रविवार, 27 नवंबर 2011

बॉक्सिंग के रिंग का नया नायक : विकास कृष्ण यादव

प्रतिभा कभी उम्र की मोहताज नहीं होती। इस कहावत को मुक्केबाज विकास कृष्ण यादव ने जहां एशियाई खेलों में मात्र 18 वर्ष की आयु में स्वर्ण पदक जीत कर सही साबित किया था वहीं अब उन्होंने उन्नीस वर्ष की आयु में ही विश्व चैम्पियनशिप में भी कांस्य पदक जीत कर खुद को बॉक्सिंग के रिंग का नया नायक साबित कर दिया है। विकास एशियाड में बॉक्सिंग का गोल्ड मैडल जीतने वाले अब तक के सबसे कम उम्र के मुक्केबाज हैं।

विकास अभी हाल ही में अजरबैजान के बाकू में हुई विश्व मुक्केबाजी प्रतिस्पर्धा में कांस्य पदक लाने वाले इकलौते भारतीय मुक्केबाज हैं। उन्होंने लंदन में होने वाले ओलम्पिक खेलों के लिए भी क्वालिफाई कर लिया और ओलम्पिक में अपने मुक्के का दम दिखाने के लिए अभी से तैयारियों में जुट गए हैं।

इस युवा प्रतिभावान मुक्केबाज की अब तक की उपलब्धियां भी कम नहीं हैं। विकास यादव यूथ एशियन मुक्केबाजी में स्वर्ण पदक पर कब्ज़ा कर सर्वश्रेष्ठ मुक्केबाज का खिताब जीत चुके हैं। यूथ ओलम्पिक में रजत पदक जीत वे 2010 के सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रीय मुक्केबाज अन्डर 17 और अन्डर 19 में अपने भार वर्ग में विश्व चैम्पियन भी रह चुके हैं। गौरतलब है कि इस युवा मुक्केबाज ने 12 साल बाद एशियाई खेलों में भारत को स्वर्ण पदक दिलाया था। भारत ने 1998 में डिंको सिंह के स्वर्ण पदक के बाद से एशियाई खेलों में कोई सोने का तगमा नहीं जीता था। 12 साल बाद पदक का ये अकाल विकास यादव ने खत्म किया। जैसे ही हरियाणा का लाडला विकास यादव पंचों के जौहर दिखाने के लिए रिंग में उतरता है तो लाखों खेल प्रेमियों की निगाहें टेलीविजन पर लग जाती हैं।

साधारण किसान परिवार मेें 10 फरवरी, 1992 को हिसार जिले के गांव सिंघवा में कृष्ण यादव व श्रीमती दर्शना के घर पैदा हुए विकास भिवानी के वैश्य कॉलेज के विद्यार्थी हैं और आजकल उनका परिवार भिवानी के सेक्टर 13 में रहता है। विकास के पिता कृष्ण यादव बिजली निगम में स्टैनोग्राफर के पद पर कार्यरत हैं और मां श्रीमती दर्शना गृहणी हैं। मुक्केबाजी को कैरियर बनाने के सवाल पर विकास का कहना है कि वह एक दिन भिवानी स्टेडियम में घूमने गए तो वहां बच्चों और युवाओं को बॉक्सिंग का अभ्यास करते देखा और उसके मन में भी बॉक्सिंग सीखने की ललक पैदा हुई। इस बारे में जब उसने घर आकर मां-पिताजी से बात की तो उन्होंने भी सहमति दे दी। शौकिया शुरू किये बॉक्सिंग के अभ्यास में जब विकास अपने मुक्के का जौहर दिखाने लगा तो उसे कोच और परिवार ने प्रोत्साहित किया। अपनी कड़ी मेहनत, परिवार के समर्थन और कोच के कुशल निर्देशन के परिणाम स्वरूप बहुत छोटी उम्र में ही उसने 17 वर्ष से भी कम आयु में यूथ विश्व चैम्पियन बनकर अपनी प्रतिभा का परिचय दे दिया था।

इसके बाद तो उन्होंने मुड़ कर ही नहीं देखा। विकास भारत के एकमात्र ऐसे मुक्केबाज हैं जिन्होंने एशियाड में गोल्ड और विश्व चैम्पियनशिप में कांस्य पदक जीत कर अपने देश को गौरवान्वित किया है।

विकास कृष्ण का लक्ष्य अपने देश के लिए ओलम्पिक में सोना जीतने का है और इसके लिए अभी से तैयारी में जुट चुके हंै। उनके दादा सरजीत सिंह का कहना है कि उन्हें लेश मात्र भी शक नहीं है कि उनका पोता देश के लिए ओलम्पिक में स्वर्ण जीतेगा। विकास के माता-पिता का कहना है कि उनका बेटा इरादे का पक्का है। खाने में उसे चूरमा और गोंद के लड्डू बहुत पसंद हैं। अभी उनकी उम्र महज 19 साल है और वे कड़ी मेहनत से ओलम्पिक की तैयारी में जुटे हुए हैं। आशा है वे देश के लिए ओलम्पिक में भी पहला स्वर्ण लाने में सफल रहेंगे।

बॉक्सिंग-के-रिंग-का-नया-ना/">साभार : रघुविन्द्र यादव : दैनिक ट्रिब्यून

शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

प्रेम प्रकाश यादव बने हरियाणा की विकलांग क्रिकेट टीम के कप्तान

प्रेम प्रकाश यादव को हरियाणा की विकलांग क्रिकेट टीम का कप्तान चुना गया है। प्रेम प्रकाश की अगुवाई में टीम अगले महीने में बनारस और पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान की विकलांग क्रिकेट टीम के साथ प्रतियोगिता में भाग लेगी। प्रेम प्रकाश के कप्तान बनने पर उसके साथियों में खुशी का माहौल है।

