें हैं मगर इस बार यूं.पी.के बिरहा गायन को ना केवल ज़िंदा रखने बल्कि अपने और से उसे समृद्ध और संपन्न बनाने में कोइ कसर नहीं छोड़ने वाले उसी दिशा में अपना जीवन फूँक देने वाले राम कैलाश यादव जी को क्या मिला.वैसे जो भी उनके संपर्क में आया वो ही समझ सकता है कि वक्त के साथ बिरहा के कानफोडू होने और बिगड़ जाने की हद तक आने पर उनका काम कितना महत्वपूर्ण है.जो सदा याद आयेगा. देश की कलापरक संस्थाएं ये आभास आज भी करती हैं.खैर भौतिकतावादी इस युग में कलापरक बात करना बीन बजाना लगने लगा है. इनसे अच्छा तो कुछ संस्कृतिप्रेमी मित्रों के साथ एक बैठक कर उन्हें याद कर लें बेहतर लगता है.वो भी बिना प्रेस नोट जारी किए.क्योंकि इस तरह के प्रेस नोट छप जाना कम आश्चर्यजनक बात नहीं है.

हमारे अपने जीवन से ही कुछ प्रमुख और जरूरी मूल्यों की बात अपने संगीतपरक कार्यक्रम के ज़रिए करने वाले राम कैलाश यादव संगीत नाटक आकादेमी से सम्मानित आम आदमी के गायक थे.उनके साथ पिछले दिनों आई.आई.टी.कानपुर में स्पिक मैके के राष्ट्रीय अधिवेशन के तहत छ; दिन रहने का मौक़ा मिला.जहां उनकी सेवा और उनके साथ कुछ हद तक अनौपचारिक विचार-विमर्श के साथ ही वहीं उनके गाये-सिखाए लोक गीतों पर रियाज़ के दौर बहुत याद आते हैं . अब तो वे ज्यादा गहरी यादों के साथ हमारे बीच हैं,क्योंकि वे चल बसे.आदमी के चले जाने के बाद वो ज्यादा प्यारे हो जाते हैं.ये ज़माने की फितरत भी तो है.उसी ज़माने में खुद को अलग रख पाना बहुत मुश्किलाना काम है.गांवों-गलियों और पनघट के गीत गाने वाला एक मिट्टी का लाडला ह्रदय गति से जुडी बीमारी के कारण चल बसा.

वे अपने मृत्यु के अंतिम साल में भी हमेशा की तरह भारतीय संकृति पर यथासमय भारी लगने वाली अन्य संस्कृतियों के हमले से खासे नाराज़ नज़र आते थे. कानपुर में उनका कहा एक वाक्य आज भी कचोटता है कि आज के वक्त में खाना और गाना दोनों ही खराब हो गया है.ठेठ यूं.पी. की स्टाइल में कही जाने वाली उनकी बातें भले ही कई बार समझ में नहीं आती हों लेकिन उनका लहजा और उस पर भी भारी उनके चहरे पर आने वाली अदाएं असरदार होती है.धोती-कुर्ते के साथ उनके गले में एक गमछा सदैव देखा जा सकता था.उनके गाए गीतों में अधिकांशत; अपने मिट्टी की बात है या कुछ हद तक उन्होंने मानव समाझ से जुड़ी बुराइयों पर खुल कर गाया बजाया है.उनके कुछ वीडियो और ऑडियो गीत नेट पर मिल जायेंगे,मगर नहीं मिल पाएगा तो राम कैलाश यादव का मुकराता चेहरा.ज्यादातर उनके गायन की शुरुआत में ओ मोरे राम ,हाय मोरे बाबा,मोरे भोले रसिया कहते हैं.और उस पर भी भारी उनके पीछे टेर लगाकर गाते उनके साथी . आज उनके बगैर बहुर अधूरे लगते हैं.कोइ तो उनके साथ गाते बजाते बुढा हो तक गया है.

