वस्तुतः डाॅ अम्बेडकर यह अच्छी तरह समझते थे कि जाति व्यवस्था ही भारत में सभी कुरीतियों की जड़ है एवं बिना इसके उन्मूलन के देश और समाज का सतत् विकास सम्भव नहीं। यही कारण था कि जहाँ दलितों के उद्धार का दम्भ भरने वाले तमाम लोगों का प्रथम एजेण्डा औपनिवेशिक साम्राज्यशाही के खिलाफ युद्ध रहा और उनकी मान्यता थी कि स्वतंत्रता पश्चात कानून बनाकर न केवल छुआछूत को खत्म किया जा सकता है अपितु दलितों को कानूनी तौर पर अधिकार देकर उन्हें आगे भी बढ़ाया जा सकता है पर डाॅ0 अम्बेडकर इन सवर्ण नेताओं की बातों पर विश्वास नहीं करते थे वरन् दलितों का सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था में तत्काल समुचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना चाहते थे। उनके प्रयासों के परिणामस्वरूप ही वर्ष 1919 के अधिनियम में पहली बार दलित जातियों के स्वतन्त्र अस्तित्व को स्वीकारते हुये गर्वनर जनरल द्वारा केन्द्रीय धारा सभा के नामित 14 नाॅन-आॅफिशियल सदस्यों में एक दलित के नाम का भी समावेश किया गया। इसी प्रकार सेन्ट्रल प्राॅविन्सेंज से प्रान्तीय सभाओं में भी चार दलितों को प्रतिनिधित्व दिया गया। इसे डाॅ0 अम्बेडकर की प्रथम जीत माना जा सकता है।
डाॅ0 अम्बेडकर का स्पष्ट मानना था कि व्यापक अर्थों में हिन्दुत्व की रक्षा तभी सम्भव है जब ब्राह्मणवाद का खात्मा कर दिया जाय, क्योंकि ब्राह्मणवाद की आड़ में ही लोकतांत्रिक मूल्यों-समता, स्वतंत्रता और बन्धुत्व का गला घोंटा जा रहा है। अपने एक लेख ‘हिन्दू एण्ड वाण्ट आॅफ पब्लिक कांसस’ में डाॅ0 अम्बेडकर लिखते हैं कि- ‘‘दूसरे देशों में जाति की व्यवस्था सामाजिक और आर्थिक कसौटियों पर टिकी हुई है। गुलामी और दमन को धार्मिक आधार नहीं प्रदान किया गया है, किन्तु हिन्दू धर्म में छुआछूत के रूप में उत्पन्न गुलामी को धार्मिक स्वीकृति प्राप्त है। ऐसे में गुलामी खत्म भी हो जाये तो छुआछूत नहीं खत्म होगा। यह तभी खत्म होगा जब समग्र हिन्दू सामाजिक व्यवस्था विशेषकर जाति व्यवस्था को भस्म कर दिया जाये। प्रत्येक संस्था को कोई-न-कोई धार्मिक स्वीकृति मिली हुई है और इस प्रकार वह एक पवित्र व्यवस्था बन जाती है। यह स्थापित व्यवस्था मात्र इसलिए चल रही है क्योंकि उसे सवर्ण अधिकारियों का वरदहस्त प्राप्त है। उनका सिद्धान्त सभी को समान न्याय का वितरण नहीं है अपितु स्थापित मान्यता के अनुसार न्याय वितरण है।’’ यही कारण था कि 1935 में नासिक में आयोजित एक सम्मलेन में डाॅ0 अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म को त्याग देने की घोषणा कर दी। अपने सम्बोधन में उन्होंने कहा कि- ‘‘सभी धर्मो का निकट से अध्ययन करने के पश्चात हिन्दू धर्म में उनकी आस्था समाप्त हो गई। वह धर्म, जो अपने में आस्था रखने वाले दो व्यक्तियों में भेदभाव करे तथा अपने करोडा़ें समर्थकों को कुत्ते और अपराधी से बद्तर समझे, अपने ही अनुयायियों को घृणित जीवन व्यतीत करने के लिए मजबूर करे, वह धर्म नहीं है। धर्म तो आध्यात्मिक शक्ति है जो व्यक्ति और काल से ऊपर उठकर निरन्तर भाव से सभी पर, सभी नस्लों और देशों में शाश्वत रूप से एक जैसा रमा रहे। धर्म नियमों पर नहीं, वरन् सिद्धान्तों पर आधारित होना चाहिये।’’ यहाँ स्पष्ट करना जरूरी है कि डाॅ0 अम्बेडकर ने आखिर बौद्ध धर्म ही क्यों चुना? वस्तुतः यह एक विवादित तथ्य भी रहा है कि क्या जीवन के लिए धर्म जरूरी है? डाॅ0 अम्बेडकर ने धर्म को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा था। उनका मानना था कि धर्म का तात्त्विक आधार जो भी हो, नैतिक सिद्धान्त और सामाजिक व्यवहार ही उसकी सही नींव होते हैं। यद्यपि बौद्ध धर्म अपनाने से पूर्व उन्होंने इस्लाम और ईसाई धर्म में भी सम्भावनाओं को टटोला पर अन्ततः उन्होंने बौद्ध धर्म को ही अपनाया क्योंकि यह एक ऐसा धर्म है जो मानव को मानव के रूप में देखता है किसी जाति के खाँचे में नहीं। एक ऐसा धर्म जो धम्म अर्थात नैतिक आधारों पर अवलम्बित है न कि किन्हीं पौराणिक मान्यताओं और अन्धविश्वास पर। डाॅ0 अम्बेडकर बौद्ध धर्म के ‘आत्मदीपोभव’ से काफी प्रभावित थे और दलितों व अछूतों की प्रगति के लिये इसे जरूरी समझते थे। डाॅ0 अम्बेडकर इस तथ्य को भलीभांति जानते थे कि सवर्णों के वर्चस्व वाली इस व्यवस्था में कोई भी बात आसानी से नहीं स्वीकारी जाती वरन् उसके लिए काफी दबाव बनाना पड़ता है। स्वयं भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं0 जवाहरलाल नेहरू ने डाॅ0 अम्बेडकर के निधन पश्चात उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा था कि -‘‘डाॅ0 अम्बेडकर हमारे संविधान निर्माताओं में से एक थे। इस बात में कोई संदेह नहीं कि संविधान को बनाने में उन्होंने जितना कष्ट उठाया और ध्यान दिया उतना किसी अन्य ने नहीं दिया। वे हिन्दू समाज के सभी दमनात्मक संकेतों के विरूद्ध विद्रोह के प्रतीक थे। बहुत मामलों में उनके जबरदस्त दबाव बनाने तथा मजबूत विरोध खड़ा करने से हम मजबूरन उन चीजों के प्रति जागरूक और सावधान हो जाते थे तथा सदियों से दमित वर्ग की उन्नति के लिये तैयार हो जाते थे।’’
यहाँ पर उपरोक्त सभी बातों को दर्शाने का तात्पर्य मात्र इतना है कि डाॅ0 अम्बेडकर समाज की रूढ़िवादी विचारधारा एवं ब्राह्मणवाद को कभी भी स्वीकार नहीं कर पाये और उनके विचार पुंज भी कहीं ब्राह्मणवादी व्यवस्था का समर्थन करते नजर नहीं आते। यही कारण था कि डाॅ0 अम्बेडकर के निधन पश्चात ब्राह्मणवादी व्यवस्था के पक्षधर नेताओं, विचारकों, साहित्यकारों और इतिहासकारों ने जानबूझकर उन्हें