सोमवार, 24 नवंबर 2008

नेपाल में यदुवंशी उपप्रधानमंत्री : उपेन्द्र यादव

नेपाल के राष्ट्रवादी नेता उपेन्द्र यादव गणतांत्रिक नेपाल की प्रखण्ड सरकार में उपप्रधानमंत्री और विदेश मंत्री हैं। उपेन्द्र यादव नेपाल की चौथी सबसे बड़ी पार्टी मधेशी जनाधिकार मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। इनकी पार्टी के चार सदस्यों को मंत्रिमंडल में शामिल किया गया हैै। नेपाल के प्रथम उपराष्ट्रपति पं0 परमानंद झा भी इनकी पार्टी से हैं तथा श्री यादव के ‘पुण्य प्रताप से ही इस पद को सुशोभित कर रहे हैं। नेपाल में यदुवंशी राष्ट्रपति डाॅ0 रामबरन यादव के बाद यदुवंशी उपप्रधानमंत्री गौरव का विषय है।

नेपाल में यदुवंशी राष्ट्रपति: डाॅ0 रामबरन यादव

भारत वर्ष में यादवों के राजनैतिक उत्कर्ष के तमाम उदाहरण मिलते हैं, पर अब विदेशों में भी तमाम उदाहरण मिलने लगे हैं। नेपाल की जनता ने अपने 240 वर्ष पुराने राजतंत्र को उखाड़कर लोकतांत्रिक पद्धति अपनाई है और डाॅ0 रामबरन यादव को अपना पहला राष्ट्रपति चुना है। यह भारत और विशेषकर यहांँ के यादवों के लिए गौरव का विषय है। इससे पूर्व विदेशों में त्रिनिडाड व टुबैगो के पूर्व प्रधानमंत्री श्री वासुदेव पांडे (उनके पूर्वज पानी पिलाते थे, अतः पानी पांडे कहलाने से पांडे सरनेम आया) और मारीशस के पूर्व प्रधानमंत्री अनिरूद्ध जगन्नाथ को भी यादव मूल का माना जाता है।

भारत में यादवों का राजनीति में पदार्पण आजादी के बाद ही आरम्भ हो चुका था, जब शेर-ए-दिल्ली एवं मुगले-आजम के रूप में मशहूर चै0 ब्रह्माप्रकाश दिल्ली के प्रथम मुख्यमंत्री बने थे। तब से अब तक भारत के विभिन्न राज्यों में नौ यादव मुख्यमंत्री पद पर आसीन हो चुके हैं। इनमें चै0 ब्रह्माप्रकाश, बी0पी0 मंडल, दारोगा प्रसाद राय, राव वीरेन्द्र सिंह, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, रामनरेश यादव, बाबू लाल गौर (यादव) और श्रीमती राबड़ी देवी शामिल हैं। सुभाष यादव म0प्र0 के उपमुख्यमंत्री रह चुके हैं।

डाॅ0 रामबरन यादव का जन्म 4 फरवरी 1948 को भारत की सीमा से सटे नेपाल के धनुषा जिले के ग्राम सफाली, जनकपुर धाम में एक मध्यमवर्गीय किसान परिवार में हुआ था। पिता घनश्याम यादव और माता श्रीमती रामरती की चैथी संतान डाॅ0 रामबरन यादव अब स्वयं दो बेटे और एक बेटी के पिता हैं। उनकी धर्मपत्नी का देहान्त हो चुका है। डाॅ0 रामबरन यादव और उनके परिवार के लोग मधेशी (भारत के साथ लगा तराई का क्षेत्र) के निवासी होने के कारण भारत के साथ अपने भविष्य और विकास के लिए घनिष्ठता और लगाव रखते हैं तथा अधिकतर इसी क्षेत्र में अपने सामाजिक रिश्ते भी बनाये रखते हैं। यही कारण है कि डाॅ0 रामबरन ने अपनी प्राथमिक शिक्षा धनुषा और काठमांडू में प्राप्त की और उसके बाद उच्च शिक्षा के लिए भारत आ गये। उन्होंने 1981 में मेडिकल कालेज कलकत्ता से एम0बी0बी0एस0 की डिग्री प्राप्त की और उसके बाद 1985 में एम0डी0 (फिजीशियन) की डिग्री(PGIMER) चंडीगढ़ से प्राप्त की। अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने लगभग आठ साल तक चण्डीगढ़ में रहकर ही अपनी मैडिकल प्रैक्टिस की। धीरे-धीरे उनके विचारों में बदलाव आने लगा और उनका रूझान राजनीति की ओर बने लगा तब से दोबारा अपने देश में जाकर नेपाली कांग्रेस से जुड़ गये। ‘‘यदुकुल‘‘ की यही हार्दिक अभिलाषा है कि डाॅ0 रामबरन यादव नेपाल के राष्ट्रपति के रूप में अपने राष्ट्र को उच्चतम शिखर तक पहुँचायें और यदुवंशियों का नाम रोशन करें।
(ज्यादा जानकारी के लिए यहाँ जायें- http://en.wikipedia.org/wiki/Ram_Baran_Yadav)