अपने सभी मिलने वालों में भगवान् के दर्शन करने वाले निरंकारी भाव वाले गुरूजी के कई संगीत एलबम निकाले हैं. जिनमें उन्नीस सौ पिच्चानवें से अठ्यानवें के बीच निकले सती सुलोचना,दहेज़,क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद,अभिमानी रावण ख़ास हैं.उन्होंने देशभर के लगभग सभी बड़े शहरों को अपने कार्यक्रम से नवाज़ा था.उनके साथ लोक वाध्य यंत्रों की एक पांच-छ; कलावृन्द की मंडली होती रही.वे खुद खड़े होकर अपनी प्रस्तुती देते थे. बीच-बीच में कुछ अंगरेजी डायलोग बोलना और मूछों पर हाथ फेरना उन पर फबता था.उनसे सिखा एक गीत आज भी याद है जो मैं गुनगुनाता हूँ. बिरहा का कजरी में गाया जाने वाला ये एक ठेठ रंग है.कि

हमरे नईहर से घुमरी घुमरी आवे बदरा

आवे बदरा आवे बदरा ,हमरे ………….

जाईके बरस बदरा वांई धोबी घटवा

जहां धोबइन भीगोईके पछारे कपड़ा

हमरे नईहर से घुमरी घुमरी आवे बदरा ……………..

जाईके बरस बदरा वांई रे कुंवनियाँ

जहां पनिहारिन निहुरिके भरत बा घघरा

हमरे नईहर से घुमरी घुमरी आवे बदरा ……………..

जाईके बरस बदरा वांई रे महलियाँ

जहां बिरहिन निहारता पिया का डगरा

हमरे नईहर से घुमरी घुमरी आवे बदरा ……………..


जाईके बरस बदरा वांई फूल बगियाँ

जहां मलिनिया बईठके गुहत बा गुजरा

हमरे नईहर से घुमरी घुमरी आवे बदरा ……………..

जाईके बरस बदरा धनवा के खेतवा

जहां जोहतबा किसानिन उठाईके नजारा

उनके नहीं रहने के पांच दिन बाद ये खबर मुझे कोटा,राजस्थान के संस्कृतिकर्मी और स्पिक मैके के राष्ट्रीय सलाहकार अशोक जैन और स्पिक मैके कार्यकर्ता वीनि कश्यप ने दी . मैं एक ही बात सोच रहा था कि इस ज़माने में कलाकार तो बहुत मिल जाते हैं मगर सही इंसान नहीं मिल पाते .आज के दिन एक कलाकार के साथ के रूप में याद रहने वाला दिलवाला इंसान हमारे बीच नहीं रहा.उनके पांचवें बेटे कृष्ण बहादुर से बातचीत पर जाना कि गुरूजी ने अपना अंतिम सार्वजनिक कार्यक्रम स्पिक मैके आन्दोलन की पुणे शाखा के लिए एक सितम्बर को ही दिया था.वैसे सन अठ्ठासी से हार्ट अटक के मरीज यादव अब तक इलाहबाद से इलाज ले रहे है थे. बीमारी के चलते अचानक तबियत नासाज हुई और तीन सितम्बर को उनके गाँव लमाही जो ठेठ यूं.पी. के हरिपुर तहसील में पड़ता है से पास के कस्बे ले जाते रास्ते में ही मृत्यु हो गई.अब उनके पीछे छ; बेटे हैं,बेटी कोइ नहीं है . मगर अचरज की बात हो या शोध की कि उनमें से एक भी बिरहा नहीं गाता है. हाँ उनके दो पोते जरुर इस काम को सीख कर आज रेडियो के ज़रिए बहुत अच्छा गा-बजा रहे हैं.प्रेमचंद और दिनेश कुमार जो पच्चीस-छब्बीस सालाना उम्र लिए युवा सृजनधर्मी हैं.मतलब राम कैलाश जी यात्रा के जारी रहने आसार हैं.

भले ही और लोगों ने बिरहा गायन को मनोरंजन के लिए खुला छोड़कर तार-तार कर दिया हो मगर गुरु राम कैलाश जी आज तक भी अपने दम पर सतत बने हुए थे. अगर उनके नहीं रहने के बाद भी उन्हें सही श्रृद्धांजली देनी है तो हमें अपनी रूचि में संगीत को परख कर सुनने की आदत डालनी चाहिए. राम कैलाश जी सबसे ज्यादा संगीत के इस बिगड़ते माहौल और लोक स्वरुप का बँटाधार करते इन कलाकारों से दु:खी थे.वैसे इस बिरहा गायन की परम्परा को देशभर में बहुत से अन्य कलाकार भी यथासम्भव आगे बढ़ा रहे हैं,मगर उनकी अपने सीमाएं और विचारधारा हैं.ऐसे में ज्ञान प्रकाश तिपानिया,बालेश्वर यादव,विजय लाल यादव भी इस क्षेत्र से जुड़े कुछ ख़ास नाम हैं.ये यात्रा तो आगे बढ़ेगी ही,मगर दिशा क्या होगी,भगवान् जाने.