प्रेम प्रकाश का जन्म चरखी दादरी में 19 मार्च 1974 को हुआ था। जब वह चार वर्ष का था, तब उसके पैर में पोलियो की शिकायत का पता चला। उसी दौरान हरियाणा बिजली बोर्ड में कार्यरत उनके पिता का तबादला पलवल हो गया। इसके बाद यादव परिवार पलवल का ही बन कर रह गया। प्रेम प्रकाश को बचपन से ही क्रिकेट खेलने का शौक था। वह स्कूल में अपने दोस्तों के साथ काफी क्रिकेट खेलता था। क्रिकेट के जुनून ने उसे इस मुकाम पर ला दिया कि उसे क्रिकेट खेलने के अलावा कुछ नहीं सूझता। इतना ही नहीं उसमें गेंदबाजी के गुर भी कूट-कूट कर भरे हुए हैं। वर्ष 1997 में उसे पहली बार पता चला कि हरियाणा में शारीरिक रूप से विकलांग क्रिकेट भी खेला जाता है। इसके चलते उसने विकलांग खेलों के जन्मदाता प्रवीण बहल से संपर्क बनाया। प्रेम के बेहतरीन खेल के चलते उसे फरीदाबाद जिले की टीम में जगह दी। प्रेम का खेल लोगों का पसंद आया, जिस कारण उसे जिले की कमान सौंप दी गई। दिनोंदिन खेल में बेहतरीन प्रदर्शन करने पर प्रेम को अब हरियाणा की विकलांग क्रिकेट टीम का कप्तान चुना गया है। प्रेम का कहना है कि उसने पहले ही टूर्नामेंट में लगातार दो बार हैट्रिक ली थी, जो कि मुंबई व मध्यप्रदेश के खिलाफ दी। उसने अब तक 16 राष्ट्रीय क्रिकेट प्रतियोगिताओं में भाग लिया है, जिनमें उसे आठ बार मैन आफ दो मैच चुना गया है, जबकि दो बार बार बेस्ट प्लेयर आफ टूर्नामेंट से नवाजा गया है।

साभार : जागरण








मंगलवार, 22 नवंबर 2011

गायक से अभिनेता बने खेसारी लाल यादव का जलवा

बिहार के सिनेमाघरों में इन दिनों गायक से अभिनेता बने खेसारी लाल यादव का जलवा है। खेसारीलाल यादव की पहली भोजपुरी फिल्म ‘साजन चले ससुराल’ बिहार में सफलता का परचम लहरा रही है। बिहार के छपरा, सिवान के रहनेवाले खेसारी लाल यादव ने "साजन चले ससुराल" में एक सीधे साधे नौजवान की भूमिका निभाई है। बिहार के 21 सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई ‘साजन चले ससुराल’ अपने तीसरे हफ्ते में भी बढ़िया कमाई कर रही है। गौरतलब है की खेसारी लाल यादव को कई फिल्मों के ऑफर मिले थे पर खेसारीलाल ने अपने फ़िल्मी करियर की शुरुआत प्रसिद्द फिल्म निर्माता आलोक कुमार के साथ की। उनके द्वारा गाये गये गाना ‘भईया अरब गइले ना...’ को भी दर्शकों की तारीफ मिल रही है। माना जा रहा है कि जिस हिसाब से खेसारी लाल यादव का सिक्का बिहार में चल रहा है, उस हिसाब से यह अनुमान लगाया जा रहा है कि भोजपुरी गायक से सफल भोजपुरी नायक बनने के ट्रेंड को खेसारी लाल यादव ने ज़िंदा रखा है।

स्रोत : शशिकांत सिंह, रंजन सिन्हा : BHOJPURIYA CINEMA

आशा यादव को PHD की उपाधि

राजस्थान विश्वविद्यालय द्वारा जखराना निवासी आशा यादव को पीएचडी की डिग्री प्रदान की गई है। आशा यादव का शोध विषय ''किशोर विद्यार्थियों की शैक्षणिक उपलब्धि का अभिभावक व बालक संबंध अकादमिक दुश्चिन्ता अध्ययन आदतों'' के संदर्भ में अध्ययन रहा है। आशा यादव ने प्रोफेसर रीता अरोड़ा के निर्देशन में शोध विषय पूरा किया है। वर्तमान में आशा यादव खेतानाथ बीएड कालेज में प्रवक्ता के पद पर कार्यरत हैं। 'यदुकुल'; की तरफ से आशा यादव को बधाइयाँ !!

सोमवार, 21 नवंबर 2011

कृष्णं वंदे जगद्गुरुम्

पुस्तक : कृष्णं वंदे जगद्गुरुम्
लेखक : दिनकर जोशी
पृष्ठ : 130
मूल्य : $ 10.95
प्रकाशक : ग्रंथ अकादमी
आईएसबीएन : 81-85826-60-9
प्रकाशित : जनवरी ०१, २००४
पुस्तक क्रं : 5534
मुखपृष्ठ : सजिल्द


सारांश:
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश - कृष्ण विचलित नहीं हुए। अपने खुद के वचन की यथार्थता मानो सहज भाव से प्रकट होती है। नाश तो सहज कर्म है। यादव तो अति समर्थ हैं; फिर कृष्ण-बलराम जैसे प्रचंड व्यक्तियों से रक्षित हैं- उनका नाश किस प्रकार हो ? उनका नाश कोई बाह्य शक्ति तो कर ही नहीं सकती। कृष्ण इस सत्य को समझते हैं और इसीलिए माता गांधारी के शाप के समय केवल कृष्ण हँसते हैं। हँसकर कहते हैं-‘माता ! आपका शाप आशीर्वाद मानकर स्वीकार करता हूँ; कारण, यादवों का सामर्थ्य उनका अपना नाश करे, यही योग्य है। उनको कोई दूसरा परास्त नहीं कर सकता।’ कृष्ण का यह दर्शन यादव परिवार के नाश की घटना के समय देखने योग्य है। अति सामर्थ्य विवेक का त्याग कर देता है और विवेकहीन मनुष्य को जो कालभाव सहज रीति से प्राप्त न हो, तो जो परिणाम आए वही तो खरी दुर्गति है। कृष्ण इस शाप को आशीर्वाद मानकर स्वीकार करते हैं। इसमें ही रहस्य समाया हुआ है.