शनिवार, 22 नवंबर 2008

सामाजिक न्याय हेतु जरूरी है आरक्षण

आरक्षण का मुद्दा आरम्भ से ही लोगों को उद्वेलित करता रहा है। कुछ लोग इसे योग्यता, अवसर की समानता व रोजगार से जोड़कर देखते हैं, तो कुछ के लिए यह निर्णय में भागीदारी से सम्बन्धित है। वस्तुतः आरक्षण किसी न किसी रूप में भारतीय समाज में प्राचीन काल से ही मौजूद रहा है। परम्परागत वर्ण व्यवस्था में इसके बीज खोजे जा सकते हैं, जहाँ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सभी के कर्म निर्धारित कर दिए गए थे। यही कारण था कि भगवान राम ने शम्बूक का वध इसलिए कर दिया कि वह शूद्र होकर तपस्या कर रहा था। महाभारत काल में गुरू द्रोणाचार्य ने एकलव्य को शूद्र होने के कारण शिक्षा देने से मना कर दिया और जब उन्हें अहसास हुआ कि एकलव्य अर्जुन से भी बड़ा वीर है, तो उन्होंने गुरूदक्षिणा की आड़ में उसके हाथ का अंगूठा ही माँग लिया। स्प्ष्ट है कि वर्ण व्यवस्था रूपी विशेषाधिकारों की आड़ में उच्च वर्ण के लोगों ने पिछड़ों और दलितों को शिक्षा से वंचित करने का षडयंत्र रचा और उन्हें वेद ज्ञान तथा आधुनिक शिक्षा से वंचित रखा। निश्चिततः, ऐसी अमानवीय व्यवस्था के बीच पिछड़ा और दलित वर्ग कैसे ऊपर उठ सकता था? कालान्तर में ऐसे वंचित वर्गांे को थोड़ी विशेष सुविधा देकर विभिन्न सरकारों ने उनका जीवन स्तर उठाने और अन्य वर्गों के समकक्ष खड़ा करने का प्रयास किया। इस हेतु सर्वप्रथम महाराष्ट्र की कोल्हापुर रियासत द्वारा पहल की गई। कालान्तर में मैसूर रियासत, बम्बई प्रेसीडेंसी, मद्रास एवं त्रावणकोर रियासतों ने इस पहल को आगे बढ़ाया। जाति-पाँत और छुआछूत की भावना उस समय इतनी प्रबल थी कि समाज के उच्च वर्गों ने इसका तीव्र विरोध किया। इसी प्रकार अंगे्रजी राज में वर्ष 1882 में जब हण्टर आयोग ने बहुत छोटे स्तर पर अछूतों के लिए प्राथमिक शिक्षा की सिफारिश की तो उच्च वर्ग के लोगों ने उसका भी विरोध किया और इन तबकों के छात्रों को स्कूल से बाहर रखने के लिए तरह-तरह के हथकण्डे अपनाए। वर्ष 1892 में पब्लिक सर्विस कमीशन ने द्वितीय श्रेणी के 941 पदों में 159 पद भारतीयों के लिए आरक्षित किए। वर्ष 1906 में मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन मण्डल और तत्पश्चात वर्ष 1935 में पूना पैक्ट के माध्यम से केन्द्रीय और राज्य विधानमण्डलों में अनुसूचित जाति व जनजाति के लिए सीटों के आरक्षण की व्यवस्था को भी इसी क्रम में देखना उचित होगा।
पिछड़े वर्गों को सरकारी सेवाओं में आरक्षण भी अंग्रेजांे के समय की देन है। 20वीं सदी के आरम्भ में तमिलनाडु में पेरियार द्वारा आरम्भ स्वाभिमान आन्दोलन के कारण तमिलनाडु में पिछड़े वर्गांे के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई पर स्वतन्त्रता पश्चात किसी संवैधानिक प्रावधान के अभाव में इस आरक्षण को न्यायालय ने अवैध घोषित कर दिया। नतीजन, तमिलनाडु में आन्दोलन भड़क उठा एवं प्रतिक्रियास्वरूप संविधान सभा जो कि उस समय संसद के रूप में काम कर रही थी ने वर्ष 1951 में संविधान में प्रथम संशोधन कर सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान कर दिया। इन पिछड़े वर्गों की पहचान के लिए अनुच्छेद 340 के अन्तर्गत 29 जनवरी 1953 को राष्ट्रपति ने प्रख्यात गाँधीवादी विचारक काका कालेलकर के नेतृत्व में प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग गठित किया, जिसने पिछड़े वर्गांे मंे महिलाओं को भी शामिल करते हुए केन्द्र की सरकारी सेवाओं और शैक्षणिक संस्थाओं में 2399 जातियों को पिछड़े वर्ग के रूप में सूचीबद्ध करते हुए 70 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश के साथ 30 मार्च 1955 को अपनी रिपोर्ट सौंप दी पर तत्कालीन सरकार ने इस रिपोर्ट को ही खारिज कर दिया। यद्यपि सरकार ने इस रिपोर्ट को खारिज कर दिया था पर डाॅ0 राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व में समाजवादियों ने ‘‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’’ के नारे के साथ पिछड़े वर्गांे के लिए आन्दोलन जारी रखा। डाॅ0 लोहिया पाँच वर्गों को पिछड़ा मानते थे- सभी जाति की महिलाएँ, हरिजन, आदिवासी, पिछड़ी जातियाँ एवं धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग। वर्ष 1977 में केन्द्र्र में प्रथम गैर कांग्रेसी सरकार के अस्तित्व में आने के साथ ही उत्तर प्रदेश में राम नरेश यादव और बिहार में कर्पूरी ठाकुर ने राज्य स्तर पर पिछड़ों को आरक्षण दे डाला। यद्यपि जनता पार्टी सरकार ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में काका कालेलकर आयोग की सिफारिशों को लागू करने की बात कही थी पर सत्ता में आने के बाद इसे इस आधार पर अस्वीकार कर दिया कि 1950 के दशक में तैयार पिछड़े वर्गांे की सूची पुरानी पड़ गई है। इसके पश्चात जनता पार्टी ने 20 दिसम्बर 1978 को बिहार के भूतपूर्व मुख्यमंत्री श्री विन्देश्वरी प्रसाद मण्डल के नेतृत्व में दूसरे पिछड़े वर्ग आयोग का गठन किया, जिसने 31 दिसम्बर 1980 को अपनी रिपोर्ट सौंप दी। मण्डल आयोग ने काका कालेलकर आयोग की सूची और सिफारिशों को लगभग ज्यों का त्यों अपनी रिपोर्ट में शामिल कर लिया और 404 पृष्ठों की अपनी रिपोर्ट में देश की 52 प्रतिशत जनता को पिछड़ा बताया तथा 3743 जातियों की पहचान पिछड़ी जातियों के रूप में की। पिछड़ेपन के निर्धारण के लिए आयोग ने जाति समेत 11 कसौटियों को अपनाया और सरकारी नौकरियों के साथ-साथ शैक्षणिक संस्थाओं में भी 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की। ऐसा माना जाता है कि वर्ष 1931 में जाति आधारित अन्तिम जनगणना को मण्डल कमीशन ने पिछड़ी जातियों की शिनाख्त का आधार बनाया।
यहाँ पर गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी समय-समय पर आरक्षण का आधार जाति को ही माना है। सर्वप्रथम वेंकटरामन्ना बनाम मद्रास केस में सर्वोच्च न्यायालय ने जाति को पिछड़ेपन का आधार ठहराया। फिर 1968 में पी0 राजेन्द्रम बनाम मद्रास केस में भी सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण के जातिगत आधार को मान्यता प्रदान की। इसी प्रकार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आयुक्त ने वर्ष 1967-68 के अपने प्रतिवेदन में कहा कि-‘‘जाति ही पिछड़े वर्ग का आधार होना चाहिये।’’ अगस्त 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री वी0 पी0 सिंह ने मण्डल कमीशन की सिफारिशों के आधार पर सरकारी नौकरियों में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू करने की घोषणा की तो कई लोग इसे योग्यता का हनन बताते हुए सर्वोच्च न्यायालय की दहलीज तक पहुँच गए। अन्ततः इन्द्रा साहनी बनाम भारत संघ के मामले में 15 नवम्बर 1992 को सर्वोच्च न्यायालय ने क्रीमीलेयर को इससे बाहर रखने की बात करते हुए अन्य पिछड़े वर्गों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण को वैधानिक घोषित कर दिया। उक्त निर्णय के तारतम्य में संघ सरकार ने 8 सितम्बर 1993 को जारी अधिसूचना में न्यायालय के उपर्युक्त निर्णय को स्वीकार कर लिया। तत्पश्चात सरकार द्वारा क्रीमी लेयर की पहचान और मण्डल आयोग की सिफारिशों पर अमल के साथ ही आरक्षण के प्रथम भाग का पटाक्षेप हो गया पर शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण न लागू करने के कारण कुछ लोगों ने इसे ‘‘बधिया आरक्षण’’ भी कहा।
वस्तुतः आरक्षण सामाजिक न्याय की प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग है और उसे इसी रूप में देखा जाना चाहिए। सवाल पैदा होता है कि आखिर आरक्षण का विरोध क्यों हो रहा है और क्या इसके पीछे उठते सवाल वाजिब हैं-
(1) आरक्षण विरोधियों का मानना है कि आरक्षण ‘अवसर की समता’ (अनुच्छेद-16(1)) के संवैधानिक उपबन्धों का उल्लंघन है।
-ऐसा कहना गलत है क्योंकि उसी अनुच्छेद में यह भी लिखा गया है कि- ‘‘इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को पिछड़े हुए नागरिकों के किसी वर्ग के पक्ष में, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, नियुक्तियों या पदों के आरक्षण के लिए उपबन्ध करने से निवारित नहीं करेगी।’’ (अनुच्छेद-16 (4))। तथ्यों पर गौर करंे - 23 फरवरी 2006 तक सरकार को प्राप्त सूचना के अनुसार आई0 ए0 एस0 और आई0 पी0 एस0 में मात्र 7.02 प्रतिशत और भारतीय विदेश सेवा में मात्र 7.74 प्रतिशत पिछडे़ वर्ग के लोग थे। इसी प्रकार पूर्व अधिकारी के0 बी0 सक्सेना के नेतृत्व वाली मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट पर गौर करें तो विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा अनुदान प्राप्त कुल 256 विश्वविद्यालयों और 11000 महाविद्यालयों में मात्र 2 प्रतिशत शिक्षक दलित और आदिवासी हैं और सभी आई0 आई0 टी0 में कुल 3 दलित और आदिवासी हैं, लेकिन वे भी आरक्षण की बजाय वहाँ पर अपनी योग्यता से पहुँचे हंै।
(2) आरक्षण विरोधियों के मत में किसी भी प्रकार के आरक्षण को उचित नहीं ठहराया जा सकता।
- अप्रवासी भारतीयोें के लिए आरक्षित सीटों पर तो तब सर्वप्रथम प्रश्नचिन्ह लगना चाहिए, पर क्यों नहीं लगाया जाता? कारण, अप्रवासी के नाम पर यहाँ साधन सम्पन्न सवर्ण वर्ग ही बिना किसी योग्यता और परिश्रम के पूँजी के बल पर सीटें हथिया रहा है। यदि हर प्रकार के आरक्षण का विरोध करना ही है तो फिर सवर्ण आर्थिक आधार पर आरक्षण की माँग क्यों करते हैं? तब तो फिर सामाजिक व्यवस्था में भी परम्परागत आरक्षण को खत्म कर देना चाहिए। मसलन, पूजा-पाठ करवाने का कार्य ब्राह्मण जाति ही क्यों करे और जूतों के सिलने, पालिश लगाने व झाडू़ लगाने का कार्य पिछड़े व दलित ही क्यों करें? यहाँ पर गौर करने लायक बात है कि आरक्षण विरोधी शक्तियाँ आरक्षण लागू होने के नाम पर सड़कों पर खड़ी गाड़ियों को साफ करने, जूते साफ करने और झाड़ू लगाने जैसे प्रतीकात्मक कार्य करके विरोध दर्ज कराती हंै क्योंकि उन्हें लगता है कि ये कार्य निम्न स्तर के हैं। जब तक समाज में ऐसी विभेदकारी हीन मानसिकता रहेगी तब तक आरक्षण को अनुचित नहीं ठहराया जा सकता।
(3) आरक्षण विरोधियों के मत में संविधान पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान करता है, जातियों के लिए नहीं।
- भारत जैसे परम्परागत देश में जातियाँ स्वयं में एक वर्ग हैं। परम्परागत वर्ण व्यवस्था को भी देखें तो असंख्य जातियों को 4 वर्गों- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में बाँट दिया गया था। फिर स्वयं सर्वोच्च न्यायालय ने भी मान लिया है कि भारत में जाति ही वर्ण है, इसलिए विवाद की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती। इन्द्रा साहनी बनाम भारत संघ (1992) के केस में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि- ‘‘पिछड़े हुए नागरिकों का वर्ग’’-इस पद की संविधान में कोई परिभाषा नहीं दी गई है। जाति, उपजीविका, निर्धनता और सामाजिक पिछड़ापन का निकट का सम्बन्ध है। भारत के सन्दर्भ में निचली जातियों को पिछड़ा माना जाता है। जाति अपने आप ही पिछड़ा वर्ग हो सकती है। हिन्दू समाज में पिछड़े वर्ग की पहचान जाति के आधार पर की जा सकती है।’’
(4) आरक्षण विरोधियों के मत में पहले सामाजिक पिछड़ेपन को पारिभाषित करने के लिए यह देखा जाता था कि किसी जाति विशेष का जाति व्यवस्था में क्या स्थान है? मसलन शास्त्रों में किन्हें शूद्र कहा गया है और किन्हें द्विज। लेकिन अब सामाजिक पिछड़ेपन का आधार राजनीतिक सशक्तीकरण का अभाव हो गया है और इस आधार पर यादव इत्यादि जैसी जातियों को पिछड़े वर्गों से निकाल देना चाहिए।
