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आज लोकतंत्र मात्र एक शासन-प्रणाली नहीं वरन् वैचारिक स्वतंत्रता का पर्याय बन गया है। कृष्ण कुमार यादव की नजर इस पर भी गई है। ‘‘लोकतंत्र के आयाम‘‘ लेख में भारतीय लोकतंत्र के गतिशील यथार्थ की सच्ची तस्वीर देखी जा सकती है। किसी विशेष राजनीतिक विचारधारा से प्रभावित हुए बिना भारतीय समाज के पूरे ताने-बाने को समझने की वैज्ञानिक दृष्टि इस लेख को महत्वपूर्ण बना देती है। सत्य-असत्य, सभ्यता के आरम्भ से ही धर्म एवं दर्शन के केद्र-बिंदु बने हुये हैं। महात्मा गाँधी, जिन्हें सत्य का सबसे बड़ा व्यवहारवादी उपासक माना जाता है ने सत्य को ईश्वर का पर्यायवाची कहा। भारत सरकार के राजकीय चिन्ह अशोक-चक्र के नीचे लिखा ‘सत्यमेव जयते’ शासन एवं प्रशासन की शुचिता का प्रतीक है। यह हर भारतीय को अहसास दिलाता है कि सत्य हमारे लिये एक तथ्य नहीं वरन् हमारी संस्कृति का सार है। इस भावना को सहेजता लेख ‘‘सत्यमेव जयते‘‘ बड़ा प्रभावी लेख है। एक अन्य लेख में लेखक ने प्रयाग के महात्मय का वर्णन करते हुए इलाहाबाद के राजनैतिक-सामाजिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक योगदान को रेखांकित किया है। इसमें इतिहास और स्मृति एक दूसरे के साथ-साथ चलते हुए नजर आते हैं।
सृष्टि का चक्र चलाने वाली, एक उन्नत समाज बनाने वाली, शक्ति, ममता, साहस, सौर्य, ज्ञान, दया का पुंज है नारी। एक तरफ वह यशोदा है, तो दूसरी तरफ चण्डी भी। आज महिलायें समुद्र की गहराई और आसमान की ऊँचाई नाप रही हैं। ‘‘रूढ़ियों की जकड़बन्द तोड़ती नारियाँ‘‘ ऐसी नारियों का जिक्र करती है जो फेमिनिस्ट के रूप में किन्हीं नारी आन्दोलनों से नहीं जुड़ी हैं। कर्मकाण्डों में पुरूषों को पीछे छोड़कर पुरोहिती करने वाली, माता-पिता के अंतिम संस्कार से लेकर तर्पण और पितरों के श्राद्ध तक करने वाले ऐसे तमाम कार्य जिसे महिलाओं के लिए सर्वथा निषिद्ध माना जाता रहा है, आज महिलायें खुद कर रही हैं। आजादी के दौर में भी कुछ महापुरूषों ने इन रूढ़िगत मान्यताओं के विरूद्ध आवाज उठाई थी पर अब महिलायें सिर्फ आवाज ही नहीं उठा रही हैं वरन् इन रूढ़िगत मान्यताओं को पीछे ढकेलकर नये मानदण्ड भी स्थापित कर रही हैं। इसी क्रम में ‘‘लिंग समता: एक विश्लेषण‘‘ नामक लेख पुरूष व महिलाओं के बीच जैविक विभेद को स्वीकार करते हुए सामंजस्य स्थापित करने और तद्नुसार सभ्यता के विकास हेतु कार्य करने की बात करता है।
कोई भी लेखक या साहित्यकार अपने समय की घटनाओं और उथल-पुथल के माहौल से प्रेरित होकर साहित्य की रचना करता है। कृष्ण कुमार भारतीय संस्कृति, उसके जीवन मूल्यों और माटी की गंध को रोम-रोम में महसूस करते हैं। आज हमारी लोक-संस्कृति व विरासत पर चैतरफा दबाव है और बाजारवाद के कारण वह संकट में है। ऐसे में लेखक भारतीय संस्कृति और उसकी विरासत का पहरूआ बनकर सामने आता है। अपने लेख ‘‘शाश्वत है भारतीय संस्कृति और इसकी विरासत‘‘ में कृष्ण कुमार जब लिखते हैं- ‘‘वस्तुतः हम भारतीय अपनी परम्परा, संस्कृति, ज्ञान और यहाँ तक