इस कदर भुला दिया कि जैसे वे कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति नहीं थे। इसके विपरीत द्विजवादी नेतृत्व को बढ़ा-चढ़ाकर उभारा गया, जैसे वे ईश्वर के अवतार हों। यह द्विजवादियों की मानसिक बेईमानी ही कही जायेगी। कुछ लोगों ने तो डाॅ0 अम्बेडकर के साहित्य को न्यायालय में घसीटकर उसे प्रतिबंधित कराने का प्रयास भी किया। इन सब के पीछे मानसिकता यही रही कि डाॅ0 अम्बेडकर को भुला दिया जाय। द्विजवादियों की यह पुरानी मानसिकता है कि गाँधीवाद को जरूरत से ज्यादा फैलाव मिले जबकि अम्बेडकरवाद को जरूरत से ज्यादा कतर दिया जाए। मण्डल को दबाने के लिये कमण्डल (मंदिर) मुद्दा जरूरत से ज्यादा उछाल दो, जिससे कि ब्राह्मणवादियों का निहित स्वार्थ सुरक्षित रहे। यही नहीं स्वतन्त्रता पश्चात तमाम लोगों ने डाॅ0 अम्बेडकर पर किताबें लिखकर, लेख लिखकर और विभिन्न विचार गोष्ठियों द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि डाॅ0 अम्बेडकर एक सामान्य व्यक्ति थे और अंग्रेजों ने उनको बरगलाकर गाँधी जी के विरूद्ध खड़ा करने का प्रयास किया था। यही नहीं संविधान निर्माण में भी उनकी भूमिका को महत्वहीन घोषित करने का प्रयास किया जाता रहा पर 1990 के दशक की राजनीति ने बहुत कुछ बदल दिया। राजनैतिक क्षितिज पर अपने विचारों के साथ तेजी से उभरती बहुजन समाज पार्टी और भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में मायावती की मुख्यमंत्री रूप में ताजपोशी ने मानो दलितों में चेतना की ज्वाला पैदा कर दी हो। कल तक बूथों पर दलितों के नाम पर लाठियों की बदौलत फर्जी वोट डालने वाले रंगबाजों का जलवा अचानक दरकता नजर आया। बैलगाड़ियों और ट्रैक्टरों पर नीली झण्डियों के बीच दलित पुरूष और महिलायें बूथों तथा बसपा की रैलियों में ऐसे नजर आते मानो किसी त्यौहार में भाग लेने जा रहे हों। यह एक दिन उत्तर प्रदेश जैसे सामन्तवादी राज्य में ऐसा होता है जिस दिन कोई दलित किसी की मजदूरी नहीं करता, किसी के खेत पर नहीं जाता। प्रतीकात्मक रूप में इस चीज का बहुत महत्व है और इसे समाज के तथाकथित ब्राह्मणवादियों ने भी गहराई से महसूस किया। ऐसा नहीं है कि इसकी काट के लिए प्रयास नहीं किये गए। अयोध्या में राम मन्दिर की आड़ में लोगों की भावनाएँ भड़काकर भाजपा द्वारा यह दर्शाया गया कि या तो आप हिन्दू हो सकते हैं या मुसलमान पर वे यह भूल जाते हैं कि यह उसी राम की बात हो रही है, जिनके राम-राज्य के बारे में तुलसीदास ने लिखा है कि- ढोल, गँवार, शूद्र, पशु, नारी। ये सब ताड़न के अधिकारी।।
