बुधवार, 17 दिसंबर 2008
१८५७-१९४७ के स्वातंत्र्य समर को सहेजती "क्रांति-यज्ञ"
‘क्रान्ति-यज्ञ‘ में जिन लेखों को संकलित किया गया है, उन्हें दो भागों में बाँटा जा सकता है। प्रथम भाग 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम की पृष्ठभूमि, क्रान्ति की तीव्रता और क्रान्ति के नायकों पर केन्द्रित है, तो दूसरे भाग में 1857 की क्रान्ति के परवर्ती आन्दोलनों और नायकों का चित्रण है। प्रथम स्वाधीनता संग्राम पर स्वयं सम्पादक कृष्ण कुमार यादव का लिखा हुआ लेख ‘1857 की क्रान्ति: पृष्ठभूमि और विस्तार‘ सर्वाधिक उल्लेखनीय है। कृष्ण कुमार ने बड़े नायाब तरीके से घटनाओं का तर्कसंगत विश्लेषण करते हुए इस क्रान्ति को मात्र ‘सिपाहियों का विद्रोह‘ अथवा ‘सामन्ती विरोध‘ के अंग्रेज इतिहासकारों के झूठे प्रचार का खण्डन किया है। क्रान्तियज्ञ में स्वतंत्रता संग्राम के हर पहलू को समेटने की कोशिश की गयी है। जवाहर लाल नेहरू व रामविलास शर्मा के लेख 1857 की क्रान्ति के बहाने तत्कालीन राष्ट्रीय विचारधाराओं व उनके प्रभावों के सांस्कृतिक-सामाजिक पक्ष की गहन पड़ताल करते है। रामशिवमूर्ति यादव ने मंगल पाण्डे की शहादत का वर्णन किया है तो बहादुरशाहजफर, नाना साहब, तात्या टोपे, अजीमुल्ला खां, मौलवी अहमदुल्ला शाह जैसे क्रान्तिकारी नायकों की भूमिका को भी इस पुस्तक में प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त किया गया है। गुरिल्ला युद्ध में माहिर तात्या टोपे के सम्बन्ध में अंग्रेजों ने यूँ ही नहीं कहा कि-‘‘यदि उस समय भारत में आधा दर्जन भी तात्या टोपे सरीखे सेनापति होते तो ब्रिटिश सेनाओं की हार तय थी।‘‘
‘‘क्रान्ति-यज्ञ‘‘ में कृष्ण कुमार लिखते हंै कि- ‘‘भारत का स्वाधीनता संग्राम एक ऐसा आन्दोलन था जो अपने आप में एक महाकाव्य है। लगभग एक शताब्दी तक चले इस आन्दोलन ने भारतीय राष्ट्रीयता की अवधारणा से संगठित हुए लोगों को एकजुट किया। यह आन्दोलन किसी एक धारा का पर्याय नहीं था बल्कि इसमें सामाजिक- धार्मिक-सुधारक, राष्ट्रवादी साहित्यकार, पत्रकार, क्राान्तिकारी, कांग्रेसी, गाँधीवादी इत्यादि सभी किसी न किसी रूप में सक्रिय थे।‘‘ इस धारणा को मजबूत करता एवं ‘शासन व समर से स्त्रियों का सरोकार नहीं‘ जैसी तमाम पुरूषवादी स्थापनाओं को ध्वस्त करता आकांक्षा यादव का लेख ‘वीरांगनाओं ने भी जगाई स्वाधीनता की अलख‘ एवं पिछड़ी-दलित जातियों के रक्त का मूल्यांकन करता के0 नाथ का लेख ‘‘1857 और दलित शहीद‘‘ महत्वपूर्ण हैं। आशारानी व्होरा द्वारा प्रस्तुत ‘प्रथम क्रान्तिकारी शहीद किशोरीःप्रीतिलता वादेदार‘ एवं स्वतंत्रता सेनानी युवतियों में सर्वाधिक लम्बी जेल सजा भुगतने वाली नागालैण्ड की रानी गिडालू के सम्बन्ध में लिखे लेख भी इसी श्रेणी में रखे जा सकते हैं।
पुस्तक का सबसे सार्थक और महत्वपूर्ण अंश वह है, जिसके माध्यम से स्वाधीनता आन्दोलन में साहित्य की अग्रगामी भूमिका को स्पष्ट किया गया है। जनमानस में क्रान्तिकारियों की केवल विद्रोही और शहादत देने वाली छवि अंकित हैं, उनके वैचारिक और संवेदनशील पहलू से बहुत कम लोग परिचित हैं। यह अनायास ही नहीं है कि तमाम क्रान्तिकारी व नेतृत्वकर्ता अच्छे साहित्यकार व पत्रकार भी रहे है। विचार-साहित्य-क्रान्ति का यह बेजोड़ संतुलन रामप्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह, अशफाकउल्ला खान, शचीन्द्र नाथ सान्याल, भगत सिंह, बाल गंगाधर तिलक इत्यादि जैसे तमाम क्रान्तिकारियों में देखा जा सकता है। सूर्य प्रसाद दीक्षित ने ‘‘क्रान्तिकारी आन्दोलन और साहित्य रचना‘‘ में क्रान्ति की मशाल को जलाये रखने में लेखनी के योगदान पर खूबसूरती से प्रकाश डाला है तो डा0 रमेश वर्मा द्वारा प्रस्तुत लेख ‘स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास में प्रताप की भूमिका‘ को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है। यह साहित्यिक क्रान्ति का ही कमाल था कि अंग्रेजों ने अनेक पुस्तकों और गीतों को प्रतिबन्धित कर दिया था। मदनलाल वर्मा ‘कांत‘ ने इन दुर्लभ साहित्यिक रचनाओं को अनेक विस्मृत आख्यानों और पन्नों से ढँूढ़ निकाला है और ‘‘प्रतिबन्धित क्रान्तिकारी साहित्य‘‘ में ब्रिटिश सरकार द्वारा जब्त की गयी पुस्तकों एवं पत्र-पत्रिकाओं पर सूचनात्मक ढंग में महत्वपूर्ण लेख लिखा है। क्रान्तिकारी साहित्य सिर्फ पन्नों पर ही नहीं बल्कि लोकमानस के कंठ में, गीतों और किंवदंतियों के माध्यम से भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रवाहित होता रहता है। ऐतिहासिक घटनाओं के सार्थक विश्लेषण हेतु इस लोकेतिहास को समेटना जरूरी है। डा0 सुमन राजे ने अपने लेख ‘‘लोकेतिहास और 1857 की जन-क्रान्ति‘‘ में इसे दर्शाने का गम्भीर प्रयास किया है। इसी कड़ी में युवा लेखिका आकांक्षा यादव के लेख ‘‘लोक काव्य में स्वाधीनता‘‘ में भी 1857-1947 की स्वातंत्र्य गाथा का अनहद नाद सुनाई पड़ता है।
‘क्रान्ति यज्ञ‘ दूसरे भाग में 1857 की क्रान्ति के परवर्ती आन्दोलनों व नायकों का चित्रण है। ‘शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा‘ की भावना को आत्मसात करते हुए अमित कुमार यादव ने ‘स्वतंत्रता संघर्ष और क्रान्तिकारी आन्दोलन‘ के माध्यम से क्रान्तिकारी गतिविधियों को बखूबी संजोया है तो कृष्ण कुमार यादव का लेख ‘समग्र विश्वधारा में व्याप्त हैं महात्मा गाँधी‘ वर्तमान परिप्रेक्ष्य में काफी प्रासंगिक है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 2007 से ‘गाँधी जयन्ती‘ को ‘विश्व अहिंसा दिवस‘ के रूप में मनाये जाने की घोषणा करके शान्ति व अहिंसा के पुजारी गाँधी जी के विचारों की प्रासंगिकता को एक बार पुनः सिद्ध कर दिया है। क्रान्ति की अलख जगाने वाले क्रान्तिकारियों में क्रान्तिकारी रामकृष्ण खत्री का ‘आजाद‘ पर लिखा संस्मरणात्मक आलेख एवं बिस्मिल व अशफाकउल्ला पर लेख ध्यान आकृष्ट करते हैं। क्रान्तिकारी मन्मथनाथ गुप्त की कलम से अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिला देनी वाले ‘काकोरी काण्ड का सच‘ युवा पीढ़ी को बलिदानी भावना सहेजने का संदेश देता है। लोगों में स्वाधीनता की अकुलाहट बढ़ने के साथ-साथ अंग्रेजों ने स्वाधीनता की आकांक्षा का दमन करने के लिए तमाम रास्ते भी अख्तियार किये। कृष्ण कुमार यादव का लेख ‘‘क्रान्तिकारियों के बलिदान की साक्षीः सेल्युलर जेल‘‘ मानवता के विरूद्ध अंग्रेजों के कुकृत्यों का अमानवीय पक्ष स्पष्ट करता है।
वर्ष 2007-08 क्रान्तिकारियों - भगत सिंह, सुखदेव और दुर्गादेवी वोहरा का जन्म शताब्दी वर्ष भी रहा है। भगत सिंह पर उनके क्रान्तिकारी साथी शिव वर्मा द्वारा लिखा संस्मरणात्मक आलेख महत्वपूर्ण है तो गिरिराज किशोर ने ‘‘जब भगत सिंह ने हिन्दी का नारा बुलन्द किया‘‘ में एक नये संदर्भ में भगत सिंह को प्रस्तुत किया है। क्रान्तिकारी सुखदेव पर सत्यकाम पहारिया का लेख और दुर्गादेवी वोहरा पर आकांक्षा यादव का लेख उनके विस्तृत जीवन पर प्रकाश डालते हैं। आकांक्षा यादव ने इस तथ्य को भी उदधृत किया है कि एक ही वर्ष की विभिन्न तिथियों में जन्मतिथि पड़ने के बावजूद भगतसिंह अपना जन्मदिन दुर्गा देवी के जन्मदिन पर उन्हीं के साथ मनाते थे और उनके पति भगवतीचरण वोहरा सहित तमाम क्रान्तिकारी इस अवसर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते थे।
विश्व साहित्य में राष्ट्रीय भावना का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। राष्ट्रीय और क्रान्तिकारी साहित्य ने भारतवर्ष की जीवन गति को भी क्रान्तिदर्शी भूमिका प्रदान करने में योगदान दिया कृष्ण कुमार और आकांक्षा यादव ने ‘क्रान्तियज्ञ‘ द्वारा अतीत व वर्तमान की जो भूली-बिसरी विरासत थी, उसे समाज के सामने ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक और राष्ट्रीय स्तर पर आदर्शोन्मुख होकर प्रस्तुत किया है। निःसन्देह यह संकलन लेखकीय कर्तव्य का ही प्रतिपालन है। इससे वर्तमान पीढ़ी और आने वाले समय व समाज के लिए यह पुस्तक स्वाभिमान का, मानवीय गुणों का और राष्ट्रप्रेम का अनुपम पथ प्रशस्त करने वाली संदर्शिका बनेगी तथा इसके सन्दर्भों से शोध और चिंतनपरक साहित्य को उत्कृष्ट सन्दर्भ प्राप्त हो सकेंगे। ‘‘क्रान्ति यज्ञ‘‘ पुस्तक वस्तुतः अपनी राष्ट्रीय अस्मिता का ही दर्शन है. पुस्तक के बारे में भारत सरकार के गृह राज्य मंत्री श्रीयुत श्रीप्रकाश जायसवाल के शब्द गौर करने लायक हैं- " क्रांति-यज्ञ एक पुस्तक नहीं बल्कि अपने आप में एक शोध-ग्रन्थ है।"
