रविवार, 27 दिसंबर 2009
चौधरी हरमोहन सिंह यादव : ग्राम सभा से राज्य सभा तक
नाम ः चौधरी हरमोहन सिंह यादव/
जन्म ः 18 अक्टूबर, 1921, मेहरबान सिंह का पुरवा, कानपुर नगर/
पिता ः चौधरी धनीराम सिंह यादव/
वैवाहिक स्थति ः विवाह, श्रीमती गयाकुमारी जी के साथ। आपके पाँच पुत्र एवं एक पुत्री है/
शिक्षा ः हायर सेकेण्डरी/
राष्ट्रीय अध्यक्षः
अखिल भारतीय यादव महासभा, सन् 1980 (मथुरा)/
अखिल भारतीय यादव महासभा, सन् 1993 (हैदराबाद)/
अखिल भारतीय यादव सभा, सन् 1994 /
अखिल भारतवर्षीय यादव महासभा के का0 अध्यक्ष 2007 तक/
संस्थापकः
श्रीकृष्ण भवन, वैशाली, गाजियाबाद/
कैलाश विद्यालोक इण्टर काॅलेज/
चौधरी रामगोपाल सिंह विधि महाविद्यालय, मेहरबान सिंह का पुरवा, कानपुर/
मनोरंजन एकता पार्क, कानपुर/
गयाकुमार इण्टर काॅलेज एवं छात्रावास, मेहरबान सिंह का पुरवा, कानपुर/
मोहन मंदिर, मेहरबान सिंह का पुरवा, कानपुर/
राजनैतिक :
प्रधान (निर्विरोध), लगातार दो बार, ग्रामसभा गुजैनी, सन् 1952/
सदस्य, (निर्विरोध), अंतरिम जिलापरिषद/
सभासद, कानपुर महापालिका सन् 1959, दूसरी बार, 1967/
पदेन सदस्य, कानपुर नगर निगम, लगभग 42 वर्ष/
जिला सहकारी बैंक के प्रथम अध्यक्ष/
उत्तर प्रदेश भूमि विकास बैंक के उपाध्यक्ष (निर्विरोध)/
दिनांक 06 मई, 1970 को प्रथम बार कानपुर-फर्रूखाबाद स्थानीय निकाय निर्वाचन क्षेत्र से उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्य निर्वाचित। आपका कार्यकाल 05 मई, 1976 तक रहा।/
द्वितीय बार दिनांक 06 मई, 1976 को कानपुर-फर्रूखाबाद स्थानीय निकाय निर्वाचन क्षेत्र से उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्य निर्वाचित। आपका कार्यकाल 05 मई, 1982 तक रहा। /
तृतीय बार दिनांक 06 मई, 1984 से जनता दल समाजवादी के टिकट पर विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र से उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्य निर्वाचित। आपका कार्यकाल 05 मई, 1990 तक रहा।/
सभापति (दो बार) उत्तर प्रदेश विधान परिषद की आश्वासन समिति के। /
संसदीय राजभाषा समिति के सदस्य रहे।/
पूर्व प्रदेश उपाध्यक्ष, लोकदल।/
पूर्व सदस्य, राष्ट्रीय कार्यकारिणी, लोकदल एवं जनता दल।/
सदस्य, राज्य सभा सन् 1990 से 1996 तक।/
सदस्य राज्यसभा सन् 1997 से 2003/
महामहिम राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत।/
रुचिः समाजसेवा, ग्रामीण विकास एवं किसानों के हितों की रक्षा में। /
अन्यः सन् 1984 में श्रीमती इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद रतन लाल नगर, कानपुर के सिख भाइयों की लगभग 4-5 घण्टे अपने सुपुत्र चौधरी सुखराम सिंह यादव (सभापति, विधान परिषद उत्तर प्रदेश) के साथ हवाई फायरिंग करके दंगाइयों से रक्षा करने के कारण सन् 1991 में भारत के महामहिम राष्ट्रपति द्वारा शौर्य चक्र से सम्मानित किया गया।/
स्थायी पताः ग्राम मेहरबान सिंह का पुरवा, तहसील व जिला-कानपुर, उ0प्र0।
सोमवार, 21 दिसंबर 2009
'बाल साहित्य समीक्षा' का आकांक्षा यादव विशेषांक
शनिवार, 19 दिसंबर 2009
1857 की झूठी वीरांगना : रानी लक्ष्मीबाई
विवादों के घेरे में एक सार्थक पुस्तक : आल्हा-उदल और बुंदेलखंड
पुस्तक : आल्हा-उदल और बुन्देलखण्ड/ लेखक : कौशलेन्द्र प्रताप यादव /मूल्य : 650/- / पृष्ठ : 198/प्रकाशक : प्रगति प्रकाशन-240, वैस्टर्न कचहरी रोड, मेरठ
रविवार, 13 दिसंबर 2009
भोजपुरी के जुबली स्टार : दिनेश लाल यादव उर्फ निरहुआ
सफलता का गुरः ईमानदारी और कड़ी मेहनत.
सबसे बड़ी बाधाः बेईमानी और धोखाधड़ी करने वालो पर गुस्सा फूट पड़ता है.
सबसे बड़ी ताकतः परिवार और प्रशंसकों का उनमें भरोसा, जिसने हमेशा हौसला बनाए रखा.
जिंदगी का सबसे अहम क्षणः 2007 में जब उन्होने माँ के लिए गाँव के पुराने मकान को महल-सा बनवाया तो उनकी ऑंखें छलक आई.
गुरुवार, 10 दिसंबर 2009
बिरहा से मोह रहे मन : डाॅ0 मन्नू यादव
सबसे बड़ी बाधा : ईर्ष्या करने वाले लोग हैं जो दूसरों को आगे बढ़ने नहीं देना चाहते।
सबसे बड़ी ताकतः खुद पर भरोसा रखना, जिससे आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है.
जिंदगी का सबसे अहम क्षणः सन् 1857 की क्रांति के 150 वर्ष पूरे होने पर लालकिले से जब राष्ट्रपति की उपस्थिति में उन्होने बिरहा गायन किया.
बुधवार, 9 दिसंबर 2009
युद्धबंदियों और शहीदों के परिजनों को उम्मीदें बाँट रहा साइकिल यात्री : हीरालाल यादव
सफलता का गुरः कोई काम नामुमकिन नही है.
सबसे बड़ी बाधाः जब लोग इस अभियान के ’फायदे’ पर बहस करते हैं.
सबसे बड़ी ताकतः फल की दुकान चलाने वाली उनकी पत्नी शकुन्तला, जो अक्सर दौरे पर रहती है.
जिंदगी का सबसे अहम क्षणः 30 जुलाई 99 का दिन जब कारगिल में सैनिकों ने उनकी अगवानी की और उन्हें सगे भाई से ज्यादा सगा कहा.
रविवार, 6 दिसंबर 2009
कम उम्र में बड़ा सम्मान पाने वाला उदीयमान वैज्ञानिक-शिक्षक : डा0 अनिल कुमार यादव
सफलता का गुरः हर काम को नये ढंग से और समर्पित भाव से करना.
सबसे बड़ी बाधाः इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अनुसंधान के लिए संसाधनों की कमी.
सबसे बड़ी ताकतः पढ़ाई, अध्यापन और अनुसंधान में दिलचस्पी,
जिंदगी का सबसे अहम क्षणः जब प्रथम डाॅ0 एम पंचोली अवार्ड के लिए चुना गया.