इसी पुस्तक से
न केवल भारतीय साहित्य में अपितु समग्र विश्व साहित्य में श्रीकृष्ण जैसा अनूठा व्यक्तित्व कहीं पर उपलब्ध नहीं है। संसार में लोकोत्तर प्रतिभाएँ अगण्य हैं; परंतु पूर्व पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण के अलावा कोई नहीं है। श्रीकृष्ण के किसी निश्चित रूप का दर्शन करना असंभव है। बाल कृष्ण से लेकर योगेश्वर कृष्ण तक इनके विभिन्न स्वरूप हैं। प्रस्तुत पुस्तक में श्रीकृष्ण के चरित्र को बौद्धिक स्तर से समझने का प्रयास किया गया है।
विश्वास है, पाठकों को यह प्रयास पसंद आएगा।

अदृश्य का दर्शन

गांधीजी ने एक बार कहीं कहा कि प्रत्येक हिंदू को ‘रामायण’ और ‘महाभारत’–ये दो धर्मग्रंथ अवश्य पढ़ने चाहिए। यह तो स्पष्ट ही है कि गांधीजी का यह कथन धार्मिक भावना से प्रेरित है; किन्तु जिस अर्थ में ‘बाइबल’, ‘कुरान’ अथवा अन्य धर्मग्रंथों को धार्मिक कहा जाता है, उस अर्थ में‘रामायण’ और ‘महाभारत’ को धर्मग्रंथ नहीं कहा जा सकता। किसी खास धर्म का संस्थापक अपने धर्म के उपदेश के लिए उसके अनुयायियों के सामने धर्म संबंधी मान्यताओं को स्पष्ट करता है, और कालांतर में उन्हें लिपिबद्ध करने से जिस प्रकार अन्य धर्मग्रंथ बने हैं, उस प्रकार ‘रामायण’ एवं ‘महाभारत’ धर्मग्रंथ नहीं बने हैं।

ये दोनों ग्रंथ तत्कालीन व्यक्ति अथवा व्यक्ति समूह के आसपास रचित होने पर भी व्यक्तियों तक सीमित नहीं रहे हैं। उनका समाज, उनके प्रश्न, उनके पात्र, उनका घटना-चक्र-यह सब एक विशेष समाज अथवा समष्टि की बात एक निश्चित भूगोल के दायरे में रहकर भले ही करते हों, वास्तव में वे किसी भी समय, किसी भी समाज में और किसी भी भू-प्रदेश के लिए उतने ही सत्य हैं। अत: गांधीजी के उक्त कथन को थोड़े से विशाल परिप्रेक्ष्य में इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है कि ‘मनुष्य’ नाम की वस्तु को समझने में जिस किसी की रुचि हो, ऐसे प्रत्येक समझदार मनुष्य को इन दो ग्रंथों को अवश्य पढ़ना चाहिए।

इन दोनों ग्रंथों का ताना-बाना ऐसा है कि इन दोनों के इतने अधिक पाठांतर हैं कि इस बारे में ढेर सारे मत-मतांतर हैं। यह कह पाना कठिन है कि इनमें असली अंश कौन-सा है और प्रक्षिप्त रूप में बाद में जोड़ा हुआ अंश कितना है। महाभारत के तीन स्तर हैं, इस बारे में लगभग सर्व सहमति है; किंतु इन तीनों स्तरों में कितनी ही बातें एक स्तर में से दूसरे स्तर में तथा दूसरे स्तर में से तीसरे स्तर में और वहाँ से फिर पहले स्तर में आगे-पीछे होती रहती हैं। इन तीनों बातों में असलियत को अलग खोज निकालने की दृष्टि से पुणे के ‘भांडारकर पौर्वात्य संस्थान’ ने चालीस वर्षों तक सतत परिश्रम करके महाभारत का प्रामाणिक पाठ तैयार किया है और इसी प्रकार बड़ौदा के ‘महाराजा सयाजी राव विश्वविद्यालय’ ने चौबीस वर्षों के श्रमपूर्ण संशोधन और अध्ययन के बाद रामायण का प्रामाणिक पाठ तैयार किया है।

किंतु इससे यह नहीं हुआ कि इन पाठों को आखिरी मानकर सबने स्वीकार कर लिया हो और उनके अलावा समस्त उपलब्ध पाठ सदा के लिए विस्मृति के गर्त में चले गए हों। विद्वानों, बौद्धिकों तथा अति बौद्धिकों में इन दोनों ग्रंथों के असंख्य पात्रों और प्रसंगों के बारे में अविरल विवाद चलता ही रहता है। चलता ही रहेगा। इन दोनों ग्रंथों में जो कुछ लिखा गया है, वह शत-प्रतिशत सत्य है और जो बातें सामान्य बुद्धि को सहज रीति से मान्य नहीं हो सकतीं, उनको भी पूर्ण श्रद्धा से स्वीकार करनेवाले भक्त मौजूद हैं। उदाहरण के लिए, कृष्ण की सोलह हजार एक सौ आठ पत्नियां और नौ लाख अस्सी हजार पुत्र होने के तथ्य को प्रत्यक्ष रूप में इन महाग्रंथों के अक्षरों में कोरी आँख से देखना संभव नहीं है और बाइनाक्यूलर की सहायता से पढ़नेवाले कितने ही विद्वान इन कथनों के असामान्य अर्थ भी निकालते हैं। उदाहरण के लिए, एक विदुषी महिला ने लिखा है कि युधिष्ठिर कुंती और विदुर के समागम से उत्पन्न हुए थे। इस बात के समर्थन में वह लिखती हैं-‘कुंती अधिकतर समय हस्तिनापुर में विदुर के घर में ही रहती थीं और व्यास ने एक बार कहा है कि मेरे से जो धर्म विदुर में उत्पन्न हुआ, उस धर्म का विदुर ने युधिष्ठिर में विस्तार किया। ‘रामायण के बारे में भी ऐसा ही हुआ है। वाल्मीकि ने लिखा है कि ‘हनुमान का आवास स्त्रियों से शोभायमान था, हनुमान ब्रह्मचारी नहीं थे।’ एक विद्वान ने लिखा है कि ‘यहाँ तक का अर्थ-घटन अधूरा है। बंबई में वडाला के हनुमानजी का पूजन गर्भवती स्त्रियाँ पुत्र-प्राप्ति के लिए करती हैं, यह इसका सूचक है।’