- यह मात्र 1990 का दौर था जब उत्तर भारत में कुछ पिछड़ी जातियों के व्यक्ति मुख्यमंत्री पद पर पदासीन हुए पर वो भी एक लम्बे समय के लिए नहीं। उनमें से भी अधिकतर अपनी प्रतिभा और राजनैतिक चातुर्य के चलते वहाँ तक पहुँचे, पर यह तो अभी शुरूआत मात्र है। स्वतन्त्रता पश्चात लगभग छः दशकों में पिछड़ों की राजनैतिक सत्ता में कुल प्रतिनिधित्व की बात करें तो यह दहाई अंक भी नहीं छू पाएगा, अतः यह तर्क भी असंगत लगता है। पिछड़ों और दलितों की राजनैतिक भागीदारी पर सवर्ण जातियों के कुछ जुमलों पर गौर करें तो स्थिति अपने आप स्पष्ट हो जाती है। वर्ष 1978 में तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री श्री जगजीवन राम जब बनारस में सम्पूर्णानन्द की प्रतिमा का अनावरण करने गये तो सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के सवर्ण छात्रों ने ‘‘जग्गू चमरा हाय-हाय-बूट पालिश कौन करेगा’’ जैसे भद्दे जातिगत नारों से उनका स्वागत किया और इतना ही नहीं उनके जाने के बाद उस मूर्ति को वेद मंत्रों के उच्चारण के साथ गंगा जल से धोया, क्योंकि सवर्ण छात्रों के मत मेें एक दलित द्वारा छू लेने के कारण यह मूर्ति अपवित्र हो गयी थी। वर्ष 1977-78 में उत्तर प्रदेश में श्री रामनरेश यादव के मुख्यमंत्री बनने पर सवर्णों ने जुमला कसा कि-‘‘रामनरेश यादव वापस जाओ, डण्डा लेकर भैंस चराओ।’’ ठीक यही नारे कालान्तर में श्री मुलायम सिंह यादव और श्री लालू प्रसाद यादव के मुख्यमंत्री बनने पर भी दुहराए गए। बिहार में श्री कर्पूरी ठाकुर के मुख्यमंत्री बनने पर नारा दिया गया- ‘‘कर्पूरी कर, वरना उठा छूरा।’’ इन परिस्थितियों में कैसे मान लिया जाय कि दलितों और पिछड़ों को इतनी राजनैतिक भागीदारी मिल चुकी है कि उन्हें आरक्षण से वंचित कर देना चाहिए। यही बात मीडिया के बारे में भी कही जा सकती है। आखिर क्या कारण है कि मीडिया एकतरफा आरक्षण विरोध के कवरेज को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करता है और आरक्षण समर्थक आन्दोलनों को परे धकेल देता है। निश्चिततः आज लोकतन्त्र के इस चतुर्थ स्तम्भ में भी आरक्षण की जरूरत महसूस होने लगी है।
(5) आरक्षण विरोधियों के मत में क्रीमीलेयर वर्ग को आरक्षण नहीं मिलना चाहिये।
- आरक्षण का उद्देश्य ही पिछड़ों और दलित वर्गों में एक क्रीमीलेयर वर्ग पैदा करना है जो सदियों से उपेक्षित और शोषित इन वर्गों की लड़ाई लड़ सके। उच्च जातियाँ जब आरक्षण का खुलकर विरोध नहीं कर पातीं तो वे पिछड़ों और दलितों के बीच उभर रहे क्रीमीलेयर की आड़ में इसका विरोध करती हैं। उच्च जातियाँ इस तथ्य को बर्दाशत नहीं कर पातीं कि पिछड़ों और दलितों के बीच एक ऐसा क्रीमीलेयर वर्ग उत्पन्न हो जाये जो उन सुख-सुविधाओं का उपभोग करने लगे, जिस पर अभी तक इन उच्च जातियों का वर्चस्व रहा है।
(6) आरक्षण विरोधियों के मत में आरक्षण का आधार आर्थिक होना चाहिए।
- आरक्षण सामाजिक स्थिति सुधारने का एक उपाय है न कि आर्थिक स्थिति। आरक्षण का मामला मात्र रोजगार का नहीं वरन् सामाजिक समानता और भागीदारी का है। आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए तो तमाम आर्थिक कल्याणकारी योजनाओं को ईमानदारी से लागू किया जा सकता है और गरीबी हटाओ जैसे नारों को क्रियान्वित किया जा सकता है।
(7) आरक्षण विरोधियों के मत में आरक्षण जैसी व्यवस्था भारत को विकसित देशों की श्रेणी में जाने से रोकेगी।
- स्वयं अमेरिका जैसे सर्वाधिक विकसित देश में ‘डायवर्सिटी सिद्धान्त’ के आधार पर अश्वेतों के लिए आरक्षण लागू है।
(8) आरक्षण विरोधियों के मत में आरक्षण व्यवस्था समानता एवं योग्यता हनन के लिए एक षडयंत्र है।
- आरक्षण के विरोध में सबसे सशक्त तर्क यही दिया जाता रहा है पर यह तर्क देने वाले भूल जाते हैं कि समता बराबर के लोगों में ही आती है। जब तक तराजू के दोनों पलड़े बराबर न हों, उनमें बराबरी की बात करना ही व्यर्थ है। क्या इस निष्कर्ष को खारिज करना सम्भव है कि उच्च व तकनीकी संस्थानों में सवर्ण जातियों का वर्चस्व है। नेशनल सर्वे आर्गेनाइजेशन के आँकड़ों पर गौर करें तो ग्रामीण भारत में 20 साल से ऊपर के स्नातकों में अनुसूचित जातियों, जनजातियों और मुस्लिमों का प्रतिशत मुश्किल से एक फीसदी है, जबकि सवर्ण स्नातक पाँच फीसदी से अधिक हंै। सवर्ण अपने पक्ष में तर्क दे सकते हंै कि ऐसा सिर्फ उनकी योग्यता के कारण है पर वास्तव में ‘योग्यता’ का राग अलापना निम्न तबके को वंचित रखने की साजिश मात्र है। इस बात पर भी चर्चा होनी चाहिये कि सवर्णों को बचपन से ही शिक्षा, समाजीकरण का फायदा मिला और संसाधनों पर पहला हक उनका ही रहा। यदि योग्यता एक सहज एवं अन्तर्जात गुण है तो अन्य वर्गों के लोगों में भी है, पर फिर भी वे इस स्तर तक नहीं पहुँच पाए तो दाल मेें कुछ काला अवश्य है। अर्थात, वे इतने साधन सम्पन्न नहीं हैं कि प्रगति कर सकें, विभिन्न प्रशासकीय और राजनैतिक पदों पर बैठे उच्च वर्णांे के भाई-भतीजावाद का वे शिकार हुए हैं, प्रारम्भिक स्तर पर ही सवर्णों ने उन्हें सामाजिक हीनता का अहसास कराकर आगे बढ़ने नहीं दिया। ऐसे में यदि सवर्णों के विचार से ‘योग्यता’ की निर्विवाद धारणा महत्वपूर्ण है, जो उस सामाजिक संरचना की ही अनदेखी करता है, जिसकी बदौलत स्वयं उनका अस्तित्व है, तो निम्न वर्ग या आरक्षण के पक्षधरों के अनुसार योग्यता को ही पूर्णरूपेण से नजर अंदाज कर देना चाहिए क्योंकि यह योग्यता की आड़ में एक विशिष्ट वर्ग को बढ़ावा देने की नीति मात्र है। आज की योग्यता थोपी गई योग्यता है। योग्यता के मायने तब हांेगे जब सभी को समान परिस्थितियाँ मुहैया कराकर एक निश्चित मुकाम तक पहुँचाया जाये एवं फिर योग्यता की बात की जाए। योग्यता की आड़ में सामाजिक न्याय को भोथरा नहीं बनाया जा सकता।
(9) आरक्षण विरोधियों के मत में आरक्षण व्यवस्था एक निश्चित समय के लिए लागू की गई थी, पर राजनेताओं ने निहित स्वार्थों के लिए इसे और आगे बढ़ाया।
- यदि आजादी के छः दशकों बाद भी आरक्षण का दायरा घटाने की बजाय बढ़ाने की जरूरत पड़ रही है तो इसका सीधा सा अर्थ है कि संविधान के सामाजिक न्याय सम्बन्धी निर्देशों का पालन करने में हमारी संसद विफल रही है। राजनैतिक सत्ता के शीर्ष पर अधिकतर सवर्णों का ही कब्जा है। ऐसे में अगर वे स्वयं आरक्षण का दायरा बढ़ाना चाहते हैं तो देर से ही सही पर उन्हें पिछड़ों और दलितों की शक्ति का अहसास हो रहा है न कि स्वार्थ के वशीभूत वे पिछड़ों और दलितों पर कोई अहसान कर रहे हैं, क्योंकि आरक्षण संविधानसम्मत प्रक्रिया है।
(10) आरक्षण विरोधियों के मत में भारत का लक्ष्य जातिविहीन समाज होना चाहिए और आरक्षण जैसी व्यवस्था से जातिवाद को बढ़ावा मिलता है।
- यह एक सुसंगत आदर्श है, पर इसके क्रियान्वयन पर भी गौर करना चाहिए। समाज की 85 प्रतिशत जातियों को बिना किसी भेदभाव के व्यवस्था में ज्यादा प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए और 15 प्रतिशत जातियों की 95 प्रतिशत भागीदारी को तोड़ना चाहिए। यहीं क्यों, तथाकथित सवर्ण जातियों को झाड़ू़ लगाने और बूट पालिश करने जैसे कार्यों के लिए भी तैयार रहना चाहिए तथा तथाकथित निम्न जातियों को अपने घर पर पूजा-पाठ सम्पन्न कराने के लिए भी बुलाना चाहिए क्योंकि अब सामाजिक समुदायों की जन्मजातहीनता की दलील कतई स्वीकार्य नहीं। स्वयं तत्कालीन प्रधानमंत्री पं0 जवाहरलाल नेहरू ने प्रवेश पत्र से जाति का खाना हटवा दिया था पर क्या हुआ?
(11) आरक्षण विरोधियों के मत में आरक्षण को लागू करना लोकतांत्रिक मूल्यों के विपरीत है।
- लोकतंत्र को एक ऐसी शासन प्रणाली के रूप में पारिभाषित किया जाता है जहाँ जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा शासन होता है। यह खेद का विषय है कि स्वतंत्रता से पूर्व एवं स्वतंत्रता पश्चात भी भारत में कुछ जाति विशेष के लोगों का ही शासन रहा और अन्य जातियाँ उनकी अनुगामी मात्र बनी रहीं। क्या यह लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुकूल है कि समाज के बहुमत वर्ग का राजनैतिक-सामाजिक-प्रशासनिक प्रणाली में प्रतिनिधित्व नाममात्र को हो और अल्पमत जातियों का पूर्ण वर्चस्व हो- निश्चििततः नहीं! इसी विसंगति को सुधारने के लिए आरक्षण लागू करना अपरिहार्य हो जाता है।
(12) आरक्षण विरोधियों के मत में आरक्षण के माध्यम से किसी जाति या वर्ग के अधिकार को छीनने का हक किसी भी सरकार को नहीं है।
- चूँकि पिछड़ी और दलित जातियाँ व्यवस्था में समुचित भागीदारी के अभाव में अपनी आवाज उठाने में सक्षम नहीं हैं अतः कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के तहत सरकार का कर्तव्य है कि इन उपेक्षित वर्गों को व्यवस्था में निर्णय की भागीदारी में उचित स्थान दिलाये। इसे किसी का अधिकार छीनना नहीं वरन् समाज के हर वर्ग को उचित प्रतिनिधित्व देना कहा जायेगा।
वस्तुतः आज आरक्षण समाज को पीछे धकेलने की नहीं वरन् पुरानी कमजोरियों और बुराईयों को सुधार कर भारत को एक विकसित देश बनाने की ओर अग्रसर कदम है। यह लोकतंत्र की भावना के अनुकूल है कि समाज में सभी को उचित प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए और यदि किन्हीं कारणोंवश किसी वर्ग को उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाता है तो उसके लिए समुचित आरक्षण जैसे रक्षोपाय करने चाहिए। सामाजिक समरसता को कायम करने और योग्यता को बढ़ावा देने के लिए जरूरी है कि ‘अवसर की समानता’ के साथ-साथ ‘परिणाम की समानता’ को भी देखा जाय। देश में दबे, कुचले और पिछड़े वर्ग को अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करने का मौका नहीं मिला, मात्र इसलिए ये वर्ग अक्षम नजर आते हैं। इन्हें सरसरी तौर पर अयोग्य ठहराना सामाजिक न्याय के सिद्धान्तों के प्रतिकूल है। शम्बूक और एकलव्य जैसे लोगों की प्रतिभा को कुटिलता से समाप्त कर उनकी कीमत पर अन्य की प्रगति को उचित नहीं ठहराया जा सकता।
1990 के दशक में लागू आरक्षण की काट के लिए तुरन्त आर्थिक उदारीकरण को एक अपरिहार्यता के रूप में देश पर थोप दिया गया। उसके बाद से राज्य निरन्तर अपना कार्यक्षेत्र सीमित करता जा रहा है। सार्वजनिक क्षेत्रों को विनिवेश के माध्यम से निजी हाथों में सौंपा जा रहा है, सरकारी सेवाओं में अवसर कम हो रहे हैं, पेन्शन जैसी व्यवस्थाओं को खत्म कर सरकारी नौकरियों को आकर्षणहीन बनाया जा रहा है-निश्चिततः ऐसे में निजी क्षेत्र में भी आरक्षण की जरूरत महसूस होने लगी है। राष्ट्र की इतनी बड़ी जनसंख्या को संसाधन और अधिकारविहीन रखना राष्ट्र की प्रगति, विकास एवं समृद्धि के लिए अहितकर है। तकनीकी योग्यता के लिए क्षमतावान विद्यार्थियोें के सामने उच्च शैक्षणिक संस्थाओं की अंगे्रजी भाषा और भारी भरकम खर्चे आड़े आते हैं, मात्र इसलिए ये उस व्यवस्था में प्रवेश नहीं पा पाते और हीनता का अनुभव करते हैं। ये कहना कि उनमें योग्यता का अभाव है, उचित नहीं होगा। ऐसी परिस्थितियों में उच्च शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण की अनिवार्यता को समझा जा सकता है। आरक्षण को लेकर सवर्णों को यह आशंका हो सकती है कि इससे वे अलग-थलग पड़ जायेंगे और संसाधनों पर उनका पहला हक खत्म हो जायेगा, पर यदि राष्ट्र की अर्थव्यवस्था विकासोन्मुखी रही तो सिर्फ पिछड़ों और दलितों हेतु ही नहीं अपितु सवर्णों हेतु भी रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध होेंगे। प्रखर राष्ट्रवादी विचारक स्वामी विवेकानन्द ने एक बार कहा था -‘‘जब वे (शूद्र) जागेंगे और आप (उच्च वर्ग) द्वारा अपने प्रति किए गये शोषण को समझेंगे तो अपनी फूँक से वे (शूद्र) आप (उच्च वर्ग) सबको उड़ा देंगे। यह शूद्र वे लोग हैं, जिन्होंने आपको सभ्यता सिखायी और ये ही लोग आपका पतन भी कर सकते हैं।’’ वर्तमान परिप्रेक्ष्य को इन अवधारणाओं के बीच ही समझने की जरूरत है अन्यथा समाज की प्रतिगामी शक्तियाँ तो अपने परम्परागत विशेषाधिकारों के लिए सदैव ही सामाजिक न्याय जैसी विस्तृत अवधारणा को मात्र रोजी-रोटी से जोड़कर उनका क्षुद्रीकरण करने की कोशिश करती रहेंगी।