सारांशत: कुछ भी कहो उस प्रखर सृजनधर्मी की गहन तपस्या का कोइ सानी नहीं है. एक बात गौरतलब है कि जितने बड़े तपस्वी गुजरे हैं.उनके बाद हुई खाली जगह ,यूं ही खाली पडी रही.बात चाहे उस्ताद बिस्मिलाह खान की हों या हबीब तनवीर की ,कोमल कोठारी की या फिर एम्.एस.सुब्बुलक्ष्मी की,बात सोला आना सच्ची है.

साभार : माणिक जी : जनोक्ति ( 9 सितम्बर, 2010 को प्रकाशित)

सोमवार, 6 सितंबर 2010

मृत्युभोज बंद कराने के लिए अलख जगा रही हैं सूरज कुमारी यादव

समाज में कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो रुढियों से परे नई नजीरें स्थापित करते हैं. यहाँ तक की इसमें उम्र भी बाधा नहीं आती. इसी कड़ी में इंदौर शहर की एक बुजुर्ग महिला ने मृत्युभोज बंद कराने के लिए सामाजिक जंग छेड़ रखी है। शुरुआत अपने पति रामदयाल यादव से की और उनके दिवंगत होने पर मृत्युभोज नहीं दिया। इसके बाद पिछले माह भाई जगतसिंह यादव के निधन होने पर भी इस कुप्रथा को नहीं होने दिया। शहर के साथ ही प्रदेश के करीब 50 गांवों में उन्होंने इसके खिलाफ अलख जगाया है।

ये जांबाज महिला हैं अखिल भारतवर्षीय यादव महासभा (महिला) की अध्यक्ष 70 वर्षीय सूरजकुमारी यादव। उनके प्रयास से गुना, शिवपुरी, मुरैना जिलों में अधिकांश परिवारों में मृत्युभोज बंद हो गया है। जबलपुर, ग्वालियर में भी कुछ जगह सफलता मिली है। सागर जिले के ग्राम जलंधर में तो सभी समाज के लोगों ने मृत्युभोज बंद कराने की लिखित रजामंदी दी है।

श्रीमती यादव बताती हैं शहर में यादव समाज के 30 से ज्यादा परिवारों ने मृत्युभोज बंद करने का संकल्प लिया है। वे समाज के कार्यक्रमों में जाकर मृत्युभोज बंद कराने का प्रस्ताव रखकर उसे पारित कराते हैं। उन्होंने कहा परिजन के निधन पर चाहें तो कन्याओं और कर्मकांड कराने वाले पंडित को भोजन कराया जा सकता है। श्रीमती यादव का मानना है कि मृत्युभोज बंद करने वालों का शासन स्तर पर और समाज में सम्मान होना चाहिए।

करीब पांच साल पहले मेडिकल कॉलेज में देहदान की घोषणा कर चुकी श्रीमती यादव जनसहयोग से एक कोष भी बनाना चाहती हैं, जिससे जरूरतमंद महिलाओं की सहायता और बच्चों की पढ़ाई का खर्च उठाया जा सके।

इस उम्र में सूरजकुमारी यादव का यह जज्बा वाकई लोगों के लिए प्रेरणास्रोत है !!

गुरुवार, 2 सितंबर 2010

सोलह कलाओं के अवतार : श्री कृष्ण

यद्‌यपि प्रत्‍येक पुराण में अनेक देवी देवताओं का वर्णन हुआ है तथा प्रत्‍येक पुराण में अनेक विषयों का समाहार है तथापि शिव पुराण, भविष्‍य पुराण, मार्कण्‍डेय पुराण, लिंग पुराण, वाराह पुराण, स्‍कन्‍द पुराण, कूर्म पुराण, वामन पुराण, ब्रह्माण्‍ड पुराण एवं मत्‍स्‍य पुराण आदि में ‘शिव' को; विष्‍णु पुराण, नारदीय पुराण, गरुड़ पुराण एवं भागवत पुराण आदि में ‘विष्‍णु' को; ब्रह्म पुराण एवं पद्‌म पुराण में ‘ब्रह्मा' को तथा ब्रह्म वैवर्त पुराण में ‘सूर्य' को अन्‍य देवताओं का स्रष्‍टा माना गया है।