जो बात पात्रों और प्रसंगों के बारे में है, वही भूगोल के बारे में भी है। कल तक सिलोन अथवा श्रीलंका को रावण की राजधानी मानने के बाद आज मध्य प्रदेश के एकाध गाँव को रामायण की लंका के रूप में सिद्ध करने का संशोधन हुआ ही है। आखिर में उड़ीसा के किसी गाँव को ही रावण की राजधानी होने की बात भी पढ़ी है। कृष्ण की मूल द्वारका कौन-सी है। इस बारे में विवादों का कोई अंत नहीं आया है और कुरुक्षेत्र के मैदान में जहाँ कृष्ण ने अर्जुन को ‘गीता’ का उपदेश दिया, उस खास स्थान को ढूँढ़ निकालने के लिए हरियाणा सरकार ने जिस पुरस्कार की घोषणा की थी, उसे आज तक किसी ने प्राप्त नहीं किया है।
महाभारत जैसा कुछ घटित ही नहीं हुआ और यह एक तुच्छ कलह की कोरी कवि कल्पना है, यह माननेवाले पश्चिम के विद्वान ‘वेखर’ और ‘लोसन’ मुख्य हैं। महाभारत को वे महाकाव्य के रूप में अवश्य स्वीकार करते हैं; किंतु उसकी ऐतिहासिकता को अस्वीकार करते हैं। महाभारत और रामायण को पश्चिम की प्रजा के सामने प्रस्तुत करने के लिए होमर के ‘इलियड’ और ‘ओडीसी’ का उदाहरण पेश किया जाता है। यह कोई गलत नहीं है। किंतु यह गिरनार के सामने अँगुली दिखाकर हिमालय के बारे में ज्ञान कराने जैसा दुष्कर कार्य है। होमर का अथवा उसकी रचना का महत्त्व कम करने की यह चेष्टा नहीं है; किंतु हिमालय की दिव्यता और उसके सौंदर्य की झाँकी कराने का प्रयास है। गिरनार की अपनी गूढ़ता है तो हिमालय की अपनी भव्यता है। विश्व साहित्य में रामायण और महाभारत का जो स्थान है, उनकी तुलना किसी अन्य ग्रंथ से नहीं हो सकती। रामायण और महाभारत के बारे में इतनी प्रस्तावित चर्चा के बाद अब हम अपनी अभिप्रेत मूल बात पर आते हैं। यहाँ मैंने जो लिखने की बात सोची है, वह सब श्रीकृष्ण के संबंध में ही है। स्वाभाविक रूप में इसके कारण महाभारत केंद्र स्थान में रहेगी; हालाँकि वेदव्यास ने महाभारत कोई कृष्ण की कथा कहने के लिए नहीं लिखी है।

कृष्ण तो इस महाग्रंथ के एक पात्र मात्र हैं और द्रौपदी स्वयंवर के पहले वह कहीं दिखाई भी नहीं देते। कृष्ण के बारे में आज तक सैकड़ों लेखकों ने सैकड़ों ग्रंथ लिखे हैं: किन्तु कोई नहीं कह सकता कि उनके बारे में सबकुछ लिखा जा चुका है। अभी सैकड़ों वर्षों तक लिखते रहें तो भी यह पूरा होने वाला नहीं है। थोड़े वर्षों पहले हिमालय यात्रा में बारह हजार फीट की ऊँचाई पर एक साधु ने हिमालय की पहचान कराते हुए एक सुंदर बात कही थी-‘हिमालय मानव के गर्व का खंडन करता है। पाँच हजार फीट की ऊँचाई पर बड़ी मुश्किल से पहुँचते हैं और वहीं उससे भी ऊँचा शिखर आपकी प्रतीक्षा में खड़ा नजर आता है। इस शिखर पर भी आप चढ़ जाएँ और आपको प्रतीत हो कि आपने दस हजार फीट ऊंचे शिखर पर विजय प्राप्त कर ली है, तब आपको एक अन्य दस हजार फीट ऊँचा शिखर यह प्रतीति कराता है कि आप अभी तलहटी में ही खड़े हैं।’ जो बात साधु ने हिमालय के बारे में कही थी, वही महाभारत पर अक्षरश: लागू होती है, कृष्ण के विषय में तो विशेष रूप से।

आभार है नानाभाई भट्ट का, जिन्होंने लगभग चार दशाब्दी पहले पहली बार कृष्ण का परिचय कराया था। चार दशाब्दी पूर्व का यह परिचय तीन वर्ष पहले लिखी एक नकल कथा की पूर्व तैयारी के समय इतना प्रगाढ़ हो गया कि उसके बाद मैंने कृष्ण के बारे में, जो भी साहित्य उपलब्ध था उसे, पढ़ना शुरू कर दिया। जैसे-जैसे देखता गया, विचार करता गया, उन सबको प्रकट विचारण के रूप में यहाँ लिपिबद्ध किया है। इसे कोई संशोधन न कहें, मौलिक अर्थ-गहन अथवा विद्वता जैसे भारी-भरकम शब्दों से भी न पहचानें-यह तो एक दर्शन है, मात्र कृष्ण दर्शन। मैंने यह दर्शन किया है, इसमें सहभागी होने का सहृदयों को एक निमंत्रण है।