अमर उजाला और साहित्य शिल्पी में आकांक्षा यादव

19 नवम्बर 2008 को रानी लक्ष्मीबाई की जयंती पर युवा लेखिका आकांक्षा यादव का एक लेख अंतर्जाल पत्रिका "साहित्य शिल्पी" पर "खूब लड़ी मरदानी, अरे झाँसी वारी रानी" शीर्षक से प्रकाशित हुआ-(http://www.sahityashilpi.com/2008/11/blog-post_19.html ) यह लेख इतना सारगर्भित था कि अगले दिन 20 नवम्बर को हिंदी दैनिक 'अमर उजाला' ने अपने सम्पादकीय पृष्ठ पर 'ब्लॉग कोना' में इस लेख को स्थान दिया. इस पर आज 21 नवम्बर को 'साहित्य शिल्पी' ने "अमर उजाला" में साहित्य शिल्पी (विशेष) शीर्षक से एक टिपण्णी प्रकाशित की- "हमारे लिये यह अत्यंत हर्ष का विषय है कि साहित्य शिल्पी पर प्रकाशित माननीय आकांक्षा यादव जी के आलेख (खूब लड़ी मरदानी, अरे झाँसी वारी रानी) को लोकप्रिय दैनिक समाचार-पत्र अमर-उजाला ने प्रकाशित कर हमारा मान बढ़ाया है। इसके लिये हम उनका शुक्रिया अदा करते हैं।" साथ ही आकांक्षा जी और उन जैसे अन्य सभी साहित्य-शिल्पियों के भी हम शुक्रगुज़ार हैं जो अपनी उच्चस्तरीय रचनायें हमें भेजकर साहित्य शिल्पी के स्तर को उत्तरोत्तर ऊँचा उठाने में हमारी मदद करते हैं (http://www.sahityashilpi.com/2008/11/blog-post_2172.html)
इस अवसर पर यदुकुल की तरफ से भी आकांक्षा यादव को हार्दिक बधाई और शुभकामना कि वे यूँ ही उत्तरोत्तर प्रगति की सीढियाँ चढ़ती रहें......!!!

शुक्रवार, 21 नवंबर 2008

‘वुमेन ऑन टॉप‘ में आकांक्षा यादव

दिल्ली से प्रकाशित नारी सरोकारों को समर्पित पत्रिका ''वुमेन ऑन टॉप'' ने जून 2008 अंक में अपनी आवरण कथा 'हम में है दम, सबसे पहले हम' में देश की तेरह प्रतिष्ठित नारियों को स्थान दिया है, जिन्होंने अपनी बहुआयामी प्रतिभा की बदौलत समाज में नाम रोशन किया। इन नारियों में माधुरी दीक्षित, लता मंगेशकर, लारा दत्ता, तब्बू, हेमा मालिनी, उमा भारती, सुषमा स्वराज, वृंदा करात, पं0 रवि शंकर की बेटी नोरा जोन, सचिन पायलट की पत्नी सारा पायलट, फिल्म आलोचक व लेखिका अनुपमा चोपड़ा के साथ आकांक्षा यादव का नाम भी शामिल है। इसमें ''लेखन से पिरोती साहित्य की माला: आकांक्षा यादव'' शीर्षक से उनके जीवन व कृतित्व पर प्रकाश डाला गया है. 'यदुकुल' की तरफ से इस उपलब्धि पर आकांक्षा जी को ढेरों बधाई और शुभकामना कि वे यूँ ही उत्तरोत्तर प्रगति की सीढियाँ चढ़ती रहें......!!!