कि महान विभूतियों को तब तक खास तवज्जो नहीं देते जब तक विदेशों में उसे न स्वीकार किया जाये। यही कारण है कि आज यूरोपीय राष्ट्रों और अमेरिका में योग, आयुर्वेद, शाकाहार, प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, होम्योपैथी और सिद्धा जैसे उपचार लोकप्रियता पा रहे हैं जबकि हम उन्हें बिसरा चुके हैं‘‘, तो उनसे असहमति जताना बड़ा कठिन हो जाता है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम‘ का पाठ पढ़ाने वाली भारतीय संस्कृति सामाजिक-साम्प्रदायिक सद्भाव की हिमायती रही हैं। आज जातिवाद, सम्प्रदायवाद की आड़ में जब इस पर हमले हो रहे हैं तो युवा लेखक की लेखनी इससे अछूती नहीं रहती। बचपन से ही एक दूसरे के धर्मग्रंथों और धर्मस्थानों के प्रति आदर का भाव पैदा करके अगली पीढ़ियों को इस विसंगति से दूर रखने की सलाह देने वाले लेख ‘‘साम्प्रदायिकता बनाम सामाजिक सद्भाव‘‘ में समाहित उदाहरण इसे समसामयिक बनाते हैं।
आज की नई पीढ़ी महात्मा गाँधी को एक सन्त के रूप में नहीं बल्कि व्यवहारिक आदर्शवादी के रूप में प्रस्तुत कर रही है। महात्मा गाँधी पर प्रस्तुत लेख ‘‘समग्र विश्वधारा में व्याप्त हैं महात्मा गाँधी‘‘ उनके जीवन-प्रसंगों पर रोचक रूप में प्रकाश डालते हुए समकालीन परिवेश में उनके विचारों की प्रासंगिकता को पुनः सिद्ध करता है। वस्तुतः गाँधी जी दुनिया के एकमात्र लोकप्रिय व्यक्ति थे जिन्होंने सार्वजनिक रूप से स्वयं को लेकर अभिनव प्रयोग किए और आज भी सार्वजनिक जीवन में नैतिकता, आर्थिक मुद्दों पर उनकी नैतिक सोच व धर्म-सम्प्रदाय पर उनके विचार प्रासंगिक हंै।
साहित्य रचना केवल एक कला ही नहीं है बल्कि उसके सामाजिक दायित्व का दायरा भी काफी बड़ा होता है। यही कारण है कि साहित्य हमारे जाने-पहचाने संसार के समानांतर एक दूसरे संसार की रचना करता है और हमारे समय में हस्तक्षेप भी करता है। ऐसे में व्यक्ति, समाज, साहित्य और राजनीति के अन्तर्सम्बधों की संश्लिष्टता को पहचान कर उसे मौजूदा दौर के परिपे्रक्ष्य में जाँचना-परखना कोई मामूली चुनौती नहीं। कृष्ण कुमार यादव मूकदृष्टा बनकर चीजों को देखने की बजाय भाषा की स्वाभाविक सहजता के साथ इन चुनौतियों का सामना करते हैं, जिसका प्रतिरूप उनका यह प्रथम निबंध-संग्रह है। कृष्ण कुमार यादव की यह पुस्तक पढ़कर जीवंतता एवं ताजगी का अहसास होता है।
8 टिप्पणियां:
Great work.....
इस संग्रह की समीक्षा अभी सृजनगाथा वेब पत्रिका पर भी पढ़ी थी...मुबारकबाद स्वीकारें.
इस संग्रह की समीक्षा अभी सृजनगाथा वेब पत्रिका पर भी पढ़ी थी...मुबारकबाद स्वीकारें.
खूबसूरत और सारगर्भित समीक्षा.
कृष्ण कुमार यादव की यह पुस्तक पढ़कर जीवंतता एवं ताजगी का अहसास होता है...Badhai.
आज हमारी लोक-संस्कृति व विरासत पर चैतरफा दबाव है और बाजारवाद के कारण वह संकट में है। ....sahi pehchana apne.
इस पुस्तक की समीक्षा यहाँ भी पढ़ी, बधाई--http://ehindisahitya.blogspot.com/2008/10/blog-post_07.html
Nice book..congts.
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