ऋग्वेद संहिता में कृष्ण के नाम का उल्लेख जरूर मिलता है; किंतु यह नाम तो उसमें एक असुर राजा का है। बौद्ध और जैन धर्मग्रंथ तो कृष्ण को बिलकुल अलग रीति से पहचानते हैं। जिस कृष्ण का हमें यहाँ दर्शन करना है, वह कृष्ण तो मुख्य रूप से महाभारत के हैं। हरिवंशपुराण के हैं, श्रीमद्भागवत के हैं और विष्णुपुराण एवं ब्रह्मवैवर्तपुराण के मुख्य रूप से, तथा पद्मपुराण अथवा वायुपुराण जैसे किसी पुराण के अंश रूप हैं। यह नहीं कहा जा सकता कि यह दर्शन भी संपूर्ण है। लेखक की दृष्टि आंशिक हो सकती है कहीं रुचि-भेद से प्रेरित दृष्टि भी हो सकती है और कहीं इस दृष्टि की साहसिक मर्यादा भी हो सकती है।
‘श्रीकृष्ण-डार्लिंग ऑफ ह्युमेनिटी’ नामक एक ग्रंथ में उसके लेखक ए.एस.पी.अय्यर ने एक सरस कथा लिखी है। एक अति बुद्धिशाली व्यक्ति को कृष्ण के अस्तित्व के बारे में शंका थी। उन्होंने एक संत के सामने अपनी शंका प्रस्तुत की-
‘मुझे प्रतीत होता है कि कृष्ण कोरी कल्पना का पात्र है। वास्तव में ऐसा कोई पुरुष हुआ ही नहीं।’ उन्होंने कहा।
‘यह बात है ? क्या आपका वास्तव में अस्तित्व है ?’ संत ने जवाबी प्रश्न किया।
‘अवश्य।’ उस विद्वान ने विश्वासपूर्वक कहा।
‘आपको कितने मनुष्य पहचानते हैं ?’
‘कम-से-कम पाँच हजार तो अवश्य। मैं प्रोफेसर हूँ, विद्वान हूँ, लेखक हूँ, आदि।’
‘अच्छा-अच्छा ! अब यह कहिए कि कृष्ण को कितने मनुष्य पहचानते हैं ?’
‘करोड़ों, कदाचित् अरबों भी हो सकते हैं।’ विद्वान ने सिर खुजलाया।
‘और यह कितने वर्षों से ?’

‘कम-से-कम इस काम को तीन हजार वर्ष तो हुए ही हैं।’
‘अब मुझे यह कहिए कि चालीस वर्ष की आपकी आयु में जो पाँच हजार मनुष्य आपको पहचानते हैं, उनमें से कितने आपको पूजते हैं ?’
‘पूजा ? पूजा किसकी ? मुझे तो कोई पूजता नहीं ?’
‘और कृष्ण को तीन हजार वर्षों बाद भी करोड़ों मनुष्य अभी भी पूजते हैं। अब आप ही निर्णय करें कि वास्तव में आपका अस्तित्व है अथवा कृष्ण का।’
जिनके स्मरण मात्र से अस्तित्व का अहंकार भी मिट जाता है, ऐसे कृष्ण के दर्शन की बात आगे करेंगे।

राज्यविहीन यादव

कृष्ण जन्म के समय के तत्कालीन आर्यावर्त्त पर एक विहंगम दृष्टि डालें। सप्त सिंधु से लगाकर गंगा-यमुना के विशाल, फलद्रुम मैदानों में आर्य फैल चुके थे। यह सही है कि रामायण काल महाभारत के काल के पहले का है; किंतु रामायणकालीन आर्य विंध्य को पार करके दक्षिण में गए थे, ऐसी व्यापक मान्यता है। इसके विपरीत, महाभारत काल रामायण काल के पीछे का काल होने पर भी इस समय के पात्र कहीं भी दक्षिण में गए हों, इसका विश्वसनीय उल्लेख नहीं मिलता। सिंधु नदी के पश्चिम में फैला हुआ सिंध का आर्यावर्त्त के तत्कालीन इतिहास में थोड़ा भी उल्लेखनीय भाग नहीं है। रामायण में दक्षिण का जो उल्लेख है, वह विश्वसनीय नहीं और लंका आज का सिलोन नहीं, प्रत्युत मध्य प्रदेश का एक गाँव है। इस मान्यता के मूल में, यह बात है कि रामायण के पीछे कितने ही लंबे समय बाद हुए महाभारत के पात्र दक्षिण से अपरिचित हैं। इसमें निहित तर्क को स्वीकार किए बिना चल नहीं सकता। पांडवों के वनवास की अवधि में अर्जुन तीर्थाटन करते हुए, कृष्ण अपनी अपूर्व भूमिका में कभी भी दक्षिण के किसी स्थान में गए नहीं, अत: आर्यावर्त्त था विंध्य के उत्तर का भूखंड, पश्चिम में द्वारका, पूर्व में प्राग्ज्योतिषपुर अर्थात् आज का असम और उत्तर में सिंधु नदी के आसपास का क्षेत्र-इसमें हिमालय का समावेश अवश्य हो जाता है। गांधार अर्थात् आज का अफगानिस्तान विदेश है और सिंध का राज्य आर्यावर्त्त तथा गांधार के बीच आज की भाषा में एक ‘बफर स्टेट’ होगी, ऐसी संभावना है।