सोमवार, 15 दिसंबर 2008
विचारों की दस्तावेजी धरोहर: अनुभूतियाँ और विमर्श
इस संग्रह के अन्य निबन्धों में नारी विमर्श, युवा भटकाव, भूमण्डलीकरण, उपभोक्तावाद चिन्तन के विविध आयाम सहज संलक्ष्य है। लेखक की श्रेष्ठ-जीवन मूल्यों के प्रति प्रखण्ड आस्था, भारतीय संस्कृति के प्रति अगाध अनुराग तथा समग्रता भारतीयता के प्रति एकनिष्ठा की स्पृहणीय चेतना से प्राणवान यें निबन्ध हिन्दी जगत की स्थायी निधि हैं। इनमें लेखक का स्वाध्याय तथा अभिव्यक्ति की निश्छलता अपने पूर्ण वैभव के साथ विद्यमान है। वैज्ञानिक विश्लेषण की दक्षता लेखन में है, इसलिए उसका कथ्य प्रत्येक पाठक का कथ्य बन गया है। इनमें हिन्दी से सम्बन्धित निबन्ध महत्वपूर्ण हैं। ये निबन्ध अनुभूतिपरक हैं चिन्तन प्रधान हैं तथा दार्शनिकता का पुट लिये हुये हैं, इसलिए सर्वस्पर्शी हैं। इनमें न तो किसी वाद का आग्रह है और न किसी मत के खण्डन का दुराग्रह। सन्तुलन धर्मिता इनकी विशिष्टता है।
कुल मिलाकर एक प्रशासक होने के साथ-साथ मानवीय संवेदनाओं से गहरे रूप में जुड़े हुए कृष्ण कुमार यादव का यह संकलन वैश्विक जीवन दृष्टि, आधुनिकता बोध तथा सामाजिक सन्दर्भों को विविधता के अनेक स्तरों पर समेटे हिन्दी निबन्ध के जिस पूरे परिदृश्य का एहसास कराता है वह निबंध कला के भावी विकास का सूचक है। सर्वथा नई शब्द योजना, नई प्रासंगिकता, नई अनुभूतियाँ और नई विमर्श शैली के साथ यह एक दस्तावेजी निबंध संग्रह है, जो विचारों की धरोहर होने के कारण संग्रहणीय भी है।
शुक्रवार, 12 दिसंबर 2008
व्यक्ति, समाज, साहित्य और राजनीति के अन्तर्सम्बंधों की पड़ताल करता ''अभिव्यक्तियों के बहाने''
आज लोकतंत्र मात्र एक शासन-प्रणाली नहीं वरन् वैचारिक स्वतंत्रता का पर्याय बन गया है। कृष्ण कुमार यादव की नजर इस पर भी गई है। ‘‘लोकतंत्र के आयाम‘‘ लेख में भारतीय लोकतंत्र के गतिशील यथार्थ की सच्ची तस्वीर देखी जा सकती है। किसी विशेष राजनीतिक विचारधारा से प्रभावित हुए बिना भारतीय समाज के पूरे ताने-बाने को समझने की वैज्ञानिक दृष्टि इस लेख को महत्वपूर्ण बना देती है। सत्य-असत्य, सभ्यता के आरम्भ से ही धर्म एवं दर्शन के केद्र-बिंदु बने हुये हैं। महात्मा गाँधी, जिन्हें सत्य का सबसे बड़ा व्यवहारवादी उपासक माना जाता है ने सत्य को ईश्वर का पर्यायवाची कहा। भारत सरकार के राजकीय चिन्ह अशोक-चक्र के नीचे लिखा ‘सत्यमेव जयते’ शासन एवं प्रशासन की शुचिता का प्रतीक है। यह हर भारतीय को अहसास दिलाता है कि सत्य हमारे लिये एक तथ्य नहीं वरन् हमारी संस्कृति का सार है। इस भावना को सहेजता लेख ‘‘सत्यमेव जयते‘‘ बड़ा प्रभावी लेख है। एक अन्य लेख में लेखक ने प्रयाग के महात्मय का वर्णन करते हुए इलाहाबाद के राजनैतिक-सामाजिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक योगदान को रेखांकित किया है। इसमें इतिहास और स्मृति एक दूसरे के साथ-साथ चलते हुए नजर आते हैं।
सृष्टि का चक्र चलाने वाली, एक उन्नत समाज बनाने वाली, शक्ति, ममता, साहस, सौर्य, ज्ञान, दया का पुंज है नारी। एक तरफ वह यशोदा है, तो दूसरी तरफ चण्डी भी। आज महिलायें समुद्र की गहराई और आसमान की ऊँचाई नाप रही हैं। ‘‘रूढ़ियों की जकड़बन्द तोड़ती नारियाँ‘‘ ऐसी नारियों का जिक्र करती है जो फेमिनिस्ट के रूप में किन्हीं नारी आन्दोलनों से नहीं जुड़ी हैं। कर्मकाण्डों में पुरूषों को पीछे छोड़कर पुरोहिती करने वाली, माता-पिता के अंतिम संस्कार से लेकर तर्पण और पितरों के श्राद्ध तक करने वाले ऐसे तमाम कार्य जिसे महिलाओं के लिए सर्वथा निषिद्ध माना जाता रहा है, आज महिलायें खुद कर रही हैं। आजादी के दौर में भी कुछ महापुरूषों ने इन रूढ़िगत मान्यताओं के विरूद्ध आवाज उठाई थी पर अब महिलायें सिर्फ आवाज ही नहीं उठा रही हैं वरन् इन रूढ़िगत मान्यताओं को पीछे ढकेलकर नये मानदण्ड भी स्थापित कर रही हैं। इसी क्रम में ‘‘लिंग समता: एक विश्लेषण‘‘ नामक लेख पुरूष व महिलाओं के बीच जैविक विभेद को स्वीकार करते हुए सामंजस्य स्थापित करने और तद्नुसार सभ्यता के विकास हेतु कार्य करने की बात करता है।
कोई भी लेखक या साहित्यकार अपने समय की घटनाओं और उथल-पुथल के माहौल से प्रेरित होकर साहित्य की रचना करता है। कृष्ण कुमार भारतीय संस्कृति, उसके जीवन मूल्यों और माटी की गंध को रोम-रोम में महसूस करते हैं। आज हमारी लोक-संस्कृति व विरासत पर चैतरफा दबाव है और बाजारवाद के कारण वह संकट में है। ऐसे में लेखक भारतीय संस्कृति और उसकी विरासत का पहरूआ बनकर सामने आता है। अपने लेख ‘‘शाश्वत है भारतीय संस्कृति और इसकी विरासत‘‘ में कृष्ण कुमार जब लिखते हैं- ‘‘वस्तुतः हम भारतीय अपनी परम्परा, संस्कृति, ज्ञान और यहाँ तक कि महान विभूतियों को तब तक खास तवज्जो नहीं देते जब तक विदेशों में उसे न स्वीकार किया जाये। यही कारण है कि आज यूरोपीय राष्ट्रों और अमेरिका में योग, आयुर्वेद, शाकाहार, प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, होम्योपैथी और सिद्धा जैसे उपचार लोकप्रियता पा रहे हैं जबकि हम उन्हें बिसरा चुके हैं‘‘, तो उनसे असहमति जताना बड़ा कठिन हो जाता है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम‘ का पाठ पढ़ाने वाली भारतीय संस्कृति सामाजिक-साम्प्रदायिक सद्भाव की हिमायती रही हैं। आज जातिवाद, सम्प्रदायवाद की आड़ में जब इस पर हमले हो रहे हैं तो युवा लेखक की लेखनी इससे अछूती नहीं रहती। बचपन से ही एक दूसरे के धर्मग्रंथों और धर्मस्थानों के प्रति आदर का भाव पैदा करके अगली पीढ़ियों को इस विसंगति से दूर रखने की सलाह देने वाले लेख ‘‘साम्प्रदायिकता बनाम सामाजिक सद्भाव‘‘ में समाहित उदाहरण इसे समसामयिक बनाते हैं।
आज की नई पीढ़ी महात्मा गाँधी को एक सन्त के रूप में नहीं बल्कि व्यवहारिक आदर्शवादी के रूप में प्रस्तुत कर रही है। महात्मा गाँधी पर प्रस्तुत लेख ‘‘समग्र विश्वधारा में व्याप्त हैं महात्मा गाँधी‘‘ उनके जीवन-प्रसंगों पर रोचक रूप में प्रकाश डालते हुए समकालीन परिवेश में उनके विचारों की प्रासंगिकता को पुनः सिद्ध करता है। वस्तुतः गाँधी जी दुनिया के एकमात्र लोकप्रिय व्यक्ति थे जिन्होंने सार्वजनिक रूप से स्वयं को लेकर अभिनव प्रयोग किए और आज भी सार्वजनिक जीवन में नैतिकता, आर्थिक मुद्दों पर उनकी नैतिक सोच व धर्म-सम्प्रदाय पर उनके विचार प्रासंगिक हंै।
साहित्य रचना केवल एक कला ही नहीं है बल्कि उसके सामाजिक दायित्व का दायरा भी काफी बड़ा होता है। यही कारण है कि साहित्य हमारे जाने-पहचाने संसार के समानांतर एक दूसरे संसार की रचना करता है और हमारे समय में हस्तक्षेप भी करता है। ऐसे में व्यक्ति, समाज, साहित्य और राजनीति के अन्तर्सम्बधों की संश्लिष्टता को पहचान कर उसे मौजूदा दौर के परिपे्रक्ष्य में जाँचना-परखना कोई मामूली चुनौती नहीं। कृष्ण कुमार यादव मूकदृष्टा बनकर चीजों को देखने की बजाय भाषा की स्वाभाविक सहजता के साथ इन चुनौतियों का सामना करते हैं, जिसका प्रतिरूप उनका यह प्रथम निबंध-संग्रह है। कृष्ण कुमार यादव की यह पुस्तक पढ़कर जीवंतता एवं ताजगी का अहसास होता है।
बुधवार, 10 दिसंबर 2008
अभिलाषा: जागरूक संवेदना की कविताएं