गुरुवार, 20 नवंबर 2008

मैंने आई.ए.एस. क्यों छोड़ी- अजय सिंह यादव

मथुरा में जन्में १९७६ बैच के आई. ए. एस. अधिकारी श्री अजय सिंह यादव की पुस्तक "मैंने आई. ए. एस. क्यों छोड़ी" प्रशासनिक सेवाओं में कार्यरत अधिकारियों और प्रवेश के इच्छुक प्रत्याशियों के लिए ही नहीं, बल्कि लोक प्रशासन के बारे में सोचने वाले हर जागरूक नागरिक के लिए महत्वपूर्ण हो सकती है. आपने दीर्घ प्रशासकीय अनुभव और विशिष्ट अंतर्दृष्टि के जरिये अजय सिंह जी ने शीर्ष सिविल सेवाओं का जो यथार्थ इस पुस्तक में प्रस्तुत किया है उसे पढ़कर कोई भी विचारवान व्यक्ति उद्धेलित हुए बिना नहीं रह सकता. मध्य प्रदेश में सीहोर और शहडोल जिलों के कलेक्टर रहे अजय सिंह ने १९९७ में स्वेच्छा से सेवानिवृत्ति ले ली और वर्ष २००१ में उनकी यह पुस्तक संस्मरणात्मक रूप में प्रकाशित हुयी. सिविल सेवा में बचे-खुचे ईमानदार अधिकारियों को समर्पित इस पुस्तक में आदर्शवाद से भरपूर नौजवान की सेवा में आने के बाद की व्यथा को समझा जा सकता है. वस्तुत: यह आदर्शों और व्यावहारिकता का एक दंद है जिसे हर अधिकारी अपने हिसाब से महसूस करता और उसका सामना करता है. पुस्तक पढ़कर प्रशासनिक सच को करीब से महसूस किया जा सकता है.

नवीन सरोकारों को सहेजे ‘गुफ्तगू‘ का कृष्ण कुमार यादव पर जारी अंक

आज के इस भौतिकवादी युग में साहित्य और संस्कृति के प्रति लोगों का अनुराग खत्म होता जा रहा है। पार्टी एवं क्लब कल्चर की चकाचैंध में युवा पीढ़ी अपने संस्कारों व सामाजिक सरोकारों से दूर छिटक रही है। ऐसे में 30 वर्षीय युवा अधिकारी कृष्ण कुमार यादव यदि धारा से विपरीत साहित्य की दुनिया में तेजी से अपना मुकाम बना रहे हैं, तो न सिर्फ यह युवाओं के लिए प्रेरणास्त्रोत है बल्कि प्रशासनिक प्रवृत्तियों और मानवीय संवेदनाओं का अतुलनीय समन्वय भी है। भारतीय डाक सेवा के अधिकारी कृष्ण कुमार यादव का नाम साहित्य की दुनिया में अपरिचित नहीं है। देश की प्रायः सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में उनकी साहित्यधर्मिता के सशक्त दर्शन होते हैं। अल्पायु में ही साहित्य-संसार को पाँच पुस्तकें देने वाले श्री यादव जिस कुशलता के साथ प्रशासकीय दायित्वों का निर्वाहन करते हैं, उसी तन्मयता के साथ भावों को भी शब्द देते हैं। उनके बारे में निःसंकोच कहा जा सकता है-‘‘जिधर नजर गई, कविता सृजित हुई।‘‘इलाहाबाद से मो0 इम्तियाज़ गाजी के सम्पादन में प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका ‘ गुफ्तगू ‘ का जनवरी-मार्च २००८ अंक कृष्ण कुमार यादव के व्यक्तित्व और कृतित्व पर परिशिष्ट रूप में केन्द्रित है। मु0 गाजी परिशिष्टों में कवियों की सर्वश्रेष्ठ रचनाओं का ऐसा संकलन प्रस्तुत करते रहे हैं, जो उसके व्यक्तित्व के हर पहलू से परिचित करा सके। अभी कैलाश गौतम पर जारी अंक ने काफी वाहवाही बटोरी थी और अब युवा कवि कृष्ण कुमार यादव पर परिशिष्ट निकाल कर मु0 गाजी ने साहित्य में पुराने और नये कवियों को एक मंच पर खड़ा करने का स्तुत्य प्रयास किया है। बेपनाह शोहरत हासिल कर चुके बेकल उत्साही, मुनव्वर राना, डा0 राहत इन्दौरी, डा0 बुद्धिनाथ मिश्र सहित तमाम शायरों के कलाम (गजल) और कवियों की कविताएं एक साथ प्रकाशित कर मो0 गाजी सामाजिक सद्भाव का मजबूत सेतु रचने का भी महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। यह बेहद खुशी की बात है कि गुफ्तगू में सुलभ साहित्यिक विषयवस्तु मूल्यवत्ता और गुणवत्ता की गंध से सर्वथा सुवासित है। एक तरफ साहित्य को जहाँ माल के रूप में बेचने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, वहां पर मु0 गाजी द्वारा प्रतिबद्धता के धरातल पर ऐसे खूबसूरत अंक निकालना अचरज ही पैदा करता है। एक तरफ जहाँ कविता के पाठक न होंने और साहित्यिक पत्रिकाओं में इसे शेष स्थान को भरने का रोना रोया जाता है, वहाँ गुफ्तगू द्वारा कविता गजल जैसी विधाओं के द्वारा अपना एक अच्छा खासा पाठक वर्ग बनाना स्वयं दर्शाता है कि कविता के नाम पर किसी की मठाधीशी नहीं चलने वाली। कृष्ण कुमार इस दौर के युवा कवियों में ऐसे कवि हैं जो अपनी काव्यभाषा की तरह ही जीवन में भी उतने ही सहज और सौम्य हैं। गुफ्तगू ने अपना यह अंक उन पर केन्द्रित कर एक अच्छा काम किया है।गुफ्तगू के प्रस्तुत अंक में काव्य संवेदना के भिन्न-भिन्न आस्वाद को सहेजती है । कृष्ण कुमार यादव की 35 चुनिंदा कविताएं और उनकी कविताओं पर विश्लेषणात्मक मूल्यांकनपरक निबन्ध शामिल हैं। यश मालवीय, जितेन्द्र जौहर, गोवर्धन यादव, रविनन्दन सिंह इत्यादि ने अपने मूल्यांकनपरक निबन्धों में कृष्ण कुमार यादव की कविताओं की गाँठ को पाठकों के सामने बखूबी खोला है। कृष्ण कुमार यादव के काव्यसंसार को सहेजती यह पत्रिका साहित्य के तमाम रूपों और सच से मुखातिब है। इस कम उम्र में भी कई बार वे जैसी भाषा का इस्तेमाल करते हैं, वह उनका सशक्त हथियार बन जाती है। मांस का लोथड़ा, मरा हुआ बच्चा, गुर्दा, हे राम, भिखमंगों का ईश्वर, डाकिया, एक माँ और माँ का पत्र कवितायें जहाँ अत्यन्त मर्मस्पर्शी हैं, वहीं ई-पार्क, आटा की चक्की, क्लोन, बेटी का कर्तव्य, विज्ञापनों का गोरखधन्धा, रिश्तों का अर्थशास्त्र तथा टूटते परिवार एक अलग सोच की प्रतिबिम्ब हैं। वस्तुतः गहरे जीवन-राग से उपजी ये कविताएं संवेदना के तरल प्रवाह के साथ व्यंग्य की ऐसी तीखी धार को लेकर बहती हैं जो पत्थरों से टकराने की क्षमता तो रखती ही हैं साथ-ही-साथ प्रतिबन्धों के किनारों को तोड़कर भी अपनी बात कहने से नहीं चूकतीं। कृष्ण कुमार के कृतित्व पर चार विद्वान साहित्यकारों के मूल्यांकनपरक निबन्ध इस युवा प्रतिभा का गहराई से परिचय कराने में सक्षम है एवं इस अंक को विशिष्टता प्रदान करते हैै।कहते हंै कि कविता यदि चाँद की खूबसूरती को रंग देती है तो उसकी बदरंगियत की ओर भी उंगली उठाती है। चर्चित कवि यश मालवीय की मानें तो कृष्ण कुमार खुली आंँखों से चैतरफा देखते हैं और फिर उसे अपनी सृजनात्मक छुअन से कविता का आलोक देते हैं। उनकी कविताओं में संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदन की एक लय बनती है, जिसे बकौल डा0 जगदीश गुप्त ‘अर्थ की लय‘ से जोड़कर देखा जा सकता है। बकौल गोवर्धन यादव भूमण्डलीकरण के दौर और पूँजीवाद की चकाचैंध के बीच सिकुड़ता मनुष्य कृष्ण कुमार की कविताओं में अद्भुत रूप से प्रस्तुति पाता है और इस अर्थ में ये कवितायें समकालीन समाज का प्रतिबिम्ब हैं। तभी तो गोपाल दास ‘नीरज‘ ने इस युवा कवि के लिए लिखा कि-‘‘कृष्ण कुमार यद्यपि छन्दमुक्त कविता से जुड़े हुए हैं लेकिन उनके समकालीनों में जो अत्यधिक बौद्धिकता एवं दुरूहता दिखायी पड़ती है, उससे वे सर्वथा अलग हैं। वो व्यक्तिनिष्ठ नहीं समाजनिष्ठ कवि हैं।‘‘जितेन्द्र ‘जौहर‘ कृष्ण कुमार की रचनाओं को सहज जीवन का पर्याय मानते हुए उनकी कविताओं को जैन दर्शन के स्याद्वाद की तरह देखते हैं। इनमें जहाँ शिल्प व छन्द की गेयता है, वहीं भाव व कथ्य पर भी उतना ही जोर है। आजादी के बाद बदलते समाज, राजनीति, अर्थतन्त्र, भ्रष्टाचार, अवसरवादिता, लोकतांत्रिक एवं धार्मिक पाखण्डों की नब्ज पकड़ने में नये रचनाकारों के बीच रवि नन्दन सिंह कृष्ण कुमार को बड़ी सम्भावनाओं का कवि मानते हैं। कविता की नियति सिर्फ इतनी नहीं है कि वह हर्ष-विषाद को व्यक्त करे बल्कि वह व्यवस्था परिवर्तन भी करती है। इस रूप में कृष्ण कुमार की कवितायें समसामयिक दुरवस्थाओं का चित्रण ही नहीं करतीं बल्कि उन्हंे बदलने की चुनौती भी देती हैं।कुल मिलाकर कृष्ण कुमार यादव पर केन्द्रित गुफ्तगू का यह विशिष्ट अंक खूबसूरत आवरण पृष्ठ व मुद्रण के साथ अपने अस्सी पृष्ठीय लघुकलेवर में प्रभूत मूल्यवान साहित्यिक सामग्री समाहित कर पाने में सक्षम हुआ है। यद्यपि कृष्ण कुमार को महनीय शासकीय दायित्वों की दुर्गम घाटियों से अहर्निश गुजरना पड़ता है, फिर भी सृजनशीलता की निरन्तरता कहीं भी बाधित नहीं हो पायी है। ऐसे में मो0 इम्तियाज गाजी द्वारा ऐसे कर्मठ और बलवती साहित्यिक जिजीविषा के द्योतक कवि पर परिशिष्ट का प्रकाशन सराहनीय है और नई पीढ़ी के प्रति पत्रिका के सरोकारों को भी समृद्ध करता है। अत्यन्त आकर्षक साज-सज्जा के साथ इतनी विशद सामग्री संयोजन के लिए सम्पादक मो0 गाजी निश्चित रूप से बधाई के पात्र हैं। युवा प्रशासक और साहित्यकार कृष्ण कुमार यादव विशेष बधाई के पात्र हैं कि उन पर इतनी अल्पायु में ही साहित्यिक पत्रिकाएं विशेषांक जारी कर रही हैं। यह सक्रियता बनी रहे तो बेहतर है।
संपर्क: मो0 इम्तियाज गाजी, 123 ए/1, हरवारा, धूमनगंज, इलाहाबाद
समीक्षक- जवाहरलाल ‘जलज‘, शंकर नगर- बांदा (उ0प्र0)

