बुधवार, 17 दिसंबर 2008

१८५७-१९४७ के स्वातंत्र्य समर को सहेजती "क्रांति-यज्ञ"

कृष्ण कुमार यादव एवं युवा लेखिका आकांक्षा यादव द्वारा सुसम्पादित पुस्तक ''क्रांति-यज्ञ'' भी यदुकुल हेतु प्राप्त हुयी है. मानस संगम, कानपुर द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक में 124 पृष्ठों में कुल 41 सारगर्भित लेख समाहित हैं. इनमें भारतीय स्वाधीनता संग्राम की अमर बलिदानी गौरव गाथाओं एवं इनके विभिन्न पहलुओं को विविध जीवन क्षेत्रों से संकलित करके राष्ट्रीय अस्मिता के भावपूर्ण परिवेश में अंकित करने का सार्थक प्रयास किया गयाा है, जो अपने राष्ट्रीय जीवन के आदर्शमय संदेशों से परिपूर्ण है।
‘क्रान्ति-यज्ञ‘ में जिन लेखों को संकलित किया गया है, उन्हें दो भागों में बाँटा जा सकता है। प्रथम भाग 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम की पृष्ठभूमि, क्रान्ति की तीव्रता और क्रान्ति के नायकों पर केन्द्रित है, तो दूसरे भाग में 1857 की क्रान्ति के परवर्ती आन्दोलनों और नायकों का चित्रण है। प्रथम स्वाधीनता संग्राम पर स्वयं सम्पादक कृष्ण कुमार यादव का लिखा हुआ लेख ‘1857 की क्रान्ति: पृष्ठभूमि और विस्तार‘ सर्वाधिक उल्लेखनीय है। कृष्ण कुमार ने बड़े नायाब तरीके से घटनाओं का तर्कसंगत विश्लेषण करते हुए इस क्रान्ति को मात्र ‘सिपाहियों का विद्रोह‘ अथवा ‘सामन्ती विरोध‘ के अंग्रेज इतिहासकारों के झूठे प्रचार का खण्डन किया है। क्रान्तियज्ञ में स्वतंत्रता संग्राम के हर पहलू को समेटने की कोशिश की गयी है। जवाहर लाल नेहरू व रामविलास शर्मा के लेख 1857 की क्रान्ति के बहाने तत्कालीन राष्ट्रीय विचारधाराओं व उनके प्रभावों के सांस्कृतिक-सामाजिक पक्ष की गहन पड़ताल करते है। रामशिवमूर्ति यादव ने मंगल पाण्डे की शहादत का वर्णन किया है तो बहादुरशाहजफर, नाना साहब, तात्या टोपे, अजीमुल्ला खां, मौलवी अहमदुल्ला शाह जैसे क्रान्तिकारी नायकों की भूमिका को भी इस पुस्तक में प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त किया गया है। गुरिल्ला युद्ध में माहिर तात्या टोपे के सम्बन्ध में अंग्रेजों ने यूँ ही नहीं कहा कि-‘‘यदि उस समय भारत में आधा दर्जन भी तात्या टोपे सरीखे सेनापति होते तो ब्रिटिश सेनाओं की हार तय थी।‘‘
‘‘क्रान्ति-यज्ञ‘‘ में कृष्ण कुमार लिखते हंै कि- ‘‘भारत का स्वाधीनता संग्राम एक ऐसा आन्दोलन था जो अपने आप में एक महाकाव्य है। लगभग एक शताब्दी तक चले इस आन्दोलन ने भारतीय राष्ट्रीयता की अवधारणा से संगठित हुए लोगों को एकजुट किया। यह आन्दोलन किसी एक धारा का पर्याय नहीं था बल्कि इसमें सामाजिक- धार्मिक-सुधारक, राष्ट्रवादी साहित्यकार, पत्रकार, क्राान्तिकारी, कांग्रेसी, गाँधीवादी इत्यादि सभी किसी न किसी रूप में सक्रिय थे।‘‘ इस धारणा को मजबूत करता एवं ‘शासन व समर से स्त्रियों का सरोकार नहीं‘ जैसी तमाम पुरूषवादी स्थापनाओं को ध्वस्त करता आकांक्षा यादव का लेख ‘वीरांगनाओं ने भी जगाई स्वाधीनता की अलख‘ एवं पिछड़ी-दलित जातियों के रक्त का मूल्यांकन करता के0 नाथ का लेख ‘‘1857 और दलित शहीद‘‘ महत्वपूर्ण हैं। आशारानी व्होरा द्वारा प्रस्तुत ‘प्रथम क्रान्तिकारी शहीद किशोरीःप्रीतिलता वादेदार‘ एवं स्वतंत्रता सेनानी युवतियों में सर्वाधिक लम्बी जेल सजा भुगतने वाली नागालैण्ड की रानी गिडालू के सम्बन्ध में लिखे लेख भी इसी श्रेणी में रखे जा सकते हैं।