युवा कवि एवं भारतीय डाक सेवा के अधिकारी कृष्ण कुमार यादव ने अपने प्रथम काव्य संग्रह ‘‘अभिलाषा’’ में अपने बहुरूपात्मक सृजन में प्रकृति के अपार क्षेत्रों में विस्तारित आलंबनों को विषयवस्तु के रूप में प्राप्त करके ह्नदय और मस्तिष्क की रसात्मकता से कविता के अनेक रूप बिम्बों में संजोने का प्रयत्न किया है। श्अभिलाषाश् का संज्ञक संकलन संस्कारवान कवि का इन्हीं विशेषताओं से युक्त कवि कर्म है, जिसमें व्यक्तिगत सम्बन्धों, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक समस्याओं और विषमताओं तथा जीवन मूल्यों के साथ हो रहे पीढ़ियों के अतीत और वर्तमान के टकरावों और प्रकृति के साथ पर्यावरणीय विक्षोभों का खुलकर भावात्मक अर्थ शब्दों में अनुगंुजित हुआ है। परा और अपरा जीवन दर्शन, विश्व बोध तथा विद्वान बोध से उपजी अनुभूतियों ने भी कवि को अनेक रूपों में उद्वेलित किया है। इन उद्वेलनों में जीवन सौन्दर्य के सार्थक और सजीव चित्र शब्दों में अर्थ पा सके हैं। इस संग्रह की कविताएं एक नए पथ का निर्माण करती हैं, जहाँ अत्यधिक उपमानों, भौतिकता, व दुरूहता की बजाय स्वाभाविकता, समाजनिष्ठा एवं जागरूक संवेदना है।
शनिवार, 6 दिसंबर 2008
दमित आन्दोलन को दी नई दिशाः डा0 अम्बेडकर (पुण्यतिथि: ६ दिसम्बर पर विशेष)
वस्तुतः डाॅ अम्बेडकर यह अच्छी तरह समझते थे कि जाति व्यवस्था ही भारत में सभी कुरीतियों की जड़ है एवं बिना इसके उन्मूलन के देश और समाज का सतत् विकास सम्भव नहीं। यही कारण था कि जहाँ दलितों के उद्धार का दम्भ भरने वाले तमाम लोगों का प्रथम एजेण्डा औपनिवेशिक साम्राज्यशाही के खिलाफ युद्ध रहा और उनकी मान्यता थी कि स्वतंत्रता पश्चात कानून बनाकर न केवल छुआछूत को खत्म किया जा सकता है अपितु दलितों को कानूनी तौर पर अधिकार देकर उन्हें आगे भी बढ़ाया जा सकता है पर डाॅ0 अम्बेडकर इन सवर्ण नेताओं की बातों पर विश्वास नहीं करते थे वरन् दलितों का सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था में तत्काल समुचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना चाहते थे। उनके प्रयासों के परिणामस्वरूप ही वर्ष 1919 के अधिनियम में पहली बार दलित जातियों के स्वतन्त्र अस्तित्व को स्वीकारते हुये गर्वनर जनरल द्वारा केन्द्रीय धारा सभा के नामित 14 नाॅन-आॅफिशियल सदस्यों में एक दलित के नाम का भी समावेश किया गया। इसी प्रकार सेन्ट्रल प्राॅविन्सेंज से प्रान्तीय सभाओं में भी चार दलितों को प्रतिनिधित्व दिया गया। इसे डाॅ0 अम्बेडकर की प्रथम जीत माना जा सकता है।
डाॅ0 अम्बेडकर का स्पष्ट मानना था कि व्यापक अर्थों में हिन्दुत्व की रक्षा तभी सम्भव है जब ब्राह्मणवाद का खात्मा कर दिया जाय, क्योंकि ब्राह्मणवाद की आड़ में ही लोकतांत्रिक मूल्यों-समता, स्वतंत्रता और बन्धुत्व का गला घोंटा जा रहा है। अपने एक लेख ‘हिन्दू एण्ड वाण्ट आॅफ पब्लिक कांसस’ में डाॅ0 अम्बेडकर लिखते हैं कि- ‘‘दूसरे देशों में जाति की व्यवस्था सामाजिक और आर्थिक कसौटियों पर टिकी हुई है। गुलामी और दमन को धार्मिक आधार नहीं प्रदान किया गया है, किन्तु हिन्दू धर्म में छुआछूत के रूप में उत्पन्न गुलामी को धार्मिक स्वीकृति प्राप्त है। ऐसे में गुलामी खत्म भी हो जाये तो छुआछूत नहीं खत्म होगा। यह तभी खत्म होगा जब समग्र हिन्दू सामाजिक व्यवस्था विशेषकर जाति व्यवस्था को भस्म कर दिया जाये। प्रत्येक संस्था को कोई-न-कोई धार्मिक स्वीकृति मिली हुई है और इस प्रकार वह एक पवित्र व्यवस्था बन जाती है। यह स्थापित व्यवस्था मात्र इसलिए चल रही है क्योंकि उसे सवर्ण अधिकारियों का वरदहस्त प्राप्त है। उनका सिद्धान्त सभी को समान न्याय का वितरण नहीं है अपितु स्थापित मान्यता के अनुसार न्याय वितरण है।’’ यही कारण था कि 1935 में नासिक में आयोजित एक सम्मलेन में डाॅ0 अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म को त्याग देने की घोषणा कर दी। अपने सम्बोधन में उन्होंने कहा कि- ‘‘सभी धर्मो का निकट से अध्ययन करने के पश्चात हिन्दू धर्म में उनकी आस्था समाप्त हो गई। वह धर्म, जो अपने में आस्था रखने वाले दो व्यक्तियों में भेदभाव करे तथा अपने करोडा़ें समर्थकों को कुत्ते और अपराधी से बद्तर समझे, अपने ही अनुयायियों को घृणित जीवन व्यतीत करने के लिए मजबूर करे, वह धर्म नहीं है। धर्म तो आध्यात्मिक शक्ति है जो व्यक्ति और काल से ऊपर उठकर निरन्तर भाव से सभी पर, सभी नस्लों और देशों में शाश्वत रूप से एक जैसा रमा रहे। धर्म नियमों पर नहीं, वरन् सिद्धान्तों पर आधारित होना चाहिये।’’ यहाँ स्पष्ट करना जरूरी है कि डाॅ0 अम्बेडकर ने आखिर बौद्ध धर्म ही क्यों चुना? वस्तुतः यह एक विवादित तथ्य भी रहा है कि क्या जीवन के लिए धर्म जरूरी है? डाॅ0 अम्बेडकर ने धर्म को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा था। उनका मानना था कि धर्म का तात्त्विक आधार जो भी हो, नैतिक सिद्धान्त और सामाजिक व्यवहार ही उसकी सही नींव होते हैं। यद्यपि बौद्ध धर्म अपनाने से पूर्व उन्होंने इस्लाम और ईसाई धर्म में भी सम्भावनाओं को टटोला पर अन्ततः उन्होंने बौद्ध धर्म को ही अपनाया क्योंकि यह एक ऐसा धर्म है जो मानव को मानव के रूप में देखता है किसी जाति के खाँचे में नहीं। एक ऐसा धर्म जो धम्म अर्थात नैतिक आधारों पर अवलम्बित है न कि किन्हीं पौराणिक मान्यताओं और अन्धविश्वास पर। डाॅ0 अम्बेडकर बौद्ध धर्म के ‘आत्मदीपोभव’ से काफी प्रभावित थे और दलितों व अछूतों की प्रगति के लिये इसे जरूरी समझते थे। डाॅ0 अम्बेडकर इस तथ्य को भलीभांति जानते थे कि सवर्णों के वर्चस्व वाली इस व्यवस्था में कोई भी बात आसानी से नहीं स्वीकारी जाती वरन् उसके लिए काफी दबाव बनाना पड़ता है। स्वयं भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं0 जवाहरलाल नेहरू ने डाॅ0 अम्बेडकर के निधन पश्चात उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा था कि -‘‘डाॅ0 अम्बेडकर हमारे संविधान निर्माताओं में से एक थे। इस बात में कोई संदेह नहीं कि संविधान को बनाने में उन्होंने जितना कष्ट उठाया और ध्यान दिया उतना किसी अन्य ने नहीं दिया। वे हिन्दू समाज के सभी दमनात्मक संकेतों के विरूद्ध विद्रोह के प्रतीक थे। बहुत मामलों में उनके जबरदस्त दबाव बनाने तथा मजबूत विरोध खड़ा करने से हम मजबूरन उन चीजों के प्रति जागरूक और सावधान हो जाते थे तथा सदियों से दमित वर्ग की उन्नति के लिये तैयार हो जाते थे।’’
यहाँ पर उपरोक्त सभी बातों को दर्शाने का तात्पर्य मात्र इतना है कि डाॅ0 अम्बेडकर समाज की रूढ़िवादी विचारधारा एवं ब्राह्मणवाद को कभी भी स्वीकार नहीं कर पाये और उनके विचार पुंज भी कहीं ब्राह्मणवादी व्यवस्था का समर्थन करते नजर नहीं आते। यही कारण था कि डाॅ0 अम्बेडकर के निधन पश्चात ब्राह्मणवादी व्यवस्था के पक्षधर नेताओं, विचारकों, साहित्यकारों और इतिहासकारों ने जानबूझकर उन्हें इस कदर भुला दिया कि जैसे वे कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति नहीं थे। इसके विपरीत द्विजवादी नेतृत्व को बढ़ा-चढ़ाकर उभारा गया, जैसे वे ईश्वर के अवतार हों। यह द्विजवादियों की मानसिक बेईमानी ही कही जायेगी। कुछ लोगों ने तो डाॅ0 अम्बेडकर के साहित्य को न्यायालय में घसीटकर उसे प्रतिबंधित कराने का प्रयास भी किया। इन सब के पीछे मानसिकता यही रही कि डाॅ0 अम्बेडकर को भुला दिया जाय। द्विजवादियों की यह पुरानी मानसिकता है कि गाँधीवाद को जरूरत से ज्यादा फैलाव मिले जबकि अम्बेडकरवाद को जरूरत से ज्यादा कतर दिया जाए। मण्डल को दबाने के लिये कमण्डल (मंदिर) मुद्दा जरूरत से ज्यादा उछाल दो, जिससे कि ब्राह्मणवादियों का निहित स्वार्थ सुरक्षित रहे। यही नहीं स्वतन्त्रता पश्चात तमाम लोगों ने डाॅ0 अम्बेडकर पर किताबें लिखकर, लेख लिखकर और विभिन्न विचार गोष्ठियों द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि डाॅ0 अम्बेडकर एक सामान्य व्यक्ति थे और अंग्रेजों ने उनको बरगलाकर गाँधी जी के विरूद्ध खड़ा करने का प्रयास किया था। यही नहीं संविधान निर्माण में भी उनकी भूमिका को महत्वहीन घोषित करने का प्रयास किया जाता रहा पर 1990 के दशक की राजनीति ने बहुत कुछ बदल दिया। राजनैतिक क्षितिज पर अपने विचारों के साथ तेजी से उभरती बहुजन समाज पार्टी और भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में मायावती की मुख्यमंत्री रूप में ताजपोशी ने मानो दलितों में चेतना की ज्वाला पैदा कर दी हो। कल तक बूथों पर दलितों के नाम पर लाठियों की बदौलत फर्जी वोट डालने वाले रंगबाजों का जलवा अचानक दरकता नजर आया। बैलगाड़ियों और ट्रैक्टरों पर नीली झण्डियों के बीच दलित पुरूष और महिलायें बूथों तथा बसपा की रैलियों में ऐसे नजर आते मानो किसी त्यौहार में भाग लेने जा रहे हों। यह एक दिन उत्तर प्रदेश जैसे सामन्तवादी राज्य में ऐसा होता है जिस दिन कोई दलित किसी की मजदूरी नहीं करता, किसी के खेत पर नहीं जाता। प्रतीकात्मक रूप में इस चीज का बहुत महत्व है और इसे समाज के तथाकथित ब्राह्मणवादियों ने भी गहराई से महसूस किया। ऐसा नहीं है कि इसकी काट के लिए प्रयास नहीं किये गए। अयोध्या में राम मन्दिर की आड़ में लोगों की भावनाएँ भड़काकर भाजपा द्वारा यह दर्शाया गया कि या तो आप हिन्दू हो सकते हैं या मुसलमान पर वे यह भूल जाते हैं कि यह उसी राम की बात हो रही है, जिनके राम-राज्य के बारे में तुलसीदास ने लिखा है कि- ढोल, गँवार, शूद्र, पशु, नारी। ये सब ताड़न के अधिकारी।।