बुधवार, 19 नवंबर 2008

''बाल साहित्य समीक्षा'' की भाव-भूमि पर कृष्ण कुमार यादव

बहुत कम ही लोगों को अल्पायु में पत्रिकाओं द्वारा व्यक्तित्व-कृतित्व पर विशेषांक प्रकाशित किये जाने का सौभाग्य मिलता है। कृष्ण कुमार यादव उनमें से एक हैं. कानपुर से प्रसिद्ध बाल साहित्यकार डा. राष्ट्रबंधु ने '' बाल साहित्य समीक्षा '' का सितम्बर-०८ अंक '' प्रशासन और साहित्य के नाविक '' शीर्षक से युवा साहित्यकार कृष्ण कुमार यादव पर जारी किया है। आवरण पृष्ठ पर कृष्ण कुमार यादव के मनमोहक चित्र से सुसज्जित बाल साहित्य समीक्षा का यह अंक अपने 32 पृष्ठीय लघु कलेवर में उनकी बहुमुखी प्रतिभा वाले समग्र व्यक्तित्व और कृतित्व को उदघाटित करता है। उनकी बाल कविताओं पर इस अद्भुत विशेषांक में कुल पाँच मूल्यांकनपरक लेख शामिल हैं।

‘‘विलक्षण प्रतिभा के धनी‘‘ शीर्षक से प्रस्तुत लेख कृष्ण कुमार के व्यक्तित्व को जीवन के तमाम सोपानों से गुजारते हुए पाठको के सम्मुख रखता है। ‘‘बाल मन को सहेजती कविताएं‘‘ में डाॅ0 विद्याभाष्कर वाजपेयी लिखते हैं कि, कृष्ण कुमार की बाल कविताएं सिर्फ कागजी तीर नहीं हैं, बल्कि वास्तविकता की भावभूमि पर खड़ी हैं, तो ‘‘बाल मन की झांकी प्रतिबिम्बित करती बाल कविताएं‘‘ में कृपा शंकर यादव के मत में कृष्ण कुमार की बाल कविताओं की एक अनूठी विशेषता है, जहाँ मजे-मजे में वे समकालीन समाज से जुड़े कुछ गूढ़ प्रश्नों और अन्तर्विरोधों पर लेखनी चलाने के बहाने बाल मन से खिलवाड़ करने वाली भावनाओं पर भी निशाना साधते हैं। कृष्ण कुमार की बाल कवितायें समकालीन सरोकारों के साथ बाल मनोविज्ञान को जिस प्रकार प्रस्तुत करने में पूर्णतया सक्षम दिखती हैं, उस पर डाॅ0 अवधेश ने बखूबी लिखा है। जितेन्द्र ‘जौहर‘ कृष्ण कुमार की रचनाधर्मिता के सभी पहलुओं को समेटते हुए उन्हें ‘‘विविध दायित्वों के गोवर्धन-धारक‘‘ रूप में देखते हैं।

वरिष्ठ बाल साहित्यकार सूर्य कुमार पाण्डेय ने कृष्ण कुमार की कविताओं पर लिखने के बहाने बाल-विमर्श की उपेक्षा पर भी सवाल उठाये हैं। उनके शब्दों में ही- ‘‘आज की कविता में दलित और महिला विमर्श को नारे की तरह उछाला गया, जन चेतना में इसके महत्व को नकारा भी नहीं जा सकता, किन्तु एक अनछुआ पहलू है, बाल-विमर्श। इस देश की आधी से कुछ कम आबादी बच्चों की है। उनके शोषण, उत्पीड़न की तमाम चिंताओं के बीच हस्तक्षेप करती हुई बाल-विमर्श की कम कविताएँ ही नजर आती हैं। आज के बदलते समय, समाज और बच्चों की चिन्ता वह जरूरी पहलू हंै, जिस पर कृष्ण कुमार यादव की दृष्टि गई है।‘‘ डाॅ0 विनय शर्मा ने बाल साहित्य एवं इसके सरोकारों पर कृष्ण कुमार यादव का एक साक्षात्कार भी प्रस्तुत किया है, जिसमें श्री यादव ने बाल साहित्य को रोचक बनाने हेतु अंधविश्वास व पलायनवादी दृष्टिकोण पर आधारित साहित्य की बजाय रोचक ढंग से ऐसे उद्देश्यमूलक साहित्य के सृजन की जरूरत की बात कही है, जो बच्चों को बाँध सके।कुल मिलाकर पत्रिका का यह अंक अपने सामाजिक-साहित्यिक दायित्वों की अनुपम ढंग से न सिर्फ पूर्ति करता है बल्कि कई नए मानदंड भी स्थापित करता है।
संपर्क: डा. राष्ट्रबंधु, १०९/३०९ आर.के. नगर, कानपुर
समीक्षक: जवाहरलाल ‘जलज‘, शंकर नगर- बांदा (उ0प्र0)

मंगलवार, 18 नवंबर 2008

एक युवा पहल : कृतिका

समाज में तमाम बुद्धिजीवी अपने स्तर से रचनात्मक कार्यों का निर्वहन कर रहे हैं। युवा शक्ति यह बखूबी समझ रही है कि सत्ता और प्रभाव को बरकरार रखने के लिए विचारों की धार अनिवार्य है और इसकी धार को और मजबूत करने की लिए लोगों की एकजुटता जरुरी है. उत्तर प्रदेश के एक छोटे से जनपद उरई-जालौन में हिंदी के प्रवक्ता वीरेन्द्र सिंह यादव ने अर्धवार्षिक पत्रिका " कृतिका" के संपादन द्वारा यह बीड़ा उठाया है. पत्रिका के अभी दो ही अंक आये हैं, पर ऐसा लगता नहीं. साहित्य, कला, संस्कृति, आयुर्वेद, मानविकी एवं समाज विज्ञान को समर्पित देश-देशांतर मित्रों का यह शोधपरक अनुष्ठान बहुआयामी है.150 से ज्यादा पृष्ठों में विभिन्न विषयों पर सारगर्भित लेख के प्रकाशन के साथ पुस्तकों की समीक्षा इसे पठनीय बनती है. भारत से परे भी तमाम देशों के रचनाकारों के समाहित लेख कृतिका को कम समय में ही उल्लेखनीय बनाने में सफल दिखते हैं.
संपर्क: वीरेन्द्र सिंह यादव, 1760, नया रामनगर, उरई-जालौन- 285001

