शुक्रवार, 30 जनवरी 2009
अभिव्यंजना द्वारा आकांक्षा यादव को ‘‘काव्य-कुमुद‘‘ सम्मान
कानपुर की चर्चित साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्था ‘‘अभिव्यंजना‘‘ द्वारा युवा कवयित्री एवं साहित्यकार श्रीमती आकांक्षा यादव को हिन्दी साहित्य में सृजनात्मक योगदान एवं काव्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय सेवा के लिए ‘‘काव्य-कुमुद‘‘ की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया है। देश की तमाम प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं एवं अन्तर्जाल पर प्रकाशित होने वाली श्रीमती आकांक्षा यादव वर्तमान में राजकीय बालिका इण्टर कालेज, नरवल, कानपुर में प्रवक्ता हैं। नारी विमर्श, बाल विमर्श एवं सामाजिक सरोकारों सम्बन्धी विमर्श में विशेष रूचि रखने वाली श्रीमती आकांक्षा यादव को इससे पूर्व भी विभिन्न साहित्यिक-सामाजिक संस्थानों द्वारा सम्मानित किया जा चुका है। जिसमें इन्द्रधनुष साहित्यिक संस्था, बिजनौर द्वारा ‘‘साहित्य गौरव‘‘ व ‘‘काव्य मर्मज्ञ‘‘, राष्ट्रीय राजभाषा पीठ इलाहाबाद द्वारा ‘‘भारती ज्योति‘‘, श्री मुकुन्द मुरारी स्मृति साहित्यमाला, कानपुर द्वारा ‘‘साहित्य श्री सम्मान‘‘, मथुरा की साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था ‘‘आसरा‘‘ द्वारा ‘‘ब्रज-शिरोमणि‘‘ सम्मान, मध्यप्रदेश नवलेखन संघ द्वारा ‘‘साहित्य मनीषी सम्मान‘‘, छत्तीसगढ़ शिक्षक-साहित्यकार मंच द्वारा ‘‘साहित्य सेवा सम्मान‘‘, देवभूमि साहित्यकार मंच, पिथौरागढ़़ द्वारा ‘‘देवभूमि साहित्य रत्न‘‘, ऋचा रचनाकार परिषद, कटनी द्वारा ‘‘भारत गौरव‘‘, ग्वालियर साहित्य एवं कला परिषद द्वारा ‘‘शब्द माधुरी‘‘, भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा ‘‘वीरांगना सावित्रीबाई फुले फेलोशिप सम्मान‘ इत्यादि प्रमुख हैं। आकांक्षा जी को प्राप्त इस सम्मान पर ''यदुकुल'' द्वारा शत्-शत् बधाई !!!
गुरुवार, 29 जनवरी 2009
नारी विमर्श को आगे बढाती "अनंता''
लखनऊ से प्रकाशित नारी सरोकारों को समर्पित मासिक पत्रिका ‘अनंता‘ का सम्पादन पूनम यादव बखूबी कर रही हैं। खूबसूरत आवरण पृष्ठ, ग्लेज्ड पेपर के साथ रूचिकर व भावात्मक विषयों पर प्रस्तुत रचनाएं अपनी छाप छोड़ती हैं। भारतीय सभ्यता-संस्कृति को अन्तर में प्रतिस्थापित करती हुई पत्रिका उन तमाम नारीवादी विमर्शों को आगे बढ़ाती है, जिससे आम जन प्रभावित होता है। फैशन, सौन्दर्य, केयर, संबंध, मेकअप, हेल्थ, पार्टी, रेसिपी, स्वास्थ्य, निवेश, बागवानी, वास्तु, स्किन केयर, आस्था, ज्योतिष, फिल्मी दुनिया के साथ-साथ इवेन्ट, खेल, किड्स कार्नर, मन्थन, हँसी-ठिठोली, कविता एवं कहानी का रोचक सम्मिश्रण पत्रिका को अलग स्थान देता है। इस पत्रिका को http://www.anantamagazine.com/ पर भी देखा जा सकता है !!
संपर्कः पूनम यादव, २०३-२०४, सरन चैंबर-IIदितीय तल, ५ पार्क रोड, लखनऊ (यू. पी.)
संपर्कः पूनम यादव, २०३-२०४, सरन चैंबर-IIदितीय तल, ५ पार्क रोड, लखनऊ (यू. पी.)
मंगलवार, 27 जनवरी 2009
अमेरिका के सेटन हाल विश्वविद्यालय में गीता का ज्ञान अनिवार्य
महाभारत युद्ध के दौरान भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपना कर्म करने का उपदेश दिया, जो कि भगवद्गीता में वर्णित है। आज भारत की शिक्षा पद्धति में भले ही वैदिक पाठयक्रम का विरोध होता हो, लेकिन अमेरिका के सेटन हाॅल विश्वविद्यालय में सभी छात्रों के लिए गीता का ज्ञान अनिवार्य कर दिया गया है। न्यूजर्सी में 1856 में स्थापित स्वायत्त कैथोलिक सेटन हाॅल विश्वविद्यालय में अनिवार्य पाठयक्रम के तहत गीता के अध्ययन को शामिल करने का फैसला किया गया है। निःसन्देह यह अपनी तरह का दुनिया में पहला निर्णय है। उल्लेखनीय है कि विश्वविद्यालय के 10,800 छात्रों में से एक-तिहाई से ज्यादा गैर-ईसाई हैं और इनमें भारतीय छात्रों की संख्या भी प्रभावी है। इस विश्वविद्यालय में कोर कोर्स के तहत सभी छात्रों के लिए अनिवार्य पाठयक्रम होता है, जिसका अध्ययन सभी विषयों के छात्रों को करना होता है। वर्ष 2001 में विश्वविद्यालय ने विश्व में अपनी अलग पहचान कायम करने के लिए कोर कोर्स की शुरूआत की थी। इसमें छात्रों को सामाजिक जीवन से जुड़े सरोकारों और दायित्वबोध से अवगत कराया जाता है, जिससे युवा वर्ग को सामाजिक व्यवस्था से सीधे तौर पर जोड़ा जा सके। विश्वविद्यालय के अधिकारियों के अनुसार इस मामले में गीता का ज्ञान सर्वोत्तम साधन है और इसकी महत्ता को समझते हुए विश्वविद्यालय ने सभी छात्रों के लिए इस ग्रंथ का अध्ययन अनिवार्य करने का फैसला किया।........ तो योग के बाद अब ज्ञान-कर्म-भक्ति की त्रिवेणी ‘गीता‘ में अमेरिकी भी डुबकी लगायेंगे और जिस दौर में उनकी अर्थव्यवस्था भहरा रही हो, गीता का ज्ञान उन्हें कर्म की तरफ आकृष्ट करेगा। आखिर यूँ ही भारत को जगदगुरु नहीं कहा जाता।
सोमवार, 19 जनवरी 2009
वैश्विक स्तर पर पहुँची भगवान कृष्ण की रासलीला
भगवान कृष्ण का रासलीला से अनन्य संबंध रहा है। भगवान कृष्ण और गोपियों की रासलीला पर सारा जग न्यौछावर होता है। पर पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण ने रासलीला की पवित्रता को न सिर्फ ठेस पहुँचाई बल्कि इसे लोगों से दूर भी कर दिया। सालों तक बंद कमरे में होती आ रही रासलीला की प्रस्तुति को आम लोगों तक पहुँचाने का बीड़ा उठाया है राजस्थान में भरतपुर के गाँव जनुथर में जन्मे हरिदेव गोविन्द ने। जैसा नाम, वैसा काम। रासलीला को लोगों तक पहुँचाने के लिए उन्होंने देश के साथ विदेशों में भी कई प्रस्तुतियाँ कीं। यह प्रस्तुतियाँ इतनी प्रभावी थीं कि अहिन्दीभाषी प्रदेशों में भी लाखों लोग इसका आनन्द उठाने आते थे। यहाँ तक कि दक्षिण भारत में प्रस्तुति के लिए बकायदा द्विभाषिया तक रखना पड़ा। 7 वर्ष की उम्र से ‘रासलीला‘ से जुड़े हरिदेव के पिताजी उन्हें इस विधा से जुड़े एक रिश्तेदार के पास वृन्दावन छोड़ आए थे। फिर क्या था हरि-हरि कहते हरिदेव कब गोविन्द के चरणों में आकर रासलीला के पुजारी बन गये, पता ही नहीं चला। 16 वर्ष की उम्र तक इस लीला को उन्होंने नजदीक से देखा और सीखा। 20 साल की उम्र में बृज रासलीला संस्थान, वृन्दावन नाम अपनी मण्डली बना ली। ‘बकौल 81 वर्षीय हरिदेव गोविन्द-‘‘जब मैंने इस कला को सीखा तो यह एक