निश्चिततः दलित वर्गों में पनपी इस जन चेतना से वक्त का पहिया तेजी से बदला और कल तक जो ब्राह्मणवादी शक्तियाँ अपनी निरपेक्षता का दावा करती थीं, अचानक वे समाज के सापेक्ष विकास क्रम को समझने लगीं। विभिन्न राज्यों में दलित चेतना के उभार ने इन्हें मजबूर कर दिया कि वे इनके वोट बैंक को अपनी तरफ खींचने के लिए इनकी प्रेरणा के केन्द्र बिन्दु पर नजर डालंे जो कि डाॅ0 अम्बेडकर और उनके विचारों के रूप में हैं। अचानक कल तक ब्राह्मणवाद का दंभ भरने वाली भाजपा डाॅ0 अम्बेडकर से अपनी नजदीकियाँ साबित करने लगी। लोगों को यह समझाया जाने लगा कि दीनदयाल उपाध्याय के ‘एकात्म मानवतावाद’ का तात्पर्य ही यही था कि दलित भी समाज के अभिन्न अंग हैं और उनके बिना समाज का विकास सम्भव नहीं। संघ परिवार के थिंक टैंक माने जाने वाले साहित्यकार ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ का पारम्परिक और घिसा-पिटा राग छोड़कर डाॅ0 अम्बेडकर का गुणगान करने लगे। इसी क्रम में आर0एस0एस0 विचारक दत्तोपन्त ठेंगड़ी द्वारा लिखित ‘डाॅ0 अम्बेडकर और सामाजिक क्रांति की यात्रा‘ अक्टूबर 2005 में प्रकशित हुयी। आर0एस0एस0 खेमे के ही लेखक हृदय नारायण दीक्षित ने ‘डाॅ0 अम्बेडकर का मतलब’ नामक पुस्तक लिखी, जो कि किसी साहित्य की बजाय राजनीतिक तरकश का तीर ज्यादा प्रतीत होती है। हालात तो यहाँ तक हैं कि आर0 एस0 एस0 और भाजपा के सम्मेलनांे व मंचों पर भगवान राम के बगल में डाॅ0 अम्बेडकर का चित्र नजर आने लगा। यहाँ पर इस तथ्य को नहीं भुलाया जा सकता कि किस प्रकार बौद्ध धर्म से खतरा महसूस होने पर ब्राह्मणवादी शक्तियों ने बुद्ध को भगवान विष्णु का 24वाँ अवतार घोषित कर दिया और पशु बलि पर रोक लगाकर गाय को पवित्र जीव घोषित कर दिया। अब शायद यही काम ये डाॅ0 अम्बेडकर के साथ भी करना चाहते हैं। जब उनके लाख षडयंत्रों के बावजूद दलितों ने डाॅ0 अम्बेडकर को पूजनीय मानना नहीं छोड़ा तो वे भी डाॅ0 अम्बेडकर को हाईजैक करके अपने मंच पर लेते आए। हद तो तब हो गई जब डाॅ0 अम्बेडकर को पूर्णतया हाईजैक करने की कोशिशों के तहत भाजपा मुख्यालय पर 115वीं अम्बेडकर जयन्ती के मौके पर आयोजित एक कार्यक्रम में लोकसभा में भाजपा के उपनेता श्री वी0 के0 मलहोत्रा ने दावा किया कि- ‘‘श्यामा प्रसाद मुखर्जी के निधन पश्चात राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के वरिष्ठ नेताओं की जनसंघ के नेतृत्व के लिये बाबा साहेब अम्बेडकर पसन्द थे और इस सम्बन्ध में एक प्रस्ताव भी रखा गया था।’’ पर वे यह नहीं बता पाए कि इस प्रस्ताव का आखिर हुआ क्या? यही नहीं डाॅ0 अम्बेडकर को हिन्दूवादी घोषित करने के लिए उन्होंने यह भी जोर देकर कहा कि- ‘‘डाॅ0 अम्बेडकर ने कभी भी इस्लाम और ईसाई धर्म अपनाने के बारे में नहीं सोचा। यहाँ तक कि हैदराबाद के निजाम ने तो इस्लाम धर्म अपनाने के लिए उन्हें ब्लैंक चेक तक भेजा था, जिसे उन्होंने वापस कर दिया।’’ इससे भी आगे बढ़ते हुए वर्ष 2006 में विजयदशमी के मौके पर दिए अपने बयान में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख के0एस0सुदर्शन ने बताया कि डाॅ0 भीमराव अम्बेडकर ने 30 जनवरी 1948 को महात्मा गाँधी की हत्या के बाद आर0एस0एस0 पर लगे प्रतिबन्ध को हटाने की कोशिश की थी। दलितों और नवबौद्धों के बीच अब अपनी पैठ बढ़ाने को उत्सुक के0 एस0 सुदर्शन ने जोर देकर कहा कि 14 अक्टूबर 1956 को डाॅ0 अम्बेडकर ने नागपुर में विजयदशमी के दिन धर्म परिवर्तन किया था और इसी दिन 1925 में आर0एस0एस0 की भी स्थापना हुयी थी। आर0एस0एस0, नागपुर और डाॅ0 अम्बेडकर का सम्बन्ध जोड़ते हुए उन्होंने यह भी बताया कि दशहरे के दिन नागपुर में हर वर्ष दो कार्यक्रम अवश्य मनाए जाते हैं- पहला, आर0एस0एस0 की विजयदशमी रैली और दूसरा, अम्बेडकर समर्थकों की धर्मचक्र परिवर्तन रैली। के0एस0 सुदर्शन ने दिवंगत आर0एस0एस0 नेता एम0एस0गोलवल्कर के उस बयान का भी जिक्र किया जिसमें उन्होंने डाॅ0 अम्बेडकर द्वारा धर्म परिवर्तन के लिए बौद्ध धर्म का चयन करने की तारीफ की थी। ज्ञातव्य हो कि आर0एस0एस0 मानता है कि बौद्ध धर्म उपनिषद पर आधारित दर्शनशास्त्र को मानता है और इसलिए यह पूरी तरह भारतीय धर्म है। यह एक अलग बहस का विषय हो सकता है कि महात्मा बुद्ध और महावीर जैन ने हिन्दू धर्म की जिन कुरीतियों के विरुद्ध नए धर्मों का आगाज किया, वे कहाँ तक हिन्दू धर्म की शाखा हो सकते हैं? के0एस0 सुदर्शन ने उन हिन्दू पुजारियों की टिप्पणियों का भी जिक्र किया जिसमें कहा गया था कि भारतीय संविधान के निर्माता ने हमारे पूर्वजों की गलतियों से दुखी होकर हिन्दू धर्म छोड़ा था। निश्चिततः अपनी भूल स्वीकारने की यह एक मोहक अदा है, पर क्या पूर्वजों की गलतियों को स्वतन्त्रता पश्चात् एक लम्बे समय तक सुधारने का कोई प्रयास इन हिन्दू पुजारियों द्वारा किया गया? इस पर आर0एस0एस0 प्रमुख ने प्रकाश डालना उचित नहीं समझा। यही नहीं, हाल ही में जैन और बौद्ध धर्मों को हिन्दू धर्म का हिस्सा मानकर हिन्दुत्व की प्रयोगशाला बनी गुजरात की भाजपा सरकार द्वारा धर्मान्तरण विरोधी कानून को लेकर उठे बवाल के बाद गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विरोध को समाप्त करने के लिए पुनः डाॅ0 अम्बेडकर को आगे खड़ा कर कि उन्होंने बौद्ध, जैन, सिक्ख और सनातनी हिन्दुओं को एक ही भारतीय परम्परा का अंग बताया था। पर नरेन्द्र मोदी जी यह नहीं बता पाये कि तब आखिर डाॅ0 अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म छोड़कर उसे कोसते हुए बौद्ध धर्म क्यों ग्रहण किया? 2 मार्च 1930 को नासिक के कालाराम मन्दिर के प्रमुख पुरोहित की हैसियत से डाॅ0 अम्बेडकर को दलित होने के कारण मन्दिर में प्रवेश करने से रोकने वाले रामदासबुवा पुजारी के पौत्र और विश्व हिन्दू परिषद के मार्गदर्शक मंडल के महंत सुधीरदास पुजारी ने यह कहकर बसपा में शामिल होने की इच्छा जाहिर की कि वे इससे अपने दादा की भूल का प्रायश्चित कर सकेंगे। आर0 एस0 एस0 पृष्ठभूमि के तमाम बुद्धिजीवी अपने लेखों और किताबों में डाॅ0 अम्बेडकर को अपने समर्थन में उद्धृत करते नजर आते हैं। आरक्षण के मसले पर अक्सर ही डाॅ0 अम्बेडकर को इस रूप में उद्धृत किया जाता है मानो वे आरक्षण विरोधी हों। निश्चिततः डाॅ0 अम्बेडकर के विचारों को बिना उनकी पृष्ठभूमि बताये सपाट लहजे में अपने पक्ष में उद्धृत करने को उचित नहीं ठहराया जा सकता। यह एक सच्चाई है कि डाॅ0 अम्बेडकर आजीवन ब्राह्मणवादी व्यवस्था के विरूद्ध संघर्ष करते रहे एवं अपनों को इसके प्रति सचेत भी करते रहे। ऐसे में ब्राह्मणवादी व्यवस्था के पोषकों द्वारा डाॅ0 अम्बेडकर को हाईजैक करके अपने मंचों पर स्थान देना व अपने समर्थन में उद्धृत करना दर्शाता है कि डाॅ0 अम्बेडकर वाकई एक सामाजिक क्रान्ति के अग्रदूत रहे हैं और उनके बिना सामाजिक और राष्ट्रीय चिन्तन की कल्पना नहीं की जा सकती। देर से ही सही, अन्ततः वर्णवादी व्यवस्था के पोषकों को भी डाॅ0 अम्बेडकर की वर्तमान परिवेश में प्रासंगिकता को स्वीकार करना पड़ा, भले ही इसके लिए उन्हें अपने वर्णवादी मूल्यों से समझौता कर डाॅ0 अम्बेडकर को हाई जैक करने की कोशिशें करनी पड़ी हों या उनके बयानों को बिना उसकी पृष्ठभूमि बताये अपने पक्ष में रखना हो।