इस आर्यावर्त्त में फैल चुके आर्य दल अपने-अपने भूखंडों की सीमाएँ निर्धारित कर चुके थे और अपनी सामर्थ्य एवं शक्ति से इन भूखंडों के राजा सिंहासनारूढ़ हो चुके थे। गणतंत्रों और आर्य दलों के बड़ों की सलाह से चलने वाले शासन तेजी से गत काल की घटना बन चुके थे। हस्तिनापुर, मगध, चेदि, प्राग्ज्योतिषपुर, कलिंग आदि अनेक राज्य अस्तित्व में आ चुके थे। उस समय अनेक राज्य अवश्य थे; किंतु इनमें कोई साम्राज्यवादी कल्पना अभी दृढ़ नहीं हुई थी। समर्थ राजा पड़ोसी राज्य को परास्त करने में गौरव अवश्य अनुभव करते; किंतु यह तो मात्र आधिपत्य को स्वीकार कराने के अहं को संतोष देने तक ही सीमित था। किसी राज्य को खालसा करके उस भूमि को पचा लेने का कार्य पराक्रम नहीं प्रत्युत्त निंद्य गिना जाता था। यह अधर्म था, अक्षम्य था, तिरस्कृत था। साम्राज्यवादी मानस का उदय मानव सहज था; कारण स्वयं जिसे सामर्थ्य से प्राप्त किया हो, उसका उपभोग न करके तत्कालीन नीति की मर्यादाओं के अंतर्गत उसका त्याग कर देना समर्थ मनुष्य को पसंद आनेवाली बात न थी और इसीलिए कहा जा सकता है कि ये साम्राज्यवादी परिबल अपने उदय काल में थे। मगध का जरासंध इसका विशेष उदाहरण था।



इस संदर्भ में कुरुक्षेत्र के महायुद्ध के अंत में महर्षि वेदव्यास विजेता राजा युधिष्ठिर को कहते हैं-‘हे युधिष्ठिर ! जो-जो राजा इस युद्ध में मारे गए हैं, उनकी रानियों को सांत्वना देने के लिए दूत भेजो, उनके पुत्रों का राज्याभिषेक करो। यदि पुत्र न हो और रानी सगर्भा हो तो राज्य के संचालन का काम सँभालने के लिए योग्य मनुष्यों को नियुक्त करो। (महाभारत, शांतिपर्व, 34/31-33)

इस तरह एक ओर स्थिर हो चुके राज्यों की विभावना, दूसरी ओर उदयमान हो रही साम्राज्यवादी विभावना और उनके बीच आर्यों के आगमन के साथ गणतंत्र की जो उज्जवल विभावना थी, उसको चरितार्थ करनेवाले अथवा चरितार्थ करने का संघर्ष करनेवाले यादव थे और इन यादवों का राज्य मथुरा था। यादव मथुरा के साथ और इस मथुरा का इतिहास इक्ष्वाकुवंश के राजा रामचंद्र के लघु भ्राता शत्रुघ्न के साथ जुड़ा हुआ है। यह उल्लेख मिलता है कि शत्रुघ्न ने मथुरा को जीता था और इक्ष्वाकुवंशियों को यहाँ बसाया था।
यादवों का गणतंत्र गणतंत्रों के इस इतिहास का अंतिम अवशेष प्रतीत होता है। कारण, कृष्ण के बिदा होने के पश्चात् राजाओं की परंपरा ही चली है। यादव राज्यविहीन थे, इस विषय में शिशुपाल ने राजसूय यज्ञ के समय कृष्ण की पूजा का विरोध करते हुए कहा था-‘यादवों में कोई राजा नहीं है तो फिर कृष्ण को किस प्रकार कहा जा सकता है ? कृष्ण राजा नहीं हैं, अत: राजा के रूप में उसे अर्घ्य नहीं दिया जा सकता।’

यादव राज्यविहीन थे, इस विषय में एक कथा भी है। शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी एवं असुर कन्या राजकुमारी शर्मिष्ठा-इन दो स्त्रियों के साथ संसार का भोग करते हुए राजा ययाति को गुरु शुक्राचार्य के शाप से असमय में ही वृद्धत्व प्राप्त हुआ। ययाति की देह वृद्ध हुई, किंतु मन अभी वृद्ध नहीं हुआ था। कृपा करके शुक्राचार्य ने शाप का निवारण का मार्ग सूचित किया-‘यदि तेरा वृद्धत्व तेरा कोई पुत्र ले तो उसके बदले में उसका यौवन तुझे मिल जाएगा।’
‘कामातुराणां न भयं लज्जा’ इस न्याय से विषयों के उपभोग के लिए लज्जा का त्याग करके ययाति ने अपने पुत्र यदु से कहा-‘पुत्र, मेरे वृद्धत्व के बदले में तुम अपना यौवन मुझे दे दो।’ यदु ने पिता की यह अनोखी माँग स्वीकार नहीं की। इससे रोष से भरे पिता ने पुत्र को शाप दिया-‘अराज्या ते प्रजामूढ़ा।’ (तेरे वारिस राज्यविहीन रहेंगे।) इस यदु के पुत्र ही यादव हुए और इसलिए ये यादव राज्यविहीन थे।
किंतु गणतंत्र कोई पूर्ण राज्य-पद्धति तो नहीं है। गणतंत्र की भी अपनी मर्यादाएँ हैं। ये मर्यादाएँ ही स्वेच्छाचारी राजाशाही और उसमें से विकसित होने वाले साम्राज्यवाद की जननी हैं। यह स्मरण रखना चाहिए कि जर्मनी में, आधुनिक काल में, हिटलर का विकास गणतांत्रिक पद्धति से ही हुआ था। यह तथ्य भी स्मरण रखने योग्य है कि हजारों वर्ष पहले तत्कालीन इतिहास में मथुरा के गणतंत्र में से कंस का विकास हुआ था।

यादव वंश के विविध कुलों-वृष्णि, भोजक, अंधक आदि–में पूजनीय माने जानेवाले वयोवृद्ध उग्रसेन, वसुदेव एवं अक्रूर-सब निर्वीर्य होकर इस तरह स्तब्ध हो गए कि उग्रसेन के पुत्र कंस ने मथुरा के गणतंत्र का नाश कर डाला; स्वयं अपने पिता उग्रसेन को कारागार में डाल दिया और वसुदेव को जेल में पहुँचा दिया। अक्रूर समय का अनुसरण करके कंस के अनुकूल हो गए। आज भी गणतंत्र जब किसी पाली हुई गाय के समान हो जाते हैं तो गणतंत्र के अनेक मुखिया उस तानाशाह की गाड़ी में बैठकर लाभ उठाते हुए दिखाई दे जाते हैं। अक्रूर उनके पूर्वज ही कहे जा सकते है। किंतु कंस ने ऐसा किस प्रकार किया ?
पिता उग्रसेन और यादव परिवारों के प्रति उग्र प्रकोप किसलिए ? स्वयं गणतंत्र निर्वीर्य किस प्रकार हो गया ? लाख रुपये के इस प्रश्न का जो उत्तर मिलता है, उसका मूल्य वर्तमान संदर्भ में भी कम नहीं है।