पुराणों के गहन अध्‍ययन से स्‍पष्‍ट होता है कि पहले शिव की उपासना का विशेष महत्‍व था किन्‍तु तद्‌नन्‍तर विष्‍णु की भक्‍ति एवं उपासना का विकास एवं महत्‍व उत्‍तरोत्‍तर बढ़़ता गया। वासुदेव, नारायण, राम एवं कृष्‍ण आदि विष्‍णु के ही अवतार स्‍वीकार किए गए। 14 वीं शताब्‍दी तक आते आते राम एवं कृष्‍ण ही इष्‍टदेवों में सर्वाधिक मान्‍य एवं प्रतिष्‍ठित हो गए। अलग अलग कालखंडों में विष्‍णु, नारायण, वासुदेव, दामोदर, केशव, गोविन्‍द, हरि, सात्‍वत एवं कृष्‍ण एक ही शक्‍ति के वाचक भिन्‍न नामों के रूप में मान्‍य हुए। महाभारत के शान्‍ति पर्व में वर्णित है -

‘‘ मैं रुद्र नारायण स्‍वरूप ही हूँ। अखिल विश्‍व का आत्‍मा मैं हूँ और मेरा आत्‍मा रुद्र है। मैं पहले रुद्र की पूजा करता हूँ। आप अर्थात्‌ शरीर को ही नारा कहते हैं। सब प्राणियों का शरीर मेरा ‘अयन' अर्थात्‌ निवास स्‍थान है, इसलिए मुझे ‘नारायण' कहते हैं। सारा विश्‍व मुझमें स्‍थित है, इसी से मुझे ‘वासुदेव' कहते हैं। सारे विश्‍व को मैं व्‍याप लेता हूँ, इस कारण मुझे ‘विष्‍णु' कहते हैं। पृथ्‍वी, स्‍वर्ग एवं अंतरिक्ष सबकी चेतना का अन्‍तर्भाग मैं ही हूँ, इस कारण मुझे ‘दामोदर' कहते हैं। मेरे बाल सूर्य, चन्‍द्र एवं अग्‍नि की किरणें हैं, इस कारण मुझे ‘केशव' कहते हैं। गो अर्थात्‌ पृथ्‍वी को मैं ऊपर ले गया इसी से मुझे ‘गोविन्‍द' कहते हैं। यज्ञ का हविर्भाग मैं हरण करता हूँ, इस कारण मुझे ‘ हरि' कहते हैं। सत्‍वगुणी होने के कारण मुझे ‘सात्‍वत' कहते हैं। लोहे का काला फाल होकर मैं जमीन जोतता हूँ और मेरा रंग काला है, इस कारण मुझे ‘कृष्‍ण' कहते हैं। ''

भगवान कृष्‍ण के अनेकानेक रूप हैं। उनको सोलह कलाओं का अवतार माना जाता है। श्री कृष्‍ण के अतन्‍त प्रकार के रूप हैं। जो रूप सर्वातीत, अव्‍यक्‍त, निरंजन, नित्‍य आनन्‍दमय है उसका वर्णन करना सम्‍भव ही नहीं है क्‍योंकि अनन्‍त सौन्‍दर्य के चैतन्‍यमय आधार को भाषा में व्‍यक्‍त नहीं किया जा सकता। महाभारत, शास्‍त्रों एवं पुराणों में जो वर्णित है उस दृष्‍टि से श्री कृष्‍ण के तीन रूप प्रमुख हैं -

1 ़ महाभारत के कृष्‍ण
2 ़ गीता के कृष्‍ण
3 ़ भागवत तथा उसके आधार पर काव्‍य में वर्णित कृष्‍ण

महाभारत के कृष्‍ण
महाभारत में ‘नारद प्रसंग' में श्री कृष्‍ण के विश्‍व रूप का वर्णन मिलता है किन्‍तु यहाँ प्रधानता कृष्‍ण के मानवीय रूप की ही है। महाभारत में कृष्‍ण के कुशल राजनीति वेत्‍ता, कूटनीति विशारद एवं वीरत्‍व विधायक स्‍वरूप का निदर्शन है।

गीता के कृष्‍ण
गीता में श्री कृष्‍ण के विश्‍व व्‍यापी स्‍वरूप एवं परब्रह्म स्‍वरूप का प्रतिपादन है। श्री कृष्‍ण स्‍वयं अपना विश्‍व रूप अर्जुन को दिखाते हैं। गीता में श्री कृष्‍ण को प्रकृति और पुरुष से परे एक सर्व व्‍यापक, अव्‍यक्‍त एवं अमृत तत्‍व माना गया है और उसे परम पुरुष की संज्ञा से अभिहित किया गया है।