सोमवार, 24 नवंबर 2008
नेपाल में यदुवंशी उपप्रधानमंत्री : उपेन्द्र यादव
नेपाल में यदुवंशी राष्ट्रपति: डाॅ0 रामबरन यादव
भारत में यादवों का राजनीति में पदार्पण आजादी के बाद ही आरम्भ हो चुका था, जब शेर-ए-दिल्ली एवं मुगले-आजम के रूप में मशहूर चै0 ब्रह्माप्रकाश दिल्ली के प्रथम मुख्यमंत्री बने थे। तब से अब तक भारत के विभिन्न राज्यों में नौ यादव मुख्यमंत्री पद पर आसीन हो चुके हैं। इनमें चै0 ब्रह्माप्रकाश, बी0पी0 मंडल, दारोगा प्रसाद राय, राव वीरेन्द्र सिंह, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, रामनरेश यादव, बाबू लाल गौर (यादव) और श्रीमती राबड़ी देवी शामिल हैं। सुभाष यादव म0प्र0 के उपमुख्यमंत्री रह चुके हैं।
डाॅ0 रामबरन यादव का जन्म 4 फरवरी 1948 को भारत की सीमा से सटे नेपाल के धनुषा जिले के ग्राम सफाली, जनकपुर धाम में एक मध्यमवर्गीय किसान परिवार में हुआ था। पिता घनश्याम यादव और माता श्रीमती रामरती की चैथी संतान डाॅ0 रामबरन यादव अब स्वयं दो बेटे और एक बेटी के पिता हैं। उनकी धर्मपत्नी का देहान्त हो चुका है। डाॅ0 रामबरन यादव और उनके परिवार के लोग मधेशी (भारत के साथ लगा तराई का क्षेत्र) के निवासी होने के कारण भारत के साथ अपने भविष्य और विकास के लिए घनिष्ठता और लगाव रखते हैं तथा अधिकतर इसी क्षेत्र में अपने सामाजिक रिश्ते भी बनाये रखते हैं। यही कारण है कि डाॅ0 रामबरन ने अपनी प्राथमिक शिक्षा धनुषा और काठमांडू में प्राप्त की और उसके बाद उच्च शिक्षा के लिए भारत आ गये। उन्होंने 1981 में मेडिकल कालेज कलकत्ता से एम0बी0बी0एस0 की डिग्री प्राप्त की और उसके बाद 1985 में एम0डी0 (फिजीशियन) की डिग्री(PGIMER) चंडीगढ़ से प्राप्त की। अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने लगभग आठ साल तक चण्डीगढ़ में रहकर ही अपनी मैडिकल प्रैक्टिस की। धीरे-धीरे उनके विचारों में बदलाव आने लगा और उनका रूझान राजनीति की ओर बने लगा तब से दोबारा अपने देश में जाकर नेपाली कांग्रेस से जुड़ गये। ‘‘यदुकुल‘‘ की यही हार्दिक अभिलाषा है कि डाॅ0 रामबरन यादव नेपाल के राष्ट्रपति के रूप में अपने राष्ट्र को उच्चतम शिखर तक पहुँचायें और यदुवंशियों का नाम रोशन करें।
शनिवार, 22 नवंबर 2008
सामाजिक न्याय हेतु जरूरी है आरक्षण
पिछड़े वर्गों को सरकारी सेवाओं में आरक्षण भी अंग्रेजांे के समय की देन है। 20वीं सदी के आरम्भ में तमिलनाडु में पेरियार द्वारा आरम्भ स्वाभिमान आन्दोलन के कारण तमिलनाडु में पिछड़े वर्गांे के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई पर स्वतन्त्रता पश्चात किसी संवैधानिक प्रावधान के अभाव में इस आरक्षण को न्यायालय ने अवैध घोषित कर दिया। नतीजन, तमिलनाडु में आन्दोलन भड़क उठा एवं प्रतिक्रियास्वरूप संविधान सभा जो कि उस समय संसद के रूप में काम कर रही थी ने वर्ष 1951 में संविधान में प्रथम संशोधन कर सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान कर दिया। इन पिछड़े वर्गों की पहचान के लिए अनुच्छेद 340 के अन्तर्गत 29 जनवरी 1953 को राष्ट्रपति ने प्रख्यात गाँधीवादी विचारक काका कालेलकर के नेतृत्व में प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग गठित किया, जिसने पिछड़े वर्गांे मंे महिलाओं को भी शामिल करते हुए केन्द्र की सरकारी सेवाओं और शैक्षणिक संस्थाओं में 2399 जातियों को पिछड़े वर्ग के रूप में सूचीबद्ध करते हुए 70 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश के साथ 30 मार्च 1955 को अपनी रिपोर्ट सौंप दी पर तत्कालीन सरकार ने इस रिपोर्ट को ही खारिज कर दिया। यद्यपि सरकार ने इस रिपोर्ट को खारिज कर दिया था पर डाॅ0 राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व में समाजवादियों ने ‘‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’’ के नारे के साथ पिछड़े वर्गांे के लिए आन्दोलन जारी रखा। डाॅ0 लोहिया पाँच वर्गों को पिछड़ा मानते थे- सभी जाति की महिलाएँ, हरिजन, आदिवासी, पिछड़ी जातियाँ एवं धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग। वर्ष 1977 में केन्द्र्र में प्रथम गैर कांग्रेसी सरकार के अस्तित्व में आने के साथ ही उत्तर प्रदेश में राम नरेश यादव और बिहार में कर्पूरी ठाकुर ने राज्य स्तर पर पिछड़ों को आरक्षण दे डाला। यद्यपि जनता पार्टी सरकार ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में काका कालेलकर आयोग की सिफारिशों को लागू करने की बात कही थी पर सत्ता में आने के बाद इसे इस आधार पर अस्वीकार कर दिया कि 1950 के दशक में तैयार पिछड़े वर्गांे की सूची पुरानी पड़ गई है। इसके पश्चात जनता पार्टी ने 20 दिसम्बर 1978 को बिहार के भूतपूर्व मुख्यमंत्री श्री विन्देश्वरी प्रसाद मण्डल के नेतृत्व में दूसरे पिछड़े वर्ग आयोग का गठन किया, जिसने 31 दिसम्बर 1980 को अपनी रिपोर्ट सौंप दी। मण्डल आयोग ने काका कालेलकर आयोग की सूची और सिफारिशों को लगभग ज्यों का त्यों अपनी रिपोर्ट में शामिल कर लिया और 404 पृष्ठों की अपनी रिपोर्ट में देश की 52 प्रतिशत जनता को पिछड़ा बताया तथा 3743 जातियों की पहचान पिछड़ी जातियों के रूप में की। पिछड़ेपन के निर्धारण के लिए आयोग ने जाति समेत 11 कसौटियों को अपनाया और सरकारी नौकरियों के साथ-साथ शैक्षणिक संस्थाओं में भी 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की। ऐसा माना जाता है कि वर्ष 1931 में जाति आधारित अन्तिम जनगणना को मण्डल कमीशन ने पिछड़ी जातियों की शिनाख्त का आधार बनाया।
यहाँ पर गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी समय-समय पर आरक्षण का आधार जाति को ही माना है। सर्वप्रथम वेंकटरामन्ना बनाम मद्रास केस में सर्वोच्च न्यायालय ने जाति को पिछड़ेपन का आधार ठहराया। फिर 1968 में पी0 राजेन्द्रम बनाम मद्रास केस में भी सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण के जातिगत आधार को मान्यता प्रदान की। इसी प्रकार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आयुक्त ने वर्ष 1967-68 के अपने प्रतिवेदन में कहा कि-‘‘जाति ही पिछड़े वर्ग का आधार होना चाहिये।’’ अगस्त 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री वी0 पी0 सिंह ने मण्डल कमीशन की सिफारिशों के आधार पर सरकारी नौकरियों में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू करने की घोषणा की तो कई लोग इसे योग्यता का हनन बताते हुए सर्वोच्च न्यायालय की दहलीज तक पहुँच गए। अन्ततः इन्द्रा साहनी बनाम भारत संघ के मामले में 15 नवम्बर 1992 को सर्वोच्च न्यायालय ने क्रीमीलेयर को इससे बाहर रखने की बात करते हुए अन्य पिछड़े वर्गों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण को वैधानिक घोषित कर दिया। उक्त निर्णय के तारतम्य में संघ सरकार ने 8 सितम्बर 1993 को जारी अधिसूचना में न्यायालय के उपर्युक्त निर्णय को स्वीकार कर लिया। तत्पश्चात सरकार द्वारा क्रीमी लेयर की पहचान और मण्डल आयोग की सिफारिशों पर अमल के साथ ही आरक्षण के प्रथम भाग का पटाक्षेप हो गया पर शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण न लागू करने के कारण कुछ लोगों ने इसे ‘‘बधिया आरक्षण’’ भी कहा।
वस्तुतः आरक्षण सामाजिक न्याय की प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग है और उसे इसी रूप में देखा जाना चाहिए। सवाल पैदा होता है कि आखिर आरक्षण का विरोध क्यों हो रहा है और क्या इसके पीछे उठते सवाल वाजिब हैं-
(1) आरक्षण विरोधियों का मानना है कि आरक्षण ‘अवसर की समता’ (अनुच्छेद-16(1)) के संवैधानिक उपबन्धों का उल्लंघन है।
