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पेंटिंग के क्षेत्र में डा0 लाल रत्नाकर का नाम जाना-पहचाना है 12 अगस्त 1957 को जौनपुर (उ0प्र0) में जन्में डा0 रत्नाकर ने 1978 में कानपुर विश्वविद्यालय से ड्राइंग और पेण्टिंग में परास्नातक उपाधि प्राप्त की और तत्पश्चात 1985 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से ‘"पूर्वी उत्तर प्रदेश की लोक कला"
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विषय पर पी0एच0डी0 पूरा किया। देश के लगभग हर प्रमुख शहर में अपनी पेण्टिंग-प्रदर्शनी लगाकर शोहरत हासिल करने वाले डा0 रत्नाकर प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका 'हंस' के लिए भी रेखांकन का कार्य करते हैं। जीवन के प्रति आपका दृष्टिकोण व्यापक है। सामाजिक-साहित्यिक आयोजनों में भी आप बेहद सक्रियता के साथ भाग लेते हैं। फिलहाल आप एम0एम0एच0 (पी0जी0) कालेज, गाजियाबाद में ड्राइंग और पेण्टिंग (फाइन आर्ट) विभाग में रीडर हैं।
बचपन में कला दीर्घाओं के नाम पर पत्थर के कोल्हू की दीवारें, असवारी और मटके
के चित्र, मिसिराइन के भित्ति चित्र डा0 रत्नाकर को आकर्षित ही नहीं, सृजन के लिए प्रेरित भी करते थे।
गांव की लिपी-पुती दीवारों पर गेरू या कोयले के टुकड़े से कुछ आकार देकर आपको जो आनंद मिलता था, वह सुख कैनवास पर काम करने से कहीं ज्यादा था। स्कूल की पढ़ाई के साथ-साथ रेखाएं ज्यादा सकून देती रहीं और यहीं से निकली कलात्मक अनुभूति की अभिव्यक्ति, जो अक्षरों से ज्यादा सहज प्रतीत होने लगी. एक तरफ विज्ञान की विभिन्न शाखाओं की जटिलता वहीं दूसरी ओर चित्रकारी की सरलता, ऐसे में डा0 रत्नाकर द्वारा सहज था चित्रकला का वरण.
ग्रे
जुएशन के लिए आपने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और गोरखपुर विश्वविद्यालय में आवेदन दिया और दोनों जगह चयन भी हो गया. अंतत: गोरखपुर विश्वविद्यालय के चित्रकला विभाग में प्रवेश लिया और यहीं मिले आपको कलागुरू श्री जितेन्द्र कुमार. कला को जानने-समझने की शुरुवात यहीं से हुई। फिर कानपुर से बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कलाकुल पद्मश्री राय कृष्ण दास का सानिध्य, श्री आनन्द कृष्ण जी के निर्देशन में पूर्वी उत्तर प्रदेश की लोक कला पर शोध, फिर देश के अलग-अलग हिस्सों में कला प्रदर्शनियों का आयोजन... कला के विद्यार्थी के रुप में आपकी यह यात्रा आज भी जारी है। बतौर डा0 रत्नाकर-‘‘कला के विविध अछूते विषयों को जानने और उन पर काम करने की जो उर्जा मेरे अंदर बनी और बची हुई है, उनमें वह सब शामिल है, जिन्हें अपने बचपन में देखते हुए मैं इस संसार में दाखिल हुआ.''
डा0 रत्नाकर स्त्री सशक्तीकरण के बहुत बड़े हिमायती हैं। यही कारण है कि आपने स्त्रियों पर काफी काम किया है। आपकी पूरी एक श्रृंखला आधी दुनिया स्त्रियों पर केंद्रित है, पर ये स्त्रियां भद्र
लो
क की नहीं हैं, बल्कि खेतों खलिहानों में अपने पुरूषों के साथ काम करने वाली स्त्रियां हैं. ऐसा डा0 रत्नाकर की ग्रामीण पृष्ठभूमि के कारण है पर इसका मतलब यह नहीं है कि वे किसी दूसरे विषय का वरण अपनी सृजन प्रक्रिया के लिये नहीं कर सकते थे, पर उनके ग्रामीण परिवेश ने उन्हें पकड़े रखा. समकालीन दुनिया में हो रहे बदलावों के प्रति भी डा0 रत्नाकर की तूलिका संजीदा है। उनका मानना है कि- "समकालीन दुनिया के बदलते परिवेश के चलते आज बाजार वह सामग्री परोस रहा है, जो उस क्षेत्र तो क्या उस पूरे परिवेश तक की वस्तु नही है. इसका मतलब यह नही हुआ कि मैं विकास का विरोधी हूं लेकिन जिन प्रतीकों से मेरा रचना संसार समृध्द होता है, उसमें यह बाज़ार आमूल चूल परिवर्तन करके एक अलग दुनिया रचेगा जिसमें उस परिवेश विशेष की निजता के लोप होने का खतरा नजर आता है."
जीवन का अनुभव संसार डा0 रत्नाकर के लिए, कला के अनुभव संसार का उत्स है. उनकी मानें तो-"अंतत: हरेक रचना के मूल में जीवन संसार ही तो है. जीवन के जिस पहलू को मैं अपनी कला में पिरोने का प्रयास करता हूँ, दरअसल वही संसार मेरी कला में उपस्थित रहता है. कला की रचना प्रक्रिया की अपनी सुविधाएं और असुविधाएं हैं, जिससे जीवन और कला का सामंजस्य बैठाने के प्रयास में गतिरोध आवश्यक हिस्सा बनता रहता है. यदि यह कहें कि लोक और उन्नत समाज में कला दृष्टि की भिन्न धारा है तो मुझे लगता है, मेरी कला उनके मध्य सेतु का काम कर सकती है."
( डा0 लाल रत्नाकर के बारे में विस्तृत जानकारी हेतु उनकी वेबसाइट पर जायें- http://www.ratnakarsart.com/)