पुस्तक का सबसे सार्थक और महत्वपूर्ण अंश वह है, जिसके माध्यम से स्वाधीनता आन्दोलन में साहित्य की अग्रगामी भूमिका को स्पष्ट किया गया है। जनमानस में क्रान्तिकारियों की केवल विद्रोही और शहादत देने वाली छवि अंकित हैं, उनके वैचारिक और संवेदनशील पहलू से बहुत कम लोग परिचित हैं। यह अनायास ही नहीं है कि तमाम क्रान्तिकारी व नेतृत्वकर्ता अच्छे साहित्यकार व पत्रकार भी रहे है। विचार-साहित्य-क्रान्ति का यह बेजोड़ संतुलन रामप्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह, अशफाकउल्ला खान, शचीन्द्र नाथ सान्याल, भगत सिंह, बाल गंगाधर तिलक इत्यादि जैसे तमाम क्रान्तिकारियों में देखा जा सकता है। सूर्य प्रसाद दीक्षित ने ‘‘क्रान्तिकारी आन्दोलन और साहित्य रचना‘‘ में क्रान्ति की मशाल को जलाये रखने में लेखनी के योगदान पर खूबसूरती से प्रकाश डाला है तो डा0 रमेश वर्मा द्वारा प्रस्तुत लेख ‘स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास में प्रताप की भूमिका‘ को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है। यह साहित्यिक क्रान्ति का ही कमाल था कि अंग्रेजों ने अनेक पुस्तकों और गीतों को प्रतिबन्धित कर दिया था। मदनलाल वर्मा ‘कांत‘ ने इन दुर्लभ साहित्यिक रचनाओं को अनेक विस्मृत आख्यानों और पन्नों से ढँूढ़ निकाला है और ‘‘प्रतिबन्धित क्रान्तिकारी साहित्य‘‘ में ब्रिटिश सरकार द्वारा जब्त की गयी पुस्तकों एवं पत्र-पत्रिकाओं पर सूचनात्मक ढंग में महत्वपूर्ण लेख लिखा है। क्रान्तिकारी साहित्य सिर्फ पन्नों पर ही नहीं बल्कि लोकमानस के कंठ में, गीतों और किंवदंतियों के माध्यम से भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रवाहित होता रहता है। ऐतिहासिक घटनाओं के सार्थक विश्लेषण हेतु इस लोकेतिहास को समेटना जरूरी है। डा0 सुमन राजे ने अपने लेख ‘‘लोकेतिहास और 1857 की जन-क्रान्ति‘‘ में इसे दर्शाने का गम्भीर प्रयास किया है। इसी कड़ी में युवा लेखिका आकांक्षा यादव के लेख ‘‘लोक काव्य में स्वाधीनता‘‘ में भी 1857-1947 की स्वातंत्र्य गाथा का अनहद नाद सुनाई पड़ता है।
‘क्रान्ति यज्ञ‘ दूसरे भाग में 1857 की क्रान्ति के परवर्ती आन्दोलनों व नायकों का चित्रण है। ‘शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा‘ की भावना को आत्मसात करते हुए अमित कुमार यादव ने ‘स्वतंत्रता संघर्ष और क्रान्तिकारी आन्दोलन‘ के माध्यम से क्रान्तिकारी गतिविधियों को बखूबी संजोया है तो कृष्ण कुमार यादव का लेख ‘समग्र विश्वधारा में व्याप्त हैं महात्मा गाँधी‘ वर्तमान परिप्रेक्ष्य में काफी प्रासंगिक