-ऐसा कहना गलत है क्योंकि उसी अनुच्छेद में यह भी लिखा गया है कि- ‘‘इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को पिछड़े हुए नागरिकों के किसी वर्ग के पक्ष में, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, नियुक्तियों या पदों के आरक्षण के लिए उपबन्ध करने से निवारित नहीं करेगी।’’ (अनुच्छेद-16 (4))। तथ्यों पर गौर करंे - 23 फरवरी 2006 तक सरकार को प्राप्त सूचना के अनुसार आई0 ए0 एस0 और आई0 पी0 एस0 में मात्र 7.02 प्रतिशत और भारतीय विदेश सेवा में मात्र 7.74 प्रतिशत पिछडे़ वर्ग के लोग थे। इसी प्रकार पूर्व अधिकारी के0 बी0 सक्सेना के नेतृत्व वाली मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट पर गौर करें तो विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा अनुदान प्राप्त कुल 256 विश्वविद्यालयों और 11000 महाविद्यालयों में मात्र 2 प्रतिशत शिक्षक दलित और आदिवासी हैं और सभी आई0 आई0 टी0 में कुल 3 दलित और आदिवासी हैं, लेकिन वे भी आरक्षण की बजाय वहाँ पर अपनी योग्यता से पहुँचे हंै।
(2) आरक्षण विरोधियों के मत में किसी भी प्रकार के आरक्षण को उचित नहीं ठहराया जा सकता।
- अप्रवासी भारतीयोें के लिए आरक्षित सीटों पर तो तब सर्वप्रथम प्रश्नचिन्ह लगना चाहिए, पर क्यों नहीं लगाया जाता? कारण, अप्रवासी के नाम पर यहाँ साधन सम्पन्न सवर्ण वर्ग ही बिना किसी योग्यता और परिश्रम के पूँजी के बल पर सीटें हथिया रहा है। यदि हर प्रकार के आरक्षण का विरोध करना ही है तो फिर सवर्ण आर्थिक आधार पर आरक्षण की माँग क्यों करते हैं? तब तो फिर सामाजिक व्यवस्था में भी परम्परागत आरक्षण को खत्म कर देना चाहिए। मसलन, पूजा-पाठ करवाने का कार्य ब्राह्मण जाति ही क्यों करे और जूतों के सिलने, पालिश लगाने व झाडू़ लगाने का कार्य पिछड़े व दलित ही क्यों करें? यहाँ पर गौर करने लायक बात है कि आरक्षण विरोधी शक्तियाँ आरक्षण लागू होने के नाम पर सड़कों पर खड़ी गाड़ियों को साफ करने, जूते साफ करने और झाड़ू लगाने जैसे प्रतीकात्मक कार्य करके विरोध दर्ज कराती हंै क्योंकि उन्हें लगता है कि ये कार्य निम्न स्तर के हैं। जब तक समाज में ऐसी विभेदकारी हीन मानसिकता रहेगी तब तक आरक्षण को अनुचित नहीं ठहराया जा सकता।
(3) आरक्षण विरोधियों के मत में संविधान पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान करता है, जातियों के लिए नहीं।
- भारत जैसे परम्परागत देश में जातियाँ स्वयं में एक वर्ग हैं। परम्परागत वर्ण व्यवस्था को भी देखें तो असंख्य जातियों को 4 वर्गों- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में बाँट दिया गया था। फिर स्वयं सर्वोच्च न्यायालय ने भी मान लिया है कि भारत में जाति ही वर्ण है, इसलिए विवाद की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती। इन्द्रा साहनी बनाम भारत संघ (1992) के केस में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि- ‘‘पिछड़े हुए नागरिकों का वर्ग’’-इस पद की संविधान में कोई परिभाषा नहीं दी गई है। जाति, उपजीविका, निर्धनता और सामाजिक पिछड़ापन का निकट का सम्बन्ध है। भारत के सन्दर्भ में निचली जातियों को पिछड़ा माना जाता है। जाति अपने आप ही पिछड़ा वर्ग हो सकती है। हिन्दू समाज में पिछड़े वर्ग की पहचान जाति के आधार पर की जा सकती है।’’
(4) आरक्षण विरोधियों के मत में पहले सामाजिक पिछड़ेपन को पारिभाषित करने के लिए यह देखा जाता था कि किसी जाति विशेष का जाति व्यवस्था में क्या स्थान है? मसलन शास्त्रों में किन्हें शूद्र कहा गया है और किन्हें द्विज। लेकिन अब सामाजिक पिछड़ेपन का आधार राजनीतिक सशक्तीकरण का अभाव हो गया है और इस आधार पर यादव इत्यादि जैसी जातियों को पिछड़े वर्गों से निकाल देना चाहिए।
- यह मात्र 1990 का दौर था जब उत्तर भारत में कुछ पिछड़ी जातियों के व्यक्ति मुख्यमंत्री पद पर पदासीन हुए पर वो भी एक लम्बे समय के लिए नहीं। उनमें से भी अधिकतर अपनी प्रतिभा और राजनैतिक चातुर्य के चलते वहाँ तक पहुँचे, पर यह तो अभी शुरूआत मात्र है। स्वतन्त्रता पश्चात लगभग छः दशकों में पिछड़ों की राजनैतिक सत्ता में कुल प्रतिनिधित्व की बात करें तो यह दहाई अंक भी नहीं छू पाएगा, अतः यह तर्क भी असंगत लगता है। पिछड़ों और दलितों की राजनैतिक भागीदारी पर सवर्ण जातियों के कुछ जुमलों पर गौर करें तो स्थिति अपने आप स्पष्ट हो जाती है। वर्ष 1978 में तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री श्री जगजीवन राम जब बनारस में सम्पूर्णानन्द की प्रतिमा का अनावरण करने गये तो सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के सवर्ण छात्रों ने ‘‘जग्गू चमरा हाय-हाय-बूट पालिश कौन करेगा’’ जैसे भद्दे जातिगत नारों से उनका स्वागत किया और इतना ही नहीं उनके जाने के बाद उस मूर्ति को वेद मंत्रों के उच्चारण के साथ गंगा जल से धोया, क्योंकि सवर्ण छात्रों के मत मेें एक दलित द्वारा छू लेने के कारण यह मूर्ति अपवित्र हो गयी थी। वर्ष 1977-78 में उत्तर प्रदेश में श्री रामनरेश यादव के मुख्यमंत्री बनने पर सवर्णों ने जुमला कसा कि-‘‘रामनरेश यादव वापस जाओ, डण्डा लेकर भैंस चराओ।’’ ठीक यही नारे कालान्तर में श्री मुलायम सिंह यादव और श्री लालू प्रसाद यादव के मुख्यमंत्री बनने पर भी दुहराए गए। बिहार में श्री कर्पूरी ठाकुर के मुख्यमंत्री बनने पर नारा दिया गया- ‘‘कर्पूरी कर, वरना उठा छूरा।’’ इन परिस्थितियों में कैसे मान लिया जाय कि दलितों और पिछड़ों को इतनी राजनैतिक भागीदारी मिल चुकी है कि उन्हें आरक्षण से वंचित कर देना चाहिए। यही बात मीडिया के बारे में भी कही जा सकती है। आखिर क्या कारण है कि मीडिया एकतरफा आरक्षण विरोध के कवरेज को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करता है और आरक्षण समर्थक आन्दोलनों को परे धकेल देता है। निश्चिततः आज लोकतन्त्र के इस चतुर्थ स्तम्भ में भी आरक्षण की जरूरत महसूस होने लगी है।
(5) आरक्षण विरोधियों के मत में क्रीमीलेयर वर्ग को आरक्षण नहीं मिलना चाहिये।
- आरक्षण का उद्देश्य ही पिछड़ों और दलित वर्गों में एक क्रीमीलेयर वर्ग पैदा करना है जो सदियों से उपेक्षित और शोषित इन वर्गों की लड़ाई लड़ सके। उच्च जातियाँ जब आरक्षण का खुलकर विरोध नहीं कर पातीं तो वे पिछड़ों और दलितों के बीच उभर रहे क्रीमीलेयर की आड़ में इसका विरोध करती हैं। उच्च जातियाँ इस तथ्य को बर्दाशत नहीं कर पातीं कि पिछड़ों और दलितों के बीच एक ऐसा क्रीमीलेयर वर्ग उत्पन्न हो जाये जो उन सुख-सुविधाओं का उपभोग करने लगे, जिस पर अभी तक इन उच्च जातियों का वर्चस्व रहा है।
(6) आरक्षण विरोधियों के मत में आरक्षण का आधार आर्थिक होना चाहिए।
- आरक्षण सामाजिक स्थिति सुधारने का एक उपाय है न कि आर्थिक स्थिति। आरक्षण का मामला मात्र रोजगार का नहीं वरन् सामाजिक समानता और भागीदारी का है। आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए तो तमाम आर्थिक कल्याणकारी योजनाओं को ईमानदारी से लागू किया जा सकता है और गरीबी हटाओ जैसे नारों को क्रियान्वित किया जा सकता है।
(7) आरक्षण विरोधियों के मत में आरक्षण जैसी व्यवस्था भारत को विकसित देशों की श्रेणी में जाने से रोकेगी।
- स्वयं अमेरिका जैसे सर्वाधिक विकसित देश में ‘डायवर्सिटी सिद्धान्त’ के आधार पर अश्वेतों के लिए आरक्षण लागू है।
(8) आरक्षण विरोधियों के मत में आरक्षण व्यवस्था समानता एवं योग्यता हनन के लिए एक षडयंत्र है।