कमरे में हुआ करती थी। वजह यह थी कि जो इसका मर्म समझे बस वही इसका आनन्द उठाए। पर मैं चाहता था कि दुनिया के हर कोने तक पहुँचे।‘‘........... खैर हरिदेव जी की मेहनत रंग लाई और भगवान कृष्ण की कृपा से आज वे भारत में रासलीला के सर्वोत्कृष्ट प्रस्तुतिकारों में जाने जाते हैं। रासलीला विधा को नूतन आयाम देने के लिए वर्ष 2006 में राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के हाथो उन्हें पदमश्री से भी नवाजा गया। कईयों के लिए यह आश्चर्य का विषय था कि यह प्रतिष्ठित सम्मान किसी को सामाजिक कार्य या साहित्य लेखन के लिए नहीं बल्कि ‘रासलीला‘ जैसी लोक कला को वैश्विक स्तर पर ले जाने के लिए मिला।
लेबल:
जानकारी,
धरोहर,
भगवान श्रीकृष्ण
अथक समाजसेवी जी.आर.एस. यादव भाई
देश की राजधानी दिल्ली में समाजसेवा खास तौर पर बालसेवा के क्षेत्र में एक जाना माना नाम है- श्री जी।आर.एस. यादव भाई ‘‘निर्मोही‘‘ का, जिन्होंने अपनी सुयोग्य सहधर्मिणी के सहयोग से आजीवन समाजसेवा करने के अपने व्रत में पत्नी-बिछोह के बाद भी कोई अन्तर नहीं आने दिया। महात्मा गांधी और आचार्य बिनोवा भावे के आदर्शों पर चलकर ‘सादा जीवन उच्च विचार‘ के सिद्धान्त का पालन करने वाले सुसंस्कारित परिवार के धनी यादव भाई यद्यपि अपनी कर्तव्य-परायण पत्नी श्रीमती सरला यादव ‘क्रान्ति के‘ सन् 1984 में कृष्ण जन्माष्टमी के दिन हुए असामयिक निधन के बाद अकेले पड़ गये थे फिर भी वे अपने सेवा-पथ से विचलित नहीं हुए। अपनी कर्तव्यनिष्ठा, लगन एवं धैर्य के बल पर अपने चार पुत्रों तथा एक पुत्री को पढ़ा-लिखा कर सुव्यवस्थित कर यादव भाई अब अपना अधिकांश समय समाज-सेवा में ही लगाते हैं।
उत्तर प्रदेश के कन्नौज शहर में सन् 1929 की शिवरात्रि को जन्में और फतेहगढ़ जिलान्तर्गत भोलेपुर में बचपन बिताने वाले यादव भाई को अपने जीवन के प्रारम्भिक काल में अपने पिता, विख्यात आर्यसमाजी नेता श्री सन्तव्रत यादव ‘वानप्रस्थी‘ तथा माता श्रीमती सुशीला देवी यादव का स्नेहपूर्ण मार्ग दर्शन प्राप्त हुआ और वे अपनी प्रतिभा के बल पर एक के बाद दूसरी परीक्षाएं उत्तीर्ण करते हुए निरंतर आगे बढ़ते गये। इन्होंने एम0ए0 (अर्थशास्त्र) तथा पत्रकारिता व ‘बाल मनोविज्ञान‘ की उपाधियां प्राप्त की और केन्द्रीय सरकार के सचिवालय में अनेक महत्वपूर्ण पदों पर प्रथम श्रेणी के राजपत्रित अधिकारी के रूप में काम करते हुए सन् 1972 से 1977 तक प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के साथ सहायक निजी सचिव के रूप में काम करने का सौभाग्य भी प्राप्त किया। 30 जून सन् 1987 को ये सरकारी नौकरी से सेवा-निवृत्त हुए। यादव भाई अपने सरकारी कामों को अंजाम देते हुए भी बालकनजी-बारी, बाल सेवक बिरादरी, भारत सेवक समाज, मित्र संगम, आल इण्डिया ब्वाय स्काउट एसोसियेशन इत्यादि सेवा-संस्थाओं से जुड़े रहे हैं। यही नहीं श्री यादव समय निकाल कर डाक टिकटों व सिक्कों के संग्रह जैसे अपने शौक भी पूरा करते रहते हैं। पढ़ना-लिखना, सामाजिक सांस्कृतिक एवं साहित्यिक गतिविधयों में भाग लेकर अपने विश्व मैत्री के अभियान को आगे बढ़ाना आदि इनको व्यस्त रखने वाले कार्य हैं। इंग्लैण्ड, अमेरिका तथा यूरोपीय देशों की यात्राएं कर चुके यादव भाई अपने सौम्य एवं मृदुभाषी स्वभाव, मिलनसारिता एवं निश्छलता के चलते काफी लोकप्रियता भी अर्जित कर चुके हैं। ‘‘यदुकुल‘‘ श्री जी.आर.एस. यादव भाई की लम्बी उम्र एवं अच्छे स्वास्थ्य की कामना करते हुए आशा करता है कि वे इसी प्रकार अनवरत समाज सेवा में संलग्न रहकर युवा पीढ़ी के लिए प्रकाश पुंज बनें।
सम्पर्कः जी0आर0एस0 यादव भाई, 28-प्रधानमंत्री सचिवालय अपार्टमेन्ट्स, विकासपुरी, नई दिल्ली-110018
उत्तर प्रदेश के कन्नौज शहर में सन् 1929 की शिवरात्रि को जन्में और फतेहगढ़ जिलान्तर्गत भोलेपुर में बचपन बिताने वाले यादव भाई को अपने जीवन के प्रारम्भिक काल में अपने पिता, विख्यात आर्यसमाजी नेता श्री सन्तव्रत यादव ‘वानप्रस्थी‘ तथा माता श्रीमती सुशीला देवी यादव का स्नेहपूर्ण मार्ग दर्शन प्राप्त हुआ और वे अपनी प्रतिभा के बल पर एक के बाद दूसरी परीक्षाएं उत्तीर्ण करते हुए निरंतर आगे बढ़ते गये। इन्होंने एम0ए0 (अर्थशास्त्र) तथा पत्रकारिता व ‘बाल मनोविज्ञान‘ की उपाधियां प्राप्त की और केन्द्रीय सरकार के सचिवालय में अनेक महत्वपूर्ण पदों पर प्रथम श्रेणी के राजपत्रित अधिकारी के रूप में काम करते हुए सन् 1972 से 1977 तक प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के साथ सहायक निजी सचिव के रूप में काम करने का सौभाग्य भी प्राप्त किया। 30 जून सन् 1987 को ये सरकारी नौकरी से सेवा-निवृत्त हुए। यादव भाई अपने सरकारी कामों को अंजाम देते हुए भी बालकनजी-बारी, बाल सेवक बिरादरी, भारत सेवक समाज, मित्र संगम, आल इण्डिया ब्वाय स्काउट एसोसियेशन इत्यादि सेवा-संस्थाओं से जुड़े रहे हैं। यही नहीं श्री यादव समय निकाल कर डाक टिकटों व सिक्कों के संग्रह जैसे अपने शौक भी पूरा करते रहते हैं। पढ़ना-लिखना, सामाजिक सांस्कृतिक एवं साहित्यिक गतिविधयों में भाग लेकर अपने विश्व मैत्री के अभियान को आगे बढ़ाना आदि इनको व्यस्त रखने वाले कार्य हैं। इंग्लैण्ड, अमेरिका तथा यूरोपीय देशों की यात्राएं कर चुके यादव भाई अपने सौम्य एवं मृदुभाषी स्वभाव, मिलनसारिता एवं निश्छलता के चलते काफी लोकप्रियता भी अर्जित कर चुके हैं। ‘‘यदुकुल‘‘ श्री जी.आर.एस. यादव भाई की लम्बी उम्र एवं अच्छे स्वास्थ्य की कामना करते हुए आशा करता है कि वे इसी प्रकार अनवरत समाज सेवा में संलग्न रहकर युवा पीढ़ी के लिए प्रकाश पुंज बनें।
सम्पर्कः जी0आर0एस0 यादव भाई, 28-प्रधानमंत्री सचिवालय अपार्टमेन्ट्स, विकासपुरी, नई दिल्ली-110018
सोमवार, 5 जनवरी 2009
राष्ट्रीय नेतृत्व का संकट
बड़े अफसोस की बात है कि राष्ट्र आज जिस संकट की घड़ी से गुजर रहा है, उसके प्रति न तो राष्ट्र का नेतृत्व, न साहित्यकार, न मीडिया और न ही बुद्धिजीवी संवेदनशील है। लगता है सभी संवेदनहीन हो चुके हैं, शून्य हो चुके हंै। देश में बड़ा से बड़ा हादसा हो जाता है, क्षण भर के लिये रेडियो व टी0 वी0 अपनी जानी-पहचानी आवाज में उसे खबरों का रूप दे देते हंै , अखबार वाले अपने पन्ने रंग देते हैं, फिर आया-गया हो जाता है।, लोगबाग भूल जाते हैं, कारण कि इस देश की जनता का भुलक्कड़पन पुराना है। यद्यपि कि इसमें जनता का दोष नहीं, बल्कि दोष तो राष्ट्रीय कर्णधारों का है, जिन्होंने समाज का माहौल और संस्कार ही ऐसा निर्मित कर दिया है कि इसके सिवा कुछ नहीं हो सकता।