सोमवार, 17 नवंबर 2008

एक अद्भुत प्रयास : मड़ई

एक ऐसे दौर में जहाँ तमाम पत्र-पत्रिकाएं संसाधनों के अभाव में दम तोड़ रही हैं, वहाँ किसी व्यक्ति द्वारा न सिर्फ अपने दम पर लगभग 250-300 पृष्ठों की पत्रिका का वार्षिक प्रकाशन बल्कि पूरे देश में इसका निशुल्क वितरण चौंकाता है। पर पिछले 9 वर्षों से मड़ई पत्रिका का कुशल संपादन कर रहे श्री कालीचरण यादव ने यह कर दिखाया है. रावत नाच महोत्सव समिति बिलासपुर, छत्तीसगढ़ के संयोजक रूप में वह न सिर्फ इस पत्रिका का खूबसूरती से संपादन कर रहे हैं बल्कि इस समिति के बैनर तले यादव छात्र-छात्रों को पुरस्कृत/सम्मानित भी कर रहे हैं. जहाँ बड़े नगरों में हो रहे छोटे-छोटे कार्यक्रम पेज थ्री की खबर बनकर सुर्खियाँ बटोरते हैं, वहाँ कालीचरण जी का यह विनम्र प्रयास दीपक की भाँति समाज को राह दिखता है. मड़ई पत्रिका में देश के विभिन्न अंचलों की लोक-संस्कृति को सहेजते लेख बहुत कुछ अनकहा कह जाते हैं. दुर्भाग्य से पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध में हम अपनी संस्कृति, उसकी लोकरंजकता, समृद्ध विरासतों को जिस प्रकार उपेक्षित कर रहे हैं, उसके चलते कहीं हमारा अस्तित्त्व ही खतरे में न पड़ जाये. इस संक्रमणकालीन झंझावात के बीच "लोक के रेखांकन का विनम्र प्रयास" करती मड़ई पत्रिका के सार्थक संपादन हेतु कालीचरण यादव की जितनी भी प्रशंसा की जाय, कम होगी.
संपर्क : कालीचरण यादव, बनियापारा, जूना विलासपुर, छत्तीसगढ़- 495001

सामाजिक न्याय का संवाहक : प्रगतिशील उद्भव

बहुत कम ही ऐसी पत्रिकाएं होती हैं जो अपने प्रवेशांक से ही छाप छोड़ जाती हैं. उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से गिरसंत कुमार यादव द्वारा प्रकाशित और अजय शेखर द्वारा संपादित त्रैमासिक पत्रिका "प्रगतिशील उद्भव" का पहला अंक ही सामाजिक न्याय पर केन्द्रित है. प्रख्यात आलोचक प्रो. चौथीराम यादव ने अपने साक्षात्कार में बाजारीकरण के दौर में सामाजिक न्याय की प्रासंगिकता को सिद्ध किया है तो योगेन्द्र यादव ने सामाजिक न्याय की राजनीति पर एक वैचारिक बहस कड़ी करने की कोशिश की है. भूमंडलीकरण के दंद में पिसती ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर राम शिव मूर्ति यादव का आलेख एक गंभीर पड़ताल है तो युवा लेखक कृष्ण कुमार यादव का धर्मनिरपेक्षता पर लेख भारतीय सन्दर्भ में इसकी सटीक व्याख्या करता है. लेख, विमर्श, कहानी, पुस्तक चर्चा, बहस इत्यादि तमाम स्तंभों के साथ जन साहित्य, संस्कृति एवं विचारों की यह परिवर्तनकामी पत्रिका भीड़ में अलग स्थान बनाने में सफल दिखती है.
संपर्क : अजय शेखर/गिरसंत यादव, 1/553, विनय खंड, गोमती नगर, लखनऊ -226010

रविवार, 16 नवंबर 2008

यादव साम्राज्य पत्रिका

यदुकुल हेतु यादव साम्राज्य पत्रिका का अंक भी प्राप्त हुआ है. कानपुर से श्री भंवर सिंह यादव के संपादन में जारी इस 210 पृष्ठीय त्रैमासिक पत्रिका में यादवों के उद्भव, इतिहास और रजवाड़ों पर विशेष सामग्री प्रकाशित है. भगवान कृष्ण और राधा जी के चित्र से सुसज्जित मुख-पृष्ठ इसे और भी खूबसूरत बनाता है. राजनीति-प्रशासन-समाज सेवा से जुडी यादव विभूतियों पर उनके जीवन प्रवाह और योगदान को समेटे लेख इस पत्रिका को आकर्षक बनाते हैं. पत्रिका नियमित अन्तराल पर प्रकाशित हो तो व्यापक आयामों को समेट जा सकता है.
संपर्क: भंवर सिंह यादव, 130/61, बगाही, बाबा कुटी चौराहा, किदवई नगर, कानपुर-२०८०११

शुक्रवार, 14 नवंबर 2008

यादव कुल दीपिका

यदुकुल हेतु प्राप्त एक अन्य पत्रिका दिल्ली से श्री चिरंजी लाल यादव के संपादन में पिछले १४ वर्षों से प्रकाशित मासिक "यादव कुल दीपिका" है। ३५ पृष्ठ की यह हिंदी/ अंग्रजी पत्रिका अपने को "यदुवंश की सांस्कृतिक धरोहर मानवीय मूल्यों को संरक्षित एवं संवर्द्धित करने वाली" घोषित करती है. पत्रिका में भगवान कृष्ण पर लेख, विभिन्न क्षेत्रों में यादवों द्वारा गतिविधियों के समाचार के साथ-साथ सामाजिक लेख और कहानियां इत्यादि भी हैं. पत्रिका वैवाहिक विज्ञापनों के द्वारा भी लोगों को आकर्षित करने का प्रयास कर रही है. पत्रिका नियमित रूप से प्रकाशित होने के साथ-साथ अन्य पहलुओं पर भी जोर देती है. इसे एक अच्छे प्रयास के रूप में देखा जाना चाहिए।
संपर्क: चिरंजी लाल यादव, बी-73, शिवाजी रोड, उत्तरी घोंडा, दिल्ली-110053

गुरुवार, 13 नवंबर 2008

यादवी संस्कृति को बिखेरता 32वां राऊत नाच महोत्सव सम्पन्न

बिलासपुर में विगत वर्षों की भांति इस वर्ष भी 32वां राऊत नाम महोत्सव 7 नवबर को रंगारंग कार्यक्रमों के बीच सम्पन्न हुआ। जिसमें प्रदेश भर के अलग-अलग क्षेत्रों से आये हुए राऊत नर्तक दलों ने छत्तीसगढ़ के सामाजिक सद्भाव एवं लोक संस्कृति के इस अनोखे पर्व में रंग-बिरंगी पारंपरिक वेशभूषाओं में सज कर बेजोड़ संगीतमय प्रस्तुतियां दी।
इस अवसर पर उपस्थित कार्यक्रम के मुख्य अतिथि अमर अग्रवाल ने अपने उद्बोधन में कहा कि यादव समाज ने भगवान कृष्ण के प्रेम का संदेश घर-घर पहुंचाने का कार्य किया है। बिलासपुर की यह परम्परा निरंतर कायम रहनी चाहिये। अग्रवाल ने कहा कि 32 वर्ष पहले बिलासपुर में डॉ। कालीचरण यादव एवं बी.आर. यादव ने जो शुरूआत की थी। सारे देश में लोक संस्कृति का ऐसा अभूतपूर्व दृश्य शायद ही कहीं नजर आता हो। इस परम्परा को हमेशा कायम रखा जाना चाहिये। उन्होंने कहा कि यादव समाज भगवान कृष्ण के वंशज हैं। यदुवंशियों की पूजा कर लीजिये भगवान कृष्ण की पूजा हो जायेगी। कार्यक्रम में उपस्थित कृषि, पशुपालन मत्स्यपालन, श्रम विभाग के मंत्री चंद्रशेखर साहू ने कहा कि बिलासपुर में यादव समाज का यह राऊत महोत्सव प्रदेश का एक अलग पहचान बनाता है। इसके लिये उन्होंने यदुवंशियों को धन्यवाद दिया। प्रदेश भर से आये हुए नर्तकदलों को यहां अपने कला-कौशल के प्रदर्शन के साथ-साथ उसे निखारने का मौका मिलता है। उन्होंने सरकार द्वारा यादव समाज के लिये क्रियान्वित की जा रही योजनाओं का उल्लेख किया और बताया कि किसानों को डेयरी व्यवसाय के लिये तीन प्रतिशत ब्याज दर पर एक लाख रुपये का ऋण दिया जायेगा।
कार्यक्रम में सांसद चरणदास महंत एवं पूर्वमंत्री बी.आर. यादव ने भी संबोधित किया। इसके पूर्व अतिथियों को पारम्परिक वेशभूषा पहनाकर सम्मान किया गया। कार्यक्रम में यादव समाज के प्रतिभावान छात्र-छात्राओं को राऊत नाच महोत्सव छात्रवृत्ति राशि, प्रमाण पत्र, पुरस्कार वितरण एवं लोक संस्कृति पर केन्द्रित पत्रिका "मड़ई 2009'' का विमोचन किया गया।कार्यक्रम में डॉ. कालीचरण यादव, उमाशंकर यादव, भुवनेश्वर यादव, कृष्ण कुमार यादव सहित यादव समाज के पदाधिकारी, आयोजन समिति के सदस्यगण, गणमान्य नागरिक तथा प्रदेश भर से आये हुए राऊत नर्तक उपस्थित थे।

यादव निर्देशिका सह-पत्रिका

यदुकुल हेतु यादव निर्देशिका सह-पत्रिका का अंक प्राप्त हुआ है। आगरा से श्री सत्येन्द्र सिंह यादव के संपादन में जारी इस २२१ पृष्ठीय वार्षिक पत्रिका में देश के लगभग सभी प्रान्तों के प्रमुख यादवों के नाम, पता, फ़ोन नंबर के साथ-साथ विभिन्न क्षेत्रों में उपलब्धियाँ प्राप्त यादवों का विशेष जिक्र है. समाज के विभिन्न पहलुओं पर संकलित लेख इस पत्रिका को सारगर्भित बनाते हैं. संपादक का प्रयास सराहनीय है.