बुधवार, 2 दिसंबर 2009
श्यामलाल यादव को पहला आरटीआई पुरस्कार
शुक्रवार, 27 नवंबर 2009
एवरेस्ट की चढ़ाई ने जीने का सलीका सिखाया : संतोष यादव
संतोष यादव ने दो बार माउंट एवेरस्ट की दुर्गम चढ़ाई पर अपनी जीत दर्ज करते हुए तिरंगे का परचम लहराया है. ज़िन्दगी में मुश्किलों के अनगिनत थपेड़ों की मार से भी वह विचलित नहीं हुईं और अपनी इस हिम्मत की बदौलत माउंट एवरेस्ट की दो बार चढाई करने वाली विश्व की पहली महिला बनीं. उनके इस अदम्य साहस के लिए उन्हें साल २००० में पद्मश्री से सम्मानित किया गया. हिमालय की चोटी पर पहुँचने का एहसास क्या होता है, इसे संतोष यादव ने दो बार जिया है. 'ऑन द टॉप ऑफ़ द वर्ल्ड' जुमले का प्रयोग हम अक्सर करते हैं पर इसके सार को असल मायनो में संतोष ने समझा. वह भी आज से डेढ़ दशक पहले. अरावली की पहाड़ियों पर चढ़ते हुए कामगारों से प्रेरणा लेकर उन्होंने ऐसा करिश्मा कर दिखाया, जिसकी कल्पना खुद उन्होंने कभी नहीं की थी. हरियाणा के रेवाड़ी जिले के एक छोटे से गाँव से निकल कर, बर्फ से ढके हुए हिमालय के शिखर का आलिंगन करने के यादगार लम्हे तक का सफ़र संतोष यादव के लिए कितने उतार चढ़ाव भरा रहा, यह जानने की एक कोशिश (साभार-हिन्दीलोक) --
-जीवन के किस मोड़ पर आपने यह महसूस किया कि मैं माउंट एवरेस्ट जैसी दुर्गम चढ़ाई कर सकती हूँ?
यह बात साल १९९२ की है, जब हिमालय की चढ़ाई के लिए मेरा चयन हुआ। यह सोच कर अब भी मेरे रोंगटे खड़े हो रहे हैं. मेरा चयन होने मात्र से मेरे मन में ख्याल आया कि मैं भी एवरेस्ट की चढ़ाई कर सकती हूँ... मैं एक बहुत साधारण परिवार से हूँ. कभी ऐसा सोचा नहीं था कि इतना मुश्किल काम मैं कर पाऊँगी. खासकर माउंट एवरेस्ट की चढाई जैसा कठिन अभियान मेरे लिए सोच पाना भी उस वक़्त मुश्किल था. हालाँकि मेरे अन्दर बहुत आत्मविश्वास रहता है लेकिन मैं अति आत्मविश्वास खुद में कभी नहीं आने देती. चयन हुआ क्यूंकि उसके बारे में मैंने बहुत पढ़ा था और ट्रेनिंग भी ली थी उत्तरकाशी नेहरु माउंटइनीयारिंग महाविद्यालय से, जिसका निश्चित रूप से मुझे फायदा मिला. मुझे लोगों ने तब बहुत हतोत्साहित किया था. शुरुआत के कुछ दिनों में लोगों का नजरिया मुझे लेकर यह रहा कि 'ये भी ट्रेनिंग करेगी?' लेकिन मुझमे बहुत हिम्मत थी, मैं मानती हूँ. क्यूंकि चढ़ाई करने से पहले मुझे परिवार की ओर से भी खासी मुश्किलात थीं.
-आपके परिवार से विरोध के बावजूद जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा क्या रही?
परिवार से विरोध था इसलिए मैं अन्दर से बहुत टूटा हुआ महसूस करती थी। उस वक़्त सिर्फ मेरी हिम्मत मेरे साथ थी. खासकर माँ बाप जो आपको इतना प्यार करते हैं, उनका दिल भी नहीं दुखाना चाहती थी. मेरे माँ बाप भी मजबूर थे. जिस तरह से मेरे सामने एवरेस्ट का पहाड़ था, उनके सामने भी समाज का इतना बड़ा पहाड़ था. वह भी हरियाणा जैसे राज्य में मैं पली बढ़ी जहाँ लड़कियों को बंदिशों में रखा जाता है. आज की स्थिति थोड़ी अलग है. लेकिन जब मैं पढ़ रही थी, तब मेरे पिताजी को कहा जाता था 'राम सिंह तू बावडा हो गया है के... छोरी को इतना पढ़ा के, के करेगा.' मैं उन दिनों आईएएस की तैयारी कर रही थी. पिताजी को लोग बोलते थे "इतना पढ़ रही है छोरी, छोरा भी न मिलेगा पढ़ा लिखा." लाडली मैं बहुत थी घरवालों की. इसलिए मेरे अन्दर बहुत हिम्मत थी. और यह बात हर माँ-बाप से मैं कहूँगी कि जितना आप अपने बच्चों को प्यार करेंगे उतना उनके अन्दर हिम्मत और आत्मविश्वास बढ़ेगा.
-तकनीक और कौशल ही इंसान को ऊंचाई तक नहीं ले जा सकती। इसके लिए शिक्षा भी ज़रूरी है. इस बात से आप कितनी सहमत हैं ?
पढ़ाई और खेल दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। यदि आपकी शिक्षा अच्छी नहीं है तो आप किसी भी क्षेत्र में बेहतर नहीं कर पाएँगे. खेल को मैंने बहुत ही शिक्षात्मक ढ़ंग से लिया है. इसमें बहुत समय प्रबंधन की ज़रूरत है. मैं यह नहीं कहूँगी कि माउंटइनीयारिंग के कारण मैं पूरी तरह से आईएएस में चयनित नहीं हो पाई. बल्कि मुझे लगता है कि मेरी पढ़ाई ने मुझे बहुत फायदा पहुँचाया है. मैं बहुत ही लाड़ प्यार और नाजुकता से पली बढ़ी और स्पोर्ट्स पर्सन मैं शुरुआत से नहीं थी. मेरे अन्दर एक जिज्ञासा थी कि बर्फ से ढके पहाड़ और हिमालय कैसे लगते होंगे! इस सोच से मैं रोमांचित हो जाती थी. अपने इस सपने को साकार करने की चाह से मैंने एवरेस्ट की चढाई की. जब मैं वहां गई तो ऋषिकेश में हम सभी प्रशिक्षुओं का हमारे इंस्टिट्यूट वालों ने स्वागत किया. ट्रेनिंग के दौरान मेरा नंबर धूप में पड़ गया और मैं धूप में लाल हो गयी थी. मेरी पतली काया को देखकर प्रशिक्षकों ने मेरी ट्रेनिंग को लेकर शंका जताई. धीरे धीरे मैंने अपना प्रशिक्षण पूरा किया और समापन के समय मुझे भी यह देखकर आर्श्चय हुआ कि मेरा प्रदर्शन सबसे अच्छा आँका गया. मैं क्लिप ऑन क्लाइम्बिंग बड़ी ही फुर्ती से कर लेती थी और सब देखते थे कि आखिर ये इतनी जल्दी करती कैसे है. असल में मैं तकनीक को कार्य करने के साथ साथ बहुत अच्छे से समझती भी रहती थी. जल्दबाजी कभी नहीं करती थी. देखती थी, रास्ते को याद करती थी उसके बाद कोशिश करती थी. मैं खुद से यह सवाल भी करती रहती थी 'मैंने ये कर लिया, मैं यह कर गई?' फिर मुझे उसका जवाब मिलता था क्यूंकि मैंने इस तकनीक का इस्तेमाल इसमें किया.
-जिस ट्रेनिंग का आप हिस्सा रहीं, उसमे किन बातों पर ख़ास ध्यान रखना पड़ता था?