दरअसल बात यह है कि राष्ट्र के शिखर नेतृत्व की नीयत साफ नहीं है या यूँ कहिये कि आज का नेतृत्व राष्ट््र के प्रति समर्पित न होकर बल्कि राष्ट्र को ही अपने प्रति समर्पित मान लेता है। यही कारण है कि नेतृत्व पर आया संकट राष्ट्र का संकट मान लिया जाता है एवं नेतृत्व का हित राष्ट्र का हित मान लिया जाता है। ऐसे में जब देश के सभी बड़े राजनैतिक दल खुद ही नेतृत्व को लेकर संकट में हैं, उनसे सक्षम नेतृत्व की आशा करना ही व्यर्थ है। देश पर सबसे लम्बे समय तक शासन करने वाली कांग्रेस पार्टी का हाल देखें तो स्वयं महात्मा गाँधी ने आजादी पश्चात कांग्रेस को भंग करने की बात कही थी क्योंकि उन्हें आजादी के बाद की भारत की तस्वीर दिखने लगी थी। यह अनायास ही नहीं है कि कांग्रेस मात्र एक परिवार विशेष के व्यक्तियों के भरोसे रह गई है और अपनी स्थाई नियति मानकर उनसे ही किसी करिश्मे की आशा करती है। कभी स्वतन्त्रता आन्दोलन का पर्याय रहे कांग्रेस की यह मनोदशा स्वयं में बहुत कुछ स्पष्ट कर देती है। उत्तर प्रदेश जैसे सशक्त राज्य में अपनी जमीन खिसकने के बाद जिस प्रकार कांग्रेस छटपटा रही है, उसे समझा जा सकता है। युवराज के रूप में प्रचारित किये जा रहे राहुल गाँधी बुन्देलखण्ड के एक दलित परिवार में रात गुजार कर इस बात की आसानी से घोषणा करते हैं कि ऊपर से चले एक रूपये में से मात्र पाँंच पैसा ही इन इलाको में पहुँचता है, पर इसके लिए जिम्मेदार कौन है बताना भूल जाते हंै। इसी प्रकार भारतीय जनता पार्टी तो सदैव मुखौटों की राजनीति से ही ग्रस्त दिखती है। कभी अयोध्या तो कभी गुजरात को हिन्दुत्व की प्रयोगशाला बनाने वाली भाजपा के कर्णधार सत्ता में आते ही गठबन्धन की आड़ में अपने मूल मुद्दों को दरकिनार कर देते हैं। ऐसे ही तमाम अन्य राजनैतिक दल क्षेत्रवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद जैसी भावनाओं के सहारे येन-केन-प्रकरेण सत्ता हासिल करते हैं और विकास की बातों को पीछे छोड़ देते हैं। निश्चिततः इसे उचित नहीं ठहराया जा सकता और इसी का नतीजा है कि आज अराजकता, आतंकवाद, अनुशासनहीनता, भ्रष्टाचार, सामाजिक असुरक्षा का दूषित महौल पूरे राष्ट्र् में व्याप्त है।
इस बिगड़े माहौल के लिये राजनैतिक नेतृत्व के साथ-साथ पूँजीपति वर्ग, धर्माचार्य व मीडिया भी अपनी जिम्मेदारी से आँख नहीं चुरा सकते। ये आये दिन देश की जनता को राष्ट्रीयता, ईमानदारी, मितव्ययिता, अनुशासन व कर्मठता का पाठ पढ़ाते हंै पर कभी अपने गिरेबान में झांँकने की कोशिश नहीं करते। लोकतंत्र का चतुर्थ स्तम्भ कहा जाने वाला मीडिया इन कथित कर्णधारों द्वारा कही गई एक-एक बात को ब्रेकिंग न्यूज बनाकर देश की जनता को उबाता रहता है। जनता की आवाज उठाने की बजाय मीडिया की प्राथमिकता सरकारी विभागों और कारपोरेट जगत से प्राप्त विज्ञापन हैं, जिन पर उनकी रोजी-रोटी टिकी हुई है। रोज प्रवचन देने वाले धर्माचार्य जनता को धर्म की चाशनी खिला रहे हैं और कर्मवाद की बजाय लोगों को कर्मकाण्ड की तरफ प्रेरित करके अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि या तो यह वर्ग यह समझकर प्रवचन झाड़ता है कि इस देश की जनता अनपढ़ और नासमझ है अथवा वे इस सूत्र पर काम कर रहे हैं कि किसी भी झूठ को बार-बार दोहराने से सच मान लिया जाएगा। वस्तुतः राजनैतिक दल, पूँजीपति या धर्माचार्य इन सबका निहित स्वार्थ एक है और दुनिया की सारी सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण इस वर्ग के पास अभाव नामक चीज फटक भी नहीं सकती। यही कारण है कि यह वर्ग यथास्थितिवाद का पुरजोर पक्षधर है। इन्हें किसी भी प्रकार का परिवर्तन पसन्द नहीं - भले ही आम जनता अकाल, भुखमरी, महामारी से त्रस्त हो, देश का शिक्षित युवा वर्ग रोजी-रोटी की तलाश में बुढ़ापे को पहुँच जाये, देश की आधी से अधिक जनता गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करती रहे, भोला-भाला देहाती नौकरशाही के जाल में पिसता रहे, किन्तु इस देश के नेताओं, पूँजीपतियों व धर्माचार्यों पर इसका कोई असर नहीं पड़ता। इनका सब कुछ तो ‘सिंहासन’, ’गद्दी’ व ‘आसन’ तक सीमित है। यही उनका राष्ट्र है, यही उनकी देशभक्ति है, बाकी चीजों के प्रति यह वर्ग अपनी संवेदनशीलता खो बैठा है।
आये दिन बड़े से बडे हादसे हो रहे हैं किन्तु यह कत्तई नहीं लगता कि शिखर नेतृत्व इन हादसों के प्रति गम्भीर व जागरूक है। कभी भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं0 जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि उनका वश चले तो जमाखोरों और कालाबाजारी करने वालों को बिजली के खम्भों से लटका दें। पर भ्रष्टाचार का दौर नेहरू के समय में ही आरम्भ हो गया। इन्दिरा गाँधी ने भ्रष्टाचार को ‘विश्वव्यापी समस्या‘ बताकर इसकी स्वीकार्यता स्थापित कर दी तो राजीव गाँधी यह जानकर भी 100 में से मात्र 15 पैसा अन्तिम व्यक्ति तक पहुँचता है, राजनैतिक इच्छाशक्ति के अभाव में इस रोग का उपचार नहीं बता सके। महात्मा गाँधी का नाम लेकर राजनीति करने वाले उनकी इच्छानुसार समाज के अन्तिम व्यक्ति के आँसू नहीं पोछ सके और अन्ततः सारी चोट अन्तिम व्यक्ति के ही हिस्से में आयी। लुभावने नारों के साथ अन्य राजनैतिक दल जब सत्ता में आये तो भी स्थिति जस की तस रही। गरीब तबकों हेतु रोज नई योजनाएं लागू की जाती हैं, पर उनमें से अधिकतर कागजों में ही अपना लक्ष्य पूरा करती हैं। यही कारण है कि भ्रष्टाचार को ‘शिष्टाचार‘ बनने में देरी नहीं लगी। आँकड़े गवाह हैं कि देश के 62 प्रतिशत लोगों को रिश्वत देकर काम करवाने का प्रत्यक्ष अनुभव है और आम नागरिक प्रतिवर्ष करीब 21,068 करोड़ रूपये रिश्वत देता है। वस्तुतः भ्रष्टाचार व्यक्तिगत आचरण से अब संस्थागत रूप ले चुका है। यह आम जनता का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि जब ऐसे मसलों पर बहुत शोर-शराबा होता है तो मामले को आयोग की चहरदीवारी या न्यायिक जाँच प्रक्रिया की जंजीर से बाँध दिया जाता है और फिर तो भूलना ही भूलना है, कारण कि मामला अदालती जाँँच प्रक्रिया से गुजर रहा है अतएव इस पर किसी प्रकार की टीका-टिप्पणी करना न्यायालय की अवमानना परिधि के अन्तर्गत आता है। इसी प्रकार बाढ,़ सूखा, अकाल या अन्य आपदाओं के समय मंत्रीगण व अधिकारी विमान, हेलीकाॅप्टर और कारों के काफिले का प्रयोग करते हैं, नतीजन जितनी राहत पीड़ित-जनों को नहीं मिल पाती है उससे कहीं ज्यादा मंत्री व अधिकारियों पर खर्च पड़ जाता है। वस्तुतः भ्रष्टाचार के खिलाफ कदम उठाने की जिम्मेदारी जिन लोगों और संस्थाओं पर है, खुद वे भ्रष्टाचार में बुरी तरह उलझे हुए हैं। पहले के राजनेता भ्रष्टाचार में अपना नाम आने पर शरमाते थे, आज वे पूरी ताकत से अपने भ्रष्ट आचरण का बचाव करते हैं। हाल ही में चारा घोटाले मामले की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय को भी टिप्पणी करनी पड़ी कि भ्रष्टाचारियों को लैम्पपोस्ट से लटकाकर फँासी दे देनी चाहिए, तो उसकी वेदना और आक्रोश को समझाा जा सकता है।