साभार : भारतीय साहित्य संग्रह

उमेश यादव के रुप में भारत को मिली रफ्तार एक्सप्रेस


उमेश यादव का नाम क्रिकेट-जगत में अब अपना डंका बजाने लगा है. भारतीय टीम ने वेस्टइंडीज को कोलकाता टेस्ट मैच में शिकस्त दे दी और इसी मैच ने भारतीय टीम को दिया नया सितारा, उमेश यादव. उमेश ने 144 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से गेंद फेंकीं. उमेश यादव को विदर्भ एक्सप्रेस का नाम दिया जा रहा है.

कोलकाता टेस्ट में वेस्टइंडीज के खिलाफ टीम इंडिया को जीत दिलाने में उमेश यादव का अहम रोल है. अपने दूसरे ही टेस्ट में 24 साल के उमेश यादव ने अपनी रफ्तार से वेस्टइंडीज के बल्लेबाजों को बेहाल कर दिया.ईडन गार्डन्स की फिरकी की मददगार विकेट पर भी उमेश यादव ने अपनी रफ्तार और सटीक लाइन से सात बल्लबाजों को पवेलियन भेजा.उमेश यादव ने कोलकाता टेस्ट में 24.3 ओवर की गेंदबाजी की जिसमें उन्होंने 103 रन देकर सात विकेट लिए. पहली पारी में उमेश ने सिर्फ सात ओवर की गेंदबाजी में 23 रन देकर तीन विकेट लिए. जबकि दूसरी पारी में उमेश ने 17.3 ओवर की गेंदबाजी में 80 रन देकर चार बल्लेबाजों को पवेलियन भेजा.

इस मैच में उमेश ने टीम इंडिया को तब सफलता दिलाई जब उसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी. दोनों पारियों में उमेश ने भारत को पहली सफलता दिलाई. वहीं जब मैच के चौथे दिन ब्रावो और चंद्रपॉल की जोड़ी भारतीय जीत की राह में रोड़ा बन रही थी तब उमेश ने चंद्रपॉल को बोल्ड कर इस साझेदारी को तोड़ा.

इसके बाद एक बार फिर से जब वेस्टइंडीज के कप्तान डैरेन सैमी खतरनाक दिखने लगे तो उमेश ने सैमी को चलता कर दिया. सैमी को आउट करने के कुछ देर ही बाद ही देवेंद्र बिशू की गिल्लियां बिखेड़ कर उमेश ने कोलकाता में शानदार जीत दिला दी.

उमेश की ये कामयाबी इसलिए भी अहम है क्योंकि ये उनका सिर्फ दूसरा टेस्ट मैच है. इससे पहले कोटला में खेले गए अपने पहले टेस्ट मैच में उमेश ने दो विकेट लिए थे.

वेस्टइंडीज सीरीज के बाद भारतीय टीम को ऑस्ट्रेलिया दौरे पर जाना है और वहां पर उमेश की रफ्तार और स्विंग गेंदबाजी टीम इंडिया के लिए बेहद फायदेमंद हो सकती है.

बुधवार, 16 नवंबर 2011

'यदुकुल' की पताका फहराती अक्षिता (पाखी) : सबसे कम उम्र में 'राष्ट्रीय बाल पुरस्कार' का कीर्तिमान

(बाल दिवस, 14 नवम्बर पर विज्ञान भवन, नई दिल्ली में आयोजित एक भव्य कार्यक्रम में महिला और बाल विकास मंत्री माननीया कृष्णा तीरथ जी ने अक्षिता (पाखी) को राष्ट्रीय बाल पुरस्कार-2011 से पुरस्कृत किया. अक्षिता इस पुरस्कार को प्राप्त करने वाली सबसे कम उम्र की प्रतिभा है.यही नहीं यह प्रथम अवसर था, जब किसी प्रतिभा को सरकारी स्तर पर हिंदी ब्लागिंग के लिए पुरस्कृत-सम्मानित किया गया)


आज के आधुनिक दौर में बच्चों का सृजनात्मक दायरा बढ़ रहा है. वे न सिर्फ देश के भविष्य हैं, बल्कि हमारे देश के विकास और समृद्धि के संवाहक भी. जीवन के हर क्षेत्र में वे अपनी प्रतिभा का डंका बजा रहे हैं. बेटों के साथ-साथ बेटियाँ भी जीवन की हर ऊँचाइयों को छू रही हैं. ऐसे में वर्ष 1996 से हर वर्ष शिक्षा, संस्कृति, कला, खेल-कूद तथा संगीत आदि के क्षेत्रों में उत्कृष्ट उपलब्धि हासिल करने वाले बच्चों हेतु हेतु महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा 'राष्ट्रीय बाल पुरस्कार' आरम्भ किये गए हैं। चार वर्ष से पन्द्रह वर्ष की आयु-वर्ग के बच्चे इस पुरस्कार को प्राप्त करने के पात्र हैं.