है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 2007 से ‘गाँधी जयन्ती‘ को ‘विश्व अहिंसा दिवस‘ के रूप में मनाये जाने की घोषणा करके शान्ति व अहिंसा के पुजारी गाँधी जी के विचारों की प्रासंगिकता को एक बार पुनः सिद्ध कर दिया है। क्रान्ति की अलख जगाने वाले क्रान्तिकारियों में क्रान्तिकारी रामकृष्ण खत्री का ‘आजाद‘ पर लिखा संस्मरणात्मक आलेख एवं बिस्मिल व अशफाकउल्ला पर लेख ध्यान आकृष्ट करते हैं। क्रान्तिकारी मन्मथनाथ गुप्त की कलम से अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिला देनी वाले ‘काकोरी काण्ड का सच‘ युवा पीढ़ी को बलिदानी भावना सहेजने का संदेश देता है। लोगों में स्वाधीनता की अकुलाहट बढ़ने के साथ-साथ अंग्रेजों ने स्वाधीनता की आकांक्षा का दमन करने के लिए तमाम रास्ते भी अख्तियार किये। कृष्ण कुमार यादव का लेख ‘‘क्रान्तिकारियों के बलिदान की साक्षीः सेल्युलर जेल‘‘ मानवता के विरूद्ध अंग्रेजों के कुकृत्यों का अमानवीय पक्ष स्पष्ट करता है।
वर्ष 2007-08 क्रान्तिकारियों - भगत सिंह, सुखदेव और दुर्गादेवी वोहरा का जन्म शताब्दी वर्ष भी रहा है। भगत सिंह पर उनके क्रान्तिकारी साथी शिव वर्मा द्वारा लिखा संस्मरणात्मक आलेख महत्वपूर्ण है तो गिरिराज किशोर ने ‘‘जब भगत सिंह ने हिन्दी का नारा बुलन्द किया‘‘ में एक नये संदर्भ में भगत सिंह को प्रस्तुत किया है। क्रान्तिकारी सुखदेव पर सत्यकाम पहारिया का लेख और दुर्गादेवी वोहरा पर आकांक्षा यादव का लेख उनके विस्तृत जीवन पर प्रकाश डालते हैं। आकांक्षा यादव ने इस तथ्य को भी उदधृत किया है कि एक ही वर्ष की विभिन्न तिथियों में जन्मतिथि पड़ने के बावजूद भगतसिंह अपना जन्मदिन दुर्गा देवी के जन्मदिन पर उन्हीं के साथ मनाते थे और उनके पति भगवतीचरण वोहरा सहित तमाम क्रान्तिकारी इस अवसर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते थे।
विश्व साहित्य में राष्ट्रीय भावना का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। राष्ट्रीय और क्रान्तिकारी साहित्य ने भारतवर्ष की जीवन गति को भी क्रान्तिदर्शी भूमिका प्रदान करने में योगदान दिया कृष्ण कुमार और आकांक्षा यादव ने ‘क्रान्तियज्ञ‘ द्वारा अतीत व वर्तमान की जो भूली-बिसरी विरासत थी, उसे समाज के सामने ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक और राष्ट्रीय स्तर पर आदर्शोन्मुख होकर प्रस्तुत किया है। निःसन्देह यह संकलन लेखकीय कर्तव्य का ही प्रतिपालन है। इससे वर्तमान पीढ़ी और आने वाले समय व समाज के लिए यह पुस्तक स्वाभिमान का, मानवीय गुणों का और राष्ट्रप्रेम का अनुपम पथ प्रशस्त करने वाली संदर्शिका बनेगी तथा इसके सन्दर्भों से शोध और चिंतनपरक साहित्य को उत्कृष्ट सन्दर्भ प्राप्त हो सकेंगे। ‘‘क्रान्ति यज्ञ‘‘ पुस्तक वस्तुतः अपनी राष्ट्रीय अस्मिता का ही दर्शन है. पुस्तक के बारे में भारत सरकार के गृह राज्य मंत्री श्रीयुत श्रीप्रकाश जायसवाल के शब्द गौर करने लायक हैं- " क्रांति-यज्ञ एक पुस्तक नहीं बल्कि अपने आप में एक शोध-ग्रन्थ है।"