मानसिक और शारीरिक तौर पर सतर्क रहना पड़ता था। भोर सुबह उठना भी मेरे लिए फायदेमंद रहा. तीन बजे सवेरे हम उठ जाते थे और तैयार हो के साढ़े तीन बजे तक कैंप से निकल जाना होता था. क्यूंकि जितनी जल्दी हम चढ़ाई शुरू करेंगे उतना जीवन का खतरा कम है. माउंटइनीयारिंग में देरी जीवन के लिए खतरनाक साबित हो सकती है. ग्लेशिअर्स और बर्फ की दरारें इतनी चौड़ी होती हैं कि कभी कभी समझ में नहीं आता कि किस तरह से उसे पार किया जाए. कभी कभी नज़रंदाज़ भी करना होता है बर्फानी तूफानों को. हमे हर पल को बड़ी नाजुकता और संतुलित ढ़ंग से बिना आवाज़ किये आगे बढ़ना पड़ता था.
-उन्तीस हज़ार फीट की ऊंचाई पर अनेक बाधाएं आपके रास्ते में आई होंगी। कोई ऐसा वाक्या आपको याद है जिसने आपको अन्दर तक हिला दिया हो?
कई बार तो ऐसा हुआ कि मुझे उठा के बर्फानी तूफानों ने दूर तक फेंका है। कंचनजंघा की चढाई के वक़्त मुझे याद है कि बात लगभग तय हो चली थी कि मैं जिंदा नहीं बचूंगी. मैं नेपाल की तरफ लटक गयी थी क्यूंकि तूफ़ान ने मुझे पूरे वेग से उड़ा लिया था. मैं पेंडुलम की तरह लटकी हुई थी और उस समय मैंने अपने आप को मजबूती से रस्सी में बांधे रखा. साथ ही मेरे दो साथी जिसमे में एक फुदोर्जे थे, उन्हें भी तूफ़ान उड़ा ले गया था. यह देखकर मुझे थोड़ी घबराहट ज़रूर हुई लेकिन उस वक़्त मुझे मेरे मानसिक संतुलन ने बचाया. मैं हमेशा यह कहती हूँ कि जब भी इंसान परेशानी में आता है उसे अपने मानसिक संतुलन को नहीं खोना चाहिए. पहला हिम्मत और दूसरा मानसिक संतुलन ही आपका सबसे बड़ा हथियार है. इससे मुझे यह सीखने को मिला कि मानसिक संतुलन बड़ी ऊंची चीज़ है. अगर वो आप बनाये रखेंगे तो डर भय सब दूर हो जाते हैं और आप अच्छे से सोच के, दिमाग का इस्तेमाल करते हुए सही फैसला ले पाएँगे. मैं ऐसी परिस्थितियों से कई बार गुज़र चुकी हूँ.
-योजनाओं और सिद्धांतों को आप किस हद तक महत्वपूर्ण मानती हैं?
मैंने बचपन से लेकर अपना अभी तक का जीवन काल एक कुशल योजना के तहत बिताया है। यदि मैं ऐसा नहीं करती तो शायद यहाँ तक का सफ़र तय कर पाना मेरे लिए मुश्किल रहता. यह मैंने इसलिए समझ लिया था क्यूंकि मैं बहुत सुरक्षित क्लाइम्बर हूँ. बहुत ज़रूरी भी है क्यूंकि जब भी आप कोई रिस्क लेते हैं तो सुरक्षा का आपको पूरा ध्यान रखना होता है. मैं सिद्धांतों को बहुत मानती हूँ. चाहे वो जीवन के सिद्धांत हों या खेल के. यदि आप उसको सही रूप से निभाएँगे तो मेरे ख्याल से आप कभी मार नहीं खाएँगे. माउंटइनीयारिंग में अधिकतर आपकी सुरक्षा आपके ही हाथों में है. क्यूंकि बाहर मौसम ख़राब है तो आपने क्या फैसला लिया ऐसे में, किस वक़्त कहाँ जाना है, अचानक फंस भी गए तो आपके जो सिखाये हुए सिद्धांत हैं उसका पालन कीजिये. आपके मानसिक संतुलन को न खोएं. दूसरी बात है कि आप पूरी तैयारी से जाएँ. मैंने महसूस किया है कि तैयारी में कोताही जीवन के रिस्क का कारन बन सकती है. क्यूंकि माउंटइनीयारिंग के सिद्धांत के अनुसार आप सुबह में ही चढाई करें. बारह बजे के बाद यह उम्मीद मत कीजिये कि आपको मौसम अच्छा मिलेगा और आप सही सलामत अपने कैंप वापस पहुंचेंगे. बारह बजे के तुंरत बाद वापस आ जाएँ. दो बजे तक तो रिस्क लेने की बात है. अगर मौसम साफ़ रहे तो भी. क्यूंकि किस वक़्त मौसम ख़राब हो जाये ये मालूम नहीं.
-जिस जीवन मरण की स्थिति को आपने चढाई के दौरान जिया, उसे आप असल ज़िन्दगी में कैसे लागू करती हैं?
ये बहुत अच्छी बात आपने पूछी। इससे जीवन को जीने का बहुत अच्छा अनुभव आपको मिलता है. क्यूंकि जब भी आपके जीवन में परेशानी आती है तो उसको किस ढ़ंग से सँभालते हुए आगे बढ़ना है, उस परेशानी को किस तरीके से सुलझाना है, यह भी एक चुनौती है, जिसे सुलझाने की समझ मुझे अपने उन्ही अनुभवों से मिली.
-आपने एवरेस्ट की मुश्किल चढाई के साथ आईएएस की कठिन परीक्षा पर भी विजय पाई। इन दोनों अभियान के इतर घर परिवार की ज़िम्मेदारी को आप किस तरह निभाती हैं?
अपनी ज़िम्मेदारी को हर स्तर पे समझना ज़रूरी है। मुझे याद है कि मेरे स्नातक के समय में मैंने किसी से कहा था कि आपका जो व्यवहार है वही आपकी कसौटी है. हर जगह आपका व्यवहार उसके अनुरूप होना चाहिए. मैं दो बच्चों की माँ हूँ और मैं अपने दोनों बच्चों का पालन पोषण खुद करती हूँ. माँ बनना अपने आप में बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी की बात है. सही पालन पोषण और सही संस्कार देना, गलत चीज़ों से दूर रखना एक अभियान है. अति नहीं करनी चाहिए लेकिन सहज रूप से होना चाहिए ताकि बच्चे को पता भी न चले और उसका ख्याल भी रहे. यह बहुत ज़रूरी है. मेरी कोशिश रहेगी और इसकी मैं सरकार और कारपोरेट सेक्टर से अनुरोध करने वाली हूँ कि महिला कर्मचारियों को ख़ास तवज्जो दी जाये. राष्ट्र को अच्छा नागरिक देने वाली एक गर्भवती स्त्री/माँ को कुछ ज्यादा छुट्टियाँ होनी ही चाहिए. कम से कम तब तक जब तक बच्चा माँ पर आश्रित है. उससे बच्चे को बहुत सहारा मिलता है.
-आप अपनी इस ऊर्जा और अनुभवों की सबसे बड़ी उपलब्धि क्या मानती हैं?