भागवत तथा उसके आधार पर काव्‍य में वर्णित कृष्‍ण
भागवत में यद्‌यपि अनेक अवतारों का वर्णन है किन्‍तु प्रधानता की दृष्‍टि से कृष्‍ण को पूर्ण ब्रह्म मानकर कृष्‍ण भक्‍ति की श्रेष्‍ठता प्रतिपादित है। भागवत में यद्‌यपि कृष्‍ण के 1 ़ असुर संहारक 2 ़ राजनीति वेत्‍ता एवं कूटनीति विशारद 3 ़ योगेश्‍वर 4 ़ परब्रह्म स्‍वरूप 5 ़ बालकृष्‍ण 6 ़ गोपी विहारी आदि सभी रूपों का वर्णन एवं विवेचन हुआ है किन्‍तु प्रधान रूप से कृष्‍ण के रसिकेश्‍वर स्‍वरूप की सरस अभिव्‍यंजना है। भागवत के पारायण से प्रेमाभिभूत भक्‍तों को गोकुल, ब्रज एवं वृन्‍दावन में विहार करने वाले नन्‍द नन्‍दन रसिक शिरोमणि गोपाल कृष्‍ण की लीलाओं से सहज रूप से परमानन्‍द की प्राप्‍ति होती है।

श्रीमद्‌भागवतकार जहाँ अलौकिकता एवं भक्‍ति से पुष्‍ट परमानन्‍द के रस से निमज्‍जित करता है वहीं परवर्ती आचार्यों एवं साहित्‍यकारों ने गोपीवल्‍लभ एवं राधावल्‍लभ कृष्‍ण के प्रेम की शास्‍त्रीय मीमांसा एवं काव्‍यात्‍मक अभिव्‍यंजना की है। सूरदास जैसे कवियों ने यशोदा माता के वात्‍सल्‍य का सहज एवं सरस चित्रांकन भी किया है।

रामानुजाचार्य ने भक्‍ति को नारायण, लक्ष्‍मी, भू और लीला तक ही सीमित रखा। निम्‍बार्काचार्य ने दक्षिण भारत से वृन्‍दावन में आकर उत्‍तर भारत में कृष्‍ण और सखियों द्वारा परिवेष्‍ठित राधा को महत्‍व दिया। निम्‍बार्क की भक्‍ति परम्‍परा में तथा विष्‍णु स्‍वामी से प्रभावित होकर उत्‍तर भारत में राधा कृष्‍ण की भक्‍ति का प्रचार प्रसार करने वाले आचार्यों में सर्वाधिक महत्‍व वल्‍लभाचार्य एवं चैतन्‍य महाप्रभु का है।

वल्‍लभाचार्य ने अपनी भक्‍ति में ‘प्रपत्‍ति'/‘शरणागति' को विशेष स्‍थान दिया। आपने गोपाल कृष्‍ण की लीलाओं को अलौकिकता प्रदान की। आपकी स्‍थापना है कि लीला पुरुषोत्‍तम श्रीकृष्‍ण राधिका के साथ जिस लोक में विहार करते हैं वह विष्‍णु और नारायण के बैकुंठ से भी ऊँचा है। इस स्‍थापना के कारण इन्‍होंने ‘गोलोक' को बैकुंठ से भी अधिक महत्‍व प्रदान किया।

चैतन्‍य महाप्रभु ने श्रीकृष्‍ण संकीर्तन के महत्‍व का प्रतिपादन किया। उनके अनुसार यह चित्‍तरूपी दर्पण के मैल को मार्जित करता है, संसाररूपी महादावग्‍नि को शान्‍त करता है, प्राणियों को मंगलदायिनी कैरव चंद्रिका वितरित करता है। यह विद्‌यारूपी वधू का जीवन स्‍वरूप है। यह आनन्‍दस्‍वरूप को प्रतिदिन बढ़ाता है।

जयदेव, विद्‌यापति, चंडीदास एवं सूरदास जैसे अष्‍टछाप के कवियों ने गोपियों के कृष्‍णानुराग एवं ‘युगल उपासना' से प्रेरित राधा कृष्‍ण के उस प्रेम की सहज भावाभिव्‍यंजना की है जहाँ राधा श्‍याम के रंग में रंग जाती हैं तथा श्‍याम राधा के रंग में रंग जाते हैं।

