शनिवार, 1 अगस्त 2009

मुड़ मुड़ के देखता हूँ- राजेंद्र यादव

मुड़ मुड़ के देखता हूँ....राजेंद्र यादव जी की ये आत्मकथा पढ़ने का मन हुआ मेरा मन्नू भंडारी की आत्मकथा एक कहानी ये भी पढ़ने के बाद। चूँकि राजेंद्र यादव की आत्मकथा पहले लिखी गई थी और मन्नू जी की बाद में तो सोचा पहले इस की चर्चा कर लें। मगर ये भी सच है कि मन्नू भंडारी की आत्मकथा पढ़ने के बाद बड़ा मुश्किल था खुद को तटस्थ और पूर्वाग्रहों से अलग रख पाना। मगर फिर भी प्रयास यही किया है कि इस चर्चा में खुद को मन्नू भंडारी से मुक्त रख सकूँ और चर्चा सिर्फ और सिर्फ मुड़ मुड़ के देता हूँ पुस्तक की करूँ!

यह पुस्तक १० अध्यायों मे लिखी गई है। अध्याय को अध्याय नाम नही बल्कि सुंदर शीर्षकों से सजाया गया है। पहले अध्याय मुड़ मुड़ के देखता हूँ में ही राजेन्द्र यादव जी ने कहा कि इसे उनकी आत्मकथा नही बल्कि आत्मकथांश समझा जाये॥! शायद सही ही कहा। क्योंकि आगे चल के कई जिज्ञासाएं अधूरी ही रह जाती हैं, राजेंन्द्र जी को जानने से संबंधित।फिर दूसरा अध्याय भूमिका।तीसरा अध्याय हक़ीर कहो फक़ीर कहो में अपनी साठवीं वर्षगाँठ पर मित्रों के बीच राजेंद्र जी द्वारा आगरे में दिया गया वक्तव्य है।चौथा अध्याय है अंत से शुरुआत॥जो दुर्घटनाओं में भी बचा रहता है अर्थात संकल्प, जिसमें जिक्र किया है उन्होने दिल्ली से कानपुर गिरिराजकिशोर जी के सम्मान में आयोजित कार्यक्रम मे जाते हुए हुई राजधानी ट्रेन दुर्घटना से सही सलामत आ जाने का।पाँचवा अध्याय ऐयार (इम्पोस्टर) से सावधान में अपने हम शक्लो की चर्चा के साथ अपने विभिन्न चेहरों (मुखौटों) के प्रति आगाह किया है।छठे अध्याय अपनी नज़र से में किसी प्रिय को संबोधित करते पत्र मे अपने विषय में टुकड़ों ड़ुकड़ों में लिखा है जहाँ कुछ कुछ देर के लिये कुछ लेखक मित्र मन्नू से विवाह उनसे मनोमालिन्यता और पिता की मृत्यु का भी जिक्र है।

सातवाँ अध्याय पुनः मुड़ मुड़ के देखता हूँ, जहाँ मुझे कुछ क्रम सा नज़र आता है,जिसमे शुरु से ही शुरु है :)। और मैने जब पुस्तक पढ़ी तो यहीं से पढ़ी। पीछे का कुछ तब समझ में आया जब इसे पढ़ लिया। अतः पिछले छः अध्याय मैने पुनः पढ़े या बाद में पढ़े। यहाँ राजेंद्र जी के बचपन का घर, उनका अपने चाचा जी के घर पढ़ने को जाना, वहाँ बच्चों के झगड़े में किसी बच्चे के हाकी मार देने से राजेंद्र जी के पैर में चोट आना, घर पर बात छुपा ले जाने के कारण चोट का बढ़ जाना और घुटने से टखने तक की हड्डी का गल जाना और आपरेशन द्वार निकाल दिये जाने से पैर में कुछ समस्या आ जाना तथा बैसाखी के सहारे चलना। यहीं उन्होने अपनी रचनात्मकता की शुरुआत को भी समझा। दिनभर बिस्तर पड़े होने से उनकी कल्पना शक्ति बढ़ी और कथाकारी करने लगी। यहाँ उन्होने अपनी विभिन्न किताबों के विषय में लिखा।