मुझे सबसे बड़ी चीज़ इससे 'इंसानियत' सीखने को मिली। इतने बड़े ब्रम्हांड में इतना छोटा है इंसान. यह बात महसूस होती थी कि हमें एक जीवन मिला है इंसान के रूप में. हम नहीं जानते कि अगला जीवन किस रूप में मिलेगा. इसलिए जो जीवन है उसे अच्छे से जीना चाहिए. हर एक के साथ अच्छा व्यवहार करके और मदद करके. व्यवहार सिर्फ इंसान के साथ नहीं होता. जीवन में हर एक के सामने हर तरह की कठिनाइयाँ आती हैं. उस समस्या का डट के और हिम्मत से मुकाबला करते हुए समाधान करना चाहिए. दूसरी बात, हम अक्सर यह कहते हैं कि हमारे किस्मत में यह नहीं. गलत है. बचपन से लेकर मैंने अभी तक के जीवन काल में देखा है कि मैंने शिक्षा हासिल की जिसके लिए मैंने बहुत संघर्ष किया. उसके बाद मेरी शादी दसवीं क्लास में हुई. मैं रोती रही और तब मैंने यह जिद्द की कि मुझे हॉस्टल जाना है क्यूंकि मैं जानती थी कि यहाँ रही तो मैं जीवन में शायद आगे न बढ़ पाऊं. हालाँकि मुझे बहुत तकलीफ हुई और माँ पिताजी की भी बहुत याद आती थी. लेकिन मैंने अपनी किस्मत का खुद निर्माण किया.
-एक महिला होने के नाते क्या इस अभियान में ख़ास परेशानियों से आपको दो चार होना पड़ा?
मुझे याद है साल १९९३ में मुझे चढाई से पहले हुए स्वास्थ जांच में फ़ेल कर दिया गया था। डॉक्टर को पता ही नहीं था कि मैं पहले ही एवरेस्ट की चढाई कर चुकी हूँ. मेरे फेंफडे बहुत छोटे बताये गए थे जांच में, इसलिए उन्होंने सलाह दी कि मेरा कैंप में न जाना ही अच्छा रहेगा. फिर मेरे एक साथी क्लाइम्बर ने डॉक्टर को मेरा परिचय दिया. मुझे टीम में रखने में हमेशा सुरक्षा के नज़रिए से सही माना गया. मैं सिर्फ एक महिला की हैसियत से नहीं बल्कि ज्यादातर महिला अभियान दल की लीडर की भूमिका में रही. मैंने कभी ऐसा महसूस नहीं किया कि मैं ये काम इसलिए नहीं करुँगी क्यूंकि मैं महिला हूँ. दीवार फान्दनी होती थी, रस्सा चढ़ना, ऊपर से आग निकल रही होती थी और मैं नीचे से रेंगती हुई निकल जाती थी. इन सारे कामों को मैंने किया हुआ है. अन्दर से कुछ करने की इच्छा शक्ति मेरे अन्दर बहुत प्रबल थी. मैं मानती हूँ कि इंसान को हमेशा जिज्ञासु रहना चाहिए. यह बहुत ज़रूरी है. जानने की इच्छा से आपको बहुत कुछ सीखने को मिलता है.
-जीवन की इस चढाई में और किन योजनाओं को अंजाम देने की ख्वाहिश है?
फिलहाल तो माँ का रोल अदा कर रही हूँ. बच्चों को पालना भी बहुत महत्वपूर्ण और ज़िम्मेदारी भरा काम है. जीवन में बहुत सारे उद्देश्य हैं. डेस्टिनी और किस्मत दोनों एक दूसरे के बहुत करीब हैं लेकिन अलग हैं. यदि भाग्य में कोई चीज़ लिखी है लेकिन उसे पाने के लिए आप कर्म ही नहीं करेंगे तो उसका कोई मतलब नहीं. मैं पहाड़ी इलाके से नहीं आती हूँ. हमारे हरयाणा के लोग तो पहाड़ देख के बहुत डरते हैं. इतनी ऊंचाई में और ठंडे मौसम में मेरे लिए सांस ले पाना भी मुश्किल था लेकिन मैंने अपनी इच्छा शक्ति से उसे हासिल किया इसलिए ताजिंदगी खुद को पर्यावरण से जुड़ा हुआ देखना चाहती हूँ और इसके बचाव के लिए काम करती रहूंगी. क्यूंकि प्रकृति को मैंने भगवान् माना है और अगर आप इसकी इज्ज़त करेंगे तो ये आपकी इज्ज़त करेगी वरना तमाम सुरक्षा उपकरणों के साथ भी आप अपना बचाव नहीं कर पाएँगे.
सोमवार, 23 नवंबर 2009
समाजवादी चिंतक राम सेवक यादव की पुण्य तिथि पर नमन !!
जन्म - २ जुलाई १९२६
देहावसान - २२ नवम्बर १९७४
जन्म-स्थल- ग्राम- ताला रुकुनुद्दीनपुर, पत्रालय- थलवारा, तहसील हैदरगढ, जनपद, बराबंकी (उ०प्र०)
पिता- राम गुलाम यादव
माता- ननका देवी यादव
शिक्षा- हाई स्कूल- १९४५, राजकीय इण्टर कालेज, बाराबंकी इण्टरमीडिएट- १९४७, कान्य कुब्ज कालेज, लखनऊ स्नातक- १९४९, लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ विधिस्नातक- १९५१, लखनऊ विश्वविद्यालय
व्यवसाय - १९५२ ई० से १९५६ तक वकालत
-:राजनैतिक-वृत्त :-
१९४६-१९५१ - काग्रेस से सम्बद्ध
१९४६-१९५१ - जनपदीय प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के प्रभारी
१९५२-१९५६ - प्रदेशीय प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के संयुक्त सचिव
१९५२-१९५६ - प्रदेशीय प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के संयुक्त सचिव
१९५७-१९६२ - लोकसभा सद्स्य (बाराबंकी)
१९६२-१९६७ - लोकसभा सद्स्य (दूसरी बार)
१९६७-१९७१ - लोकसभा सद्स्य (तीसरी बार)
- अखिल भारतीय संयुक्त सोद्गालिस्ट पार्टी के महासचिव
१९७४ - उत्तर प्रदेश विधान सभा सदस्य (रुदौली)
- उपनेता विपक्ष एवं अध्यक्ष लोक लेखा समिति
-: सामाजिक अवदान :-
१. सामाजिक बुराईयों के प्रति सतत संघर्ष
२. समाज के असहाय व दुर्बल वर्ग के विशेष हित साधक उत्थान के लिए सतत प्रयत्नशील
३. समाजवादी समतामूलक समाज रचना के लिए आजीवन समर्पण
जन नायक समाजवादी चिंतक स्वर्गीय राम सेवक यादव जी की पुण्यतिथि पर पुनीत स्मरण !!