- आरक्षण के विरोध में सबसे सशक्त तर्क यही दिया जाता रहा है पर यह तर्क देने वाले भूल जाते हैं कि समता बराबर के लोगों में ही आती है। जब तक तराजू के दोनों पलड़े बराबर न हों, उनमें बराबरी की बात करना ही व्यर्थ है। क्या इस निष्कर्ष को खारिज करना सम्भव है कि उच्च व तकनीकी संस्थानों में सवर्ण जातियों का वर्चस्व है। नेशनल सर्वे आर्गेनाइजेशन के आँकड़ों पर गौर करें तो ग्रामीण भारत में 20 साल से ऊपर के स्नातकों में अनुसूचित जातियों, जनजातियों और मुस्लिमों का प्रतिशत मुश्किल से एक फीसदी है, जबकि सवर्ण स्नातक पाँच फीसदी से अधिक हंै। सवर्ण अपने पक्ष में तर्क दे सकते हंै कि ऐसा सिर्फ उनकी योग्यता के कारण है पर वास्तव में ‘योग्यता’ का राग अलापना निम्न तबके को वंचित रखने की साजिश मात्र है। इस बात पर भी चर्चा होनी चाहिये कि सवर्णों को बचपन से ही शिक्षा, समाजीकरण का फायदा मिला और संसाधनों पर पहला हक उनका ही रहा। यदि योग्यता एक सहज एवं अन्तर्जात गुण है तो अन्य वर्गों के लोगों में भी है, पर फिर भी वे इस स्तर तक नहीं पहुँच पाए तो दाल मेें कुछ काला अवश्य है। अर्थात, वे इतने साधन सम्पन्न नहीं हैं कि प्रगति कर सकें, विभिन्न प्रशासकीय और राजनैतिक पदों पर बैठे उच्च वर्णांे के भाई-भतीजावाद का वे शिकार हुए हैं, प्रारम्भिक स्तर पर ही सवर्णों ने उन्हें सामाजिक हीनता का अहसास कराकर आगे बढ़ने नहीं दिया। ऐसे में यदि सवर्णों के विचार से ‘योग्यता’ की निर्विवाद धारणा महत्वपूर्ण है, जो उस सामाजिक संरचना की ही अनदेखी करता है, जिसकी बदौलत स्वयं उनका अस्तित्व है, तो निम्न वर्ग या आरक्षण के पक्षधरों के अनुसार योग्यता को ही पूर्णरूपेण से नजर अंदाज कर देना चाहिए क्योंकि यह योग्यता की आड़ में एक विशिष्ट वर्ग को बढ़ावा देने की नीति मात्र है। आज की योग्यता थोपी गई योग्यता है। योग्यता के मायने तब हांेगे जब सभी को समान परिस्थितियाँ मुहैया कराकर एक निश्चित मुकाम तक पहुँचाया जाये एवं फिर योग्यता की बात की जाए। योग्यता की आड़ में सामाजिक न्याय को भोथरा नहीं बनाया जा सकता।
(9) आरक्षण विरोधियों के मत में आरक्षण व्यवस्था एक निश्चित समय के लिए लागू की गई थी, पर राजनेताओं ने निहित स्वार्थों के लिए इसे और आगे बढ़ाया।
- यदि आजादी के छः दशकों बाद भी आरक्षण का दायरा घटाने की बजाय बढ़ाने की जरूरत पड़ रही है तो इसका सीधा सा अर्थ है कि संविधान के सामाजिक न्याय सम्बन्धी निर्देशों का पालन करने में हमारी संसद विफल रही है। राजनैतिक सत्ता के शीर्ष पर अधिकतर सवर्णों का ही कब्जा है। ऐसे में अगर वे स्वयं आरक्षण का दायरा बढ़ाना चाहते हैं तो देर से ही सही पर उन्हें पिछड़ों और दलितों की शक्ति का अहसास हो रहा है न कि स्वार्थ के वशीभूत वे पिछड़ों और दलितों पर कोई अहसान कर रहे हैं, क्योंकि आरक्षण संविधानसम्मत प्रक्रिया है।
(10) आरक्षण विरोधियों के मत में भारत का लक्ष्य जातिविहीन समाज होना चाहिए और आरक्षण जैसी व्यवस्था से जातिवाद को बढ़ावा मिलता है।
- यह एक सुसंगत आदर्श है, पर इसके क्रियान्वयन पर भी गौर करना चाहिए। समाज की 85 प्रतिशत जातियों को बिना किसी भेदभाव के व्यवस्था में ज्यादा प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए और 15 प्रतिशत जातियों की 95 प्रतिशत भागीदारी को तोड़ना चाहिए। यहीं क्यों, तथाकथित सवर्ण जातियों को झाड़ू़ लगाने और बूट पालिश करने जैसे कार्यों के लिए भी तैयार रहना चाहिए तथा तथाकथित निम्न जातियों को अपने घर पर पूजा-पाठ सम्पन्न कराने के लिए भी बुलाना चाहिए क्योंकि अब सामाजिक समुदायों की जन्मजातहीनता की दलील कतई स्वीकार्य नहीं। स्वयं तत्कालीन प्रधानमंत्री पं0 जवाहरलाल नेहरू ने प्रवेश पत्र से जाति का खाना हटवा दिया था पर क्या हुआ?
(11) आरक्षण विरोधियों के मत में आरक्षण को लागू करना लोकतांत्रिक मूल्यों के विपरीत है।
- लोकतंत्र को एक ऐसी शासन प्रणाली के रूप में पारिभाषित किया जाता है जहाँ जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा शासन होता है। यह खेद का विषय है कि स्वतंत्रता से पूर्व एवं स्वतंत्रता पश्चात भी भारत में कुछ जाति विशेष के लोगों का ही शासन रहा और अन्य जातियाँ उनकी अनुगामी मात्र बनी रहीं। क्या यह लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुकूल है कि समाज के बहुमत वर्ग का राजनैतिक-सामाजिक-प्रशासनिक प्रणाली में प्रतिनिधित्व नाममात्र को हो और अल्पमत जातियों का पूर्ण वर्चस्व हो- निश्चििततः नहीं! इसी विसंगति को सुधारने के लिए आरक्षण लागू करना अपरिहार्य हो जाता है।
(12) आरक्षण विरोधियों के मत में आरक्षण के माध्यम से किसी जाति या वर्ग के अधिकार को छीनने का हक किसी भी सरकार को नहीं है।
- चूँकि पिछड़ी और दलित जातियाँ व्यवस्था में समुचित भागीदारी के अभाव में अपनी आवाज उठाने में सक्षम नहीं हैं अतः कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के तहत सरकार का कर्तव्य है कि इन उपेक्षित वर्गों को व्यवस्था में निर्णय की भागीदारी में उचित स्थान दिलाये। इसे किसी का अधिकार छीनना नहीं वरन् समाज के हर वर्ग को उचित प्रतिनिधित्व देना कहा जायेगा।
वस्तुतः आज आरक्षण समाज को पीछे धकेलने की नहीं वरन् पुरानी कमजोरियों और बुराईयों को सुधार कर भारत को एक विकसित देश बनाने की ओर अग्रसर कदम है। यह लोकतंत्र की भावना के अनुकूल है कि समाज में सभी को उचित प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए और यदि किन्हीं कारणोंवश किसी वर्ग को उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाता है तो उसके लिए समुचित आरक्षण जैसे रक्षोपाय करने चाहिए। सामाजिक समरसता को कायम करने और योग्यता को बढ़ावा देने के लिए जरूरी है कि ‘अवसर की समानता’ के साथ-साथ ‘परिणाम की समानता’ को भी देखा जाय। देश में दबे, कुचले और पिछड़े वर्ग को अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करने का मौका नहीं मिला, मात्र इसलिए ये वर्ग अक्षम नजर आते हैं। इन्हें सरसरी तौर पर अयोग्य ठहराना सामाजिक न्याय के सिद्धान्तों के प्रतिकूल है। शम्बूक और एकलव्य जैसे लोगों की प्रतिभा को कुटिलता से समाप्त कर उनकी कीमत पर अन्य की प्रगति को उचित नहीं ठहराया जा सकता।
1990 के दशक में लागू आरक्षण की काट के लिए तुरन्त आर्थिक उदारीकरण को एक अपरिहार्यता के रूप में देश पर थोप दिया गया। उसके बाद से राज्य निरन्तर अपना कार्यक्षेत्र सीमित करता जा रहा है। सार्वजनिक क्षेत्रों को विनिवेश के माध्यम से निजी हाथों में सौंपा जा रहा है, सरकारी सेवाओं में अवसर कम हो रहे हैं, पेन्शन जैसी व्यवस्थाओं को खत्म कर सरकारी नौकरियों को आकर्षणहीन बनाया जा रहा है-निश्चिततः ऐसे में निजी क्षेत्र में भी आरक्षण की जरूरत महसूस होने लगी है। राष्ट्र की इतनी बड़ी जनसंख्या को संसाधन और अधिकारविहीन रखना राष्ट्र की प्रगति, विकास एवं समृद्धि के लिए अहितकर है। तकनीकी योग्यता के लिए क्षमतावान विद्यार्थियोें के सामने उच्च शैक्षणिक संस्थाओं की अंगे्रजी भाषा और भारी भरकम खर्चे आड़े आते हैं, मात्र इसलिए ये उस व्यवस्था में प्रवेश नहीं पा पाते और हीनता का अनुभव करते हैं। ये कहना कि उनमें योग्यता का अभाव है, उचित नहीं होगा। ऐसी परिस्थितियों में उच्च शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण की अनिवार्यता को समझा जा सकता है। आरक्षण को लेकर सवर्णों को यह आशंका हो सकती है कि इससे वे अलग-थलग पड़ जायेंगे और संसाधनों पर उनका पहला हक खत्म हो जायेगा, पर यदि राष्ट्र की अर्थव्यवस्था विकासोन्मुखी रही तो सिर्फ पिछड़ों और दलितों हेतु ही नहीं अपितु सवर्णों हेतु भी रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध होेंगे। प्रखर राष्ट्रवादी विचारक स्वामी विवेकानन्द ने एक बार कहा था -‘‘जब वे (शूद्र) जागेंगे और आप (उच्च वर्ग) द्वारा अपने प्रति किए गये शोषण को समझेंगे तो अपनी फूँक से वे (शूद्र) आप (उच्च वर्ग) सबको उड़ा देंगे। यह शूद्र वे लोग हैं, जिन्होंने आपको सभ्यता सिखायी और ये ही लोग आपका पतन भी कर सकते हैं।’’ वर्तमान परिप्रेक्ष्य को इन अवधारणाओं के बीच ही समझने की जरूरत है अन्यथा समाज की प्रतिगामी शक्तियाँ तो अपने परम्परागत विशेषाधिकारों के लिए सदैव ही सामाजिक न्याय जैसी विस्तृत अवधारणा को मात्र रोजी-रोटी से जोड़कर उनका क्षुद्रीकरण करने की कोशिश करती रहेंगी।
अमर उजाला और साहित्य शिल्पी में आकांक्षा यादव
इस अवसर पर यदुकुल की तरफ से भी आकांक्षा यादव को हार्दिक बधाई और शुभकामना कि वे यूँ ही उत्तरोत्तर प्रगति की सीढियाँ चढ़ती रहें......!!!