भारतीय संविधान भारत को एक लोकतांत्रिक राष्ट्र घोषित करता है पर सत्ता शीर्ष पर बैठे निर्वाचित जन प्रतिनिधियों का चरित्र देखें तो अच्छे-अच्छे राजा-महराजा भी शरमा जायें। संसद व विधान सभाओं में आरोप-प्रत्यारोप की भाषा ही नहीं बल्कि मारपीट व गाली गलौज भी आम चीज बन गई है। घरों में टी0वी0 पर बैठकर जनप्रतिनिधियों का यह तमाशा देखने वाले बच्चे और युवा पीढ़ी इन घटनाओं से क्या सीख लेंगे, सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। हमारे अधिकतर जनप्रतिनिधि अपनी आपराधिक पृष्ठभूमि के चलते वैसे भी सदैव चर्चा का विषय बने रहते हैं। अपराधियों का राजनीतिकरण हो रहा है या राजनीति का अपराधीकरण हो रहा है, कुछ भी कहना बड़ा कठिन है। अभिनेता-अभिनेत्रियों के मन्दिर और उनकी पूजा अब पुरानी बात हो गई है, भारतीय राजनीति में भी इसके उदाहरण खुलकर सामने आने लगे हैं। यहाँ ‘व्यक्ति पूजा‘ मुहावरा नहीं बल्कि यथार्थ बन गया है। धर्मनिरपेक्षता को संविधान का मूलभूत तत्व माना गया है पर तमाम राजनेता धर्म एवं देवी-देवताओं की शरण लेते रहते हैं। इसे उनका व्यक्तिगत आग्रह समझकर दरकिनार भी कर दिया जाय तो यहाँ देवी-देवताओं व पौराणिक चरित्रों से तुलना ही नहीं बल्कि जनप्रतिनिधियों को स्वयं देवी-देवता बना दिया गया। कभी धर्म के नाम पर वोट माँगना, कभी चाटुकारिता की हद तक जाकर एक ही व्यक्ति का नाम जपना, तो कभी नेताओं को ईश्वर बना देना- इससे बड़ा मजाक लोकतन्त्र में और नहीं हो सकता। आपातकाल के दौर में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकान्त बरूआ ने कहा था- ‘‘इन्दिरा इज इंडिया एण्ड इंडिया इज इन्दिरा।‘‘ मानो यहाँ लोकतन्त्र नहीं सामन्तवाद या राजतन्त्र का साया हो। तमिलनाडु में एम0जी0रामचन्द्रन की मृत्यु पश्चात चेन्नई में उनका मन्दिर बनवाया गया, जिसमें उन्हें देवता के रूप में दिखाया गया। जयललिता को पोस्टरों में ‘काली माँ‘ के रूप में दिखाया गया तो मायावती ने कहा कि मै ही माया (लक्ष्मी) हूँ। राजस्थान में वसुन्धरा सरकार के तीन साल पूरे होने के उपलक्ष्य में जारी कैलेण्डर में उन्हें अन्नपूर्णा देवी एवं भाजपा के शीर्ष नेताओं अटल बिहारी वाजपेई, लालकृष्ण आडवाणी व राजनाथ सिंह को क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु व महेश के रूप में दर्शाया गया। मुरादाबाद में सोनिया गाँधी को दुर्गा माँ की वेशभूषा में भ्रष्टाचार और आतंकवाद का संहार करते हुए दिखाया गया तो जबलपुर में एक पूर्व विधायक ने सोनिया गाँधी को रानी लक्ष्मीबाई के रूप में पोस्टर में दिखाया। महाराष्ट्र में विलासराव देशमुख को गोवर्धन उठाते श्रीकृष्ण के रूप में दिखाया गया। ऐसे न जाने कितने उदाहरण है जो राजतन्त्र व सामंती समाज की याद दिलाते हैं। जनता के बीच जाकर उनके दुख-दर्द को सुनने और उनका उपचार करने की बजाय राजनैतिक दलों के शीर्ष नेताओं की वन्दना, राजनीति में पर्दापण करने व कुर्सी पाने का शार्टकट तरीका बन गया है। ‘‘चालीसा‘‘ राजनीति इसी की देन है।
अब जरा संवेदनशील होकर इन संदर्भों के परिप्रेक्ष्य में देश के कर्णधारों की कारगुजारियों पर गौर करें कि आये दिन अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं, टी0वी0 और मंचों पर देश का युवावर्ग, किसान, मजदूर, कारीगर इन बातों को सुनकर या पढ़कर गुनेगा तो उसके मानस-पटल पर क्या प्रभाव अंकित होगा? अपने इन राष्ट्रीय कर्णधारों की कारगुजारियों व फिर लम्बे-लम्बे प्रवचनों से उसकी क्या धारणा बनेगी? जब देश का उच्चपदस्थ वर्ग ही भ्रष्टाचार के आरोपों के संशय में कैद हो, उसका आचरण लोगों की निगाह में साफ-सुथरा न हो तो फिर उस देश का भविष्य क्या होगा? इसी कारण डाॅ0 राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि यदि भ्रष्टाचार को खत्म करना है तो इसकी शुरूआत उच्चपदस्थ लोगों से होनी चाहिये। पर दुर्भाग्यवश आज इस देश का नेतृत्ववर्ग अपने स्वार्थ में अंधा हो अपने पद का सारा फायदा अपनों के लिये बटोर रहा है। वह चाहे जाति के रूप में हो, भाई-भतीजावाद के रूप में हो, क्षेत्रवाद के संदर्भ में हो- किन्तु दायरा संकीर्णता व स्वार्थ का है। आज चूँकि सारे लोग इसी संकीर्णतावादी नजरिये में कैद हैं सो ‘हमाम में सब नंगे हैं‘ की तर्ज पर एक दूसरे की कमजोरियों और बुराईयों को अनदेखा कर रहे हैंै। निश्चिततः आज स्वस्थ एवं समग्र नेतृत्व का संकट देश पर मंडरा रहा है और जब तक स्वस्थ नेतृत्व नहीं पैदा होगा, भारत की धरती पर से जातिवाद, सम्प्रदायवाद, क्षेत्रवाद, भ्रष्टाचार, अराजकता, आतंकवाद का खात्मा नामुमकिन है। यह मंथन का विषय है कि हमारे साथ ही आजादी पाये तमाम राष्ट्र विकास के कई पायदान चढ़ गये, पर भारत में अपेक्षित प्रगति नहीं हुई। वर्तमान के तथाकथित कर्णधारों की आवाज में दम नहीं है क्योंकि आवाज में दम, संस्कार, विचार और चरित्र से आता है पर ये कर्णधार अन्दर से खोखले हैं। इसे राष्ट्र की बदकिस्मती ही कहा जायेगा कि इन नेताओं की कोई नीति नहीं है, नैतिकता नहीं है, चरित्र की पवित्रता नहीं है, समग्रता नहीं है, समदर्शिता नहीं है। ये राजनीति को सिद्धांत के तहत नहीं, बल्कि कूटिल नीति के तहत चला रहे हंै, क्यांेकि ये अवसरवादी हैं। हर नेतृत्व अपने सिंहासन को बचाये रखने के लिये राष्ट्रीयता, अखंडता, एकता, धर्मनिरपेक्षता, बंधुत्व, समता का नारा लगाता है किन्तु सबकी मानसिकता एक जैसी है। आज सभी राजनैतिक दलों एवं नेताओं का एकमात्र लक्ष्य सत्ता है और सत्ता की इस कुर्सी तक पहुँचने के लिये कभी ये राष्ट्रीयता, अखंडता, एकता, धर्मनिरपेक्षता, बंधुत्व, समता व समाजवाद की सीढ़ी लगा लेते हैं तो कुछ को रामनाम की सीढ़ी लगाने में भी परहेज नहीं।