बुधवार, 11 नवंबर 2009
दिनेशलाल यादव निरहुआ - सफलता के आकाश पर नई उडान
दिनेशलाल यादव बताते हुए स्पष्ट करते है ''मैं काफी समय से इस बात का प्रतीक्षा में था कि कंपनी मुझे अपने किसी हिन्दी अलबम के लिए गाने का प्रस्ताव देगी और इस नए अलबम से मुझे यह अवसर मिल गया है । हिन्दी में गाने की मेरी इच्छा इसलिए भी थी कि मेरे जो प्रशंसक भोजपुरी ठीक से नहीं समझ पाते वे हिन्दी में सुन कर समझ सकें । चूंकि देश - विदेश में मेरे लाखों करोडों प्रशंसकों को मेरी गायकी और शैली का एक खास अंदाज पसंद आता है, इसीलिए मैंने हिन्दी में गाते समय भी अपना वही अंदाज और वही शैली प्रयोग की है । मुझे मालूम है कि हिन्दी में एक से एक योग्य और मंजे गायक मौजूद है और उनके बीच अपनी जगह बनाना आसान काम नहीं है किन्तु मैं कोशिश तो कर ही सकता हूं । ''अलबम 'हे अम्बे तेरा प्यार चाहिए' नवरात्री के अवसर पर जारी एक सामयिक अलबम है । इसीलिए अलबम के सभी नौ गानों का वीडियो भी बनाया जा रहा है ।
इधर अभिनेता के रुप में निरहुआ की पारी हर नई फिल्म के साथ मजबूत होती जा रही है । हाल ही में प्रदर्शित निरहुआ की चार नई फिल्मों 'निरहुआ चलल ससुराल', 'लागल रहा राजा जी ''विधाता 'और' खिलाडी न.1' ने एक साथ प्रदर्शन के सौ दिन पूरे किए है और ये भोजपुरी सिनेमा में किसी भी अभिनेता का नया रेकार्ड है। ''मेरी अभिनेता के रुप में अब तक 15 फिल्में प्रदर्शित हो चुकी हैं और आम दर्शक मुझे एक आदमी के पात्र में ही देखना पसंद करते ह । इसीलिए आज भी मैं अपनी मिट्टी और अपनी जमीन से जुडे पात्रों को ही निभा रहा हूं । यह सिलसिला पहली फिल्म 'चलत मुसाफिर मोह लियो रे' से ही चल रहा है । दूसरी फिल्म 'हो गइलबा प्यार ओढनिया वाली से' जब हिट हुई तब भी मैंने अपना ट्रेक नहीं बदला। आज मैं अभिनेता के रुप में सफलता की मंजिले तय करते समय भी इस संबंध में बहुत सतर्क और सावधान हूं । सफलता और लोकप्रियता के आकाश को छू लेने के बावजूद अपने पांवों को जमीन से जोडे रखा हैं । एक - एक फिल्म बहुत ही सोच समझ कर लेता हूं । अब तक जो भी भूमिकाएं की हैं उनमें से किसी को भी दोहराया नहीं है । अब तक जितनी फिल्में की हैं उनसे चार गुना अधिक फिल्में छोडी हैं । मैं अभिनय के प्रति पूरी तरह समर्पित हूं ।''
वास्तव में अभिनय के प्रति पूर्ण समर्पण की यह भावना हाल ही में उस समय भी सामने आ गई जब नई फिल्म ' नरसंहार ' के लिए निरहुआ ने अपने सिर के बालों का बलिदान दे दिया । इस फिल्म की भूमिका को सशक्त स्वाभाविक और जीवंत बनाने के लिए अपने सुन्दर और लंबे बालों को कटवा दिया ।'' इस फिल्म के लिए मुझे दस फिल्में छोडना पड । क्योंकि बाल कटाने के बाद मैं ' नरसंहार ' के अलावा अन्य किसी फिल्म की शूटिंग नहीं कर सकता था ।' नरसंहार' यू पी -बिहार में आज के दौर की एक जवलन्त समस्या पर आधारित है । हर दिन कहीं न कहीं सामूहिक हत्याएं होती रहती हैं । इसी जवलन्त समस्या की पृष्ठभूमि में ' नरसंहार 'की कहानी लिखी गई है । फिल्म के हीरो के संपूर्ण परिवार की हत्या कर दी जाती है । किस्मत से हीरो बुरी तरह घायल हो कर भी बच जाता है । उसी दशा में सिर मुंडवा कर वह अपने प्रियजनों का दाहसंस्कार करता है और इसी दाह संस्कार की ज्वाला के साथ ही साथ परिवार के हत्यारों से बदला भी लेता है ।' नरसंहार 'मेरी अब तक प्रदर्शित सभी फिल्मों बिल्कुल अलग एक एक्शन इमोशन से भरपूर विचारोंत्तेजक फिल्म है ।''
निरहुआ की शीघ्र आने वाली फिल्में ' रंग दे बसंती चोला ' और ' 'हम है बाहुबली 'ह । इनके अलावा ' निरहुआ तांगेवाला ', 'चलनी के चालल दुल्हा' , 'हो गई नी दीवाना तोहरे प्यार में ', ' दीवाना ', 'प्रतिज्ञा' और ' अमर -अकबर - अंथनी 'सेट पर निर्माणाधीन है ।' चलनी के चालल दुल्हा 'के साथ निरहुआ ने निर्माता के रुप में भी नयी उडान भर ली है और इस फिल्म के निर्माण के साथ अपने छोटे भाई प्रवेशलाल यादव को भी अभिनेता बना दिया है ।'' अपनी निर्माण संस्था 'निरहुआ एंटरटेनमेंट 'को आरंभ करने के पीछे मेरा एक ही लक्ष्य है कि मैं ऐसी अच्छी और स्तरीय फिल्में बनाऊं जो भोजपुरी सिनेमा को और उं'चा स्तर दे सकें । हमारी कंपनी फिल्म निर्माण के साथ म्यूजिक अलबम भी बनाएगी । अभी तो भोजपुरी फिल्मों की ही योजना है । भविष्य में कंपनी हिन्दी फिल्मों का निर्माण भी करेगी । किन्तु अभी कुछ निश्चित नहीं है । क्योंकि अभी तो कंपनी ने निर्माण के पथ पर अपना पहला ही कदम रखा है । यह कदम भविष्य में कंपनी को कहां ले जाएंगे अभी कहना संभव नहीं है ।''आजकल निरहुआ के अभिनय की उडान दक्षिण भारतीय सिनेमा के आकाश तक पहुंच गई है । वे दक्षिण भारत में बन रही भोजपुरी फिल्म के लिए डांस और एक्शन की विशेष ट्रेंनिग ले रहे ह । उनकी दो फिल्में जो हैदराबाद में शूट हुई है वहीं तेलगू में डब होकर चल रही है ।
इधर निरहुआ ने बिहार के बाढ पीडित लोगों के लिए अपनी एक फिल्म का पारिश्रमिक 50 लाख रुपए दान देने की घोषणा की है । शीघ्र ही निरहुआ अपनी एक फिल्म के प्रीमियर हेतु बिहार जाएंगे और अपने हाथों से बाढ पीडितों को इस राशि से आवश्यक्ता अनुसार सहायता देंगे । निरहुआ का यह प्रयास इस बात का प्रमाण है कि वे केवल सिनेमा के पर्दे पर ही नहीं बल्कि समाज के कैनवस पर भी एक सच्चे हीरो हैं ।
साभार प्रस्तुतिः राजकुमार/ http://www.khabarexpress.com/
रविवार, 8 नवंबर 2009
नवोदित रचनाकार : सुनीता यादव
रविवार, 1 नवंबर 2009
पंचायत राज पर कार्य हेतु लोकनाथ यादव सम्मानित
रविवार, 18 अक्टूबर 2009
श्री कृष्ण से जुड़ी है गोवर्धन पूजा