वर्ष 2011 के लिए 'राष्ट्रीय बाल पुरस्कार' 14 नवम्बर 2011 को विज्ञानं भवन, नई दिल्ली में आयोजित एक भव्य कार्यक्रम में भारत सरकार की महिला एवं बाल विकास मंत्री श्रीमती कृष्णा तीरथ द्वारा प्रदान किये गए. विभिन्न राज्यों से चयनित कुल 27 बच्चों को ये पुरस्कार दिए गए, जिनमें मात्र 4 साल 8 माह की आयु में सबसे कम उम्र में पुरस्कार प्राप्त कर अक्षिता (पाखी) ने एक कीर्तिमान स्थापित किया. गौरतलब है कि इन 27 प्रतिभाओं में से 13 लडकियाँ चुनी गई हैं।
सम्प्रति अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में भारतीय डाक सेवा के निदेशक और चर्चित लेखक, साहित्यकार, व ब्लागर कृष्ण कुमार यादव एवं लेखिका व ब्लागर आकांक्षा यादव की सुपुत्री और पोर्टब्लेयर में कारमेल सीनियर सेकेंडरी स्कूल में के. जी.- प्रथम की छात्रा अक्षिता (पाखी) को यह पुरस्कार कला और ब्लागिंग के क्षेत्र में उसकी विलक्षण उपलब्धि के लिए दिया गया है. इस अवसर पर जारी बुक आफ रिकार्ड्स के अनुसार- ''25 मार्च, 2007 को जन्मी अक्षिता में रचनात्मकता कूट-कूट कर भरी हुई है। ड्राइंग, संगीत, यात्रा इत्यादि से सम्बंधित उनकी गतिविधियाँ उनके ब्लाॅग ’पाखी की दुनिया (http://pakhi-akshita.blogspot.com/) पर उपलब्ध हैं, जो 24 जून, 2009 को आरंभ हुआ था। इस पर उन्हें अकल्पनीय प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुईं। 175 से अधिक ब्लाॅगर इससे जुडे़ हैं। इनके ब्लाॅग 70 देशों के 27000 से अधिक लोगों द्वारा देखे गए हैं। अक्षिता ने नई दिल्ली में अप्रैल, 2011 में हुए अंतर्राष्ट्रीय ब्लाॅगर सम्मेलन में 2010 का ’हिंदी साहित्य निकेतन परिकल्पना का सर्वोत्कृष्ट पुरस्कार’ भी जीता है।इतनी कम उम्र में अक्षिता के एक कलाकार एवं एक ब्लाॅगर के रूप में असाधारण प्रदर्शन ने उन्हें उत्कृष्ट उपलब्धि हेतु 'राष्ट्रीय बाल पुरस्कार, 2011' दिलाया।''इसके तहत अक्षिता को भारत सरकार की महिला एवं बाल विकास मंत्री श्रीमती कृष्णा तीरथ द्वारा 10,000 रूपये नकद राशि, एक मेडल और प्रमाण-पत्र प्रदान किया गया.

यही नहीं यह प्रथम अवसर था, जब किसी प्रतिभा को सरकारी स्तर पर हिंदी ब्लागिंग के लिए पुरस्कृत-सम्मानित किया गया. अक्षिता का ब्लॉग 'पाखी की दुनिया' (www.pakhi-akshita.blogspot.com/) हिंदी के चर्चित ब्लॉग में से है और इस ब्लॉग का सञ्चालन उनके माता-पिता द्वारा किया जाता है, पर इस पर जिस रूप में अक्षिता द्वारा बनाये चित्र, पेंटिंग्स, फोटोग्राफ और अक्षिता की बातों को प्रस्तुत किया जाता है, वह इस ब्लॉग को रोचक बनता है.

नन्हीं ब्लागर अक्षिता (पाखी) को इस गौरवमयी उपलब्धि पर ढेरों प्यार और शुभाशीष व बधाइयाँ !!
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मंत्री जी भी अक्षिता (पाखी) के प्रति अपना प्यार और स्नेह न छुपा सकीं, कुछ चित्रमय झलकियाँ....














बुधवार, 9 नवंबर 2011

नन्हीं ब्लागर अक्षिता (पाखी) यादव 'राष्ट्रीय बाल पुरस्कार' हेतु चयनित


प्रतिभा उम्र की मोहताज नहीं होती. तभी तो पाँच वर्षीया नन्हीं ब्लागर अक्षिता (पाखी) को वर्ष 2011 हेतु राष्ट्रीय बाल पुरस्कार (National Child Award) के लिए चयनित किया गया है. सम्प्रति अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में भारतीय डाक सेवा के निदेशक और चर्चित लेखक, साहित्यकार, व ब्लागर कृष्ण कुमार यादव एवं लेखिका व ब्लागर आकांक्षा यादव की सुपुत्री अक्षिता को यह पुरस्कार 'कला और ब्लागिंग' (Excellence in the Field of Art and Blogging) के क्षेत्र में शानदार उपलब्धि के लिए बाल दिवस, 14 नवम्बर 2011 को विज्ञानं भवन, नई दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में भारत सरकार की महिला एवं बाल विकास मंत्री श्रीमती कृष्णा तीर्थ जी द्वारा प्रदान किया जायेगा. इसके तहत अक्षिता को 10,000 रूपये नकद राशि, एक मेडल और प्रमाण-पत्र दिया जायेगा.

यह प्रथम अवसर होगा, जब किसी प्रतिभा को सरकारी स्तर पर हिंदी ब्लागिंग के लिए पुरस्कृत-सम्मानित किया जायेगा. अक्षिता का ब्लॉग 'पाखी की दुनिया' (www.pakhi-akshita.blogspot.com/) हिंदी के चर्चित ब्लॉग में से है. फ़िलहाल अक्षिता पोर्टब्लेयर में कारमेल सीनियर सेकेंडरी स्कूल में के. जी.- प्रथम की छात्रा हैं और उनके इस ब्लॉग का सञ्चालन उनके माता-पिता द्वारा किया जाता है, पर इस पर जिस रूप में अक्षिता द्वारा बनाये चित्र, पेंटिंग्स, फोटोग्राफ और अक्षिता की बातों को प्रस्तुत किया जाता है, वह इस ब्लॉग को रोचक बनता है.

नन्हीं ब्लागर अक्षिता (पाखी) को इस गौरवमयी उपलब्धि पर अनेकोंनेक शुभकामनायें और बधाइयाँ !!