आज स्पष्ट रूप से दो वर्ग आमने-सामने हैं-एक, संतुष्ट वर्ग एवं दूसरा, असंतुष्ट वर्ग। संतुष्ट वर्ग चूँकि राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, प्रशासनिक, सांस्कृतिक और धार्मिक हर क्षेत्र में अपना वर्चस्व बना चुका है अतः वह यथास्थितिवाद को बनाये रखने के लिये कटिबद्ध है, चाहे इसके लिये कितने भी झूठ का सहारा लेना पड़े। राष्ट्रहित में जरूरी है कि यह वर्ग लोगों को उपदेश देने की बजाय अपनी कथनी-करनी का अंतर स्वयं मिटाकर ईमानदारी, चरित्र, कर्मठता, अनुशासन को अपने आचरण में उतारे। जिस दिन यह सुविधाभोगी वर्ग संकल्पबद्ध होकर त्याग का आदर्श उपस्थित कर देगा, देश-समाज की दशा सुधरने में वक्त नहीं लगेगा। दूसरी तरफ असंतुष्ट वर्ग का नेतृत्व सत्ता की कुर्सी के लिये लोगों की भावनाओं का शोषण व दोहन कर रहा है। अभी तक वह समाज को नवीन विचार नहीं दे पाया और जब तक विचार नहीं पैदा होंगे, तब तक समाज में न तो बदलाव आयेगा और न ही क्रांति।
राम शिव मूर्ति यादव
दरअसल बात यह है कि राष्ट्र के शिखर नेतृत्व की नीयत साफ नहीं है या यूँ कहिये कि आज का नेतृत्व राष्ट््र के प्रति समर्पित न होकर बल्कि राष्ट्र को ही अपने प्रति समर्पित मान लेता है। यही कारण है कि नेतृत्व पर आया संकट राष्ट्र का संकट मान लिया जाता है एवं नेतृत्व का हित राष्ट्र का हित मान लिया जाता है। ऐसे में जब देश के सभी बड़े राजनैतिक दल खुद ही नेतृत्व को लेकर संकट में हैं, उनसे सक्षम नेतृत्व की आशा करना ही व्यर्थ है। देश पर सबसे लम्बे समय तक शासन करने वाली कांग्रेस पार्टी का हाल देखें तो स्वयं महात्मा गाँधी ने आजादी पश्चात कांग्रेस को भंग करने की बात कही थी क्योंकि उन्हें आजादी के बाद की भारत की तस्वीर दिखने लगी थी। यह अनायास ही नहीं है कि कांग्रेस मात्र एक परिवार विशेष के व्यक्तियों के भरोसे रह गई है और अपनी स्थाई नियति मानकर उनसे ही किसी करिश्मे की आशा करती है। कभी स्वतन्त्रता आन्दोलन का पर्याय रहे कांग्रेस की यह मनोदशा स्वयं में बहुत कुछ स्पष्ट कर देती है। उत्तर प्रदेश जैसे सशक्त राज्य में अपनी जमीन खिसकने के बाद जिस प्रकार कांग्रेस छटपटा रही है, उसे समझा जा सकता है। युवराज के रूप में प्रचारित किये जा रहे राहुल गाँधी बुन्देलखण्ड के एक दलित परिवार में रात गुजार कर इस बात की आसानी से घोषणा करते हैं कि ऊपर से चले एक रूपये में से मात्र पाँंच पैसा ही इन इलाको में पहुँचता है, पर इसके लिए जिम्मेदार कौन है बताना भूल जाते हंै। इसी प्रकार भारतीय जनता पार्टी तो सदैव मुखौटों की राजनीति से ही ग्रस्त दिखती है। कभी अयोध्या तो कभी गुजरात को हिन्दुत्व की प्रयोगशाला बनाने वाली भाजपा के कर्णधार सत्ता में आते ही गठबन्धन की आड़ में अपने मूल मुद्दों को दरकिनार कर देते हैं। ऐसे ही तमाम अन्य राजनैतिक दल क्षेत्रवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद जैसी भावनाओं के सहारे येन-केन-प्रकरेण सत्ता हासिल करते हैं और विकास की बातों को पीछे छोड़ देते हैं। निश्चिततः इसे उचित नहीं ठहराया जा सकता और इसी का नतीजा है कि आज अराजकता, आतंकवाद, अनुशासनहीनता, भ्रष्टाचार, सामाजिक असुरक्षा का दूषित महौल पूरे राष्ट्र् में व्याप्त है।
इस बिगड़े माहौल के लिये राजनैतिक नेतृत्व के साथ-साथ पूँजीपति वर्ग, धर्माचार्य व मीडिया भी अपनी जिम्मेदारी से आँख नहीं चुरा सकते। ये आये दिन देश की जनता को राष्ट्रीयता, ईमानदारी, मितव्ययिता, अनुशासन व कर्मठता का पाठ पढ़ाते हंै पर कभी अपने गिरेबान में झांँकने की कोशिश नहीं करते। लोकतंत्र का चतुर्थ स्तम्भ कहा जाने वाला मीडिया इन कथित कर्णधारों द्वारा कही गई एक-एक बात को ब्रेकिंग न्यूज बनाकर देश की जनता को उबाता रहता है। जनता की आवाज उठाने की बजाय मीडिया की प्राथमिकता सरकारी विभागों और कारपोरेट जगत से प्राप्त विज्ञापन हैं, जिन पर उनकी रोजी-रोटी टिकी हुई है। रोज प्रवचन देने वाले धर्माचार्य जनता को धर्म की चाशनी खिला रहे हैं और कर्मवाद की बजाय लोगों को कर्मकाण्ड की तरफ प्रेरित करके अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि या तो यह वर्ग यह समझकर प्रवचन झाड़ता है कि इस देश की जनता अनपढ़ और नासमझ है अथवा वे इस सूत्र पर काम कर रहे हैं कि किसी भी झूठ को बार-बार दोहराने से सच मान लिया जाएगा। वस्तुतः राजनैतिक दल, पूँजीपति या धर्माचार्य इन सबका निहित स्वार्थ एक है और दुनिया की सारी सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण इस वर्ग के पास अभाव नामक चीज फटक भी नहीं सकती। यही कारण है कि यह वर्ग यथास्थितिवाद का पुरजोर पक्षधर है। इन्हें किसी भी प्रकार का परिवर्तन पसन्द नहीं - भले ही आम जनता अकाल, भुखमरी, महामारी से त्रस्त हो, देश का शिक्षित युवा वर्ग रोजी-रोटी की तलाश में बुढ़ापे को पहुँच जाये, देश की आधी से अधिक जनता गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करती रहे, भोला-भाला देहाती नौकरशाही के जाल में पिसता रहे, किन्तु इस देश के नेताओं, पूँजीपतियों व धर्माचार्यों पर इसका कोई असर नहीं पड़ता। इनका सब कुछ तो ‘सिंहासन’, ’गद्दी’ व ‘आसन’ तक सीमित है। यही उनका राष्ट्र है, यही उनकी देशभक्ति है, बाकी चीजों के प्रति यह वर्ग अपनी संवेदनशीलता खो बैठा है।