निश्चिततः दलित वर्गों में पनपी इस जन चेतना से वक्त का पहिया तेजी से बदला और कल तक जो ब्राह्मणवादी शक्तियाँ अपनी निरपेक्षता का दावा करती थीं, अचानक वे समाज के सापेक्ष विकास क्रम को समझने लगीं। विभिन्न राज्यों में दलित चेतना के उभार ने इन्हें मजबूर कर दिया कि वे इनके वोट बैंक को अपनी तरफ खींचने के लिए इनकी प्रेरणा के केन्द्र बिन्दु पर नजर डालंे जो कि डाॅ0 अम्बेडकर और उनके विचारों के रूप में हैं। अचानक कल तक ब्राह्मणवाद का दंभ भरने वाली भाजपा डाॅ0 अम्बेडकर से अपनी नजदीकियाँ साबित करने लगी। लोगों को यह समझाया जाने लगा कि दीनदयाल उपाध्याय के ‘एकात्म मानवतावाद’ का तात्पर्य ही यही था कि दलित भी समाज के अभिन्न अंग हैं और उनके बिना समाज का विकास सम्भव नहीं। संघ परिवार के थिंक टैंक माने जाने वाले साहित्यकार ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ का पारम्परिक और घिसा-पिटा राग छोड़कर डाॅ0 अम्बेडकर का गुणगान करने लगे। इसी क्रम में आर0एस0एस0 विचारक दत्तोपन्त ठेंगड़ी द्वारा लिखित ‘डाॅ0 अम्बेडकर और सामाजिक क्रांति की यात्रा‘ अक्टूबर 2005 में प्रकशित हुयी। आर0एस0एस0 खेमे के ही लेखक हृदय नारायण दीक्षित ने ‘डाॅ0 अम्बेडकर का मतलब’ नामक पुस्तक लिखी, जो कि किसी साहित्य की बजाय राजनीतिक तरकश का तीर ज्यादा प्रतीत होती है। हालात तो यहाँ तक हैं कि आर0 एस0 एस0 और भाजपा के सम्मेलनांे व मंचों पर भगवान राम के बगल में डाॅ0 अम्बेडकर का चित्र नजर आने लगा। यहाँ पर इस तथ्य को नहीं भुलाया जा सकता कि किस प्रकार बौद्ध धर्म से खतरा महसूस होने पर ब्राह्मणवादी शक्तियों ने बुद्ध को भगवान विष्णु का 24वाँ अवतार घोषित कर दिया और पशु बलि पर रोक लगाकर गाय को पवित्र जीव घोषित कर दिया। अब शायद यही काम ये डाॅ0 अम्बेडकर के साथ भी करना चाहते हैं। जब उनके लाख षडयंत्रों के बावजूद दलितों ने डाॅ0 अम्बेडकर को पूजनीय मानना नहीं छोड़ा तो वे भी डाॅ0 अम्बेडकर को हाईजैक करके अपने मंच पर लेते आए। हद तो तब हो गई जब डाॅ0 अम्बेडकर को पूर्णतया हाईजैक करने की कोशिशों के तहत भाजपा मुख्यालय पर 115वीं अम्बेडकर जयन्ती के मौके पर आयोजित एक कार्यक्रम में लोकसभा में भाजपा के उपनेता श्री वी0 के0 मलहोत्रा ने दावा किया कि- ‘‘श्यामा प्रसाद मुखर्जी के निधन पश्चात राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के वरिष्ठ नेताओं की जनसंघ के नेतृत्व के लिये बाबा साहेब अम्बेडकर पसन्द थे और इस सम्बन्ध में एक प्रस्ताव भी रखा गया था।’’ पर वे यह नहीं बता पाए कि इस प्रस्ताव का आखिर हुआ क्या? यही नहीं डाॅ0 अम्बेडकर को हिन्दूवादी घोषित करने के लिए उन्होंने यह भी जोर देकर कहा कि- ‘‘डाॅ0 अम्बेडकर ने कभी भी इस्लाम और ईसाई धर्म अपनाने के बारे में नहीं सोचा। यहाँ तक कि हैदराबाद के निजाम ने तो इस्लाम धर्म अपनाने के लिए उन्हें ब्लैंक चेक तक भेजा था, जिसे उन्होंने वापस कर दिया।’’ इससे भी आगे बढ़ते हुए वर्ष 2006 में विजयदशमी के मौके पर दिए अपने बयान में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख के0एस0सुदर्शन ने बताया कि डाॅ0 भीमराव अम्बेडकर ने 30 जनवरी 1948 को महात्मा गाँधी की हत्या के बाद आर0एस0एस0 पर लगे प्रतिबन्ध को हटाने की कोशिश की थी। दलितों और नवबौद्धों के बीच अब अपनी पैठ बढ़ाने को उत्सुक के0 एस0 सुदर्शन ने जोर देकर कहा कि 14 अक्टूबर 1956 को डाॅ0 अम्बेडकर ने नागपुर में विजयदशमी के दिन धर्म परिवर्तन किया था और इसी दिन 1925 में आर0एस0एस0 की भी स्थापना हुयी थी। आर0एस0एस0, नागपुर और डाॅ0 अम्बेडकर का सम्बन्ध जोड़ते हुए उन्होंने यह भी बताया कि दशहरे के दिन नागपुर में हर वर्ष दो कार्यक्रम अवश्य मनाए जाते हैं- पहला, आर0एस0एस0 की विजयदशमी रैली और दूसरा, अम्बेडकर समर्थकों की धर्मचक्र परिवर्तन रैली। के0एस0 सुदर्शन ने दिवंगत आर0एस0एस0 नेता एम0एस0गोलवल्कर के उस बयान का भी जिक्र किया जिसमें उन्होंने डाॅ0 अम्बेडकर द्वारा धर्म परिवर्तन के लिए बौद्ध धर्म का चयन करने की तारीफ की थी। ज्ञातव्य हो कि आर0एस0एस0 मानता है कि बौद्ध धर्म उपनिषद पर आधारित दर्शनशास्त्र को मानता है और इसलिए यह पूरी तरह भारतीय धर्म है। यह एक अलग बहस का विषय हो सकता है कि महात्मा बुद्ध और महावीर जैन ने हिन्दू धर्म की जिन कुरीतियों के विरुद्ध नए धर्मों का आगाज किया, वे कहाँ तक हिन्दू धर्म की शाखा हो सकते हैं? के0एस0 सुदर्शन ने उन हिन्दू पुजारियों की टिप्पणियों का भी जिक्र किया जिसमें कहा गया था कि भारतीय संविधान के निर्माता ने हमारे पूर्वजों की गलतियों से दुखी होकर हिन्दू धर्म छोड़ा था। निश्चिततः अपनी भूल स्वीकारने की यह एक मोहक अदा है, पर क्या पूर्वजों की गलतियों को स्वतन्त्रता पश्चात् एक लम्बे समय तक सुधारने का कोई प्रयास इन हिन्दू पुजारियों द्वारा किया गया? इस पर आर0एस0एस0 प्रमुख ने प्रकाश डालना उचित नहीं समझा। यही नहीं, हाल ही में जैन और बौद्ध धर्मों को हिन्दू धर्म का हिस्सा मानकर हिन्दुत्व की प्रयोगशाला बनी गुजरात की भाजपा सरकार द्वारा धर्मान्तरण विरोधी कानून को लेकर उठे बवाल के बाद गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विरोध को समाप्त करने के लिए पुनः डाॅ0 अम्बेडकर को आगे खड़ा कर कि उन्होंने बौद्ध, जैन, सिक्ख और सनातनी हिन्दुओं को एक ही भारतीय परम्परा का अंग बताया था। पर नरेन्द्र मोदी जी यह नहीं बता पाये कि तब आखिर डाॅ0 अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म छोड़कर उसे कोसते हुए बौद्ध धर्म क्यों ग्रहण किया? 