आठवें अध्याय मुड़ मुड़ के देखता हूँ भाग २ ये तुम्हारा स्वर मुझे खींचे लिये जाता.... में चर्चा की है अपने मित्रों की जिसमें विस्तार महिला मित्रों को ही मिला है। हेमलता नाम की उनकी किसी उद्योगपति घराने से संबंध रखने वाली प्रशंसिका, जिसे उन्होने बाद में दीदी कहना शुरू कर दिया, उनकी रचनाओं पर उन दीदी का प्रभाव इस कदर था कि मित्र उन्हे दीदीवादी लेखक भी कहने लगे बाद में कुछ आकर्षण..... जिसको बंधन आर्थिक विषमता के कारण नही मिल सका। कर्मयोगी के संपादक रामरखसिंह सहगल की मृत्यु के बाद बी०एड० करने आई उनकी पु्त्री से अति आकर्षण,जिसके आगे ना बढ़ पाने के लिये राजेन्द्र जी ने अपनी अपंगता को दोषी माना। फर्राट मीता जिससे परिचय उनका ट्यूशन के जरिये तभी हुआ जब वो १४-१५ वर्ष की ही थी और अब लगभग ५० वर्षो की जनपहचान हो चुकी है; जिसने विवाह प्रस्ताव कि यह कर टाल दिया कि हम मित्र है है और मित्र ही रहेंगे। राजेंन्द्र यादव ने जिसे पर लिखा कि "ये साफ साफ मेरा रिजेक्शन था। तुम सिर्फ कभी कभी मित्रता के लायक हो, साथ बँधने के नही।" बाद में उन्होने ये भी स्वीकार किया कि मन्नू जी से विवाहके पश्चात कई बार जब मीता और राजेंन्द्र जी ने शादी की तारीखें भी तय कर लीं तब पता नही किन कारणों से राजेन्द्र यादव ही पीछे हट गये। इस विश्वासघात के लिये उनका कहना है कि इसने उन्हे ही बार बार तोड़ा। इन सारे संबंधों से परे जहाँ किसी ने शारीरिक और किसी ने आर्थिक विषमताओं की आड़ ले कर राजेंद्र जी से, मित्रता की तो सारी मान्यताए निभाईं मगर जीवनबंधन में बँधने से परे रह गये; पर जब मन्नू जी ने उन्हे जस का तस स्वीकार किया तब भी वो ना जाने कौन से कारण थे जिन्होने उन दोनो को साथ नही रहने दिया। जबकि राजेंन्द्र जी स्वीकार करते हैं कि रिश्तेदारों और मित्रों के बीच मन्नू जी उनका अहम् बड़ी चतुराई से रख लेती थी। बच्ची, परिवार, समाज, राजेंन्द्र जी को जब जब जरूरत हुई तब तब सहयोग के बावजूद राजेंद्र जी घर गृहस्थी में न जम सके क्योंकि उनके अनुसार "बौद्धिक और व्यक्तिगत तौर पर वह सब मुझे असहज बनाता है जो जिंदगी को बने बनाये ढर्रे में कैद कर के सारी संभावनाओं को समाप्त कर देता है।" प्रभा खेतान का भी हल्का फुल्का जिक्र है। अनेकानेक स्त्रियो से संबंध मे वे दीदी, मीता और मन्नू का विशेष योगदान मानते हैं अपने जीवन में। मगर अब तीनो ही उनकी जिंदगी में नही है। जिंदगी किशन नाम के एक नौकर के सहारे ही चल रही है।अध्याय के अंत में कलकत्ते का एक रात घूमने का वर्णन है। नवें अध्याय हम ना मरै मरिहैं संसारा में अपनी मृत्यु की परिकल्पना का दृश्य