आये दिन बड़े से बडे हादसे हो रहे हैं किन्तु यह कत्तई नहीं लगता कि शिखर नेतृत्व इन हादसों के प्रति गम्भीर व जागरूक है। कभी भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं0 जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि उनका वश चले तो जमाखोरों और कालाबाजारी करने वालों को बिजली के खम्भों से लटका दें। पर भ्रष्टाचार का दौर नेहरू के समय में ही आरम्भ हो गया। इन्दिरा गाँधी ने भ्रष्टाचार को ‘विश्वव्यापी समस्या‘ बताकर इसकी स्वीकार्यता स्थापित कर दी तो राजीव गाँधी यह जानकर भी 100 में से मात्र 15 पैसा अन्तिम व्यक्ति तक पहुँचता है, राजनैतिक इच्छाशक्ति के अभाव में इस रोग का उपचार नहीं बता सके। महात्मा गाँधी का नाम लेकर राजनीति करने वाले उनकी इच्छानुसार समाज के अन्तिम व्यक्ति के आँसू नहीं पोछ सके और अन्ततः सारी चोट अन्तिम व्यक्ति के ही हिस्से में आयी। लुभावने नारों के साथ अन्य राजनैतिक दल जब सत्ता में आये तो भी स्थिति जस की तस रही। गरीब तबकों हेतु रोज नई योजनाएं लागू की जाती हैं, पर उनमें से अधिकतर कागजों में ही अपना लक्ष्य पूरा करती हैं। यही कारण है कि भ्रष्टाचार को ‘शिष्टाचार‘ बनने में देरी नहीं लगी। आँकड़े गवाह हैं कि देश के 62 प्रतिशत लोगों को रिश्वत देकर काम करवाने का प्रत्यक्ष अनुभव है और आम नागरिक प्रतिवर्ष करीब 21,068 करोड़ रूपये रिश्वत देता है। वस्तुतः भ्रष्टाचार व्यक्तिगत आचरण से अब संस्थागत रूप ले चुका है। यह आम जनता का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि जब ऐसे मसलों पर बहुत शोर-शराबा होता है तो मामले को आयोग की चहरदीवारी या न्यायिक जाँच प्रक्रिया की जंजीर से बाँध दिया जाता है और फिर तो भूलना ही भूलना है, कारण कि मामला अदालती जाँँच प्रक्रिया से गुजर रहा है अतएव इस पर किसी प्रकार की टीका-टिप्पणी करना न्यायालय की अवमानना परिधि के अन्तर्गत आता है। इसी प्रकार बाढ,़ सूखा, अकाल या अन्य आपदाओं के समय मंत्रीगण व अधिकारी विमान, हेलीकाॅप्टर और कारों के काफिले का प्रयोग करते हैं, नतीजन जितनी राहत पीड़ित-जनों को नहीं मिल पाती है उससे कहीं ज्यादा मंत्री व अधिकारियों पर खर्च पड़ जाता है। वस्तुतः भ्रष्टाचार के खिलाफ कदम उठाने की जिम्मेदारी जिन लोगों और संस्थाओं पर है, खुद वे भ्रष्टाचार में बुरी तरह उलझे हुए हैं। पहले के राजनेता भ्रष्टाचार में अपना नाम आने पर शरमाते थे, आज वे पूरी ताकत से अपने भ्रष्ट आचरण का बचाव करते हैं। हाल ही में चारा घोटाले मामले की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय को भी टिप्पणी करनी पड़ी कि भ्रष्टाचारियों को लैम्पपोस्ट से लटकाकर फँासी दे देनी चाहिए, तो उसकी वेदना और आक्रोश को समझाा जा सकता है।
भारतीय संविधान भारत को एक लोकतांत्रिक राष्ट्र घोषित करता है पर सत्ता शीर्ष पर बैठे निर्वाचित जन प्रतिनिधियों का चरित्र देखें तो अच्छे-अच्छे राजा-महराजा भी शरमा जायें। संसद व विधान सभाओं में आरोप-प्रत्यारोप की भाषा ही नहीं बल्कि मारपीट व गाली गलौज भी आम चीज बन गई है। घरों में टी0वी0 पर बैठकर जनप्रतिनिधियों का यह तमाशा देखने वाले बच्चे और युवा पीढ़ी इन घटनाओं से क्या सीख लेंगे, सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। हमारे अधिकतर जनप्रतिनिधि अपनी आपराधिक पृष्ठभूमि के चलते वैसे भी सदैव चर्चा का विषय बने रहते हैं। अपराधियों का राजनीतिकरण हो रहा है या राजनीति का अपराधीकरण हो रहा है, कुछ भी कहना बड़ा कठिन है। अभिनेता-अभिनेत्रियों के मन्दिर और उनकी पूजा अब पुरानी बात हो गई है, भारतीय राजनीति में भी इसके उदाहरण खुलकर सामने आने लगे हैं। यहाँ ‘व्यक्ति पूजा‘ मुहावरा नहीं बल्कि यथार्थ बन गया है। धर्मनिरपेक्षता को संविधान का मूलभूत तत्व माना गया है पर तमाम राजनेता धर्म एवं देवी-देवताओं की शरण लेते रहते हैं। इसे उनका व्यक्तिगत आग्रह समझकर दरकिनार भी कर दिया जाय तो यहाँ देवी-देवताओं व पौराणिक चरित्रों से तुलना ही नहीं बल्कि जनप्रतिनिधियों को स्वयं देवी-देवता बना दिया गया। कभी धर्म के नाम पर वोट माँगना, कभी चाटुकारिता की हद तक जाकर एक ही व्यक्ति का नाम जपना, तो कभी नेताओं को ईश्वर बना देना- इससे बड़ा मजाक लोकतन्त्र में और नहीं हो सकता। आपातकाल के दौर में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकान्त बरूआ ने कहा था- ‘‘इन्दिरा इज इंडिया एण्ड इंडिया इज इन्दिरा।‘‘ मानो यहाँ लोकतन्त्र नहीं सामन्तवाद या राजतन्त्र का साया हो। तमिलनाडु में एम0जी0रामचन्द्रन की मृत्यु पश्चात चेन्नई में उनका मन्दिर बनवाया गया, जिसमें उन्हें देवता के रूप में दिखाया गया। जयललिता को पोस्टरों में ‘काली माँ‘ के रूप में दिखाया गया तो मायावती ने कहा कि मै ही माया (लक्ष्मी) हूँ। राजस्थान में वसुन्धरा सरकार के तीन साल पूरे होने के उपलक्ष्य में जारी कैलेण्डर में उन्हें अन्नपूर्णा देवी एवं भाजपा के शीर्ष नेताओं अटल बिहारी वाजपेई, लालकृष्ण आडवाणी व राजनाथ सिंह को क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु व महेश के रूप में दर्शाया गया। मुरादाबाद में सोनिया गाँधी को दुर्गा माँ की वेशभूषा में भ्रष्टाचार और आतंकवाद का संहार करते हुए दिखाया गया तो जबलपुर में एक पूर्व विधायक ने सोनिया गाँधी को रानी लक्ष्मीबाई के रूप में पोस्टर में दिखाया। महाराष्ट्र में विलासराव देशमुख को गोवर्धन उठाते श्रीकृष्ण के रूप में दिखाया गया। ऐसे न जाने कितने उदाहरण है जो राजतन्त्र व सामंती समाज की याद दिलाते हैं। जनता के बीच जाकर उनके दुख-दर्द को सुनने और उनका उपचार करने की बजाय राजनैतिक दलों के शीर्ष नेताओं की वन्दना, राजनीति में पर्दापण करने व कुर्सी पाने का शार्टकट तरीका बन गया है। ‘‘चालीसा‘‘ राजनीति इसी की देन है।
अब जरा संवेदनशील होकर इन संदर्भों के परिप्रेक्ष्य में देश के कर्णधारों की कारगुजारियों पर गौर करें कि आये दिन अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं, टी0वी0 और मंचों पर देश का युवावर्ग, किसान, मजदूर, कारीगर इन बातों को सुनकर या पढ़कर गुनेगा तो उसके मानस-पटल पर क्या प्रभाव अंकित होगा? अपने इन राष्ट्रीय कर्णधारों की कारगुजारियों व फिर लम्बे-लम्बे प्रवचनों से उसकी क्या धारणा बनेगी? जब देश का उच्चपदस्थ वर्ग ही भ्रष्टाचार के आरोपों के संशय में कैद हो, उसका आचरण लोगों की निगाह में साफ-सुथरा न हो तो फिर उस देश का भविष्य क्या होगा? इसी कारण डाॅ0 राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि यदि भ्रष्टाचार को खत्म करना है तो इसकी शुरूआत उच्चपदस्थ लोगों से होनी चाहिये। पर दुर्भाग्यवश आज इस देश का नेतृत्ववर्ग अपने स्वार्थ में अंधा हो अपने पद का सारा फायदा अपनों के लिये बटोर रहा है। वह चाहे जाति के रूप में हो, भाई-भतीजावाद के रूप में हो, क्षेत्रवाद के संदर्भ में हो- किन्तु दायरा संकीर्णता व स्वार्थ का है। आज चूँकि सारे लोग इसी संकीर्णतावादी नजरिये में कैद हैं सो ‘हमाम में सब नंगे हैं‘ की तर्ज पर एक दूसरे की कमजोरियों और बुराईयों को अनदेखा कर रहे हैंै। निश्चिततः आज स्वस्थ एवं समग्र नेतृत्व का संकट देश पर मंडरा रहा है और जब तक स्वस्थ नेतृत्व