शनिवार, 17 अक्टूबर 2009
गुरुवार, 8 अक्टूबर 2009
इंसानियत को खून से सींचते राम किशोर यादव
राम किशोर यादव के इस अथक प्रयास से फैजाबाद जिला अस्पताल का ब्लडबैंक अब प्रदेश के उन ब्लडबैंकों में शुमार किया जाता है, जहां कभी रक्त की कमी नहीं पड़ती। राम किशोर यादव अब तक करीब 1500 यूनिट रक्तदान करवा चुके हैं। उनसे प्रेरित रक्तदाताओं में फैजाबाद में मंडलायुक्त रहे आईएएस अधिकारी अरूण कुमार सिन्हा, डीएम रहे आलोक कुमार, दीपक कुमार, आमोद कुमार, एसएसपी रहे प्रशान्त कुमार तथा कई अन्य प्रशासनिक अधिकरी शामिल हैं। राम किशोर यादव ने फैजाबाद व आसपास के जिलों में करीब दस हजार युवाओं को प्रेरित कर रखा है जो किसी भी वक्त रक्तदान करने को तैयार रहते हैं। उनके रजिस्टर में करीब एक हजार स्वैच्छिक रक्तदाताओं के नाम, पते व ब्लडग्रुप दर्ज है, जिन्हें जरूरत के मुताबिक याद किया जाता है।
राम किशोर यादव की दिलीख्वाहिश है कि उनके अभियान को गति देने के लिए कोई मुख्यमंत्री फैजाबाद तशरीफ लाए, जिन्हें वह उनके वजन बराबर रक्त से तौलना चाहते हैं। इसके लिए उन्होंने चार मुख्यमंत्रियों को पत्र भी लिखे, पर जवाब नहीं आया। खैर, उनका हौसला बरकरार है। वह ऐसी व्यवस्था चाहते हैं, जिससे फैजाबाद जिला अन्य जिलों के ब्लडबैंकों को रक्त की आपूर्ति कर सके। फिलहाल वह लखनऊ के एसजीपीजीआई, चिकित्सा विश्वविद्यालय तथा राम मनोहर लोहिया अस्पताल के साथ समन्वय स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं, ताकि उनकी अलख दूर-दूर तक रोशनी बिखेर सके।
यदुकुल की तरफ से राम किशोर यादव को शुभकामनायें कि वे अपने नेक कार्य में सफल हों।
मंगलवार, 6 अक्टूबर 2009
राजपाल यादव ने खरीदी टी-10 गली क्रिकेट टीम
गुरुवार, 1 अक्टूबर 2009
राजपाल यादव: दर्शकों के चहेते हास्य कलाकार
जन्मस्थान- कुलरा, उत्तर प्रदेश
कद- 5 फुट 3 इंच
छोटा कद, हंसमुख व्यक्तित्व और जबरदस्त अभिनय राजपाल यादव की पहचान है। बीते कुछ वर्षो में राजपाल ने स्वाभाविक अभिनय प्रतिभा के बल पर दर्शकों के चहेते हास्य कलाकार के रूप में अपनी पहचान बनायी है। आलम तो यह है कि किसी फिल्म में राजपाल यादव की मौजूदगी भी दर्शकों को सिनेमाघरों तक आकर्षित करने की क्षमता रखती है। समकालीन हिन्दी सिनेमा परिप्रेक्ष्य में जहाँ नायक और हास्य कलाकारों के बीच के दूरियां मिट रही हैं वहीं, राजपाल यादव ने हास्य अभिनेता के अस्तित्व को बनाए रखा है। जब मशहूर और दिग्गज निर्देशक प्रियदर्शन के साथ राजपाल काम करते हैं तो उनकी कॉमिक टाइमिंग और भी निखर कर आती है। हंगामा,भूलभूलैया,ढोल,9 चुप चुप के जैसी फिल्मों में निर्देशक-अभिनेता की इस जोड़ी ने मिलकर दर्शकों को खूब हंसाया। हास्य-रस से भरपूर भूमिकाओं के साथ-साथ गंभीर भूमिकाओं में भी राजपाल अपने अभिनय के रंग भरते रहे हैं। मैं मेरी पत्नी और वो में एक कुंठित पति की भूमिका को उन्होंने जितनी संजीदगी से जीया ,उतनी ही संवेदनशीलता के साथ मौलिक घटना पर आधारित अंडरट्रायल में अपनी पुत्रियों के साथ कुकर्म करने का आरोप झेल रहे एक अपराधी पिता की भूमिका को उन्होंने जीवंत किया। दरअसल, राजपाल यादव उन अभिनेताओं की सूची में शुमार हैं जो हर रस की भूमिकाओं में स्वयं को ढाल कर सिनेप्रेमियों की प्रशंसा बटोरने की क्षमता रखते है। अब, तो राजपाल को आकर्षक व्यक्तित्व वाले नायकों के समकक्ष की भूमिकाएं भी सौंपी जाने लगी हैं। जहां ढोल के चार नायकों में राजपाल यादव एक थे वहीं रामा रामा क्या है ड्रामा में भी उनकी मुख्य भूमिका थी। दरअसल, राजपाल यादव ने यह साबित कर दिया है कि अभिनय प्रतिभा और दर्शकों का मनोरंजन कर सकने की क्षमता ही हिन्दी फिल्मों में किसी कलाकार विशेष की सफलता का आधार होता है न कि मात्र आकर्षक व्यक्तित्व।
करियर की मुख्य फिल्में
2000-जंगल-सिप्पा
2001-प्यार तूने क्या किया-रामपाल यादव
2001-चांदनी बार-इकबाल चमड़ी
2001-यह जिंदगी का सफर-दादा
2002-कोई मेरे दिल से पूछे-राजा नायडू
2002-तुमको न भूल पाएंगे-लल्लन
2002-कंपनी-जोसेफ
2002-लाल सलाम-धत्तू
2002-मैंने दिल तुझको दिया-मुन्ना
2002- चोर मचाए शोर-छोटू
2002-रोड-भंवर सिंह
2003-एक और एक ग्यारह-छोटू
2003-हासिल-छोटकू
2003-हंगामा-राजा
2003-मैं माधुरी दीक्षित बनना चाहती हूं-राजेश्वर सिंह
2003-कल हो न हो-गुरू
2004-लव इन नेपाल-बंटी गाइड
2004-आन-आप्टे
2004-मुझसे शादी करोगी-राज पुरोहित
2004-टार्जन:द वंडर कार-हवलदार सीताराम
2004-वास्तु शास्त्र-राजपाल
2005-वक्त-लक्ष्मण
2005-क्या कूल हैं हम-उमा शंकर त्रिपाठी
2005-नेताजी सुभाष चंद्र बोस-भगत राम तलवार
2005-पहेली-भोजा
2005-मैंने प्यार क्यों किया?-थापा
2005-जेम्स-टोनी
2005-गरम मसाला-बब्बन
2005-शादी नंबर वन-मिस्टर वाइ
2006-अपना सपना मनी-मनी-माथा प्रसाद
2006-मालामाल विकली-बाज बहादुर
2006-शादी से पहले-शायर कानपुरी
2006-डरना जरूरी है-इंश्योरेंस सेल्समैन
2006-फिर हेरा फेरी-पप्पू
2006-चुप चपु के-बंदया
2006-लेडिज टेलर-चंदर
2006-भागमभाग-गुलाम लखन सिंह
2007-अनवर-गोपीनाथ
2007-अंडरट्रायल-सागर हुसैन
2007-पार्टनर-छोटा डॉन
2007-रामगोपाल वर्मा की आग-रंभाभाई
2007-ढोल-मारू दामदेरे
2007-गो-जगताप तिवारी
2007-भूल भूलैया-छोटे पंडित
2008-रामा रामा क्या है ड्रामा
2008-क्रेजी फोर-गंगाधर
2008-भूतनाथ-एंथोनी
2008-हंसते हंसते-सनी
2008-कहानी गुडि़या की-तौफीक
आने वाली फिल्में- सी कंपनी, बिल्लू बार्बर, बंदा ये बिंदास है।
सोमवार, 28 सितंबर 2009
शुक्रवार, 25 सितंबर 2009
सुरेखा यादव के जज्बे को सलाम !!