कुछ विद्वानों नें श्रीमद्‌भागवत तथा उससे प्रेरित काव्‍य ग्रन्‍थों में वर्णित गोपियों के कृष्‍णानुराग एवं ‘युगल उपासना' से प्रेरित राधा कृष्‍ण के प्रेम प्रसंगों को भगवान श्रीकृष्‍ण के चरित पर लगाए गए असत्‍य, निर्मूल एवं निराधार लांछन माना है।

भक्‍ति परम्‍परा के परिप्रेक्ष्‍य में लीला प्रसंगों के आध्‍यात्‍मिक निहितार्थ हैं। लोक में जो जितना अश्‍लील एवं गर्हित है वह गोलोक में उतना ही पावन एवं मंगलकारी है। प्रत्‍येक लीला के आध्‍यात्‍मिक अर्थों की गहन एवं विशद व्‍याख्‍याएँ सुलभ हैं। उनकी पुनुरुक्‍ति की कोई प्रयोजनसिद्‌धता नहीं है। सम्‍प्रति हम केवल यह संकेत करना चाहते हैं कि लोक की दृष्‍टि से लोक में परकीया प्रेम गर्हित एवं अपराध है किन्‍तु भक्‍ति में गोपियाँ कुल मर्यादा का अतिक्रमण कर कामरूपा प्रीति करती हैं। लोक में जो श्रृंगार प्रेम है भक्‍ति में वह मधुर भक्‍ति रस है, माधुर्य भाव की भक्‍ति है। लौकिक प्रेम के जितने स्‍वरूप हो सकते हैं, वे सभी मधुर भक्‍ति में आ जाते हैं। कृष्‍ण में लीन होने के कारण गोपियों की कामरूपा प्रीति भी निष्‍काम है तथा सोलह हज़ार गोपियों के साथ ‘रास' रचाने वाले कृष्‍ण तत्‍वतः ‘योगेश्‍वर' है।

प्रेम के इस धरातल पर दैहिक सीमा से उद्‌भूत प्रेम उन सीमाओं का अतिक्रमण कर चेतना के स्‍तर पर प्रतिष्‍ठित हो जाता है। कृष्‍ण लीलाओं में प्रेम के जिस उन्‍मुक्‍त स्‍वरूप की यमुना तट और वृन्‍दावन के करील कुंजों में रासलीलाओं की धवल चॉदनी छिटकी है उसे आत्‍मसात करने के लिए भारत की तंत्र साधना को समझना होगा। ‘ हिन्‍दी निर्गुण भक्‍ति काव्‍य परम्‍परा' शीर्षक आलेख में लेखक ने विस्‍तार के साथ प्रतिपादित किया है कि भक्‍ति काल के साहित्‍य की रस-साधना में जो भक्‍ति है वह तत्‍वतः आत्‍मस्‍वरूपा शक्‍ति ही है। भक्‍ति की उपासना वास्‍तव में आत्‍मस्‍वरूपा शक्‍ति की ही उपासना है। सभी संतो का लक्ष्‍य भाव से प्रेम की ओर अग्रसर होना है। प्रेम का आविर्भाव होने पर ‘भाव' शांत हो जाता है। भक्‍त महाप्रेम में अपने स्‍वरूप में प्रतिष्‍ठित हो जाता है।

उदाहरण के लिए कबीर ने जीवन की साधना के बल पर जाना था कि ‘ मानस' यदि विकारों से मुक्‍त होकर ‘निर्मल' हो जाता है तो उसमें ‘अलख निरंजन' का प्रतिबिंब अनायास प्रतिफलित हो जाता है। ‘ प्‍यंजर प्रेम प्रकासिया, अन्‍तरि भया उजास'। हम यह कहने के लोभ का संवरण नहीं कर पा रहे हैं कि सूफियों ने भी भाव के केन्‍द्र को भौतिक न मानकर चिन्‍मय रूप में स्‍वीकार किया है तथा कृष्‍ण भक्‍तों की भाव साधना में भी भाव ही ‘महाभाव' में रूपान्‍तरित हो जाता है। कृष्‍ण भक्‍त कवियों के काव्‍य में भी राधा-भाव आत्‍म-शक्‍ति के अतिरिक्‍त अन्‍य नहीं है। अभी तक भक्‍ति काव्‍य को शंकराचार्य के अद्वैतवाद एवं वैष्‍णव मतवाद के आलोक में ही समझने का प्रयास होता रहा है। हमारी मान्‍यता है कि भक्‍ति काव्‍य को शांकर अद्वैतवाद के परिप्रेक्ष्‍य में मीमांसित करना उपयुक्‍त नहीं हैं।शांकर अद्वैतवाद में भक्‍ति को साधन के रूप में स्‍वीकार किया गया है, किन्‍तु उसे साध्‍य नहीं माना गया है। भक्‍तों ने भक्‍ति को साध्‍य माना है।