नहीं पैदा होगा, भारत की धरती पर से जातिवाद, सम्प्रदायवाद, क्षेत्रवाद, भ्रष्टाचार, अराजकता, आतंकवाद का खात्मा नामुमकिन है। यह मंथन का विषय है कि हमारे साथ ही आजादी पाये तमाम राष्ट्र विकास के कई पायदान चढ़ गये, पर भारत में अपेक्षित प्रगति नहीं हुई। वर्तमान के तथाकथित कर्णधारों की आवाज में दम नहीं है क्योंकि आवाज में दम, संस्कार, विचार और चरित्र से आता है पर ये कर्णधार अन्दर से खोखले हैं। इसे राष्ट्र की बदकिस्मती ही कहा जायेगा कि इन नेताओं की कोई नीति नहीं है, नैतिकता नहीं है, चरित्र की पवित्रता नहीं है, समग्रता नहीं है, समदर्शिता नहीं है। ये राजनीति को सिद्धांत के तहत नहीं, बल्कि कूटिल नीति के तहत चला रहे हंै, क्यांेकि ये अवसरवादी हैं। हर नेतृत्व अपने सिंहासन को बचाये रखने के लिये राष्ट्रीयता, अखंडता, एकता, धर्मनिरपेक्षता, बंधुत्व, समता का नारा लगाता है किन्तु सबकी मानसिकता एक जैसी है। आज सभी राजनैतिक दलों एवं नेताओं का एकमात्र लक्ष्य सत्ता है और सत्ता की इस कुर्सी तक पहुँचने के लिये कभी ये राष्ट्रीयता, अखंडता, एकता, धर्मनिरपेक्षता, बंधुत्व, समता व समाजवाद की सीढ़ी लगा लेते हैं तो कुछ को रामनाम की सीढ़ी लगाने में भी परहेज नहीं।
आज स्पष्ट रूप से दो वर्ग आमने-सामने हैं-एक, संतुष्ट वर्ग एवं दूसरा, असंतुष्ट वर्ग। संतुष्ट वर्ग चूँकि राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, प्रशासनिक, सांस्कृतिक और धार्मिक हर क्षेत्र में अपना वर्चस्व बना चुका है अतः वह यथास्थितिवाद को बनाये रखने के लिये कटिबद्ध है, चाहे इसके लिये कितने भी झूठ का सहारा लेना पड़े। राष्ट्रहित में जरूरी है कि यह वर्ग लोगों को उपदेश देने की बजाय अपनी कथनी-करनी का अंतर स्वयं मिटाकर ईमानदारी, चरित्र, कर्मठता, अनुशासन को अपने आचरण में उतारे। जिस दिन यह सुविधाभोगी वर्ग संकल्पबद्ध होकर त्याग का आदर्श उपस्थित कर देगा, देश-समाज की दशा सुधरने में वक्त नहीं लगेगा। दूसरी तरफ असंतुष्ट वर्ग का नेतृत्व सत्ता की कुर्सी के लिये लोगों की भावनाओं का शोषण व दोहन कर रहा है। अभी तक वह समाज को नवीन विचार नहीं दे पाया और जब तक विचार नहीं पैदा होंगे, तब तक समाज में न तो बदलाव आयेगा और न ही क्रांति।
राम शिव मूर्ति यादव
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राम शिव मूर्ति यादव,
लेख
मुंबई में आतंकियों के विरुद्ध जिल्लू यादव की बहादुरी
क्षेत्रवाद की राजनीति करने वाले जो नेता उत्तर भारतीयों और मराठियों को अलग-अलग चश्में से देखते हैं, उनके लिए यह आँखें खोलने वाली घटना हो सकती है। २६ नवम्बर २००८ को जब मुंबई के सीएसटी रेलवे स्टेशन पर आतंकियों ने खूनी खेल शुरू किया, तब जिल्लू यादव वहीं तैनात थे। बनारस के मूल निवासी जिल्लू आरपीएफ में हेड कांस्टेबल हैं। उनके हाथ में सिर्फ एक डंडा था। आतंकी एके 47 रायफल से अंधाधुध गोलियाँ बरसा रहे थे। टिकट काउंटर के अहाते के पास खड़े जिल्लू यादव यह दृश्य देख एक बार तो दहल उठे। लेकिन जल्दी ही संभल भी गए। जिल्लू यादव उस पल को याद करते हुए कहते हैं- डर तो मुझे भी लग रहा था, लेकिन तुरंत मन ने कहा कि यदि इन आतंकियों को रोका नहीं गया तो बहुत से लोगों को मार डालेंगे। लेकिन जिल्लू यादव करते भी तो क्या। आरपीएफ के पास हथियार की कमी के कारण इस बहादुर सिपाही के हाथ में सिर्फ एक डंडा था। गलियारे के दूसरे छोर पर खड़े जीआरपी के एक सिपाही के हाथ में 303 राइफल तो थी, लेकिन डर के मारे उसके हाथ पैर फूल गए थे। जिल्लू यादव ने चिल्ला कर उससे गोली चलाने को कहा, लेकिन निशाना साधने के बजाय वह छुपने का रास्ता खोजने लगा। तब जिल्लू यादव से नहीं रहा गया। वह जान जोखिम में डाल कर करीब 10 फुट चैड़ा गलियारा पार कर खुद उस सिपाही के पास जा पहुँचे और उसके हाथ से बंदूक झपट कर एक आतंकी पर निशाना साधकर दनादन दो फायर झोंक दिये। बंदूक की गोलियाँ समाप्त हो चुकी थी। जबकि आतंकी फायरिंग का रूख उनकी ओर कर चुके थे। जिल्लू ने पहले तो इधर-उधर दूसरी बंदूक या कारतूस के लिए ताकझांक की, लेकिन कुछ हाथ नहीं लगा तो सीधे वहाँ रखी एक कुर्सी उठाकर अपनी ओर बढ़ रहे एक आतंकी पर दे मारी। उनके दिमाग में तो बस यही था कि वह जिनकी जान की फिक्र कर रहे हैं, वे सब इंसान है। इस बीच जिल्लू की हिम्मत देख स्टेशन पर तैनात जीआरपी व आरपीएफ के अन्य जवानों में भी जोश आ गया और दोतरफा गोलियाँ चलने लगीं। आरपीएफ इंस्पेक्टर खिरतकर और सब इंस्पेक्टर भोंसले ने एक ओर से तो जीआरपी के दो जवानों ने दूसरे छोर से मोर्चा संभाल लिया था। जिल्लू यादव की इस बहादुरी के लिए उन्हें रेलवे विभाग की तरफ से 10 लाख रूपए का इनाम देने की घोषणा हुई है। इस पर उनकी प्रतिक्रया पूछने पर जिल्लू यादव सीधा सा जवाब देते हैं- ‘‘उस वक्त मैंने जो किया वह वक्त की जरूरत थी।‘‘ 52 वर्षीय जिल्लू यादव उत्तर प्रदेश के बनारस जिले में हरहुआं ब्लाक स्थित गोसाईं पर मोहाब गाँव के मूल निवासी हैं। जिल्लू यादव की इस बहादुरी को ‘यदुकुल‘ सलाम करता है।
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जांबाज,
व्यक्तित्व,
सम्मान-उपलब्धि
रविवार, 4 जनवरी 2009
होटल ताज आपरेशन के कमांडो ग्रुप के जाँबाज जवान गौरी शंकर यादव
मुंबई में शिवाजी टर्मिनल पर आतंकवादियों से मुठभेड़ करने वाले कमांडो ग्रुप में शामिल गौरी शंकर यादव अब किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। मध्यप्रदेश के खंडवा जनपद के ग्राम नागचूंड के रहने वाले इस जांबाज सिपाही को जब शिवाजी टर्मिनल पर आतंकियों द्वारा गोलीबारी की जा रही थी तो वहाँ तैनात कमांडो ग्रुप को होटल ताज पहुँचने का एकाएक आदेश मिला। गौरीशंकर यादव अपने साथियों के साथ होटल ताज के लिए निकल पड़े, जहाँ अन्य फोर्स के जवानों से जानकारी लेकर तैयारी की गई। 51-51 कमांडरों के ग्रुप बनाए गये। श्री यादव जिस ग्रुप में शामिल थे,उसको आपरेशन टारनेडो नाम दिया गया। फिर शुरू हुआ आपरेशन ताज। गौरी शंकर यादव ने कहा कि होटल ताज पर आतंकियों से मुठभेड़ के समय हमारे साथी वहाँ पड़ी लाशों और गोलियों को देखकर कुछ देर के लिए ठिठक गए,यह सोचकर कि खून-खराबे के बिना इन आतंकियों पर काबू किया जा सके। पर अंततः वीरता का प्रदर्शन करते हुए इन कमांडों ने आतंकियों को मार गिराया। ऐसे जांबाजों की बहादुरी को 'यदुकुल' का सलाम !!