13 टिप्‍पणियां:

Dr. Brajesh Swaroop ने कहा…

आपका यह ब्लॉग न सिर्फ अपने सामाजिक-साहित्यिक दायित्वों की अनुपम ढंग से पूर्ति करता है बल्कि कई नए मानदंड भी स्थापित करता है. ..बधाई !!

हिंदी साहित्य संसार : Hindi Literature World ने कहा…

इससे वर्तमान पीढ़ी और आने वाले समय व समाज के लिए यह पुस्तक स्वाभिमान का, मानवीय गुणों का और राष्ट्रप्रेम का अनुपम पथ प्रशस्त करने वाली संदर्शिका बनेगी तथा इसके सन्दर्भों से शोध और चिंतनपरक साहित्य को उत्कृष्ट सन्दर्भ प्राप्त हो सकेंगे....ऐसी अनुपम कृति के संपादन हेतु कृष्ण-आकांक्षा जी को नमन.

बेनामी ने कहा…

KK ji, Is book ko delhi men bhi book stalls par uplabdh karayen.

Akanksha Yadav ने कहा…

Nice to see kranti-yagya on this blog.

Amit Kumar Yadav ने कहा…

Kranti-yagya ke bare men padhkar achha laga.Yuva pidhi ko jodne hetu aisi pustkon ki jarurat hai.

www.dakbabu.blogspot.com ने कहा…

विश्व साहित्य में राष्ट्रीय भावना का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। राष्ट्रीय और क्रान्तिकारी साहित्य ने भारतवर्ष की जीवन गति को भी क्रान्तिदर्शी भूमिका प्रदान करने में योगदान दिया.
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बड़ी गहराई में उतरकर कही गई शाश्वत बात !!!

www.dakbabu.blogspot.com ने कहा…

Adbhut....Happy X-mas.

Unknown ने कहा…

अनुपम पुस्तक-अनुपम प्रस्तुति.

Unknown ने कहा…

क्रांति-यज्ञ के विमोचन सम्बंधित खबर ''सृजनगाथा'' वेब-पत्रिका पर भी पढ़ी थी, बधाई.
http://www.srijangatha.com/2008-09/Sept/halchal-4.htm

Dr. Brajesh Swaroop ने कहा…

Belated wishes of merry x-mas.

बेनामी ने कहा…

.....और लो हम भी आ गए नए साल की सौगातें लेकर...खूब लिखो-खूब पढो मेरे मित्रों !!नव वर्ष-२००९ की शुभकामनायें !!

Arvind Gaurav ने कहा…

ES BLOG KI TAARIF MAI APNE SABDO ME NAHI KAR SAKTA..MERE PAAS AISE SABD HI NAHI HAI JO UPYUKT HO......BAHUT ACHHA BAHUT HI ACCHHA.

Bhanwar Singh ने कहा…

इस खूबसूरत ग्रन्थ के लिए के.के. सर को बहुत-बहुत बधाई.