शांकर अद्वैतवाद में मुक्‍ति के प्रत्‍यक्ष साधन के रूप में ‘ज्ञान' को ग्रहण किया गया है। वहाँ मुक्‍ति के लिए भक्‍ति का ग्रहण अपरिहार्य नहीं है। वहाँ भक्‍ति के महत्‍व की सीमा प्रतिपादित है। वहाँ भक्‍ति का महत्‍व केवल इस दृष्‍टि से है कि वह अन्‍तःकरण के मालिन्‍य का प्रक्षालन करने में समर्थ सिद्ध होती है। भक्‍ति आत्‍म-साक्षात्‍कार नहीं करा सकती, वह केवल आत्‍म साक्षात्‍कार के लिए उचित भूमिका का निर्माण कर सकती है। भक्‍तों ने अपना चरम लक्ष्‍य भगवद्‌-दर्शन /प्रेम भक्‍ति माना है तथा भक्‍ति के ग्रहण को अपरिहार्य रूप में स्‍वीकार किया है। भक्‍तों की दृष्‍टि में भक्‍ति केवल अन्‍तःकरण के मालिन्‍य का प्रक्षालन करने वाली ‘वृत्‍ति' न होकर ‘आत्‍म शक्‍ति' ही है।

शांकर अद्वैतवाद में अद्वैत-ज्ञान की उपलब्‍धि के अनन्‍तर ‘भक्‍ति' की सत्‍ता अनावश्‍यक ही नहीं अपितु असम्‍भव है। भक्‍तों में अद्वैतज्ञान के बाद भी ‘ज्ञानोत्‍तरा भक्‍ति' की स्‍थिति है। इसका कारण हम बता चुके है कि भक्‍ति काल के साहित्‍य की रस-साधना में जो भक्‍ति है वह तत्‍वतः आत्‍मस्‍वरूपा शक्‍ति ही है। अंत में, मैं इस सम्‍बन्‍ध में यह भी निवेदन करना चाहता हूँ कि श्री कृष्‍ण के इन लीला प्रसंगों को इतिहास के प्रतिमानों के आधार पर नहीं परखा जा सकता। यह इतिहास का नहीं अपितु भक्‍ति का विषय है। इसी के साथ मैं यह भी जोर देकर कहना चाहता हूँ कि इसे मानवीय प्रेम की दृष्‍टि से भी जाँचा जा सकता है।

रसिक शिरोमणि गोपाल कृष्‍ण की लीलाओं से प्रेमासक्‍त भक्‍तों को जहाँ सहज परमानन्‍द प्राप्‍त होता है वहीं सहृदय पाठक को इनके पारायण से उमंग एवं उल्‍लास की प्रतीति होती है। श्री कृष्‍ण के इन लीला प्रसंगों में मानवीय प्रेम भी अपने सहज रूप में अभिव्‍यक्‍त है - इस बोध के साथ कि प्रेम में पुरुष और नारी के बीच विभाजक रेखायें खींचना अतार्किक एवं बेमानी हैं। इसी भारत में श्री कृष्‍ण के इन लीला प्रसंगों की काव्‍य रचना के पूर्व मिथुन युग्‍मों का शिल्‍पांकन न केवल खजुराहो अपितु कोणार्क, भुवनेश्‍वर एवं पुरी आदि अनेक देव मन्‍दिरों में हो चुका था। दाम्‍पत्‍य जीवन की युगल रूप में मैथुनी लौकिक चेष्‍टाओं एवं भावाद्रेकों को शरीर के सहज एवं अनिवार्य धर्म के रूप में स्‍वीकृति एवं मान्‍यता प्राप्‍त हो चुकी थी।