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जांबाज,
व्यक्तित्व,
सम्मान-उपलब्धि
लालू प्रसाद यादव पर एनीमेशन फिल्म
राजनीति के अखाड़े में अपने जुमलों से मशहूर लालू प्रसाद यादव एक बार फिर धमाके की तैयारी में हैं। बिहार के कार्टूनिस्ट पवन ने उनकी लाजवाब हाजिरजवाबी और गंवई अंदाज पर एक एनीमेशन फिल्म बनाई है। कार्टूनिस्ट कैरेक्टर के तौर पर लालू प्रसाद यादव की पहली क्लिप ने बाजार में धूम मचाना शुरू कर दिया है। इस एनीमेशन प्रोजेक्ट को मंजूरी देने में लालू प्रसाद यादव ने एक सेकंड की भी देरी नहीं लगाई। लोकसभा चुनाव के पहले यदि लालू प्रसाद यादव का यह कार्टून हिट हो गया तो अन्य लोग भी ऐसे ख्वाब पाल सकते हैं। फिलहाल तो लालू प्रसाद यादव ने बाजी मार ली है। 'यदुकुल' की तरफ से लालू प्रसाद यादव जी को शत्-शत् बधाई !!
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राजनेता,
लालू प्रसाद यादव,
सम्मान-उपलब्धि
शनिवार, 3 जनवरी 2009
डा. पृथ्वी यादव को प्रथम एम्स इंटरनेशनल फेलो पुरस्कार
Gaurhari Singhania Inst. of Management & Research (GSSIMR), कानपुर के निदेशक डा. पृथ्वी यादव को प्रथम एम्स इंटरनेशनल फेलो पुरस्कार से सम्मानित किया गया. नोयडा स्थित इंडियन बिज़नस अकादमी में २८-३० सितंबर, २००८ के दौरान आयोजित छठें इंटरनेशनल कांफ्रेंस ऑफ़ एम्स इंटरनेशनल में उन्हें सम्मानित किया गया. डा. पृथ्वी यादव को आई.आई. टी. कानपुर की सीनेट में भी शामिल किया गया है. इन उपलब्धियों पर डा. पृथ्वी यादव को 'यदुकुल' की तरफ से ढेरों बधाई !!
लेबल:
व्यक्तित्व,
सम्मान-उपलब्धि
शुक्रवार, 2 जनवरी 2009
समाज की जीवंत कहानियाँ
‘तीस बरस घाटी‘ गोवर्धन यादव का ‘महुआ के वृक्ष‘ पश्चात दूसरा कहानी-संग्रह है। इस संग्रह में कुल 12 कहानियाँ संकलित हैं। श्री गोवर्धन यादव की कहानियों में आसपास का समाज और लोग हैं जो अतीत और भविष्य के बीच व्याप्त विरोधाभासों के बीच जी रहे हैं। इन कहानियों में पर्यावरण पर छाये संकट की चर्चा भी है, और अपनी जमीन और सम्पत्ति के प्रति परंपरागत मोह भी है। नई प्रौद्योगिकी और नए विचारों के साथ पुराने विचारों की टकहराहट की ध्वनि भी है। स्त्री स्वतंत्रता की बात भी प्रकारान्तर से मौजूद है। सबसे बड़ी विशेषता आदिवासी जीवन की गहरी समझ ने कहानियों को जीवन्त बना दिया है। प्रकृति से लेखक का विशेष लगाव है। शायद इसीलिए कहानियों में सूरज का उगना, चाँद का दिखना, देनवा नदी का प्रवाह, चिड़ियों का चहचहाना, बादलों का उमड़ना- घुमड़ना, लौट-लौट कर कहानियों में जगह पाते हैं। कभी-कभी ये प्रवाह में अवरोधक भी बने हैं। गोवर्धन यादव ने यदि लैश बैक के जरिये कथा वस्तु को विस्तार देने की शैली विकसित कर ली है, तो उन्हें पुनरावृत्ति के दोष से बचने के लिए इस विशिष्ट शैली के आग्रह से बचना होगा।
एक रचनाकार की सफलता इसी बात में निहित है कि वह पाठक को ऐसा परिवेश उपलब्ध कराए जहाँ वह अपनी उपस्थिति महसूस कर सके, और तभी ऐसा प्रति यथार्थ रच दे जहाँ तक पाठक घटित होती घटनाओं के बावजूद नहीं पहुँच पाता। इस कसौटी पर इस संग्रह की कहानियों को पढ़ा जाएगा तो गोवर्धन यादव की लेखनी में धारा से हटकर बहुत कुछ प्राप्त होगा। श्री यादव ने उपदेशक बनने की कोशिश नहीं की। उन्होंने कहानियों की वस्तु के साथ न्याय किया है। कहानी के ढाँचे की रक्षा करते हुए यथार्थ और प्रति यथार्थ को सहजता से सँवारने तथा सहज भाषा का प्रवाह बनाए रखने के लिए गोवर्धन जी बधाई के पात्र हैं।
पुस्तक-तीस बरस घाटी (कहानी-संग्रह), लेखक- गोवर्धन यादव, पृष्ठ- 148, मूल्य- 150/-, प्रकाशन वर्ष-2008, प्रकाशक-वैभव प्रकाशन, रायपुर (छत्तीसगढ़)
एक रचनाकार की सफलता इसी बात में निहित है कि वह पाठक को ऐसा परिवेश उपलब्ध कराए जहाँ वह अपनी उपस्थिति महसूस कर सके, और तभी ऐसा प्रति यथार्थ रच दे जहाँ तक पाठक घटित होती घटनाओं के बावजूद नहीं पहुँच पाता। इस कसौटी पर इस संग्रह की कहानियों को पढ़ा जाएगा तो गोवर्धन यादव की लेखनी में धारा से हटकर बहुत कुछ प्राप्त होगा। श्री यादव ने उपदेशक बनने की कोशिश नहीं की। उन्होंने कहानियों की वस्तु के साथ न्याय किया है। कहानी के ढाँचे की रक्षा करते हुए यथार्थ और प्रति यथार्थ को सहजता से सँवारने तथा सहज भाषा का प्रवाह बनाए रखने के लिए गोवर्धन जी बधाई के पात्र हैं।
पुस्तक-तीस बरस घाटी (कहानी-संग्रह), लेखक- गोवर्धन यादव, पृष्ठ- 148, मूल्य- 150/-, प्रकाशन वर्ष-2008, प्रकाशक-वैभव प्रकाशन, रायपुर (छत्तीसगढ़)
पर्यावरणीय चेतना जागृत करने का प्रयास करती कवितायें
‘धरती का बुखार‘ श्रीमती मीरा यादव ‘आनंद‘ का प्रथम कविता-संग्रह है। इस संग्रह में कुल 56 कविताएँ संकलित हैं। संग्रह की कविताओं का अध्ययन करने के पश्चात् ऐसा महसूस होता है कि कवयित्री के मानस पटल पर प्रकृति एवं उसके द्वारा प्रदत्त पर्यावरण के प्रति अटूट सम्बन्ध है। प्रकृति के साथ मनुष्य द्वारा की गई छेड़छाड़ तथा उसके प्रति व्यक्त उदासीन भावनाओं से प्रतीत होता है कि कवयित्री उसके भविष्य के प्रति काफी संवेदनशील है। कहीं न कहीं उनके मन को आशंका होती रही है कि इसी तरह से मनुष्य पर्यावरण के संरक्षण एवं उसकी सुरक्षा के प्रति लापरवाह रहा, तब मानव समूह के लिए उसका भविष्य बड़े ही खतरनाक दिशा की ओर इंगित करता है। इस अनुपम कविता-संग्रह द्वारा एक सद्गृहणी का पर्यावरणीय चेतना जागृत करने का यह प्रयास एकला चलो की याद दिलाते हुए भविष्य की ओर आश्वस्त तो करता ही है साथ ही कवयित्री को गार्गीय परम्परा के अनुरूप ज्ञानार्जन एवं लोकहित वाहिका घोषित कर उन्हें भी उसी पथ का पथिक घोषित करता है।
पुस्तक-धरती का बुखार(कविता-संग्रह), कवयित्री- श्रीमती मीरा यादव ‘आनंद‘ , पृष्ठ-128,
मूल्य- 150/-, प्रकाशन वर्ष-2007 , प्रकाशक-पाथेय प्रकाशन, जबलपुर(म0प्र0)
पुस्तक-धरती का बुखार(कविता-संग्रह), कवयित्री- श्रीमती मीरा यादव ‘आनंद‘ , पृष्ठ-128,
मूल्य- 150/-, प्रकाशन वर्ष-2007 , प्रकाशक-पाथेय प्रकाशन, जबलपुर(म0प्र0)
गुरुवार, 1 जनवरी 2009
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