2 मार्च 1930 को नासिक के कालाराम मन्दिर के प्रमुख पुरोहित की हैसियत से डाॅ0 अम्बेडकर को दलित होने के कारण मन्दिर में प्रवेश करने से रोकने वाले रामदासबुवा पुजारी के पौत्र और विश्व हिन्दू परिषद के मार्गदर्शक मंडल के महंत सुधीरदास पुजारी ने यह कहकर बसपा में शामिल होने की इच्छा जाहिर की कि वे इससे अपने दादा की भूल का प्रायश्चित कर सकेंगे। आर0 एस0 एस0 पृष्ठभूमि के तमाम बुद्धिजीवी अपने लेखों और किताबों में डाॅ0 अम्बेडकर को अपने समर्थन में उद्धृत करते नजर आते हैं। आरक्षण के मसले पर अक्सर ही डाॅ0 अम्बेडकर को इस रूप में उद्धृत किया जाता है मानो वे आरक्षण विरोधी हों। निश्चिततः डाॅ0 अम्बेडकर के विचारों को बिना उनकी पृष्ठभूमि बताये सपाट लहजे में अपने पक्ष में उद्धृत करने को उचित नहीं ठहराया जा सकता। यह एक सच्चाई है कि डाॅ0 अम्बेडकर आजीवन ब्राह्मणवादी व्यवस्था के विरूद्ध संघर्ष करते रहे एवं अपनों को इसके प्रति सचेत भी करते रहे। ऐसे में ब्राह्मणवादी व्यवस्था के पोषकों द्वारा डाॅ0 अम्बेडकर को हाईजैक करके अपने मंचों पर स्थान देना व अपने समर्थन में उद्धृत करना दर्शाता है कि डाॅ0 अम्बेडकर वाकई एक सामाजिक क्रान्ति के अग्रदूत रहे हैं और उनके बिना सामाजिक और राष्ट्रीय चिन्तन की कल्पना नहीं की जा सकती। देर से ही सही, अन्ततः वर्णवादी व्यवस्था के पोषकों को भी डाॅ0 अम्बेडकर की वर्तमान परिवेश में प्रासंगिकता को स्वीकार करना पड़ा, भले ही इसके लिए उन्हें अपने वर्णवादी मूल्यों से समझौता कर डाॅ0 अम्बेडकर को हाई जैक करने की कोशिशें करनी पड़ी हों या उनके बयानों को बिना उसकी पृष्ठभूमि बताये अपने पक्ष में रखना हो।
राम शिव मूर्ति यादव
11 टिप्पणियां:
Nice article on Dr. Ambedkar.
डाॅ0 अम्बेडकर वाकई एक सामाजिक क्रान्ति के अग्रदूत रहे हैं और उनके बिना सामाजिक और राष्ट्रीय चिन्तन की कल्पना नहीं की जा सकती..आपने बाबा साहेब के कार्यों -विचारों की बड़ी सम्यक प्रस्तुति की है.
आपने बड़ा सही लिखा है कि ....डाॅ0 अम्बेडकर के विचारों को बिना उनकी पृष्ठभूमि बताये सपाट लहजे में अपने पक्ष में उद्धृत करने को उचित नहीं ठहराया जा सकता।....दुर्भाग्य से देश के राजनेता यही कर रहे हैं.
बाबा साहब के नाम पर विवाद और संवाद के बहाने महत्तवपूर्ण आलेख.
समकालीन परिवेश में अम्बेडकर जी पर गंभीर विश्लेश्नान्त्मक लेख. यह लेख कई सवाल उठता है, जिसके मायने दूर तक जाते हैं.
Dr. Ambedkar par bahut kuchh padha hai, par vartman men jis tarah pol. parties unke nam ko bhuna rahi hain, un par apne kadai ke sath chot ki hai.
बाबा साहेब वाकई एक महान व्यक्ति थे. उनके बारे में जितना भी लिखा जाय कम ही होगा.
Celebrate Chocolate-Pizza day today and enjoy urself with a lot of fun with tadka of ur creativity.
आप सभी की प्रतिक्रियाओं के लिए आभार !!
........Great thought.
Adbhut....Happy X-mas.
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