और अंत में एक आटोप्सी (शव परीक्षा) जिसे तोते की जान शीर्षक से लिखा है अर्चना वर्मा ने और मैं इसे पुस्तक की जान मानती हूँ। राजेंन्द्र जी के गुण और दोषों को जिस पारदर्शिता के साथ लिखा गया इस परिशिष्ट में वो काबिल-ए-तारीफ है। संपादक राजेंद्र जी के साथ के रोज के अनुभवो से ले कर मन्नू जी को खाँटी घरेलू औरत कहने पर तीक्ष्ण प्रतिक्रिया तक।

अंत में अपनी तरफ से ये कहूँगी कि कहना तो बहुत कुछ चाह रही थी मैं। मगर फिर ये लगता है कि किसी की कहानी पर कुछ कहो तो कहो किसी की जिंदगी पर क्या कहना? शायद सच ही कह रहे हो राजेंद्र जी कि " जो कुछ उन्होने किया, उसके सिवा वे और कुछ कर ही नही सकते थे। रफ़ हो या फेयर उनकी जिंदगी यही होती जो है...!" हाँ मगर कुछ चीजो को स्थान न देने की शिकायत तो कर ही सकती हूँ। बचपन में एक बड़ी दुर्घटना जिसने उनका जीवन बदल दिया उससे निकलने में कहीं न कहीं परिवार का, माता पिता का शायद बहुत बड़ा सहयोग रहा होगा। उसको उतना विस्तार नही मिला जितना मिलना चाहिये था। एक पाठक के मन में उनके और मोहन राकेश की मित्रता और विरक्ति के भी कारण जानने की जिज्ञासा बनती है और कमलेश्वर को तो खैर उतना भी स्थान नही मिला जितना मोहन राकेश को। क्या व्यक्तित्व निर्माण में सिर्फ विपरीतलिंगी मित्रों का ही हाथ होता है।

कुछ भी हो इस बात का अफसोस भी है कि चाहे वो जो भी कारण हो मगर इस मामले में मैं राजेंद्र जी को मैं भाग्यहीन मानती हूँ कि बहुत से निःस्वार्थ रिश्ते वो संभाल न सके। उन्होने इसका दोष अपनी कुंठा को दिया। वो कुंठा जो उन्होने बार बार बताया कि उनकी अपंगता के कारण आयी॥यहाँ तो शायद मै बोलने का अधिकार रखती ही हूँ कि ये जो दैवीय गाँठे हैं, उन्हे खोलने का एक ही तरीका है स्वार्थहीन स्नेह..! और अगर ये स्नेह भी ना खोल सके गाँठें तो क्षमा करें मगर आप कोई भी जीवन पाते कुंठा के शिकार ही रहते।यह पुस्तक राजकमल प्रकाशन की सजिल्द पुस्तक है मूल्य है रु० १९५/-
(साभार-कंचन सिंह चौहान,हृदय गवाक्ष)

9 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

Nice one.

हिंदी साहित्य संसार : Hindi Literature World ने कहा…

कंचन जी ने बहुत सुन्दर समीक्षा की है..बधाई.

Bhanwar Singh ने कहा…

राजेंद्र यादव की बात ही निराली है.

Dr. Brajesh Swaroop ने कहा…

Pustak to maine bhi padhi, par yahan to andaj hi juda hai.

www.dakbabu.blogspot.com ने कहा…

Main to Rajendra ji ke sahitya ka bahut bada fan hoon.

Shyama ने कहा…

राजेंद्र यादव जो भी लिखते हैं, चर्चा कम विवादों में ज्यादा आ जाता है. यही उनकी खूबी भी है.

S R Bharti ने कहा…

रोचक समीक्षा.

Unknown ने कहा…

बहुत ही रोचक समीक्षा है।

विनोद कुशवाहा ने कहा…

इसे एक लम्पट की आत्मकथा के रूप में ही स्वीकार किया जाना चाहिए ।