बुधवार, 16 सितंबर 2009
लोक संस्कृति की प्रतीक मड़ई
पहले अंक में कुल 35 लेख थे जिनमें से 31 लेख रावत नाच पर केंद्रित थे। आरंभ में रावत नाच का सांगोपांग निरूपण करना ही ‘मड़ई‘ का उद्देश्य था जो कि आगामी कुछ वर्षों तक बना रहा। फिर जल्दी ही इस पत्रिका ने स्वयं को आश्चर्यजनक गहराई और विस्तार देना आरंभ किया। यदुवंशियों की संस्कृति के ‘लोक पक्ष‘ का परिचय देने के बाद छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति के विभिन्न पक्षों को उद्घाटित करते हुए ‘मड़ई‘ पूरे देश की लोक संस्कृति संबंधी ज्ञान का कोश बन गयी। देश के विभिन्न लोकांचलों के लोक साहित्य, लोक कला और लोक संस्कृति पर अधिकारी विद्वानों और लेखकों के लिखे सरस और तथ्यपूर्ण लेखों का हिंदी में प्रकाशन कर ‘मड़ई‘ने सामासिक लोक संस्कृति का विकास किया है और हर तरफ से राष्ट्र एवं राष्ट्रभाषा की अनूठी उपासना की है।
आज का समय एक ऐसा समय है जब लोक ही लोक के विरूद्ध युद्धरत है। लोक मानस में ‘प्रेय‘ निरंतर ‘श्रेय‘ को विस्थापित कर रहा है। ‘लोकतत्व‘, ‘लोकप्रिय‘ के द्वारा प्रतिदिन नष्ट और पराभूत किया जा रहा है। ‘लोक-समाज‘ का स्थान ‘जन-समाज‘ ने लगभग ले लिया है। जन-समाज की विडंबनाओं का चित्रण करते हुए टाॅक्केविले ने लिखा है- ‘सभी समान और सदृश्य असंख्य व्यक्तियों की एक ऐसी भीड़ जो छोटे और तुच्छ आनंद की प्राप्ति के लिये सतत प्रयासरत है..... इनमें से प्रत्येक एक-दूसरे से अलग रहता है और सभी एक-दूसरे के भाग्य से अनभिज्ञ होते हैं। उनके समस्त मानव संसार की कल्पना उनकी संतानों और निजी मित्रों तक सीमित होती है। जहां तक अन्य नागरिकों का प्रश्न है वे उनके नजदीक अवश्य हैं पर उन्हें जानते नहीं, वे परस्पर स्पर्श करते हैं पर एक-दूसरे के प्रति संवेदनशील नहीं हैं।
वैश्वीकरण का हिरण्याक्ष पृथ्वी का अपहरण कर विष्ठा के परकोटे के भीतर उसे रखने हेतु लिये जा रहा है। ‘मड़ई‘ इस अपहृत होती हुई पृथ्वी के लोक जीवन के नैसर्गिक-सामाजिक सौंदर्य की गाथा है। वह वराह-अवतार को संभव करने वाला मुकम्मल आह्नान भले न हो पर एक पवित्र और सुंदर अभिलाषा तो जरूर है। हमारी स्मृतियों में तो नहीं, पर ‘मड़ई‘ जैसी विरल पत्रिकाओं में यह लोक जीवन दर्ज रहेगा। ऐसा इसलिए कि लोकसंस्कृति से दूर जाना ही स्मृतिविहीन होना है। ‘मड़ई‘ के ‘स्मारिका‘ होने का शायद यही संदर्भ है। मड़ई सर्वथा निःशुल्क वितरण के लिए है। इसका मूल्य आंका नहीं जा सकता।
(साभार : इण्डिया न्यूज, 12-18 सितम्बर 2009)
सोमवार, 14 सितंबर 2009
हिन्दी में है दम
संसद में भी मुलायम सिंह का हिन्दी प्रेम जाहिर होता रहता है। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते होंगे जब 15 जुलाई, 2009 को मुलायम सिंह ने लोकसभा मे हिन्दी के पक्ष में ऐसा माहौल बनाया कि कई गैर हिन्दी क्षेत्रों के सांसदों ने भी हिन्दी का दामन थाम लिया। लोकसभा में प्रश्नकाल के दौरान पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने जब लखनऊ और नोएडा में पेड़ों की अंधाधुंध कटाई से संबंधित मुलायम सिंह के एक सवाल का जवाब अंग्रेजी में देना शुरू किया तो मुलायम सिंह ने उनसे कहा, ‘जयराम जी, आपका नाम भी हिन्दी वाला है और आप हिन्दी जानते हैं। सवाल का जवाब हिंदी में दीजिए। यह लंदन नहीं लोकसभा है।‘
अभी हाल ही में दिल्ली में जलवायु परिवर्तन से जुड़े विषय पर एक अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में भी मुलायम सिंह के हिन्दी प्रेम का असर दिखा, यद्यपि इसमें स्वयं मुलायम सिंह शामिल नहीं थे। इस संगोष्ठी में चूंकि दक्षिण पूर्व एशियाई मुल्कों के प्रतिनिधि भी थे लिहाजा सम्मेलन की स्वाभाविक भाषा अंग्रेजी ही थी लेकिन केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने अचानक हिन्दी में बोलना शुरू कर दिया तो आयोजक अचकचा गए। उन्हेंने अनुरोध किया कि मंत्री जी अंगे्रजी में बोलें, इस पर जयराम ने हंसते हुए खुलासा किया कि जब से मुलायम सिंह यादव ने संसद में उन्हें हिन्दी में न बोलने के लिए टोका है तब से वह हर जगह हिन्दी में ही बोलते हैं ताकि मुलायम सिंह या उन जैसा कोई हिन्दी प्रेमी नाराज न हो।..........अब तो मुलायम सिंह का हिन्दी प्रेम मानना ही पड़ेगा। केन्द्र सरकार उन्हें भले ही नाराज कर दे पर हिन्दी के नाम पर मुलायम सिंह को नाराज करना शायद इतना आसान नहीं है।
शनिवार, 12 सितंबर 2009
स्पोर्ट्स के क्षेत्र में नाम कमाते यदुवंश
गुरुवार, 3 सितंबर 2009
अब डिम्पल यादव !!