भारतीय तंत्र साधना की चरम परिणति एवं उत्‍कर्ष के काल में साधक सम्‍पूर्ण सृष्‍टि की आनन्‍दमयी विश्‍व वासना से प्रेरित, संवेदित एवं उल्‍लसित रूप में प्रतीति एवं अनुभूति कर चुका था । यह वह काल था जिसमें ‘ काम ' को हेय दृष्‍टि से नहीं देखा जाता था अपितु इसे जीवन के लिए उपादेय एवं श्रेयस्‍कर माना जाता था। समर्पण भाव से अभिभूत एकीभूत आलिंगन के फलीभूत पृथकता के द्वैत भाव को मेटकर तन - मन की एकचित्‍तता, मग्‍नता एवं एकात्‍मता में अस्‍तित्‍व के हेतु भोग से प्राप्‍त ‘ कामानन्‍द ' की स्‍थितियों को पाषाण खंडों में उत्‍कीर्ण करने वाले नर - नारी युग्‍मों के कलात्‍मक शिल्‍प वैभव को चरम मानसिक आनन्‍द प्राप्‍त करने का हेतु माना गया था। इस काल में इसी कारण इन्‍द्रिय दमन, ब्रह्मचर्य, नारी के प्रति तिरस्‍कार की भावना आदि बातें करना बेमानी थीं।

इस पृष्‍ठभूमि में श्री कृष्‍ण के लीला प्रसंगों को समझने का प्रयास होना चाहिए। इन लीलाओं का जीवन दर्शन यह है कि जीवन जीने के लिए है, पलायन करने के लिए नहीं है। वैराग्‍य भावना से जंगल में जाकर तपस्‍या तो की जा सकती है किन्‍तु उत्‍साह, उछाह, उमंग, उल्‍लास, कर्मण्‍यता, जीवंतता, प्रेरणा, रागात्‍मकता एवं सक्रियता के साथ गृहस्‍थ जीवन नहीं जिया जा सकता। गार्हस्‍थ जीवन का विधान है जिसमें पुरुष एवं स्‍त्री के बीच प्रजनन के उद्‌देश्‍य से मर्यादित काम का प्रेम में पर्यवसान होता है।

प्रेम प्रसंगों के गति पथ की सीमा शरीर पर आकर रुक नहीं जाती, शरीर के धरातल पर ही निःशेष नहीं हो जाती अपितु प्रेममूलक एर्न्‍द्रिय संवेगों की भावों में परिणति और भावों का विचारों में पर्यवसान तथा विचारों एवं प्रत्‍ययों का पुनः भावों एवं संवेगों में रूपान्‍तरण - यह चक्र चलता रहता है। काम ऐन्‍द्रिय सीमाओं से ऊपर उठकर अतीन्‍द्रिय उन्‍नयन की ओर उन्‍मुख होता है। प्रेम शरीर में जन्‍म लेता है लेकिन वह ऊर्ध्‍व गति धारण कर प्रेमी प्रेमिका के मन के आकाश की ओर उड्‌डीयमान होता है। इस पृष्‍ठभूमि में जब हम श्रीमद्‌भागवत तथा इससे अनुप्राणित परवर्ती कृष्‍ण काव्‍य का अनुशीलन करते हैं तो पाते हैं कि यह ऐसी जीवन धारा है जिसमें मानवीय प्रेम अपनी सम्‍पूर्णता में बिना किसी लाग लपेट के सहज भाव से अवगाहन करता है। प्रेम की इस सहज राग साधना में गृहस्‍थ जीवन एवं सांसारिक जीवन पूरे उल्‍लास के प्रमुदित होता है।

प्रोफेसर महावीर सरन जैन, सेवानिवृत्‍त निदेशक, केन्‍द्रीय हिन्‍दी संस्‍थान,
123- हरिएन्‍कलेव, चांदपुर रोड, बुलन्‍दशहर


साभार : रचनाकार

कृष्ण-जन्माष्टमी की बधाइयाँ




यदुवंशियों के पूर्वज भगवान श्री कृष्ण माने जाते हैं। सोलह कलाओं में माहिर भगवान श्री कृष्ण का आज जन्म-दिन है और सारा देश धूम-धाम से कृष्ण-जन्माष्टमी मना रहा है. भगवान श्री कृष्ण का पूरा जीवन ही मानवता को सन्देश देता है, प्रेरणा देता है. इस पर्व पर भगवान श्री कृष्ण का पुनीत स्मरण करते हुए समस्त धरावासियों के लिए सुख-समृधी-आरोग्य की कामना है. इस अनुपम पर्व कृष्ण-जन्माष्टमी पर आप सभी को शुभकामनायें और बधाइयाँ. भगवान श्री कृष्ण आपकी सभी मनोकामनाओं को पूरी करें !!