शुक्रवार, 21 नवंबर 2008
‘वुमेन ऑन टॉप‘ में आकांक्षा यादव
गुरुवार, 20 नवंबर 2008
मैंने आई.ए.एस. क्यों छोड़ी- अजय सिंह यादव
नवीन सरोकारों को सहेजे ‘गुफ्तगू‘ का कृष्ण कुमार यादव पर जारी अंक
संपर्क: मो0 इम्तियाज गाजी, 123 ए/1, हरवारा, धूमनगंज, इलाहाबाद
समीक्षक- जवाहरलाल ‘जलज‘, शंकर नगर- बांदा (उ0प्र0)
बुधवार, 19 नवंबर 2008
''बाल साहित्य समीक्षा'' की भाव-भूमि पर कृष्ण कुमार यादव
‘‘विलक्षण प्रतिभा के धनी‘‘ शीर्षक से प्रस्तुत लेख कृष्ण कुमार के व्यक्तित्व को जीवन के तमाम सोपानों से गुजारते हुए पाठको के सम्मुख रखता है। ‘‘बाल मन को सहेजती कविताएं‘‘ में डाॅ0 विद्याभाष्कर वाजपेयी लिखते हैं कि, कृष्ण कुमार की बाल कविताएं सिर्फ कागजी तीर नहीं हैं, बल्कि वास्तविकता की भावभूमि पर खड़ी हैं, तो ‘‘बाल मन की झांकी प्रतिबिम्बित करती बाल कविताएं‘‘ में कृपा शंकर यादव के मत में कृष्ण कुमार की बाल कविताओं की एक अनूठी विशेषता है, जहाँ मजे-मजे में वे समकालीन समाज से जुड़े कुछ गूढ़ प्रश्नों और अन्तर्विरोधों पर लेखनी चलाने के बहाने बाल मन से खिलवाड़ करने वाली भावनाओं पर भी निशाना साधते हैं। कृष्ण कुमार की बाल कवितायें समकालीन सरोकारों के साथ बाल मनोविज्ञान को जिस प्रकार प्रस्तुत करने में पूर्णतया सक्षम दिखती हैं, उस पर डाॅ0 अवधेश ने बखूबी लिखा है। जितेन्द्र ‘जौहर‘ कृष्ण कुमार की रचनाधर्मिता के सभी पहलुओं को समेटते हुए उन्हें ‘‘विविध दायित्वों के गोवर्धन-धारक‘‘ रूप में देखते हैं।
वरिष्ठ बाल साहित्यकार सूर्य कुमार पाण्डेय ने कृष्ण कुमार की कविताओं पर लिखने के बहाने बाल-विमर्श की उपेक्षा पर भी सवाल उठाये हैं। उनके शब्दों में ही- ‘‘आज की कविता में दलित और महिला विमर्श को नारे की तरह उछाला गया, जन चेतना में इसके महत्व को नकारा भी नहीं जा सकता, किन्तु एक अनछुआ पहलू है, बाल-विमर्श। इस देश की आधी से कुछ कम आबादी बच्चों की है। उनके शोषण, उत्पीड़न की तमाम चिंताओं के बीच हस्तक्षेप करती हुई बाल-विमर्श की कम कविताएँ ही नजर आती हैं। आज के बदलते समय, समाज और बच्चों की चिन्ता वह जरूरी पहलू हंै, जिस पर कृष्ण कुमार यादव की दृष्टि गई है।‘‘ डाॅ0 विनय शर्मा ने बाल साहित्य एवं इसके सरोकारों पर कृष्ण कुमार यादव का एक साक्षात्कार भी प्रस्तुत किया है, जिसमें श्री यादव ने बाल साहित्य को रोचक बनाने हेतु अंधविश्वास व पलायनवादी दृष्टिकोण पर आधारित साहित्य की बजाय रोचक ढंग से ऐसे उद्देश्यमूलक साहित्य के सृजन की जरूरत की बात कही है, जो बच्चों को बाँध सके।कुल मिलाकर पत्रिका का यह अंक अपने सामाजिक-साहित्यिक दायित्वों की अनुपम ढंग से न सिर्फ पूर्ति करता है बल्कि कई नए मानदंड भी स्थापित करता है।
संपर्क: डा. राष्ट्रबंधु, १०९/३०९ आर.के. नगर, कानपुर
समीक्षक: जवाहरलाल ‘जलज‘, शंकर नगर- बांदा (उ0प्र0)
मंगलवार, 18 नवंबर 2008
एक युवा पहल : कृतिका
संपर्क: वीरेन्द्र सिंह यादव, 1760, नया रामनगर, उरई-जालौन- 285001
सोमवार, 17 नवंबर 2008
एक अद्भुत प्रयास : मड़ई
संपर्क : कालीचरण यादव, बनियापारा, जूना विलासपुर, छत्तीसगढ़- 495001
सामाजिक न्याय का संवाहक : प्रगतिशील उद्भव
संपर्क : अजय शेखर/गिरसंत यादव, 1/553, विनय खंड, गोमती नगर, लखनऊ -226010
रविवार, 16 नवंबर 2008
यादव साम्राज्य पत्रिका
संपर्क: भंवर सिंह यादव, 130/61, बगाही, बाबा कुटी चौराहा, किदवई नगर, कानपुर-२०८०११
शुक्रवार, 14 नवंबर 2008
यादव कुल दीपिका
गुरुवार, 13 नवंबर 2008
यादवी संस्कृति को बिखेरता 32वां राऊत नाच महोत्सव सम्पन्न
यादव निर्देशिका सह-पत्रिका
संपर्क: सत्येन्द्र सिंह यादव, 27-सुरेश नगर, न्यू आगरा, आगरा-5
बुधवार, 12 नवंबर 2008
यदुवंशियों द्वारा प्रकाशित पत्र-पत्रिकाएं
हंस (मा0)ः सं0-राजेन्द्र यादव, अक्षर प्रकाशन प्रा0 लि0, 2/36 अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली/
सामयिक वार्ता()ःसं0- योगेन्द्र यादव, एक्स बी-4, सह विकास सोसायटी, 68, इंद्रप्रस्थ विस्तार, पटपड़गंज, दिल्ली/
प्रगतिशील आकल्प(त्रै0)ः सं0- डा0 शोभनाथ यादव, पंकज क्लासेज, पोस्ट आफिस बिल्डिंग, जोगेश्वरी (पूर्व), मुम्बई/
मड़ई (वार्षिक)ः सं0-डा0 कालीचरण यादव, बनियापारा, जूना विलासपुर, छत्तीसगढ़-495001/
राष्ट्रसेतु(मा0)ःसं0-जगदीश यादव, मिश्रा भवन, आमानाका, रायपुर (छत्तीसगढ़)/
मुक्तिबोध (अनि0)ःसं0-मांघीलाल यादव, साहित्य कुटीर, टिकरापारा, गंडई-पंडरिया, राजनादगाँव(छ0ग0)/
बहुजन दर्पण(सा0)ःसं0- नन्द किशोर यादव, विजय वार्ड नं0 2, जगदलपुर, छत्तीसगढ़/
नाजनीन()ःसं0-रामचरण यादव ‘याददाश्त‘, सदर बाजार, बैतूल (म0प्र0)/
डगमगाती कलम के दर्शन(मा0)ःसं0-रमेश यादव, 127-गोकुलगंज, कन्डीलपुरा, इंदौर - 452006/
प्रियंत टाइम्स(मा0)ः सं0- प्रेरित प्रियन्त, 22- भालेकरीपुरी, इमली बाजार, इन्दौर-4/
वस्तुतः (अनि0)ः सं0- अरुण कुमार, तरुण-निवास, त्रिवेणीगंज, बिहार-852139/
मण्डल विचार (मा0)ः सं0- श्यामल किशोर यादव, श्यामप्रिया सदन, गुलजारबाग, मधेपुरा, बिहार-852113/
आपका आईना(त्रै0)ःसं0-डा0 राम अशीष सिंह, समीक्षा प्रकाशन, मानिक चंद तालाब, अनीसाबाद, पटना-800002/
अनंता(मा0)ःसं0- पूनम यादव, २०३-२०४, सरन चैंबर-IIदितीय तल, ५ पार्क रोड, लखनऊ (यू. पी.)/
शब्द (मा0)ः सं0- आर0सी0यादव, सी-1104, इन्दिरा नगर, लखनऊ-226016/
अमृतायन()ःसं0- डा0 अशोक ‘अज्ञानी‘, हिन्दी अनुभाग, राजकीय हुसैनाबाद इंटर कालेज, चौक,लखनऊ-226003/
प्रगतिशील उद्भव(त्रै0)ःसं0-अजय शेखर, गिरसन्त कुमार यादव, 1/553, विनयखण्ड, गोमती नगर, लखनऊ- 226010/
कृतिका(छ0)ःसं0- डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव, 1760, नया रामनगर, उरई, जालौन (उ0प्र0)-285001/
हिन्द क्रान्ति(पा0)ःसं0- सतेन्द्र सिंह यादव, आर-4/17, राजनगर, गाजियाबाद (उ0प्र0)/
स्वतन्त्रता की आवाज(सा0)ःसं0-आनन्द सिंह यादव, ग्राम-ईशापुर पो0-मलिहाबाद, लखनऊ/
दहलीज(पा0)ःसं0-ओमप्रकाश यादव 13,पटेल परमानंद की चाली(पठान की चाली), अमृता मील के सामने, सरसपुर, अहमदाबाद/
यादव ज्योति(मा0)ःसं0-श्रीमती लालसा देवी, ‘यादव-ज्योति‘ कार्यालय, के0 54/157-ए, दारानगर, वाराणसी-221001/
यादव कुल दीपिका()ःसं0- चिरंजी लाल यादव, बी-73, शिवाजी रोड, उत्तरी घोण्डा, दिल्ली-53/
यादव डायरेक्ट्री (वार्षिक) सं0-सत्येन्द्र सिंह यादव, 27, सुरेश नगर, न्यू आगरा, आगरा-5/
यादवों की आवाज (त्रै0) सं0-डा0 के0सी0 यादव, अखिल भारत वर्षीय यादव महासभा, श्री कृष्ण भवन, सेक्टर-IVवैशाली, टी0एच0ए0, गाजियाबाद -201011/
यादव साम्राज्य(त्रै0)ःसं0-भंवर सिंह यादव, 130/61, बगाही, बाबा कुटी चौराहा, किदवई नगर, कानपुर-208011/
यादव शक्ति (त्रै0) सं0- राजबीर सिंह यादव, 161, बाजार दक्षिणी सिधौली, सीतापुर (उ0प्र0)-261303/
यादव दर्पण()ःसं0-डाॅ0 जगदीश व्योम, 1206, सेक्टर-37, नोएडा, गौतमबुद्ध नगर
मंगलवार, 11 नवंबर 2008
यादव समाज का उद्भव, इतिहास और प्रमुख व्यक्तित्व
http://www.answers.com/yadav