बुधवार, 2 सितंबर 2009
यादवी राजनीति बनाम मुलायम-लालू
लालू प्रसाद यादव का हाल भी बहुत अच्छा नहीं है। कभी लोकसभा में 22 सीटें लाने वाले लालू यादव इस बार केवल 4 सीटें ही जीत पाये। उन्हें कोई मंत्रालय भी नहीं मिला, जिसकी तड़प अब भी बरकरार है। पर लालू यादव के साथ सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे मीडिया-फेस हैं और गाहे-बगाहे चर्चा में बने रहते हैं। फिलहाल उनकी समस्या यह है कि उन्हें लोसभा में फ्रंट रो की सीट छोड़नी पड़ेगी और उनकी पाटी्र के आफिस के लिए फस्र्ट फ्लोर से हटाकर थर्ड फ्लोर पर जगह दिए जाने की संभावना है, क्योंकि लोकसभा का नियम है कि यदि 10 से कम सीटें किसी पार्टी की आती हैं तो उस पार्टी को कार्यालय के लिए जगह थर्ड फ्लोर पर ही मिलती है। फिलहाल लालू प्रसाद इस मुसीबत से बचने का जुगाड़ ढूढ़ने में लगे हुए हैं। काश ऐसी ही मेहनत वे जनता के बीच जाकर करते तो शायद यह दिन उन्हें न देखना पड़ता।
मंगलवार, 1 सितंबर 2009
शरद यादव दूसरी बार बने जद (यू) के राष्ट्रीय अध्यक्ष
सोमवार, 31 अगस्त 2009
प्रियंका यादव ने तैराकी में जीते पांच स्वर्ण
प्रियंका के पिता जयलाल यादव ग्रामीण किसान हैं। खेती बस इतनी है कि परिवार का पेट ही भर पाता है। आय का कोई साधन नहीं है। जब से प्रियंका यादव ने होश संभाला तब से गाँव के पोखर में ही नहाने जाती थी। धीरे-धीरे पानी में उतरी और तैरना भी आ गया। पहली बार तो कुछ खास नहीं किया। पर 2004 के बाद पदक जीतने लगी। प्रियंका यादव बताती है कि ‘अब मैं अपने इवेंटों में चैंपियन हूँ। गाँव में न कोई कोच है और न ही अभ्यास का तय शेड्यूंल बस, सीनियर तैराक भूपेन्द्र उपाध्याय जो बताते रहे वही वह करती गई।‘ साल भर पहले प्रियंका ने भारतीय खेल प्राधिकरण के कैंप के लिए ट्रायल दिया। उसका चयन भी हो गया। प्रियंका बताती है कि अब वह अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पदक जीतकर दिखाएगी।
शुक्रवार, 28 अगस्त 2009
80 साल के हुए राजेंद्र यादव
मंगलवार, 25 अगस्त 2009
"अनंता" पत्रिका में "यदुकुल" की चर्चा
शनिवार, 22 अगस्त 2009
विदेशी राजनीति में भी छाये यदुवंशी
सशक्त यदुवंशी राजनेता: मुलायम सिंह यादव
शुक्रवार, 21 अगस्त 2009
लोकप्रिय यदुवंशी राजनेता: लालू प्रसाद यादव
बुधवार, 19 अगस्त 2009
प्रथम यदुवंशी पर डाक टिकट : राम सेवक यादव
प्रथम यदुवंशी मुख्यमंत्री :चौधरी ब्रह्म प्रकाश
सोमवार, 17 अगस्त 2009
सामाजिक न्याय के पैरोकार: बी. पी. मंडल
रविवार, 16 अगस्त 2009
राजनीति में यदुवंशी- अब तक 9 यादव मुख्यमंत्री
शनिवार, 15 अगस्त 2009
पराक्रमी एवं स्वतंत्रता प्रिय जाति यादव
यदोर्वंशः नरः श्रुत्वा सर्व पापैः प्रमुच्यते।
चौरी-चौरा काण्ड से भला कौन अनजान होगा। इस काण्ड के बाद ही महात्मा गाँंधी ने असहयोग आन्दोलन वापस लेने की घोषणा की थी। कम ही लोग जानते होंगे कि अंग्रेजी जुल्म से आजिज आकर गोरखपुर में चैरी-चैरा थाने में आग लगाने वालों का नेतृत्व भगवान यादव ने किया था। इसी प्रकार भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान गाजीपुर के थाना सादात के पास स्थित मालगोदाम से अनाज छीनकर गरीबों में बांँटने वाले दल का नेतृत्व करने वाले अलगू यादव अंग्रेज दरोगा की गोलियों के शिकार हुये और बाद में उस दरोगा को घोड़े से गिराकर बद्री यादव, बदन सिंह इत्यादि यादवों ने मार गिराया। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने जब ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा‘ का नारा दिया तो तमाम पराक्रमी यादव उनकी आई0एन0एस0 सेना में शामिल होने के लिए तत्पर हो उठे। रेवाड़ी के राव तेज सिंह तो नेताजी के दाहिने हाथ रहे और 28 अंग्रेजों को मात्र अपनी कुल्हाड़ी से मारकर यादवी पराक्रम का परिचय दिया। आई0एन0ए0 का सर्वोच्च सैनिक सम्मान ‘शहीद-ए-भारत‘ नायक मौलड़ सिंह यादव को हरि सिंह यादव को ‘शेर-ए-हिन्द‘ सम्मान और कर्नल राम स्वरूप यादव को ‘सरदार-ए-जंग‘ सम्मान से सम्मानित किया गया। नेता जी के व्यक्तिगत सहयोगी रहे कैप्टन उदय सिंह आजादी पश्चात दिल्ली में असिस्टेंट पुलिस कमिश्नर बने एवं कई बार गणतंत्र परेड में पुलिस बल का नेतृत्व किया।
आजादी के बाद का इतिहास भी यादव सैन्य अधिकारियों तथा सैनिकों की वीरता एवं शहादत से भरा पड़ा है। फिर चाहे वह सन् 1947-48 का कबाइली युद्ध, 1955 का गोवा मुक्ति युद्ध, 1962 का भारत-चीन युद्ध हो अथवा 1965 व 1971 का भारत-पाक युद्ध। भारत-चीन युद्ध के दौरान 18,000 फुट की ऊंचाई पर स्थित चिशूल की रक्षा में तैनात कुमायँू रेजीमेन्ट के मेजर शैतान सिंह यादव ने चीनियों के छक्के छुडा़ दिये। गौरतलब है कि चिशूल के युद्व में 114 यादव जवान शहीद हुए थे। चिशूल की हवाई पट्टी के पास एक द्वार पर लिखा शब्द ‘वीर अहीर‘ यादवों के गौरव में वृद्धि करता है। 1971 के युद्ध में प्रथम शहीद बी0एस0एफ0 कमाण्डर सुखबीर सिंह यादव की वीरता को कौन भुला पायेगा। मातादीन यादव (जार्ज क्रास मेडल), नामदेव यादव (विक्टोरिया क्रास विजेता), राव उमराव सिंह(द्वितीय विश्व युद्ध में उत्कृष्ट प्रदर्शन हेतु विक्टोरिया क्रास), हवलदार सिंह यादव (विक्टोरिया क्रास विजेता), प्राणसुख यादव (आंग्ल सिख युद्ध में सैन्य कमाण्डर), मेजर शैतान सिंह यादव (मरणोपरान्त परमवीर चक्र), कैप्टन राजकुमार यादव (वीर चक्र, 1962 का युद्ध), बभ्रुबाहन यादव (महावीर चक्र, 1971 का युद्ध), ब्रिगेडियर राय सिंह यादव (महावीर चक्र), चमन सिंह यादव (महावीर चक्र विजेता), ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह यादव (1999 में कारगिल युद्ध में उत्कृष्टम प्रदर्शन के चलते सबसे कम उम्र में 19 वर्ष की आयु में सर्वोच्च सैन्य पदक परमवीर चक्र विजेता) जैसे न जाने कितने यादव जंाबांजों की सूची शौर्य-पराक्रम से भरी पड़ी है। कारगिल युद्ध के दौरान अकेले 91 यादव जवान शहादत को प्राप्त हुए। गाजियाबाद के कोतवाल रहे ध्रुवलाल यादव ने कुख्यात आतंकी मसूद अजगर को नवम्बर 1994 में सहारनपुर से गिरतार कर कई अमेरिकी व ब्रिटिश बंधकों को मुक्त कराया था। उन्हें तीन बार राष्ट्रपति पुरस्कार (एक बार मरणोपरान्त) मिला। ब्रिगेडियर वीरेन्द्र सिंह यादव ने नामीबिया में संयुक्त राष्ट्र शांति सेना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पूर्व सांसद चैधरी हरमोहन सिंह यादव को 1984 के दंगों में सिखों की हिफाजत हेतु असैनिक क्षेत्र के सम्मान ‘शौर्य चक्र‘ (1991) से सम्मानित किया जा चुका है। संसद हमले में मरणोपरान्त अशोक चक्र से नवाजे गये जगदीश प्रसाद यादव, विजय बहादुर सिंह यादव अक्षरधाम मंदिर पर हमले के दौरान आपरेशन लश आउट के कार्यकारी प्रधान कमाण्डो सुरेश यादव तो मुंबई हमले के दौरान आर0पी0एफ0 के जिल्लू यादव तथा होटल ताज आपरेशन के जाँबाज गौरी शंकर यादव की वीरता यदुवंशियों का सीना गर्व से चौडा कर देती है। वाकई यादव इतिहास तमाम जांबाजों की वीरताओं से भरा पड़ा है !!