संपर्क: सत्येन्द्र सिंह यादव, 27-सुरेश नगर, न्यू आगरा, आगरा-5

बुधवार, 12 नवंबर 2008

यदुवंशियों द्वारा प्रकाशित पत्र-पत्रिकाएं

किसी भी वर्ग के निरंतर उन्नयन और प्रगतिशीलता के लिए जरुरी है कि विचारों का प्रवाह हो। विचारों का प्रवाह निर्वात में नहीं होता बल्कि उसके लिए एक मंच चाहिए। राजनीति-प्रशासन-मीडिया-साहित्य-कला से जुड़े तमाम ऐसे मंच हैं, जहाँ व्यक्ति अपनी अभिव्यक्तियों को विस्तार देता है। आधुनिक दौर में किसी भी समाज-राष्ट्र के विकास में साहित्य और मीडिया की प्रमुख भूमिका है, क्योंकि ये ही समाज को चीजों के अच्छे-बुरे पक्षों से परिचित करने के साथ-साथ उनका व्यापक प्रचार-प्रसार भी करती हैं। व्यवहारिक तौर पर भी देखा जाता है कि जिस वर्ग की मीडिया-साहित्य पर जितनी मजबूत पकड़ होती है, वह वर्ग भी अपनी बुद्धिजीविता के बाल पर उतना ही सशक्त और प्रभावी होता है और लोगों के विचारों को भी प्रभावित करने की क्षमता रखता .है यादव समाज से जुड़े तमाम बुद्धिजीवी देश के कोने-कोने से पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन/संपादन कर रहे हैं. जरुरत है की इनका व्यापक प्रचार-प्रसार हो और इनके पाठकों की संख्या में भी अभिवृद्धि हो. यदुकुल की कोशिश होगी कि इन पत्र-पत्रिकाओं को सामने लाया जाय। कुछ प्रमुख पत्र-पत्रिकाएं-

हंस (मा0)ः सं0-राजेन्द्र यादव, अक्षर प्रकाशन प्रा0 लि0, 2/36 अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली/

सामयिक वार्ता()ःसं0- योगेन्द्र यादव, एक्स बी-4, सह विकास सोसायटी, 68, इंद्रप्रस्थ विस्तार, पटपड़गंज, दिल्ली/

प्रगतिशील आकल्प(त्रै0)ः सं0- डा0 शोभनाथ यादव, पंकज क्लासेज, पोस्ट आफिस बिल्डिंग, जोगेश्वरी (पूर्व), मुम्बई/

मड़ई (वार्षिक)ः सं0-डा0 कालीचरण यादव, बनियापारा, जूना विलासपुर, छत्तीसगढ़-495001/

राष्ट्रसेतु(मा0)ःसं0-जगदीश यादव, मिश्रा भवन, आमानाका, रायपुर (छत्तीसगढ़)/

मुक्तिबोध (अनि0)ःसं0-मांघीलाल यादव, साहित्य कुटीर, टिकरापारा, गंडई-पंडरिया, राजनादगाँव(छ0ग0)/

बहुजन दर्पण(सा0)ःसं0- नन्द किशोर यादव, विजय वार्ड नं0 2, जगदलपुर, छत्तीसगढ़/

नाजनीन()ःसं0-रामचरण यादव ‘याददाश्त‘, सदर बाजार, बैतूल (म0प्र0)/

डगमगाती कलम के दर्शन(मा0)ःसं0-रमेश यादव, 127-गोकुलगंज, कन्डीलपुरा, इंदौर - 452006/

प्रियंत टाइम्स(मा0)ः सं0- प्रेरित प्रियन्त, 22- भालेकरीपुरी, इमली बाजार, इन्दौर-4/

वस्तुतः (अनि0)ः सं0- अरुण कुमार, तरुण-निवास, त्रिवेणीगंज, बिहार-852139/

मण्डल विचार (मा0)ः सं0- श्यामल किशोर यादव, श्यामप्रिया सदन, गुलजारबाग, मधेपुरा, बिहार-852113/

आपका आईना(त्रै0)ःसं0-डा0 राम अशीष सिंह, समीक्षा प्रकाशन, मानिक चंद तालाब, अनीसाबाद, पटना-800002/

अनंता(मा0)ःसं0- पूनम यादव, २०३-२०४, सरन चैंबर-IIदितीय तल, ५ पार्क रोड, लखनऊ (यू. पी.)/

शब्द (मा0)ः सं0- आर0सी0यादव, सी-1104, इन्दिरा नगर, लखनऊ-226016/

अमृतायन()ःसं0- डा0 अशोक ‘अज्ञानी‘, हिन्दी अनुभाग, राजकीय हुसैनाबाद इंटर कालेज, चौक,लखनऊ-226003/

प्रगतिशील उद्भव(त्रै0)ःसं0-अजय शेखर, गिरसन्त कुमार यादव, 1/553, विनयखण्ड, गोमती नगर, लखनऊ- 226010/

कृतिका(छ0)ःसं0- डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव, 1760, नया रामनगर, उरई, जालौन (उ0प्र0)-285001/

हिन्द क्रान्ति(पा0)ःसं0- सतेन्द्र सिंह यादव, आर-4/17, राजनगर, गाजियाबाद (उ0प्र0)/

स्वतन्त्रता की आवाज(सा0)ःसं0-आनन्द सिंह यादव, ग्राम-ईशापुर पो0-मलिहाबाद, लखनऊ/

दहलीज(पा0)ःसं0-ओमप्रकाश यादव 13,पटेल परमानंद की चाली(पठान की चाली), अमृता मील के सामने, सरसपुर, अहमदाबाद/

यादव ज्योति(मा0)ःसं0-श्रीमती लालसा देवी, ‘यादव-ज्योति‘ कार्यालय, के0 54/157-ए, दारानगर, वाराणसी-221001/

यादव कुल दीपिका()ःसं0- चिरंजी लाल यादव, बी-73, शिवाजी रोड, उत्तरी घोण्डा, दिल्ली-53/

यादव डायरेक्ट्री (वार्षिक) सं0-सत्येन्द्र सिंह यादव, 27, सुरेश नगर, न्यू आगरा, आगरा-5/

यादवों की आवाज (त्रै0) सं0-डा0 के0सी0 यादव, अखिल भारत वर्षीय यादव महासभा, श्री कृष्ण भवन, सेक्टर-IVवैशाली, टी0एच0ए0, गाजियाबाद -201011/

यादव साम्राज्य(त्रै0)ःसं0-भंवर सिंह यादव, 130/61, बगाही, बाबा कुटी चौराहा, किदवई नगर, कानपुर-208011/

यादव शक्ति (त्रै0) सं0- राजबीर सिंह यादव, 161, बाजार दक्षिणी सिधौली, सीतापुर (उ0प्र0)-261303/

यादव दर्पण()ःसं0-डाॅ0 जगदीश व्योम, 1206, सेक्टर-37, नोएडा, गौतमबुद्ध नगर

मंगलवार, 11 नवंबर 2008

यादव समाज का उद्भव, इतिहास और प्रमुख व्यक्तित्व

यादव समाज के उद्भव, इतिहास और प्रमुख व्यक्तित्वों के बारे में जानकारी के लिए लिंक्स-http://en.wikipedia.org/wiki/Yadav
http://www.answers.com/yadav

सोमवार, 10 नवंबर 2008

यदुकुल ब्लॉग का आरम्भ

आज यदुकुल पर प्रथम दिन है। इस वंश के पूर्वज भगवान श्री कृष्ण माने जाते हैं। समाज-राजनीति-प्रशासन-साहित्य-संस्कृति इत्यादि तमाम क्षेत्रों में यादव समाज के लोग देश-विदेश में नाम रोशन कर रहे हैं. इनमें से कई ऐसे नाम और काम हैं जो समाज के सामने नहीं आ पाते. या यूँ कहें कि उन्हें ऐसा कोई मंच नहीं मिलता जिसके माध्यम से वे और उनकी उपलब्धियाँ सामने आयें. यादव समाज पर केन्द्रित कुछेक पत्र-पत्रिकाएं जरुर प्रकाशित हो रही हैं, पर नेटवर्क और संसाधनों के अभाव में उनकी पहुँच काफी सीमित है. तमाम मित्रों और बुद्धिजीवियों का भी आग्रह था कि अंतर्जाल के इस माध्यम का इस दिशा में उपयोग किया जाय, ऐसे में यह प्रयास आपके सामने है. यदुकुल के माध्यम से यह कोशिश होगी कि यादव समाज में और यादव समाज द्वारा किये जा रहे उन तमाम प्रयासों को यहाँ रेखांकित किया जाय और उनसे संबंधित रचनाएँ इत्यादि भी यहाँ प्रस्तुत की जाएँ. इसके अलावा विभिन्न विषयों पर सारगर्भित लेख, पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों की समीक्षा, जानी-अनजानी यादव विभूतियों पर आलेख इत्यादि भी यदुकुल में समाहित किये जायेंगे. आशा है कि यदुकुल को आपका पूरा सहयोग मिलेगा !!