पिछले महीने आगरा में समाजवादी पार्टी का विशेष राष्ट्रीय अधिवेशन तीन दिनों तक चला। खूब भाषण हुए। कांग्रेस और बसपा दोनों निशाने पर। लेकिन मीडिया का फोकस रहा समाजवादी चोले में रंगे कल्याण सिंह पर और फोटोग्राफरों ने सबसे ज्यादा फ्लैश चमकाया-सिनेस्टार व रामपुर से सांसद जयाप्रदा के चेहरे पर। इन सब के बीच जमीनी कार्यकर्ताओं की नजर उन बंबइया चेहरों केा तलाश रही थी जिन्हें पार्टी ने लोकसभा चुनाव में गाजे-बाजे के साथ टिकट दिया था। मसलन मुन्ना भाई यानी संजय दत्त। पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव भी हैं लेकिन राष्ट्रीय अधिवेशन में नजर नहीं आए। भोजपुरी स्टार एवं गोरखपुर से सांसदी का चुनाव लड़े मनोज तिवारी भी नदारद। पता किया गया तो मालूम चला कि दोनों शूटिंग में व्यस्त हैं। बचीं लखनऊ से प्रत्याशी बनाई गईं नफीसा अली, तो वह भी नहीं आईं। उनके बारे में तो लोग बोल रहे हैं कि कंाग्रेस से फिर रिश्ते जोड़ने में लगी हैं। पार्टी वाले नाहक नहीं पूछ रहे हैं कि इन मौसमी चेहरों को टिकट और पद से नवाजने का क्या फायदा। उधर अमर सिंह सिंगापुर में स्वास्थ्य लाभ कर रहे हैं, पर भारतीय राजनीति उन्हें करवटें नहीं बदलने दे रही है। हर दिन प्रिन्ट मीडिया और इलेक्ट्रानिक चैनल पर उनके बयान आ रहे हैं। कई बार तो मीडिया ऐसे पेश आता है मानो अमर सिंह समाजवादी पार्टी के सर्वेसर्वा हों और मुलायम सिंह पार्टी के महासचिव। इसे मीडिया की खुराफात कहें या मुलायम सिंह की मजबूरी। फिलहाल जो भी हो यादवों के नाम पर राजनीति करने वाले मुलायम सिंह यादव लोकसभा चुनावों से कोई सबक लेने को तैयार नहीं दिखते। उधर उनके पुत्र अखिलेश यादव भी युवाओं पर कोई जादू करने में असफल रहे। विधान सभा उपचुनावों में करारी हार इसी का परिणाम है। सबसे रोचक तथ्य तो यह है कि उधर सपा का विशेष राष्ट्रीय अधिवेशन चल रहा था, दूसरी तरफ विधानसभा चुनावों में वे शिकस्त का सामना कर रहे थे। निश्चिततः यह समय है मुलायम सिंह के आत्मविश्लेषण एवं चिंतन का। एक ऐसा चिंतन जो सतही न हो, चाटुकारों के बीच न हों एवं ग्लैमर की चासनी में सजा न हो।
लालू प्रसाद यादव का हाल भी बहुत अच्छा नहीं है। कभी लोकसभा में 22 सीटें लाने वाले लालू यादव इस बार केवल 4 सीटें ही जीत पाये। उन्हें कोई मंत्रालय भी नहीं मिला, जिसकी तड़प अब भी बरकरार है। पर लालू यादव के साथ सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे मीडिया-फेस हैं और गाहे-बगाहे चर्चा में बने रहते हैं। फिलहाल उनकी समस्या यह है कि उन्हें लोसभा में फ्रंट रो की सीट छोड़नी पड़ेगी और उनकी पाटी्र के आफिस के लिए फस्र्ट फ्लोर से हटाकर थर्ड फ्लोर पर जगह दिए जाने की संभावना है, क्योंकि लोकसभा का नियम है कि यदि 10 से कम सीटें किसी पार्टी की आती हैं तो उस पार्टी को कार्यालय के लिए जगह थर्ड फ्लोर पर ही मिलती है। फिलहाल लालू प्रसाद इस मुसीबत से बचने का जुगाड़ ढूढ़ने में लगे हुए हैं। काश ऐसी ही मेहनत वे जनता के बीच जाकर करते तो शायद यह दिन उन्हें न देखना पड़ता।
7 टिप्पणियां:
बहुत सही विश्लेषण किया है आपने. फ़िलहाल मुलायम-लालू को जमीनी राजनीती से जुड़ने की जरुरत है.
निश्चिततः यह समय है मुलायम सिंह-लालू प्रसाद यादव के आत्मविश्लेषण एवं चिंतन का। एक ऐसा चिंतन जो सतही न हो, चाटुकारों के बीच न हों एवं ग्लैमर की चासनी में सजा न हो।....Ekdam sahi kaha apne.
Its Nice article with critical analysis....Its true for all politicians.
लाजवाब विश्लेषण...आपने तो उन्हें आइना दिखा दिया.
राजनीति में कल क्या हो जाय किसी ने नहीं देखा. अच्छे-बुरे दिन लगे रहते हैं.
Achha likha apne.
dono ko jarurat hai apni soch ka dayra badhane ki
lalu ko bhi aur mulayam ko bhi
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